आत्मत्रण
- Books Name
- Sparsh and Sanchayan Bhag-2
- Publication
- Hindi ki pathshala
- Course
- CBSE Class 10
- Subject
- Hindi
पाठ-9 आत्मत्राण
रवींद्रनाथ ठाकुर (1861-1941)
कवि -परिचय
6 मई 1861 को बंगाल के एक संपन्न परिवार में जन्मे रवींद्रनाथ ठाकुर नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय हैं। इनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। छोटी उम्र में ही स्वाध्याय से अनेक विषयों का ज्ञान अर्जित कर लिया। बैरिस्ट्री पढ़ने के लिए विदेश भेजे गए लेकिन बिना परीक्षा दिए ही लौट आए।
रवींद्रनाथ की रचनाओं में लोक-संस्कृति का स्वर प्रमुख रूप से मुखरित होता है। प्रकृति से इन्हें गहरा लगाव था। इन्होंने लगभग एक हज़ार कविताएँ और दो . हज़ार गीत लिखे हैं। चित्रकला, संगीत और भावनृत्य के प्रति इनके विशेष अनुराग के कारण रवींद्र संगीत नाम की एक अलग धारा का ही सूत्रपात हो गया। इन्होंने शांति निकेतन नाम की एक शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्था की स्थापना की। यह अपनी तरह का अनूठा संस्थान माना जाता है।
अपनी काव्य कृति गीतांजलि के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए रवींद्रनाथ ठाकुर की अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं-नैवैद्य, पूरबी, बलाका, क्षणिका, चित्र और सांध्यगीत, काबुलीवाला और सैकड़ों अन्य कहानियाँ; उपन्यास- गोरा, घरे बाइरे और रवींद्र के निबंध।
पाठ -प्रवेश
तैरना चाहने वाले को पानी में कोई उतार तो सकता है, उसके आस-पास भी बना रह सकता है, मगर तैरना चाहने वाला जब स्वयं हाथ-पाँव चलाता है तभी तैराक बन पाता है। परीक्षा देने जाने वाला जाते समय बड़ों से आशीर्वाद की कामना करता ही है, बड़े आशीर्वाद देते भी हैं, लेकिन परीक्षा तो उसे स्वयं ही देनी होती है। इसी तरह जब दो पहलवान कुश्ती लड़ते हैं तब उनका उत्साह तो सभी दर्शक बढ़ाते हैं, इससे उनका मनोबल बढ़ता है, मगर कुश्ती तो उन्हें खुद ही लड़नी पड़ती है।
प्रस्तुत पाठ में कविगुरु मानते हैं कि प्रभु में सब कुछ संभव कर देने की सामर्थ्य है, फिर भी वह यह कतई नहीं चाहते कि वही सब कुछ कर दें। कवि कामना करता है कि किसी भी आपद-विपद में, किसी भी द्वंद्व में सफल होने के लिए संघर्ष वह स्वयं करे, प्रभु को कुछ न करना पड़े। फिर आखिर वह अपने प्रभु से चाहते क्या हैं?
रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रस्तुत कविता का बंगला से हिंदी में अनुवाद श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने किया है। द्विवेदी जी का हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में अपूर्व योगदान है। यह अनुवाद बताता है कि अनुवाद कैसे मूल रचना की ‘आत्मा’ को अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम है।
कविता
विपदाओं से मुझे बचाओ,यह मेरी प्रार्थना नहीं
केवल इतना हो(करुणामय)
कभी न विपदा में पाऊँ भय।
दु:ख-ताप से व्यथित चित्त’ को न दो सांत्वना नहीं सही
पर इतना होवे (करुणामय)
दुख को मैं कर सकूँ सदा जय।
कोई कहीं सहायक न मिले तो
अपना बल पौरुष न हिले;
हानि उठानी पड़े जगत् में लाभ अगर वंचना रही
तो भी मन में ना मानूँ क्षय ।।
मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं
बस इतना होवे (करुणायम) तरने हो शक्ति अनामय।
मेरा भार अगर लघु करके न दो सांत्वना नहीं सही।
केवल इतना रखना अनुनय_
वहन कर सकूँ इसको निर्भय।
नत शिर होकर सुख के दिन में
तव मुख पहचानूँ छिन छिन में।
दु:ख-रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही
उस दिन ऐसा हो करुणामय,
तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय ।।
शब्दार्थ
- विपदा- विपत्ति/मुसीबत
- करुणामय - दूसरों पर दया करने वाला
- दुःख ताप- कष्ट की पीड़ा दुखी
- व्यथित- दुखी
- सहायक- मददगार
- पौरुष- पराक्रम
- क्षय – नाश
- त्राण-भय निवारण / बचाव / आश्रय
- अनुदिन- प्रतिदिन
- अनामय- रोग रहित/सस्वस्थ्
- सांत्वना- ढाँढ़स बँधाना, तसल्ली
- अनुनय- विनय
- नत शिर - सिर झुकाकर
- दुःख रात्रि- दुख से भरी रात
- वंचना – धोखा देना/छलना
- निखिल -संपूर्ण
- संशय- संदेह
कविता का सार
प्रस्तुत कविता महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा बांग्ला में लिखी गई थी। इसका हिन्दी में अनुवाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने किया। प्रस्तुत कविता में कवि ने इस बात का वर्णन किया है कि ईश्वर केवल उनकी सहायता करते हैं, जो खुद अपनी सहायता करने की कोशिश करते हैं। जो मुसीबतों का सामना करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, उन्हें ही जीवन के संघर्ष में जीत मिलती है।
अर्थात अगर आप बिना कुछ किये ये चाहें कि भगवान •आपकी मुसीबतों को ख़त्म कर दें और आपको कभी कोई दुःख ना मिले, तो स्वयं भगवान भी आपके लिए कुछ नहीं करेंगे। आपको ईश्वर पर भरोसा रखते हुए, हमेशा अपनी मुसीबतों का सामना खुद से ही करना पड़ेगा, तभी ईश्वर आपको आत्मबल एवं शक्ति प्रदान करेंगे। जिससे आप तमाम मुसीबतों व कष्टों के बावजूद भी अंत में विजयी हो जाओगे और मुश्किलों के आगे कभी घुटने नहीं टेकोगे।