तीसरी कसम के शिल्पकार
- Books Name
- Sparsh and Sanchayan Bhag-2
- Publication
- Hindi ki pathshala
- Course
- CBSE Class 10
- Subject
- Hindi
पाठ- 13 तीसरी कसम के शिल्पकार शैलेंद्र
प्रह्लाद अग्रवाल (1947)
लेखक- परिचय
इनका जन्म 1947 मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में हुआ। इन्होनें हिंदी से एम.ए की शिक्षा हासिल की। इन्हें किशोर वय से ही हिंदी फिल्मों के इतिहास और फिल्मकारों के जीवन और अभिनय के बारे में विस्तार से जानने और उस पर चर्चा करने का शौक रहा। इन दिनों ये सतना के शासकीय स्वसाशी स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रध्यापन कर रहे हैं और फिल्मों के विषय में बहुत कुछ लिख चुके हैं और आगे भी इसी क्षेत्र में लिखने को कृत संकल्प हैं।
प्रमुख कार्य
प्रमुख कृतियाँ – सांतवाँ दशक, तानशाह, मैं खुशबू, सुपर स्टार, राज कपूर: आधी हकीकत आधा फ़साना, कवि शैलन्द्रः जिंदगी की जीत में यकीन, पप्यासा: चिर अतृप्त गुरुदत्त, उत्ताल उमंग: सुभाष घई की फिल्मकला, ओ रे माँझी: बिमल राय का सिनेमा और महाबाजार के महानायक: इक्कीसवीं सदी का सिनेमा।
पाठ -प्रवेश
साल के किसी महीने का शायद ही कोई शुक्रवार ऐसा जाता हो जब कोई न कुछ को वह कोई हिंदी फ़िल्म सिने पर्दे पर न पहुँचती हो। इनमें से कुछ सफल रहती हैं तो कुछ असफल। कुछ दर्शकों को कुछ अर्से तक याद रह जाती हैं, • सिनेमाघर से बाहर निकलते ही भूल जाते हैं। लेकिन जब कोई फ़िल्मकार किसी • साहित्यिक कृति को पूरी लगन और ईमानदारी से पर्दे पर उतारता है तो उसकी फ़िल्म न केवल यादगार बन जाती है बल्कि लोगों का मनोरंजन करने के साथ ही उन्हें कोई बेहतर संदेश देने में भी कामयाब रहती है।
एक गीतकार के रूप में कई दशकों तक फ़िल्म क्षेत्र से जुड़े रहे कवि और गीतकार ने जब फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कृति ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम’ को सिने पर्दे पर उतारा तो वह मील का पत्थर सिद्ध हुई। आज भी उसकी गणना हिंदी की कुछ अमर फ़िल्मों में की जाती है। इस फ़िल्म ने न केवल अपने गीत, संगीत, कहानी की बदौलत शोहरत पाई बल्कि इसमें अपने ज़माने के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर ने अपने फ़िल्मी जीवन की सबसे बेहतरीन एक्टिंग करके सबको चमत्कृत कर दिया। फ़िल्म की हीरोइन वहीदा रहमान ने भी वैसा ही अभिनय कर दिखाया जैसी उनसे उम्मीद थी ।
इस मायने में एक यादगार फ़िल्म होने के बावजूद ‘तीसरी कसम’ को आज इसलिए भी याद किया जाता है क्योंकि इस फ़िल्म के निर्माण ने यह भी उजागर कर दिया कि हिंदी फ़िल्म जगत में एक सार्थक और उद्देश्यपरक फ़िल्म बनाना कितना कठिन और जोखिम का काम है।
शब्दार्थ :–
- अंतराल- के बाद
- अभिनीत- अभिनय किया गया
- सर्वोत्कृष्ट- कैमरे की रील में उतार चित्र पर प्रस्तुत करना
- सार्थकता– सफलता के बाद
- कलात्मकता- कला से परिपूर्ण
- संवेदनशीलता- भावुकता
- सिद्धार्थ– तीव्रता
- अनन्य- परम/अत्यधिक
- पारिश्रमिक- मेहनताना
- आगाह- सचेत
- बमुश्किल- बहुत कठिनाई से
- वितरक- प्रसारित करने वाले लोग
- नामजद- विख्यात
- मंतव्य- इच्छा
- अभिजात्य- परिष्कृत
- भाव- प्रवण
- दुरुह- कठिन
- स्पंदित- संचालित करना/गतिमान
- हुजूम- भीड़
- रूपांतरण- किसी एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित करना
- त्रासद- दुखद
- धन-लिप्सा- धन की अत्यधिक चाह
- जीवन सापेक्ष- जीवन के प्रति
- कला मर्मज्ञ- कला की परख करने वाला
- किवदंती- कहावत
पाठ की समीक्षा
शैलेंद्र बीस सालों से फ़िल्म इंडस्ट्री से थे। वे वहाँ के तौर-तरीकों से पूर्व रूप से परिचित थे। फिर भी वे उन तौर-तरीकों में उलझकर अपनी इनसानियत नहीं खोना चाहते थे। उनके एक गीत में ‘दसों दिशाओं’ शब्द पर शंकर जय किशन ने आपत्ति जताई। उनके अनुसार लोग केवल चार दिशाओं से ही परिचित हैं दस दिशाओं से नहीं, परंतु शैलेंद्र अपनी बात पर अड़े रहे। उन्होंने कहा कि दर्शकों की रुचि का परिष्कार करना चाहिए न कि उसमें उथलापन लाना चाहिए। उनके गीतों में प्रवाह और गहराई साथ-साथ थे। ‘तीसरी कसम’ उन फ़िल्मों में से एक है, जिन्होंने साहित्य के साथ पूरा न्याय किया। शैलेंद्र ने इस फ़िल्म में गाड़ीवान हीरामन पर राजकपूर को हावी नहीं होने दिया बल्कि राजकपूर को हीरामन बना दिया। प्रसिद्ध अभिनेत्री वहीदा रहमान की साधारण-सी साड़ी में लिपटी हीराबाई बनाकर प्रस्तुत किया। वहीदा की बोलती आँखें और सरल हृदय गाड़ीवान ने सबका मन मोह लिया।
आजकल की फ़िल्में लोकतत्व से दूर होती हैं। वे त्रासद स्थितियों को ग्लोरीफाई करके वीभत्स बना देती हैं, जिससे दर्शकों का भावनात्मक शोषण हो सके। ‘तीसरी कसम’ में प्रस्तुत दुख सहज व स्वाभाविक था। इसमें भावना व संवेदना दोनों की प्रमुखता थी।