पाठ-4 मनुष्यता

कविमैथिलीशरणगुप्त

पाठ- प्रवेश

प्रकृति के अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य में चेतना शक्ति की प्रबलता होती ही है। वह अपने ही नहीं औरों के हिताहित का भी खयाल रखने में, औरों के लिए भी कुछ कर सकने में समर्थ होता है। पशु चरागाह में जाते हैं, अपने-अपने हिस्से का चर आते हैं, पर मनुष्य ऐसा नहीं करता। वह जो कमाता है, जो भी कुछ उत्पादित करता है, वह औरों के लिए भी करता है, औरों के सहयोग से करता है।

प्रस्तुत पाठ का कवि अपनों के लिए जीने-मरने वालों को मनुष्य तो मानता है लेकिन यह मानने को तैयार नहीं है कि मनुष्यों में मनुष्यता के पूरे-पूरे लक्षण भी हैं। वह तो उन मनुष्यों को ही महान मानेगा जिनमें अपने और अपनों के हित चिंतन से कहीं पहले और सर्वोपरि दूसरों का हित चिंतन हो। उसमें वे गुण हों जिनके कारण कोई मनुष्य इस मृत्युलोक से गमन कर जाने के बावजूद युगों तक औरों की यादों में भी बना रह पाता है। उसकी मृत्यु भी सुमृत्यु हो जाती है। आखिर क्या हैं वे गुण ?

कविता

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,

मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।

हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,

मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।

वही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,

उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।

उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;

तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।

अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,

तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।

उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,

सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।

अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही; वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।

विरुद्धवाद बुद्ध का दया- प्रवाह में बहा,

विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?

अहा! वही उदार है परोपकार जो करे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,

सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।

अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,

दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं। अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े, समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।

परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी, अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

‘मनुष्य मात्र बंधु है’ यही बड़ा विवेक है,

पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।

फलानुसार कर्म के अवश्य परंतु बाह्य भेद हैं,

परन्तु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,

विपत्ति, विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।

घंटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,

अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

शब्दार्थ

  • मर्त्य मरणशील
  • पशु- प्रवृत्ति-पशु जैसा स्वभाव
  • दानशील- सहृदय
  • उदार- कृतार्थ
  • कीर्ति कूजती- मधुर ध्वनि करती
  • क्षुधार्थ- भूख से व्याकुल
  • रंतिदेव- एक परम दानी राजा
  • करस्थ- हाथ में पकड़ा हुआ / लिया हुआ
  • दधीचि- एक प्रसिद्ध ऋषि जिनकी हड्डियों से इंद्र का वज्र बना था
  • परार्थ- जो दूसरों के लिए हो
  • अस्थिजाल- हड्डियों का समूह
  • उशीनर क्षितीश- गंधार देश का राजा
  • स्वमांस- अपने शरीर का मांस
  • आभारी- धन्य
  • कर्ण- दान देने के लिए प्रसिद्ध कुंती
  • यश- महाविभूति/ बड़ी भारी पूँजी
  • वशीकृता- वश में की हुई
  • विरुद्धवाद बुद्ध का दया- प्रवाह में बहा--बुद्ध ने करुणावश उस समय की पारंपरिक मान्यताओं का विरोध किया था
  • मदांध- जो गर्व से अंधा हो
  • बुद्ध ने करुणावश उस समय की पारंपरिक मान्यताओं का विरोध किया था
  • वित्त- धन-संपत्ति
  • परस्परावलंब- एक-दूसरे का सहारा
  • अमर्त्य-अंक- अपंक देवता की गोद/ कलंक-रहित
  • स्वयंभू- परमात्मा/स्वयं उत्पन्न होने वाला
  • अंतरैक्यआत्मा की एकता/अंतःकरण की एकता
  • प्रमाणभूत- साक्षी
  • अभीष्ट इच्छित
  • अतर्क- तर्क से परे
  • सतर्क पंथ- सावधान यात्री

पाठ का सार

इस कविता में कवि मनुष्यता का सही अर्थ समझाने का प्रयास कर रहा है। पहले भाग में कवि कहता है कि मृत्यु से नहीं डरना चाहिए क्योंकि मृत्यु तो निश्चित है, पर हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि लोग हमें मृत्यु के बाद भी याद रखें । असली मनुष्य वही है, जो दूसरों के लिए जीना व मरना सीख ले। दूसरे भाग में कवि कहता है कि हमें उदार बनना चाहिए क्योंकि उदार मनुष्यों का हर जगह गुणगान होता है। मनुष्य वही कहलाता है, जो दूसरों की चिंता करे। तीसरे भाग में कवि कहता है कि पुराणों में उन लोगों के बहुत उदाहरण हैं जिन्हें उनकी त्याग भाव के लिए आज भी याद किया जाता है। सच्चा मनुष्य वही है जो त्याग भाव जान ले। चौथे भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के मन में दया और करुणा का भाव होना चाहिए, मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों के लिए मरता और जीता है। पांचवें भाग में कवि कहना चाहता है कि यहाँ कोई अनाथ नहीं है क्योंकि हम सब उस एक ईश्वर की संतान हैं। हमें भेदभाव से ऊपर उठ कर सोचना चाहिए। छठे भाग में कवि कहना चाहता है कि हमें दयालु बनना चाहिए क्योंकि दयालु और परोपकारी मनुष्यों का देवता भी स्वागत करते हैं। अतः हमें दूसरों का परोपकार व कल्याण करना चाहिए। सातवें भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के बाहरी कर्म अलग अलग हो परन्तु हमारे वेद साक्षी है कि सभी की आत्मा एक है, हम सब एक ही ईश्वर की संतान है ।अतः सभी मनुष्य भाई-बंधु हैं और मनुष्य वही है जो दुःख में दूसरे मनुष्यों के काम आये। अंतिम भाग में कवि कहना चाहता है कि विपत्ति और विघ्न को हटाते हुए मनुष्य को अपने चुने हुए रास्तों पर चलना चाहिए, आपसी समझ को बनाये रखना चाहिए और भिन्नता नहीं बढ़ाना चाहिए। ऐसी सोच वाला मनुष्य ही मनुष्य कहलाने योग्य होता है