पाठ-6  मधुर-मधुर मेरे दीपक जल

कवयित्री- महादेवी वर्मा

जीवन -परिचय

कवयित्री महादेवी वर्मा जी का जन्म सन् 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में हुई थी । उल्लेखनीय है कि कवयित्री महादेवी वर्मा जी मिडिल में पूरे प्रांत में अव्वल आईं और छात्रवृत्ति की हक़दार भी बनी थीं। यह सिलसिला कई कक्षाओं तक चलता रहा।

एक समय ऐसा भी आया कि इन्होंने बौद्ध भिक्षुणी बनने की चाहत रखी, परन्तु महात्मा गांधी के आह्वान पर सामाजिक कार्यों में जुट गईं। नारी शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ ही इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया कवयित्री महादेवी वर्मा जी ने छायावाद के अन्य चार रचनाकारों में से भिन्न अपना एक विशिष्ट स्थान कायम किया | इनका सभी काव्य वेदनामय था ।

11 सितम्बर 1987 को कवयित्री का देहावसान हो गया भारत सरकार ने 1956 में उन्हें पद्मभूषण अलंकरण से अलंकृत किया था तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित सभी महत्वपूर्ण पुरस्कार से कवयित्री नवाजी जा चुकी हैं।

इनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं-

  • गद्य रचनाएं – स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, मेरा परिवार, चिंतन के क्षण, अतीत के चलचित्र और श्रृंखला की कड़ियाँ ।
  • काव्य कृतियां - बारहमासा,सांध्यगीत,दीपशिखा, प्रथम आयाम, अग्नि रेखा, यामा, नीहार, रश्मि, नीरजा इत्यादि|

पाठ -प्रवेश

औरों से बतियाना, औरों को समझाना, औरों को राह सुझाना तो सब करते ही हैं, कोई सरलता से कर लेता है, कोई थोड़ी कठिनाई उठाकर, कोई थोड़ी झिझक-संकोच के बाद तो कोई किसी तीसरे की आड़ लेकर। लेकिन इससे कहीं ज़्यादा कठिन और ज़्यादा श्रमसाध्य होता है अपने आप को समझाना। अपने आप से बतियाना, अपने आप को सही राह पर बनाए रखने के लिए तैयार करना। अपने आप को आगाह करना, सचेत करना और सदा चैतन्य बनाए रखना।

प्रस्तुत पाठ में कवयित्री अपने आप से जो अपेक्षाएँ करती हैं, यदि वे पूरी हो जाएँ तो न सिर्फ़ उसका अपना, बल्कि हम सभी का कितना भला हो सकता है। चूँकि, अलग-अलग शरीरधारी होते हुए भी हम हैं तो प्रकृति की मनुष्य नामक एक ही निर्मिति।

कविता

मधुर मधुर मेरे दीपक जल!

मधुर मधुर मेरे दीपक जल!

युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,

 प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन,

मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन;

दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,

तेरे जीवन का अणु गल गल!

पुलक पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,

माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण

विश्व-शलभ सिर धुन कहता ‘मैं

हाय न जल पाया तुझ में मिल’!

सिहर सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक,

स्नेहहीन नित कितने दीपक;

जलमय सागर का उर जलता,

विद्युत ले घिरता है बादल!

विहँस विहँस मेरे दीपक जल!

शब्दार्थ-

  • सौरभ- सुगन्ध
  • विपुल- विस्तृत
  • मृदुल- कोमल
  • अपरिमित- असीमित
  • पुलक- रोमांच
  • ज्वाला- कण
  • शलभ- पतंगा
  • आग की लपट- आग का लघुतम अंश
  • सिर धुनना- पछताना
  • सिहरना- कांपना/थरथराना
  • स्नेहहीन- तेल/प्रेम से हीन
  • उर- हृदय
  • विद्युत- बिजली

कविता का सार

प्रस्तुत कविता में कवयित्री महादेवी वर्मा जी आस्था रूपी दीपक को जलाकर ईश्वर के मार्ग को रौशन करना चाहती हैं। वह अपने शरीर के कण-कण को जलाकर, अपने अंदर छाये अहंकार को समाप्त करना चाहती हैं। इसके बाद जो प्रकाश फैलेगा, उसमें कवयित्री अपने प्रियतम का मार्ग जरूर देख पायेंगी। वह संसार के दूसरे व्यक्तियों के लिए भी यही कामना करती हैं और उन्हें भक्ति का सही मार्ग दिखाने के लिए उनकी सहायता करना चाहती हैं। इसीलिए उन्होंने कविता में प्रकृति के कई सारे ख़ास उदाहरण भी दिए हैं। उनके अनुसार सच्ची भक्ति के मार्ग में चलने का केवल एक ही रास्ता है –आपसी ईर्ष्या एवं द्वेष का त्याग ।