पर्वत प्रदेश में पावस

पाठ- 5 पर्वत प्रदेश में पावस

कवि- सुमित्रानंदनपंत

पाठ प्रवेश

कौन होगा जिसका मन पहाड़ों पर जाने को न मचलता हो। जिन्हें तक जाने का अवसर नहीं मिलता वे भी अपने आसपास के पर्वत प्रदेश में जाने का अवसर शायद ही हाथ से जाने देते हों। ऐसे में कोई कवि और उसकी कविता अगर कक्षा में बैठे-बैठे ही वह अनुभूति दे जाए जैसे वह अभी-अभी पर्वतीय अंचल में विचरण करके लौटा हो, तो!

प्रस्तुत कविता ऐसे ही रोमांच और प्रकृति के सौंदर्य को अपनी आँखों निरखने की अनुभूति देती है। यही नहीं, सुमित्रानंदन पंत की अधिकांश कविताएँ पढ़ते हुए यही अनुभूति होती है कि मानो हमारे आसपास की सभी दीवारें कहीं विलीन हो गई हो। हम किसी ऐसे रम्य स्थल पर आ पहुँचे हैं जहाँ पहाड़ों की अपार श्रृंखला है, आसपास झरने बह रहे हैं और सब कुछ भूलकर हम उसी में लीन रहना चाहते हैं।

महाप्राण निराला ने भी कहा था : पंत जी में सबसे ज़बरदस्त कौशल जो है, यह है “शैली” (Shelley) की तरह अपने विषय को अनेक उपमाओं से सँवारकर मथुर से मधुर और कोमल से कोमल कर देना।

कविता

पर्वत  प्रदेश में पावस

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,

पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश।

मेखलाकार पर्वत अपार

अपने सहस्र दुग-सुमन फाड़.,

अवलोक रहा है बार-बार

जीनीचे जल में निज महाकार,

जिसके चरणों में पला ताल

दर्पण-सा फैला है विशाल!

गिरि का गौरव गाकर झर- झर मद में नस-नस उत्तेजित कर

मोती की लड़ियों- से सुंदर

झरते हैं झाग भरे निर्झर।

गिरिवर के उर से उठ उठ कर उच्चाकांक्षाओं से तरुवर

हैं झाँक रहे नीरव नभ पर अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।

उड़ गया, अचानक लो, भूधर फड़का अपार पारद* के पर!

रव-शेष रह गए हैं निर्झर !

है टूट पड़ा भू पर अंबर!

धँस गए धरा में सभय शाल!

उठ रहा धुआँ, जल गया ताल! -यों जलद-यान में विचर- विचर था इंद्र खेलता इंद्रजाल।

शब्दार्थ

  • पावस- वर्षा ऋतु
  • प्रकृति वेश- प्रकृति का रूप
  • मेखलाकार- करघनी के आकार की पहाड़ की ढाल
  • सहस्र- हज़ार
  • दृग-सुमन- पुष्प रूपी आंखें
  • अवलोक- देखना
  • महाकार- विशाल आकार
  • दर्पण- आईना
  • मद- मस्ती
  • झाग- फेन
  • उर- हृदय
  • उच्चाकांक्षा- ऊँचा उठने की कामना
  • तरुवर- पेड़
  • नीरव नभ- शांत आकाश
  • अनिमेष- लगातार

पाठ का सार

प्रस्तुत कविता में कवि ने वर्षा ऋतु में पर्वतीय प्रदेश पर होनेवाले प्रकृति में क्षण-क्षण परिवर्तन को बड़े ही सुंदर ढंग से व्यक्त 1 किया है। वर्षा ऋतु में कवि को यहाँ का दृश्य देखकर ऐसा लगता है कि मानो मेखलाकर पर्वत अपने ऊपर खिले सुमन रूपी नेत्रों से तालाब के पारदर्शी जल में अपना प्रतिबिंब देख रहा हो। साथ ही उसे पर्वतों के नीचे का तालाब दर्पण की भांति प्रतीत होता है। पहाड़ों के बीच में बहते झरने पहाड़ों का गौरवगान करते प्रतीत होते हैं। पहाड़ों की छाती पर उगे ऐसे लगते हैं मानो मन में आकांक्षाएँ लिए आकाश की ओर निहार रहे हों। कभी बादलों के छा जाने से ऐसा लगने वृक्ष लगता है कि पर्वत बादल रूपी पंख लगाकर आकाश में उड़ रहे हैं। ऐसे समय में झरने दिखाई नहीं पड़ते, केवल उनका स्वर सुनाई देता है। कभी ऐसा लगता है कि बादल धरती पर आक्रमण कर रहे हैं। तालाब से उठता कोहरा ऐसे लगता है कि जैसे तालाब में आग लग गई हो और धुआँ उठ रहा हो । ये सभी जादुई दृश्य देखकर ऐसा लगता है जैसे-इंद्र देवता जादू के खेल दिखा रहे हैं।

Related Chapter Name