कबीर की साखी

टोपी शुक्ला

Topi Shukla Class 10 Chapter 3 Summary, Explanation, Question Answers

टोपी शुक्ला पाठ सार

प्रस्तुत पाठ में लेखक टोपी की कहानी पाठकों को सुनाना चाहते हैं। इसलिए लेखक कहता है कि वह इफ़्फ़न की कहानी पूरी नहीं सुनाएगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाएगा जितनी टोपी की कहानी के लिए उसे जरुरी लग रही है। इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना शायद टोपी की कहानी अधूरी है। ये दोनों लेखक की कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को सभी प्यार से टोपी कह कर पुकारते हैं और दूसरे को इफ़्फ़न।

इफ़्फ़न की दादी पूरब की रहने वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी हुई और वह लखनऊ आ गई, परन्तु जब तक ज़िंदा रही, वह पूरब की ही भाषा बोलती रही। लखनाऊ की उर्दू तो उनके लिए ससुराल की भाषा थी। उन्होंने तो मायके की भाषा को ही गले लगाए रखा था क्योंकि उनकी इस भाषा के सिवा उनके आसपास कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझ पाता। जब उनके बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल तड़पने लगा, परन्तु इस्लाम के आचार्यों के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था? बेचारी का दिल उदास हो गया। लेकिन इफ़्फ़न के जन्म के छठे दिन के स्नान/पूजन/उत्सव पर उन्होंने जी भरकर उत्सव मना लिया था।

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी किसी इस्लामी आचार्य की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थी। दूध-घी खाती हुई बड़ी हुई थी परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गई थी। जब भी वह अपने मायके जाती तो जितना उसका मन होता, जी भर के खा लेती। क्योंकि लखनऊ वापिस आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता।

इफ़्फ़न को अपनी दादी से बहुत ज्यादा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अम्मी, बड़ी बहन और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह सबसे ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार इफ़्फ़न को डाँट देती थी और कभी-कभी तो मार भी दिया करती थी। बड़ी बहन भी अम्मी की ही तरह कभी-कभी डाँटती और मारती थी। अब्बू भी कभी-कभार घर को न्यायालय समझकर अपना फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब भी मौका मिलता वह उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थी। बस एक दादी ही थी जिन्होंने कभी भी किसी बात पर उसका दिल नहीं दुखाया था। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थी।

इफ़्फ़न की दादी की बोली टोपी के दिल में उतर गई थी, उसे भी इफ़्फ़न की दादी की बोली बहुत अच्छी लगती थी। इफ़्फ़न की दादी टोपी को अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दी कहने का अर्थ है टोपी की माँ और इफ़्फ़न की दादी की बोली एक जैसी थी। टोपी को अपनी दादी बिलकुल भी पसंद नहीं थी। उसे तो अपनी दादी से नफ़रत थी। वह पता नहीं कैसी भाषा बोलती थी। टोपी को अपनी दादी की भाषा और इफ़्फ़न के अब्बू की भाषा एक जैसी लगती थी। लेखक कहता है कि टोपी जब भी इफ़्फ़न के घर जाता था तो उसकी दादी के ही पास बैठने की कोशिश करता था। टोपी को इफ़्फ़न की दादी का हर एक शब्द शक़्कर की तरह मिठ्ठा लगता था। पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत की तरह मज़ेदार लगता। तिल के बने व्यंजनों की तरह अच्छा लगता था। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी टोपी से हमेशा एक ही सवाल पूछ कर बात आगे बढ़ती थी कि उसकी अम्माँ क्या कर रही है। पहले-पहले तो टोपी को समझ में नहीं आया कि ये अम्माँ क्या होता है परन्तु बाद-बाद में उसे समझ में आ गया कि माता जी को ही अम्माँ कहा जाता है। जब टोपी ने अम्माँ शब्द सुना तो उसे यह शब्द बहुत अच्छा लगा। जिस तरह गुड़ की डाली को मुँह में रख कर उसके स्वाद का आनंद लिया जाता है उसी तरह वह इस शब्द को भी बार-बार बोलता रहा। “अम्माँ”। “अब्बू”। “बाजी”। उसे ये शब्द बहुत पसंद आए।

एक दिन टोपी को बैंगन का भुरता ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी (टोपी की माँ) खाना परोस रही थी। टोपी ने कह दिया कि अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता। अम्मी! यह शब्द सुनते ही मेज़ पर बैठे सभी लोग चौंक गए, उनके हाथ खाना खाते-खाते रुक गए। वे सभी लोग टोपी के चेहरे की ओर देखने लगे। टोपी की दादी सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गई थी और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा । एक ही बात बार-बार पूछ रही थी कि क्या अब वो इफ़्फ़न के घर जाएगा? इसके उत्तर में हर बार टोपी “हाँ” ही कहता था। मुन्नी बाबू और भैरव जो टोपी के भाई थे वे टोपी की पिटाई का तमाशा देखते रहे। लेखक कहता है कि जब टोपी की पिटाई हो रही थी, उसी समय मुन्नी बाबू एक और बात जोड़ कर बोले कि एक दिन, उन्होंने इसे रहीम कबाबची की दुकान पर कबाब खाते देखा था। सच्ची बात यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी। ताकि टोपी घर पर उनकी शिकायत न कर दे। उस दिन तो टोपी की इतनी पिटाई हो गई थी कि उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। दूसरे दिन जब टोपी स्कूल गया और स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे पिछले दिन की सारी बातें बता दी। दोनों भूगोल शास्त्र की कक्षा को छोड़कर बाहर निकल गए। पंचम की दूकान से इफ़्फ़न ने केले ख़रीदे क्योंकि बात यह थी कि टोपी फल के अलावा बाहर की किसी भी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था।

 

टोपी बहुत ही भोलेपन से इफ़्फ़न से कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वे लोग दादी बदल ले? उसकी दादी इफ़्फ़न के घर और इफ़्फ़न की दादी उसके घर आ जाए। टोपी कहता है कि उसकी दादी की बोली तो इफ़्फ़न के परिवार की बोली की तरह ही है। टोपी की इस बात का जवाब देते हुए इफ़्फ़न कहता है कि टोपी की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती। उसके अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। क्योंकि उसकी दादी उसके अब्बू की अम्माँ भी तो हैं। जब टोपी और इफ़्फ़न बात कर रहे थे उसी समय इफ़्फ़न का नौकर आया और खबर दी कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है। शाम को जब वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ शांति थी। घर लोगों से भरा हुआ था। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए पूरा घर खली हो चूका था। जबकि टोपी को दादी का नाम भी मालूम नहीं था, परन्तु उसका इफ़्फ़न की दादी से बहुत गहरा सम्बन्ध बन गया था। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे क्योंकि दोनों को ही उनके घर में कोई समझने वाला नहीं था। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन दूर कर दिया था। टोपी इफ़्फ़न को सहानुभूति देता हुआ कहता है कि इफ़्फ़न दादी की जगह उसकी दादी मर गई होती तो ठीक हुआ होता।

लेखक कहता है कि टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी भी ऐसे लड़के से कभी भी दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता कोई ऐसी नौकरी करते हो जिसमें बदली होती रहती हो। दस अक्तूबर सन पैंतालीस का टोपी के जीवन के इतिहास में बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। टोपी दादी के मरने के बाद तो अकेला महसूस कर ही रहा था और अब इफ़्फ़न के चले जाने पर वह और भी अकेला हो गया था क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त नहीं बन सका था। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। अब न तो इफ़्फ़न था और न ही इफ़्फ़न की दादी जो उसे समझ सके। घर में ले-देकार एक बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह अब सीता के साथ ही समय गुजारने लगा।

ठण्ड के दिन शुरू हो गए थे और मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया और भैरव के लिए भी नया कोट बना लेकिन टोपी को मुन्नी बाबू का पुराना कोट मिला। वैसे कोट बिलकुल नया ही था क्योंकि जब वह बनाया गया तब वह मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी गई कोई भी चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी ठण्ड ही खाएगा। इस पर दादी और टोपी के बीच बहस हो गई और दादी ने पूरा घर अपने सिर पर उठा लिया। जब टोपी को उसकी माँ ने दादी को उल्टा जवाब देने के लिए पीटा तो उनकी बूढ़ी नौकरानी सीता टोपी को समझाने लगी कि अब वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया है। उसे दादी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए । सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया है परन्तु टोपी के लिए दसवीं कक्षा में पहुँचना इतना भी आसान नहीं था। दसवीं कक्षा में पहुँचने के लिए टोपी को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी थी। दो साल तो टोपी फेल ही हुआ था। वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी टोपी पढ़ाई करने बैठता था तो कभी उसके बड़े भाई मुन्नी बाबू को कोई काम याद आ जाता था या उसकी माँ को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी, अगर ये सारी चीज़े न होती तो कभी उसका छोटा भाई भैरव उसकी कापियों के पन्नों को फाड़ कर उनके हवाई जहाज़ बना कर उड़ाने लग जाता। यह तो थी पहले साल की बात। दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया था। जिसके कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाया और दूसरी साल भी फेल हो गया। तीसरे साल वह पास तो हो गया परन्तु थर्ड डिवीज़न में। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया।

टोपी के सभी दोस्त दसवीं कक्षा में थे। इसलिए वह उन्हीं से मिलता और उन्हीं के साथ खेलता था। अपने साथ नवीं कक्षा में पढ़ने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं थी। वह जब भी कक्षा में बैठता, उसे अजीब लगता था। टोपी ने किसी न किसी तरह इस साल को झेल लिया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवीं कक्षा में ही बैठना पड़ा तो वह बिलकुल गीली मिट्टी का पिंड हो गया, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। जो विद्यार्थी सन उनचास में आठवीं कक्षा में थे वे अब दसवीं कक्षा में थे। जो सन उनचास में सातवीं कक्षा में थे वे टोपी के साथ पहुँच गए थे। उन सभी के बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देने लगा था।

वहीद जो कक्षा का सबसे तेज़ लड़का था, उसने टोपी से पूछा कि वह उन लोगों के साथ क्यों खेलता है। उसे तो आठवीं कक्षा वालों से दोस्ती करनी चाहिए। क्योंकि वे लोग तो आगे दसवीं कक्षा में चले जाएँगे और टोपी को तो आठवीं वालों के साथ ही रहना है तो उनसे दोस्ती करना टोपी के लिए अच्छा होगा। यह बात टोपी को बहुत बुरी लगी और ऐसा लगा जैसे यह बात उसके दिल के आर-पार हो गई हो। और उसने उसी समय कसम खाई कि इस साल उसे टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, वह पास होकर ही दिखाएगा। परन्तु साल के बीच में ही चुनाव आ गए। टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण, नीले तेल वाले, चुनाव लड़ने के लिए खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो, उस घर में कोई पढ़-लिख कैसे सकता है? वह तो जब टोपी के पिता चुनाव हार गए तब घर में थोड़ी शांति हुई और टोपी ने देखा कि उसकी परीक्षा को ज्यादा समय नहीं रहा है। वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु जैसा वातावरण टोपी के घर में बना हुआ था ऐसे वातावरण में कोई कैसे पढ़ सकता था? इसलिए टोपी का पास हो जाना ही बहुत था। टोपी के दो साल एक ही कक्षा में रहने के बाद जब वह पास हुआ तो उसकी दादी बोली कि वाह! टोपी को भगवान नजरे-बंद से बचाए। बहुत अच्छी रफ़्तार पकड़ी है। तीसरे साल पास हुआ वो भी तीसरी श्रेणी में, चलो पास तो हो गया।

परन्तु लेखक कहता है कि सभी को उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस वजह से दो साल फेल हुआ और तीसरी साल में थर्ड डिवीज़न से पास हुआ।

टोपी शुक्ला पाठ की व्याख्या

इफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है कि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी ने सदा इफ्फन कहा। इफ़्फ़न ने इसका बुरा माना। परन्तु वह इफ्फन पुकारने पर बोलता रहा। इसी बोलते रहने में उसकी बड़ाई थी। यह नामों का चक्कर भी अजीब होता है। उर्दू और हिंदी एक ही भाषा, हिंदवी के दो नाम हैं। परन्तु आप खुद देख लीजिए कि नाम बदल जाने से कैसे-कैसे घपले हो रहे हैं। नाम कृष्ण हो तो उसे अवतार कहते हैं और मुहम्मद हो तो पैगम्बर। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल गए कि दोनों ही दूध देने वाले जानवर चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोवर्धन और ब्रजकुमार थे। इसलिए तो कहता हूँ कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल यह कि अधूरे हैं बल्कि बेमानी हैं। इसलिए इफ़्फ़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही है और परम्पराओं के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं।

घपला – गड़बड़

पैगम्बर – पैगाम देने वाला

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लेखक कहता है कि इफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी हमेशा ही इफ्फन कहकर पुकारता था। इफ़्फ़न को इस बात का बुरा लगता था। परन्तु जब भी टोपी उसे इफ्फन पुकारता है इफ़्फ़न उसे बोलता रहा की वह गलत बोल रहा है। वह हर समय टोपी को अपने नाम को सही बोलने के लिए कहता रहता था। लेखक कहता है कि यह नामों का जो चक्कर होता है वह बहुत ही अजीब होता है। हिंदवी एक भाषा है जिसके उर्दू और हिंदी दो अलग-अलग नाम हैं। परन्तु खुद देख लीजिए कि केवल नाम बदल जाने से कैसी-कैसी गड़बड़ हो जाती हैं। यदि नाम “कृष्ण” हो तो उसे अवतार कहते हैं और अगर नाम “मुहम्मद” हो तो पैगम्बर (अर्थात पैगाम देने वाला)।

कहने का अर्थ है की एक को ईश्वर और दूसरे को ईश्वर का पैगाम देने वाला कहा जाता है। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल जाते हैं कि दोनों ही दूध देने वाले जानवरों को चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोवर्धन और ब्रज में रहने वाले कुमार थे। इसलिए लेखक कहता है कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल अधूरे हैं बल्कि यह बेमानी कही जायगी। इसलिए इफ़्फ़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही है और परम्पराओं के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं। अर्थात इफ़्फ़न क्या सोच रहा है।

इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परन्तु हम लोग टोपी की कहानी कह-सुन रहे हैं। इसलिए मैं इफ़्फ़न की पूरी कहानी नहीं सुनाऊँगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाऊँगा जितनी टोपी की कहानी के लिए जरुरी है।

मैंने इसे ज़रूरी जाना कि इफ़्फ़न के बारे में आपको कुछ बता दूँ क्योंकि इफ़्फ़न आपको इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देगा। न टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की। ये दोनों दो आज़ाद व्यक्ति हैं। इन दोनों व्यक्तियों का डेवलपमेंट एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ। इन दोनों को दो तरह की घरेलू परम्पराएँ मिलीं। इन दोनों ने जीवन के बारे में अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है।

डेवलपमेंट – विकास
परम्पराएँ – रीती रिवाज़
अटूट – जिसे तोड़ा न जा सके

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परन्तु प्रस्तुत पाठ में लेखक टोपी की कहानी पाठकों को सुनाना चाहते हैं। इसलिए लेखक कहता है कि वह इफ़्फ़न की कहानी पूरी नहीं सुनाएगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाएगा जितनी टोपी की कहानी के लिए उसे जरुरी लग रही है।

लेखक कहता है कि उसे यह ज़रूरी लगा कि इफ़्फ़न के बारे में वह पाठकों को कुछ बता दे क्योंकि इफ़्फ़न इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देने वाला है। वह कहानी में टोपी के साथ हर जगह है पर यह जान लेना चाहिए कि न तो टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की परछाई है। ये दोनों ही इस कहानी के दो आज़ाद व्यक्ति हैं। इन दोनों व्यक्तियों का विकास एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ अर्थात इन दोनों के विकास में एक-दूसरे का कोई योगदान नहीं है। इन दोनों को दो तरह के घरेलू रीती रिवाज़ मिले। इन दोनों ने ही जीवन के बारे में हमेशा से अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना शायद टोपी की कहानी अधूरी है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का सबसे अहम हिस्सा है।

मैं हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं यह बेवकूफ़ी क्यों करूँ! क्या मैं रोज अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता हूँ कि हम दोनों भाई-भाई हैं? यदि में नहीं कहता तो क्या आप कहते हैं? हिन्दू-मुस्लिम अगर भाई-भाई हैं तो कहने की जरुरत नहीं। यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क पड़ेगा। मुझे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है।

मैं तो एक कथाकार हूँ और एक कथा सुना रहा हूँ। मैं टोपी और इफ़्फ़न की बात कर रहा हूँ। ये इस कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को टोपी कहा गया और दूसरे को इफ़्फ़न।

कथाकार – कथा सुनाने वाला

लेखक कहता है कि वह हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा है। लेखक कहता है कि वह यह बेवकूफ़ी आखिर करे भी तो क्यों करे। क्या वह रोज अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता फिरता है कि वे दोनों भाई-भाई हैं? लेखक पाठकों से पूछता है कि यदि वह नहीं कहता तो क्या पाठकों में से कोई यह कहता हैं? हिन्दू-मुस्लिम अगर भाई-भाई हैं तो कहने की जरुरत ही नहीं है। और यदि नहीं है तो लेखक के कहने से क्या फ़र्क पड़ जाएगा क्योंकि लेखक कहता है कि उसे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है। चुनाव की बात लेखक ने इसलिए की है क्योंकि अक्सर चुनावों में नेता इस पंक्ति का प्रयोग करते हैं।

लेखक कहता है कि वह तो एक कथा-सुनाने वाला है और एक कथा सुना रहा है। लेखक टोपी और इफ़्फ़न की कहानी की बात कर रहा है। ये दोनों लेखक की कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को सभी प्यार से टोपी कह कर पुकारते हैं और दूसरे को इफ़्फ़न।

इफ़्फ़न के दादा और परदादा बहुत प्रसिद्ध मौलवी थे। काफ़िरों के देश में पैदा हुए। काफ़िरों के देश में मरे। परन्तु वसीयत करके मरे कि लाश करबला ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने इस देश में एक साँस तक ना ली। उस खानदान में जो पहला हिन्दुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह बढ़कर इफ़्फ़न का बाप हुआ।

जब इफ़्फ़न के पिता सय्यद मुरतुज़ा हुसैन मरे तो उन्होंने यह वसीयत नहीं की कि उनकी लाश करबला ले जाई जाए। वह एक हिन्दुस्तानी कब्रिस्तान में दफन किए गए।

इफ़्फ़न की परदादी भी बड़ी नमाजी बीबी थीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैन और जाने कहाँ की यात्रा कर आई थीं। परन्तु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा जरूर रखवातीं और माश का सदका भी जरूर उतरवातीं।

मौलवी – इस्लाम धर्म का आचार्य
काफ़िर – गैर मुस्लिम
वसीयत – अपनी मृत्यु से पहले ही अपनी सम्पति या उपभोग की वस्तुओं को लिखित रूप से विभाजित कर देना
करबला –
इस्लाम का एक पवित्र स्थान
नमाजी – नियमित रूप से नमाज पढ़ने वाला
सदका – एक टोटका

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न के दादा और परदादा इस्लाम धर्म के बहुत प्रसिद्ध आचार्य थे। गैर मुस्लिम देश में पैदा हुए। और गैर मुस्लिम देश में ही मरे। परन्तु मरने से पहले ही उन्होंने लिखित रूप में कह रखा था कि मरने के बाद उनकी लाश करबला (इस्लाम का एक पवित्र स्थान) ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने हिंदुस्तान में एक साँस तक नहीं ली। उस खानदान में जो पहला हिन्दुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह इफ़्फ़न के पिता थे।


जब इफ़्फ़न के पिता सय्यद मुरतुज़ा हुसैन मरे तो उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं लिखी जो इफ़्फ़न के दादा और परदादा ने लिखी थी, कि उनकी लाश करबला ले जाई जाए। वह एक हिन्दुस्तानी कब्रिस्तान में दफन किए गए।

इफ़्फ़न की परदादी नियमित रूप से नमाज पढ़ने वाली बीबी थीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैन और न जाने कहाँ-कहाँ की यात्रा कर के आई थीं। परन्तु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा जरूर रखवातीं और माश का एक टोटका भी जरूर उतरवातीं। यह एक हिन्दू रीती-रिवाज़ के अंतर्गत आता है।

इफ़्फ़न की दादी भी नमाज़-रोज़े की पाबंद थीं। परन्तु जब इकलौते बेटे को चेचक निकली तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुईं और बोलीं, “माता मोरे बच्चे को माफ़ करद्यो।” पूरब में रहने वाली थीं। नौ या दस बरस की थीं जब ब्याह कर लखनऊ आईं, परन्तु जब तक ज़िंदा रहीं पूरबी बोलती रहीं। लखनाऊ की उर्दू ससुराली थी। वह तो मायके की भाषा को गले लगाए रहीं क्योंकि इस भाषा के सिवा इधर-उधर कोई ऐसा नहीं था जो उसके दिल की बात समझता। जब बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल फड़का परन्तु मौलवी के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था! बेचारी दिल मसोसकर रह गईं। हाँ इफ़्फ़न की छठी… पर उन्होंने जी भरकर जश्न मना लिया।

बात यह थी कि इफ़्फ़न अपने दादा के मरने के बाद पैदा हुआ था। मर्दों और औरतों के इस फ़र्क को ध्यान में रखना ज़रूरी है क्योंकि इस बात को ध्यान में रखे बगैर इफ़्फ़न की आत्मा का नाक-नक्शा समझ में नहीं आ सकता।

पाबंद – नियम, वचन आदि का पालन करनेवाला
छठी – जन्म के छठे दिन का स्नान/पूजन/उत्सव
जश्न – उत्सव/ख़ुशी का जलसा
नाक-नक्शा – रूप-रंग

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी भी नमाज़-रोज़े का नियम के अनुसार पालन करने वाली थी। परन्तु जब इकलौते बेटे को चेचक के दाने निकले तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुई और बोली कि माता मेरे बच्चे को माफ़ कर दो। ऐसा इसलिए कहा क्योंकि हिन्दू धर्म में चेचक को माता कहा जाता है। इस बात का ज़िक्र लेखक ने इसलिए किया है क्योंकि इफ़्फ़न की दादी मुस्लिम होते हुए भी हिन्दू धर्म का अनुसरण कर रही थी। इफ़्फ़न की दादी पूरब की रहने वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी हुई और वह लखनऊ आ गई, परन्तु जब तक ज़िंदा रही, वह पूरब की ही भाषा बोलती रही। लखनाऊ की उर्दू तो उनके लिए ससुराल की भाषा थी। उन्होंने तो मायके की भाषा को ही गले लगाए रखा था क्योंकि उनकी इस भाषा के सिवा उनके आसपास कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझ पाता। जब उनके बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल तड़पने लगा, परन्तु इस्लाम के आचार्यों के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था? बेचारी का दिल उदास हो गया। लेकिन इफ़्फ़न के जन्म के छठे दिन के स्नान/पूजन/उत्सव पर उन्होंने जी भरकर उत्सव मना लिया था।
बात यह थी कि इफ़्फ़न अपने दादा के मरने के बाद पैदा हुआ था। कहानी को समझने के लिए मर्दों और औरतों के इस फ़र्क को ध्यान में रखना ज़रूरी है और इस बात को ध्यान में रखे बगैर इफ़्फ़न की आत्मा के रूप-रंग को नहीं समझा जा सकता।

इफ़्फ़न की दादी किसी मौलवी की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थीं। दूध-घी खाती हुई आई थीं परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गईं जो घी पिलाई हुई काली हाँडियों में असामियों के यहाँ से आया करता था। बस मायके जातीं तो लपड़-शपड़ जी भर के खा लेतीं। लखनऊ आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने मियाँ से उन्हें यही तो एक शिकायत थी कि वक्त देखे न मौका, बस मौलवी ही बने रहते हैं।

ससुराल में उनकी आत्मा सदा बेचैन रही। जब मरने लगीं तो बेटे ने पूछा कि लाश करबला जाएगी या नज़फ, तो बिगड़ गईं। बोलीं, “ए बेटा जउन तूँ से हमरी लाश ना सँभाली जाए त हमरे घर भेज दिहो।”

हाँडियाँ – मिट्टी का वह छोटा गोलाकार बरतन
मियाँ – पति

topi shukla

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी किसी इस्लामी आचार्य की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थी। दूध-घी खाती हुई बड़ी हुई थी परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गई थी जो घी से भरी हुई काली मिट्टी के छोटे गोलाकार बरतन में असम के व्यापारी लाया करते थे। जब भी वह अपने मायके जाती तो लपड़-शपड़ अर्थात जितना उसका मन होता, जी भर के खा लेती। क्योंकि लखनऊ वापिस आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने पति से उन्हें यही एक शिकायत थी कि वे हर वक्त जब भी देखो बस मौलवी ही बने रहते थे।

इफ़्फ़न की दादी की आत्मा ससुराल में सदा बेचैन रही अर्थात वे ससुराल में बहुत खुश नहीं थी। जब मरने वाली थी तो उनके बेटे ने उनसे पूछा कि वे क्या चाहती है कि उनकी लाश करबला जानी चाहिए या नज़फ, तो वह बिगड़ गई और गुस्से में बोली कि बेटा अगर उससे उनकी लाश नहीं सँभाली जाती तो वह उनकी लाश को उनके घर भेज दें।

मौत सिर पर थी इसलिए उन्हें यह याद नहीं रह गया कि अब घर कहाँ है। घरवाले कराची में हैं और घर कस्टोडियन का हो चुका है। मरते वक्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती हैं। उस वक्त तो मनुष्य अपने सबसे ज्यादा खूबसूरत सपने देखता है (यह कथाकार का खयाल है, क्योंकि वह अब तक मरा नहीं है!) इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था। कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी से बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़ याद आया जो उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और जो उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बेशुमार चीज़ें याद आई। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नज़फ कैसे जा सकती थीं!

वह बनारस के ‘फातमैन’ में दफ़न की गईं क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी। इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने आकर खबर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी बीबी कही जाती थीं।


इफ़्फ़न तब चौथी में पढ़ता था और टोपी से उसकी मुलाकात हो चुकी थी।

कस्टोडियन – जिस सम्पति पर किसी का मालिकाना हक़ न हो उसका सरक्षण करने वाला विभाग
बीजू पेड़ – गुठली की सहायता से उगाया गया पेड़
बेशुमार – बहुत सारी

लेखक कहता है की इफ़्फ़न की दादी मौत के नजदीक थी इसलिए शायद उन्हें यह याद नहीं रहा कि अब उनका घर कहाँ है। उनके सभी मायके वाले अब कराची में हैं और उनके मायके के घर का सरक्षण हो चुका है। लेखक का मानना है कि मरते वक्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती हैं क्योंकि उस वक्त तो मनुष्य अपने सबसे ज्यादा खूबसूरत सपने देखता है, ऐसा लेखक इसलिए सोचता है क्योंकि वह अब तक मरा नहीं है। इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था। कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी से बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़ जो उन्होंने खुद आम की गुठली की मदद से उगाया था, याद आया। वह उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और वह पेड़ भी उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बहुत सारी चीज़ें उन्हें याद आई। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नज़फ कैसे जा सकती थी।

वह बनारस के ‘फातमैन’ में दफ़न की गई क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन यानी इफ़्फ़न के पिता की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी। जब इफ़्फ़न की दादी का देहांत हुआ उस समय इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने स्कूल आकर खबर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी को सभी बीबी कह कर पुकारते थे। उस समय इफ़्फ़न चौथी कक्षा में पढ़ता था और टोपी से उसकी मुलाकात हो चुकी थी।

इफ़्फ़न को अपनी दादी से बड़ा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अपनी अम्मी, अपनी बाज़ी और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह ज़रा ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार डाँट मार दिया करती थीं। बाज़ी का भी यही हल था। अब्बू भी कभी-कभार घर को कचहरी समझकर फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब मौका मिलता उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थीं। बस एक दादी थी जिन्होंने कभी उसका दिल नहीं दुखाया। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थीं।

बाज़ी – बड़ी बहन
कचहरी – न्यायालय

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न को अपनी दादी से बहुत ज्यादा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अम्मी, बड़ी बहन और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह सबसे ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार इफ़्फ़न को डाँट देती थी और कभी-कभी तो मार भी दिया करती थी। बड़ी बहन भी अम्मी की ही तरह कभी-कभी डाँटती और मारती थी। अब्बू भी कभी-कभार घर को न्यायालय समझकर अपना फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब भी मौका मिलता वह उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थी। बस एक दादी ही थी जिन्होंने कभी भी किसी बात पर उसका दिल नहीं दुखाया था। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थी।

“सोता है संसार जागता है पाक परवरदिगार। आँखों से देखी नहीं कहती। कानों की सुनी कहती हूँ कि एक मुलुक में एक बादशाह रहा…..”


दादी की भाषा पर वह कभी नहीं मुस्कराया। उसे तो अच्छी-भली लगती थी। परन्तु अब्बू नहीं बोलने देते थे। और जब भी वह दादी से इसकी शिकायत करता तो वह हँस पड़तीं,” अ मोरा का है बेटा! अनपढ़ गँवारन की बोली तूँ काहे को बोले लग्यो। तूँ अपने अब्बा की ही बोली बोलौ।” बात ख़त्म हो जाती और कहानी शुरू हो जाती-


“त ऊ बादशा का किहिस कि तुरंते ऐक ठो हिरन मार लियावा…. ”


यह बोली टोपी के दिल में उतर गई थी। इफ़्फ़न की दादी उसे अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दीं। अपनी दादी से तो उसे नफ़रत थी, नफ़रत। जाने कैसी भाषा बोलती थीं। इफ़्फ़न के अब्बू और उसकी भाषा एक थी।

पाक – पवित्र
परवरदिगार – परमेश्वर
मुलुक – देश

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी पूरब की भाषा में इफ़्फ़न को कहानी सुनाते हुए कहती थी कि जब सारा संसार सोता है तब परमेश्वर जागता है। दादी इफ़्फ़न से कहती, कि वह आँखों से देखी घटना नहीं सुनाती। वह कानों की सुनी हुई घटना को सुनाती है कि “एक देश में एक बादशाह रहता था…..”
दादी की भाषा पर कभी भी इफ़्फ़न नहीं मुस्कुराया। उसे तो दादी की भाषा अच्छी-भली लगती थी। परन्तु इफ़्फ़न के अब्बू उसे दादी की भाषा नहीं बोलने देते थे। और जब भी इफ़्फ़न दादी से शिकायत करता कि उसके अब्बू उसे उनकी भाषा नहीं बोलने देते तो दादी हँस पड़ती थी और इफ़्फ़न से कहती थी कि उसका क्या है वह तो अनपढ़ गँवार है और उसकी बोली इफ़्फ़न को नहीं बोलनी चाहिए। उसे तो अपने अब्बा की ही बोली बोलनी चाहिए। दादी इसी तरह रोज़ बात को ख़त्म कर देती और कहानी सुनना शुरू कर देती कि “तब उस बादशाह ने एक दिन एक हिरण मार लिया।”

इफ़्फ़न की दादी की बोली टोपी के दिल में उतर गई थी, उसे भी इफ़्फ़न की दादी की बोली बहुत अच्छी लगती थी। टोपी की माँ और इफ़्फ़न की दादी की बोली एक जैसी थी। टोपी को अपनी दादी बिलकुल भी पसंद नहीं थी। उसे तो अपनी दादी से नफ़रत थी। वह पता नहीं कैसी भाषा बोलती थी। टोपी को अपनी दादी की भाषा और इफ़्फ़न के अब्बू की भाषा एक जैसी लगती थी।

वह जब इफ़्फ़न के घर जाता तो उसकी दादी ही के पास बैठने की कोशिश करता। इफ़्फ़न की अम्मी और बाजी से वह बातचीत करने की कभी कोशिश ही न करता। वे दोनों अलबत्ता उसकी बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तीं परन्तु जब बात बढ़ने लगती तो दादी बीच-बचाव करवा देतीं-
“तैं काहे को जाथै उन सभन के पास मुँह पिटावे को झाड़ू मारे। चल इधर आ….” वह डाँटकर कहतीं। परन्तु हर शब्द शक़्कर का खिलौना बन जाता। अमावट बन जाता। तिलवा बन जाता… और वह चुपचाप उनके पास चला जाता।


“तोरी अम्माँ का कर रहीं…” दादी हमेशा यहीं से बात शुरू करतीं। पहले तो वह चकरा जाता कि यह अम्माँ क्या होता है। पीर वह समझ गया माता जी को कहते हैं।

अलबत्ता – बल्कि
अमावट – पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत
तिलवा – तिल के बने व्यंजन

लेखक कहता है कि टोपी जब भी इफ़्फ़न के घर जाता था तो उसकी दादी के ही पास बैठने की कोशिश करता था। इफ़्फ़न की अम्मी और बड़ी बहन से तो वह बातचीत करने की कभी कोशिश नहीं करता था। क्योंकि वे दोनों ही टोपी की बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तीं थी परन्तु जब बात बढ़ने लगती थी तो दादी बीच-बचाव करवा देतीं थी और टोपी को डाँटते हुए कहती थी कि वो क्यों उन सब के पास जाता है उनके पास कोई काम नहीं होता उसे परेशान करने के आलावा। ये कह कर दादी टोपी को अपने पास बुला लेती । टोपी को इफ़्फ़न की दादी की डाँट का हर एक शब्द शक़्कर की तरह मीठा लगता था। पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत की तरह मज़ेदार लगता। तिल के बने व्यंजनों की तरह अच्छा लगता और वह दादी की डाँट सुन कर चुपचाप उनके पास चला आता। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी टोपी से हमेशा एक ही सवाल पूछ कर बात आगे बढ़ाती थी कि उसकी अम्मा क्या कर रही है। पहले-पहले तो टोपी को समझ में नहीं आया कि ये अम्मा क्या होता है परन्तु बाद में उसे समझ में आ गया कि माता जी को ही अम्मा कहा जाता है।

यह शब्द उसे अच्छा लगा। अम्माँ। वह इस शब्द को गुड़ की डाली की तरह चुभलाता रहा। अम्माँ। अब्बू। बाजी।
फिर एक दिन गज़ब हो गया।
डॉक्टर भृगु नारायण शुक्ला नीले तेल वाले के घर में भी बीसवीं सदी प्रवेश कर चुकी थी। यानी खाना मेज़-कुरसी पर होता था। लगती तो थालियाँ ही थीं परन्तु चौके पर नहीं।
उस दिन ऐसा हुआ कि बैंगन का भुरता उसे ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी खाना परोस रही थी। टोपी ने कहा-
“अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता।”
अम्मी!
मेज़ पर जितने हाथ थे रुक गए। जितनी आँखें थीं वो टोपी के चेहरे पर जम गईं।

चुभलाना – मुँह में कोई खाद्य पदार्थ रखकर उसे जीभ से बार-बार हिलाकर इधर-उधर करना
गज़ब – मुसीबत
चौका – चार वस्तुओं का समूह

topi shukla

लेखक कहता है कि जब टोपी ने अम्मा शब्द सुना तो उसे यह शब्द बहुत अच्छा लगा। जिस तरह गुड़ की डाली को मुँह में रख कर उसे जीभ से बार-बार हिलाकर इधर-उधर करके उसके स्वाद का आनंद लिया जाता है उसी तरह वह इस शब्द को भी बार-बार बोलता रहा। “अम्माँ”। “अब्बू”। “बाजी”। उसे ये शब्द बहुत पसंद आए।
फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसने टोपी को मुसीबत में डाल दिया।

डॉक्टर भृगु नारायण शुक्ला नीले तेल वाले (टोपी के पिता) के घर में भी बीसवीं सदी प्रवेश कर चुकी थी। कहने का अर्थ है कि अब टोपी के घर में भी खाना मेज़-कुरसी पर खाया जाता था। लगती तो थालियाँ ही थीं परन्तु जैसे पहले जमीन पर पालथी मार कर खाना खाया जाता था, उसकी जगह पर मेज़-कुरसी का प्रयोग किया जाने लगा था। उस दिन ऐसा हुआ कि टोपी को बैंगन का भुरता ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी (टोपी की माँ) खाना परोस रही थी। टोपी ने कह दिया कि अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता। अम्मी! यह शब्द सुनते ही मेज़ पर बैठे सभी लोग चौंक गए, उनके हाथ खाना खाते-खाते रुक गए। वे सभी लोग टोपी के चेहरे की ओर देखने लगे।

अम्मी! यह शब्द इस घर में कैसे आया। अम्मी! परम्पराओं की दीवार डोलने लगी।
“ये लफ़्ज़ तुमने कहाँ सीखा?” सुभद्रादेवी ने सवाल किया।
“लफ़्ज़?” टोपी ने आँखें नचाईं। “लफ़्ज़ का होता है माँ?”
“ये अम्मी कहना तुमको किसने सिखाया है?” दादी गरजीं।
“ई हम इफ़्फ़न से सीखा है।”
“उसका पूरा नाम क्या है?”
“ई हम ना जानते।”
“तैं कउनो मियाँ के लइका से दोस्ती कर लिहले बाय का रे?” रामदुलारी की आत्मा गनगना गई।
“बहू, तुमसे कितनी बार कहूँ कि मेरे सामने गँवारों की यह ज़बान न बोला करो।” सुभद्रादेवी रामदुलारी पर बरस पड़ीं।
लड़ाई का मोर्चा बदल गया।

डोलने – हिलने
लफ़्ज़ – शब्द

लेखक कहता है कि सभी यह सोच रहे थे कि यह “अम्मी” शब्द इस घर में कैसे आया। ऐसा लग रहा था जैसे रीति-रिवाजों की दीवार हिलने लगी हो। सुभद्रादेवी (टोपी की दादी) ने टोपी से सवाल किया कि ये लफ़्ज़ उसने कहाँ से सीखा? लफ़्ज़ सुनते ही टोपी ने अपनी आँखें घुमाई और अपनी माँ से लफ़्ज़ का अर्थ पूछने लगा। दादी फिर से गुस्से से पूछने लगी कि ये अम्मी कहना उसको किसने सिखाया है? इस पर टोपी ने उत्तर दिया कि यह उसने इफ़्फ़न से सीखा है। इफ़्फ़न सुनते ही दादी ने उसका पूरा नाम जानना चाहा परन्तु टोपी ने कहा कि उसे नहीं पता कि इफ़्फ़न का पूरा नाम क्या है? इतने में टोपी की माँ रामदुलारी बोल पड़ी कि “तैं कउनो मियाँ के लइका से दोस्ती कर लिहले बाय का रे?” अर्थात कहीं किसी मियाँ यानि मुस्लिम के लड़के से तो दोस्ती नहीं कर ली है। रामदुलारी की इस बोली पर सुभद्रादेवी बरस पड़ीं और कहने लगी की उसने कितनी बार रामदुलारी से कहा है कि इस तरह उसके सामने गँवारों की यह ज़बान न बोला करे। लेखक कहता है कि अब ऐसा लग रहा था कि लड़ाई का विषय ही बदल गया हो।
दूसरी लड़ाई के दिन थे इसलिए जब डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेल वाले को यह पता चला कि टोपी ने कलेक्टर साहब के लड़के से दोस्ती गाँठ ली है तो वह अपना गुस्सा पी गए और तीसरे ही दिन कपड़े और शक्कर के परमिट ले आए।
परन्तु उस दिन टोपी की बड़ी दुर्गति बनी। सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गईं और रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा।

“तैं फिर जय्यबे ओकरा घरे?”
“हाँ।”
“अरे तोहरा हाँ में लुकारा आगे माटी मिलाऊ।”
….रामदुलारी मारते-मारते थक गई। परन्तु टोपी ने यह नहीं कहा कि वह इफ़्फ़न के घर नहीं जाएगा। मुन्नी बाबू और भैरव उसकी कुटाई का तमाशा देखते रहे।

परमिट – अनुमति जो सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर लिखित रूप में दी जाती है
दुर्गति – बुरी दशा

कुटाई – पिटाई

लड़ाई का दूसरा दिन था इसलिए जब टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेल वाले को यह पता चला कि टोपी ने कलेक्टर साहब के लड़के से पक्की दोस्ती कर ली है (कहने का अर्थ है कि इफ़्फ़न के पिता कलेक्टर थे) तो वह अपना गुस्सा पी गए और तीसरे ही दिन टोपी की दोस्ती का फायदा उठा कर उन्होंने इफ़्फ़न के पिता से कपड़े और शक्कर के परमिट (अनुमति जो सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर लिखित रूप में दी जाती है) ले लिए ।

ये बात तो दूसरे-तीसरे दिन की है परन्तु जिस दिन सभी को पता चला था कि टोपी ने एक मुस्लिम लड़के से दोस्ती कर रखी है, तो उस दिन टोपी की बड़ी बुरी दशा हुई थी। टोपी की दादी सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गई थी और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा था और एक ही बात बार-बार पूछ रही थी कि क्या अब वह इफ़्फ़न के घर जाएगा? इसके उत्तर में हर बार टोपी “हाँ” ही कहता था। रामदुलारी उसके हर बार “हाँ” कहने पर कहती थी कि वह उसकी हाँ को मिट्टी में मिला देगी। टोपी की माँ टोपी को मारते-मारते थक गई परन्तु टोपी ने यह नहीं कहा कि वह इफ़्फ़न के घर नहीं जाएगा। मुन्नी बाबू और भैरव जो टोपी के भाई थे, वे टोपी की पिटाई का तमाशा देखते रहे।

“हम एक दिन एको रहीम कबाबची की दुकान पर कबाबो खाते देखा रहा।” मुन्नी बाबू ने टुकड़ा लगाया।
कबाब!
“राम राम राम!” रामदुलारी घिन्ना के दो कदम पीछे हट गईं। टोपी मुन्नी की तरफ़ देखने लगा। क्योंकि असलियत यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब कहते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी। टोपी को यह मालूम था परन्तु वह चुगलखोर नहीं था। उसने अब तक मुन्नी बाबू की कोई बात इफ़्फ़न के सिवा किसी और को नहीं बताई थी।
“तूँ हम्में कबाब खाते देखे रह्यो?”
“ना देखा रहा ओह दिन?” मुन्नी बाबू ने कहा।
“तो तुमने उसी दिन क्यों नहीं बताया?” सुभद्रादेवी ने सवाल किया।
“इ झु_आ है दादी!” टोपी ने कहा।

घिन्न – नफ़रत
असलियत – सच्ची बात
चुगलखोर – शिकायत करने वाला

लेखक कहता है कि जब टोपी की पिटाई हो रही थी, उसी समय मुन्नी बाबू एक और बात जोड़ कर बोले कि एक दिन टोपी को उन्होंने रहीम कबाबची की दुकान पर कबाब खाते देखा था। कबाब का नाम सुनते ही टोपी की माँ रामदुलारी नफ़रत के साथ दो कदम पीछे हट गई और “राम, राम, राम” कहने लगी। टोपी मुन्नी की तरफ़ देखने लगा क्योंकि सच्ची बात यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी ताकि टोपी घर पर उनकी शिकायत न कर दे। टोपी को यह मालूम था परन्तु वह शिकायत करने वाला नहीं था। उसने अब तक मुन्नी बाबू की कोई बात इफ़्फ़न के सिवा किसी और को नहीं बताई थी। टोपी मुन्नी बाबू की ओर देख कर बोला क्या उसने टोपी को कबाब खाते देखा था? तो मुन्नी ने फिर से कहा क्यों उस दिन नहीं देखा था क्या? इस पर टोपी की दादी सुभद्रादेवी ने मुन्नी बाबू से सवाल किया कि उसने उसी दिन क्यों नहीं बताया? टोपी बस बोलता रह गया कि मुन्नी झूठ बोल रहा है।

टोपी बहुत उदास रहा। वह अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि झूठ और सच के किस्से में पड़ता-और सच्ची बात तो यह है कि वह इतना बड़ा कभी नहीं हो सका। उस दिन तो वह इतना पिट गया था कि उसका सारा बदन दुख रहा था। वह बस लगातार एक ही बात सोचता रहा कि अगर एक दिन के वास्ते वह मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाता तो समझ लेता उनसे। परन्तु मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाना उसके बस में तो था नहीं। वह मुन्नी बाबू से छोटा पैदा हुआ था और उनसे छोटा ही रहा।
दूसरे दिन वह जब स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे सारी बातें बता दीं। दोनों जुग़राफ़िया का घंटा छोड़कर सरक गए। पंचम की दूकान से इफ़्फ़न ने केले ख़रीदे। बात यह है कि टोपी फल के अलावा और किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था।

बदन – शरीर
वास्ते – नाते, लिए
जुग़राफ़िया – भूगोल शास्त्र
सरक गए – निकल गए

लेखक कहता है कि जिस दिन टोपी की पिटाई हुई थी, उस दिन टोपी बहुत उदास रहा। टोपी अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि वह झूठ और सच को साबित करने की कोशिश करता और सच्ची बात तो यह है कि वह इतना बड़ा कभी हो भी नहीं सका। उस दिन तो टोपी की इतनी पिटाई हो गई थी कि उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। वह बस लगातार एक ही बात सोचता रहा कि अगर एक दिन के लिए वह अपने बड़े भाई मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाता तो वह जरूर उन्हें सबक सिखाता। परन्तु मुन्नी बाबू से बड़ा होना उसके लिये बिलकुल नामुमकिन था। वह मुन्नी बाबू से छोटा पैदा हुआ था और हमेशा उनसे छोटा ही रहने वाला था।


दूसरे दिन जब टोपी स्कूल गया और स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे पिछले दिन की सारी बातें बता दी। दोनों भूगोल शास्त्र की कक्षा को छोड़कर बाहर निकल गए। पंचम की दूकान से इफ़्फ़न ने केले ख़रीदे क्योंकि बात यह थी कि टोपी फल के अलावा बाहर की किसी भी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था।

“अय्यसा ना हो सकता का की हम लोग दादी बदल लें,” टोपी ने कहा। “तोहरी दादी हमरे घर आ जाएँ अउर हमरी तोहरे घर चली जाएँ। हमरी दादी त बोलियो तूँहीं लोगन को बो-ल-थीं।”
“यह नहीं हो सकता।” इफ़्फ़न ने कहा,” अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। और मुझे कहानी कौन सुनाएगा? तुम्हारी दादी को बारह बुर्ज की कहानी आती है?”
“तूँ हम्मे एक ठो दादियो ना दे सकत्यो?” टोपी ने खुद अपने दिल के टूटने की आवाज़ सुनी।
“जो मेरी दादी हैं वह मेरे अब्बू की अम्माँ भी तो हैं।” इफ़्फ़न ने कहा।
यह बात टोपी की समझ में आ गई।
“तुम्हारी दादी मेरी दादी की तरह बूढ़ी होंगी?”
“हाँ।”
“तो फ़िकर न करो।” इफ़्फ़न ने कहा,” मेरी दादी कहती हैं कि बूढ़े लोग मर जाते हैं।”
“हमरी दादी ना मरिहे।”
“मरेगी कैसे नहीं? क्या मेरी दादी झूठी हैं?”
ठीक उसी वक्त नौकर आया और पता चला कि इफ़्फ़न की दादी मर गईं।

अय्यसा – ऐसा
तोहरी – तुम्हारी
सकत्यो – सकता
फ़िकर – चिंता

टोपी बहुत ही भोलेपन से इफ़्फ़न से कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वे लोग दादी बदल ले? उसकी दादी इफ़्फ़न के घर और इफ़्फ़न की दादी उसके घर आ जाए। टोपी कहता है कि उसकी दादी की बोली तो इफ़्फ़न के परिवार की बोली की तरह ही है। टोपी की इस बात का जवाब देते हुए इफ़्फ़न कहता है कि टोपी की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती। उसके अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। और अगर उसकी दादी टोपी के घर चली जायगी तो उसे कहानी कौन सुनाएगा? इफ़्फ़न टोपी से पूछता है कि क्या उसकी दादी को बारह बुर्ज की कहानी आती है? टोपी इफ़्फ़न के इस तरह के जवाब को सुनकर अंदर से टूट गया और इफ़्फ़न से कहने लगा कि क्या वह उसे एक दादी भी नहीं दे सकता है। फिर इफ़्फ़न टोपी को समझाते हुए कहता है कि जो उसकी दादी हैं वह उसके अब्बू की अम्माँ भी तो हैं। यह बात टोपी को समझ आ गई। फिर इफ़्फ़न टोपी से पूछता है कि टोपी की दादी भी तो उसकी दादी की तरह बूढ़ी होंगी। टोपी हामी भरता है। इफ़्फ़न टोपी को कहता है कि वह चिंता न करे क्योंकि उसकी दादी कहती हैं कि बूढ़े लोग मर जाते हैं। टोपी कहता है कि उसकी दादी नहीं मारेगी। इस पर इफ़्फ़न कहता है कि कैसे नहीं मारेगी? क्या उसकी दादी झूठ बोलती है?


जब टोपी और इफ़्फ़न बात कर रहे थे उसी समय इफ़्फ़न का नौकर आया और खबर दी कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है।

इफ़्फ़न चला गया। टोपी अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिम्नेज़ियम में चला गया। बूढ़ा चपड़ासी एक तरफ बैठा बीड़ी पी रहा था। वह एक कोने में बैठकर रोने लगा। शाम को वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ सन्नाटा था। घर भरा हुआ था। रोज़ जितने लोग हुआ करते थे उससे ज्यादा ही लोग थे। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए घर खली हो चूका था। जबकि उसे दादी का नाम तक नहीं मालूम था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की कोई चीज़ नहीं खाई थी। प्रेम इन बातों का पाबन्द नहीं होता। टोपी और दादी में एक ऐसा ही सम्बन्ध हो चूका था। इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह इस सम्बन्ध को बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले न समझ पाए थे। दोनों अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों प्यासे थे। एक ने दूसरे की प्यास बुझा दी थी। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन मिटा दिया था। एक बहत्तर बरस की थी और दूसरा आठ साल का।
“तोरी दादी की जगह हमरी दादी मर गई होतीं त ठीक भया होता।” टोपी ने इफ़्फ़न को पुरसा दिया।
इफ़्फ़न ने कोई जवाब नहीं दिया। उसे इस बात का जवाब आता ही नहीं था। दोनों दोस्त चुपचाप रोने लगे।

सन्नाटा – शांति
पुरसा – सहानुभूति

लेखक कहता है कि जब नौकर ने आकर बताया कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है तो इफ़्फ़न स्कूल से घर चला गया। टोपी स्कूल में अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिम्नेज़ियम में चला गया। वहाँ बूढ़ा चपड़ासी एक तरफ बैठा बीड़ी पी रहा था। टोपी वहाँ एक कोने में बैठकर रोने लगा। शाम को जब वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ शांति थी। ऐसा नहीं है की घर में कोई नहीं था, घर लोगों से भरा हुआ था। जितने लोग रोज़ हुआ करते थे उससे ज्यादा ही लोग थे। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए पूरा घर खाली हो चूका था। जबकि टोपी को दादी का नाम भी मालूम नहीं था परन्तु उसका इफ़्फ़न की दादी से बहुत गहरा सम्बन्ध बन गया था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की कोई चीज़ नहीं खाई थी। प्रेम इन बातों को नहीं मानता। टोपी और दादी में एक ऐसा सम्बन्ध हो चूका था जिसे शायद अगर इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह भी बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले नहीं समझ पाए थे। दोनों अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों ही प्यार के प्यासे थे और एक ने दूसरे की इस प्यास को बुझा दिया था। दोनों अपने-अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे क्योंकि दोनों को ही उनके घर में कोई समझने वाला नहीं था। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन दूर कर दिया था। एक बहत्तर बरस की थी और दूसरा आठ साल का। टोपी इफ़्फ़न को सहानुभूति देता हुआ कहता है कि इफ़्फ़न की दादी की जगह उसकी दादी मर गई होती तो ठीक हुआ होता। इफ़्फ़न ने टोपी की इस बात का कोई जवाब नहीं दिया, असल में इफ़्फ़न को टोपी की इस बात का जवाब आता ही नहीं था। फिर दोनों दोस्त चुपचाप रोने लगे।

टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी ऐसे लड़के से दोस्ती नहीं करेगा जिसका बाप ऐसी नौकरी करता हो जिसमें बदली होती रहती है।
दस अक्तूबर सन पैंतालीस का यूँ तो कोई महत्त्व नहीं परन्तु टोपी के आत्म-इतिहास में इस तारीख का बहुत महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। इफ़्फ़न की दादी के मरने के थोड़े ही दिनों बाद यह तबादला हुआ था, इसलिए टोपी और अकेला हो गया क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त न बन सका। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। और यह बात भी थी कि उन तीनो को इसका एहसास था कि वे कलेक्टर के बेटे हैं। किसी ने टोपी को मुँह नहीं लगाया।

आत्म-इतिहास – जीवन के इतिहास
तबादला – बदली, स्थानांतरण

लेखक कहता है कि टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी भी ऐसे लड़के से कभी भी दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता कोई ऐसी नौकरी करते हो जिसमें बदली होती रहती हो। दस अक्तूबर सन पैंतालीस का ऐसे तो कोई महत्त्व नहीं है परन्तु टोपी के जीवन के इतिहास में इस तारीख का बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। इफ़्फ़न की दादी के मरने के थोड़े दिनों बाद ही इफ़्फ़न के पिता की बदली हुई थी। टोपी दादी के मरने के बाद तो अकेला महसूस कर ही रहा था और अब इफ़्फ़न के चले जाने पर वह और भी अकेला हो गया था क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त नहीं बन सका था। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। और उन तीनो को इसका एहसास था कि वे कलेक्टर के बेटे हैं इसलिए अकड़ कर रहते थे और किसी को अपने से ऊपर नहीं समझते थे। यही कारण था कि उनमें से किसी ने भी टोपी को मुँह नहीं लगाया अर्थात किसी ने भी टोपी के साथ दोस्ती नहीं की।

topi shukla

माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए वह बंगले में चला गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने हिट किया। गेंद सीधे टोपी मुँह पर आई। उसने घबराकर हाथ उठाया। गेंद उसके हाथों में आ गई।
“हाउज़ दैट!”

हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। वह बेचारा यह समझ सका कि जब ‘हाउज़ दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए

“हू आर यू?” डब्बू ने सवाल किया।
“बलभद्र नरायण।” टोपी ने जवाब दिया।
“हू इज़ योर फ़ादर?” यह सवाल गुड्डू ने किया।
“भृगु नरायण”
“ऐं।” बीलू ने अंपायर को आवाज़ दी, “ई भिरगू नरायण कौन ऐ? एनी ऑफ़ अवर चपरासीज़?”
“नाहीं साहब।” अंपायर ने कहा,” सहर के मसहूर दागदर हैं।”
“यू मीन डॉक्टर?” डब्बू ने सवाल किया।
“यस सर!” हेड माली को इतनी अंग्रेजी आ गई थी।
“बट ही लुक्स सो क्लम्ज़ी।” बीलू बोला।
“ए!” टोपी अकड़ गया। “तनी जबनीया सँभाल कर बोलो। एक लप्पड़ में नाचे लगिहो।”
“ओह यू…” बीलू ने हाथ चला दिया। टोपी लुढ़क गया। फिर वह गालियाँ बकता हुआ उठा। परन्तु हेड माली बीच में आ गया और डब्बू ने अपने अलसेशियन को शुशकार दिया।

मसहूर – प्रसिद्ध
क्लम्ज़ी – भद्दा
अकड़ – घमंड
लप्पड़ – थपड़
शुशकार – कुत्ते को किसी के पीछे लगाने के लिए नीलाले जाने वाली आवाज़

लेखक कहता है कि माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए टोपी इफ़्फ़न के जाने के बाद बंगले में गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने गेंद को बोन्ड्री की ओर मारा। गेंद सीधे टोपी के मुँह पर आई।

उसने घबराकर जैसे ही हाथ उठाया, गेंद उसके हाथों में आ गई। जैसे ही गेंद टोपी के हाथों में आई, वैसे ही गेंद करने वाला गुड्डू चिल्लाया “हाउज़ दैट”। हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। उस बेचारे को अब तक सिर्फ यह समझ आ सका था कि जब ‘हाउज़ दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए। टोपी को देख कर डब्बू ने सवाल किया कि तुम कौन हो? डब्बू के इस सवाल के जवाब में टोपी ने अपना पूरा नाम बताया की वह बलभद्र नरायण है। फिर गुड्डू ने सवाल किया कि उसके पिता का क्या नाम है? टोपी ने बताया कि उसके पिता का नाम भृगु नरायण है। बीलू ने अंपायर बने हेड चपरासी को आवाज़ दी और उससे पूछा कि ये भृगु नरायण कौन है? क्या वो उनके चपरासियों में से एक है? अंपायर बने हेड चपरासी ने बीलू के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि भृगु नरायण उनका कोई चपरासी नहीं है, वह तो शहर का प्रसिद्ध दागदर है। डब्बू माली के दागदर शब्द को सही करता हुआ पूछता है कि क्या वह डॉक्टर कहना चाहता है। हेड माली हामी भरता है। उसे उनके साथ रहते हुए इतनी अंग्रेजी तो आ ही गई थी। बीलू टोपी को देख कर बोलता है कि वह भद्दा दिख रहा है। टोपी यह सुन कर घमंड के साथ बोलता है कि वह अपनी जुबान संभाल कर बात करे। अगर उसने उन्हें एक थप्पड़ मार दिया तो वे नाचने लगेंगे। इतना सुनते ही बीलू ने टोपी पर हाथ चला दिया और टोपी गिर गया। फिर टोपी उसे गालियाँ बकता हुआ उठा। परन्तु हेड माली उनकी लड़ाई को ख़त्म करने के लिए बीच में आया। इतने में डब्बू ने अपने अलसेशियन कुत्ते को आवाज दे कर टोपी के पीछे छोड़ दिया।

पेट में सात सुइयाँ भुकीं तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर उसने कलेक्टर साहब के बँगले की और रुख नहीं किया। परन्तु अब प्रश्न यह खड़ा हो गया कि फिर आखिर वह करे क्या? घर में ले-देकार बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह उसी के पल्लू में चला गया और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। इसलिए दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे।
“टेक मत किया करो बाबू!” एक रात जब मुन्नी बाबू और भैरव का दाज करने पर वह बहुत पीटा तो सीता ने उसे अपनी कोठरी में ले जा कर समझाना शुरू किया।

भुकीं – चुभी
रुख – चेहरा
दाज – बराबरी

लेखक कहता है कि जब डब्बू ने अपने अलसेशियन कुत्ते को आवाज दे कर टोपी के पीछे छोड़ दिया तो कुत्ते ने टोपी को काट लिया। फिर जब टोपी के पेट में सात सुइयाँ चुभाई गई तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर उसने कलेक्टर साहब के बँगले की ओर चेहरा नहीं किया। परन्तु अब प्रश्न यह खड़ा हो गया कि फिर आखिर वह करे क्या? क्योंकि अब न तो इफ़्फ़न था और न ही इफ़्फ़न की दादी जो उसे समझ सके। घर में ले-देकार एक बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह अब सीता के साथ ही समय गुजारने लगा और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। क्योंकि सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे और टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। तो दोनों की स्थिति एक सी थी इसलिए दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे। एक रात जब मुन्नी बाबू और भैरव की बराबरी करने के कारण टोपी बहुत पीटा तो सीता ने उसे अपनी कोठरी में ले जा कर समझाना शुरू किया कि वह इस तरह किसी की बराबरी करने की कोशिश न किया करे।

बात यह हुई कि जाड़ों के दिन थे। मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया। भैरव के लिए भी नया कोट बना। टोपी को मुन्नी बाबू का कोट मिला। कोट बिलकुल नया था। मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो था उन्ही के लिए। था तो उतरन। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी जाने वाली चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी जाड़ा खाए।

“हम जाड़ा-ओड़ा ना खाएँगे। भात खाएँगे।” टोपी ने कहा।
“तुम जूते खाओगे।” सुभद्रादेवी बोलीं।
“आपको इहो ना मालूम कि जूता खाया ना जात पहिना जात है।”
“दादी से बदतमीज़ी करते हो।” मुन्नी बाबू ने बिगड़कर कहा।
“त का हम इनकी पूजा करें।”
फिर क्या था! दादी ने आसमान सिर पर उठा लिया। रामदुलारी ने उसे पीटना शुरू किया….

जाड़ा – ठण्ड
उतरन – किसी के द्वारा पहनकर उतारे हुए वे पुराने कपड़े जिनका उपयोग अब वह न करता हो
बदतमीज़ी – अपमान
आसमान सिर पर उठाना – बहुत अधिक शोर मचाना

लेखक कहता है कि सीता टोपी को इसलिए समझा रही थी क्योंकि बात यह हुई कि ठण्ड के दिन थे और मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया और भैरव के लिए भी नया कोट बना लेकिन टोपी को मुन्नी बाबू का पुराना कोट मिला। वैसे कोट बिलकुल नया ही था क्योंकि जब वह बनाया गया तब वह मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो उन्हीं के लिए था। भले ही वह उसे ना पहनते हो। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी गई कोई भी चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी ठण्ड ही खाएगा। टोपी छोटा था इसलिए ठण्ड खाने का अर्थ समझा नहीं और भोलेपन से बोला कि वह कोई ठण्ड नहीं खाएगा। वह तो भात खाएगा। इस पर टोपी की दादी सुभद्रादेवी बोली कि वह तो जूते खाएगा। टोपी उनकी इस बात पर झट से बोल पड़ा कि क्या उन्हें इतना भी नहीं पता कि जूता खाया नहीं जाता बल्कि पहना जाता है। टोपी के इस तरह बोलने पर मुन्नी बाबू गुस्से से टोपी को डाँटते हुए बोले कि वह दादी का अपमान क्यों कर रहा है? इस पर भी टोपी उल्टा जवाब देता हुआ बोला कि तो क्या वह उनकी पूजा करे? यह सुनते ही दादी ने बहुत अधिक शोर मचाना शुरू कर दिया और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को पीटना शुरू कर दिया।

“तूँ दसवाँ में पहुँच गइल बाड़।” सीता ने कहा, “तूँ हें दादी से टर्राव के त ना न चाही। कीनों ऊ तोहार दादी बाड़िन।”
सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि वह दसवें में पहुँच गया है, परन्तु यह बात इतनी आसान नहीं थी। दसवें में पहुँचाने के लिए उसे बड़े पापड़ बेलने पड़े। दो साल तो वह फेल ही हुआ। नवें में तो वह सन उनचास ही में पहुँच गया था, परन्तु दसवें में वह सन बावन में पहुँच सका।
जब वह पहली बार फ़ेल हुआ मुन्नी बाबू इन्टरमीडिएट में फ़र्स्ट आए और भैरव छठे में। सारे घर ने उसे ज़बान की नोक पर रख लिया। वह बहुत रोया। बात यह नहीं थी कि वह गाउदी था। वह काफ़ी तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी वह पढ़ने बैठता मुन्नी बाबू को कोई काम निकल आता या रामदुलारी को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी-यह सब कुछ न होता तो पता चलता कि भैरव ने उसकी कापियों के हवाई जहाज़ उड़ा डाले हैं।
दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया।

तीसरे साल वह थर्ड डिवीज़न में पास हो गया। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया।
परन्तु हमें उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए।

पापड़ बेलना – बहुत मेहनत करना
इन्टरमीडिएट – माध्यमिक
ज़बान की नोक पर रखना – लगातार किसी की बात करना
गाउदी – मुर्ख, मन्दबुद्धि

जब टोपी को उसकी माँ ने दादी को उल्टा जवाब देने के लिए पीटा तो उनकी बूढ़ी नौकरानी सीता टोपी को समझाने लगी कि अब वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया है। उसे दादी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए आखिरकार वह उसकी दादी है। सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया है परन्तु टोपी के लिए दसवीं कक्षा में पहुँचना इतना भी आसान नहीं था। दसवीं कक्षा में पहुँचने के लिए टोपी को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी थी। दो साल तो टोपी फेल ही हुआ था। नवीं कक्षा में तो टोपी सन उनचास ही में पहुँच गया था, परन्तु दसवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते साल बावन हो चूका था। जब टोपी पहली बार फेल हुआ तो उसका बड़ा भाई मुन्नी बाबू माध्यमिक (10th) कक्षा में प्रथम आया और उसका छोटा भाई भैरव छठी कक्षा में प्रथम आया। सभी घरवाले हर समय टोपी की ही बात करने लगे। उस समय टोपी बहुत रोया था। ऐसी बात नहीं थी कि वह मुर्ख या मन्दबुद्धि था। वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी टोपी पढ़ाई करने बैठता था तो कभी उसके बड़े भाई मुन्नी बाबू को कोई काम याद आ जाता था या उसकी माँ को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी, अगर ये सारी चीज़े न होती तो कभी उसका छोटा भाई भैरव उसकी कापियों के पन्नों को फाड़ कर उनके हवाई जहाज़ बना कर उड़ाने लग जाता। यह तो थी पहले साल की बात। दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया था। जिसके कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाया और दूसरी साल भी फेल हो गया। तीसरे साल वह पास तो हो गया परन्तु थर्ड डिवीज़न में। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया।

परन्तु लेखक कहता है कि सभी को उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस वजह से दो साल में फेल हुआ और तीसरी साल में थर्ड डिवीज़न से पास हुआ।

सन उनचास में वह अपने साथियों के साथ था। वह फेल हो गया। साथी आगे निकल गए। वह रह गया। सन पचास में उसे उसी दर्जे में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो पिछले साल आठवें में थे।
पीछे वालों के साथ एक ही दर्जे में बैठना कोई आसान काम नहीं है। उसके दोस्त दसवें में थे। वह उन्हीं से मिलता, उन्हीं के साथ खेलता। अपने साथ हो जाने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहो सकी। वह जब भी क्लास में बैठता उसे अपना बैठना अजीब लगता। उस पर सितम यह हुआ कि कमज़ोर लड़कों को मास्टर जी समझाते तो उसकी मिसाल देते –

“क्या मतलब है साम अवतार (या मुहम्मद अली?) बलभद्र की तरह इसी दर्जे में टिके रहना चाहते हो क्या?”
यह सुन सारा दर्जा हँस पड़ता। हँसने वाले वे होते जो पिछले साल आठवें में थे।
वह किसी न किसी तरह इस साल को झेल गया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवें दर्जे में ही बैठना पड़ा तो वह बिलकुल गीली मिट्टी का लौंदा हो गया, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। आठवें वाले दसवें में थे। सातवें वाले उसके साथ! उनके बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देता था।

दर्जे – कक्षा
सितम – ज़ुल्म

मिसाल – उदाहरण
गीली मिट्टी का लौंदा – गीली मिट्टी का पिंड

लेखक कहता है कि सन उनचास में टोपी अपने साथियों के साथ था। जब वह फेल हो गया तो उसके सभी साथी आगे निकल गए और वह नवीं कक्षा में ही रह गया। सन पचास में उसे उसी कक्षा में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो पिछले साल आठवीं कक्षा में थे। पिछली कक्षा वालों के साथ एक ही कक्षा में बैठना कोई आसान काम नहीं होता। टोपी के सभी दोस्त दसवीं कक्षा में थे। इसलिए वह उन्हीं से मिलता और उन्हीं के साथ खेलता था। अपने साथ नवीं कक्षा में पढ़ने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं हो सकी थी। वह जब भी कक्षा में बैठता, उसे अपना उस कक्षा में बैठना अजीब लगता था। उस पर ज़ुल्म यह हुआ कि कक्षा के कमज़ोर लड़कों को जब मास्टर जी समझाते तो उस का उदाहरण देते हुए कहते कि साम अवतार (या मुहम्मद अली), बलभद्र की तरह इसी कक्षा में टिके रहना चाहते हो क्या? यह सुन कर सारी कक्षा हँसने लगती। हँसने वाले वे विद्यार्थी होते थे जो पिछले साल आठवीं कक्षा में थे। टोपी ने किसी न किसी तरह इस साल को झेल लिया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवीं कक्षा में ही बैठना पड़ा तो उसे बहुत अधिक शर्म महसूस होने लगी, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। जो विद्यार्थी सन उनचास में आठवीं कक्षा में थे वे अब दसवीं कक्षा में थे। जो सन उनचास में सातवीं कक्षा में थे वे टोपी के साथ पहुँच गए थे। उन सभी के बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देने लगा था।

वह अपने भरे-पूरे घर की ही तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसका नोटिस लेना बिलकुल ही छोड़ दिया था कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए वह भी हाथ उठता तो कोई मास्टर उससे जवाब न पूछता। परन्तु जब उसका हाथ उठता ही रहा तो एक दिन अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा –


“तीन बरस से यही किताब पढ़ रहे हो, तुम्हें तो सारे जवाब ज़ुबानी याद हो गए होंगे! इन लड़कों को अगले साल हाई स्कूल का इम्तिहान देना है। तुमसे पारसाल पूछ लूँगा।”
टोपी इतना शर्माया कि उसके काले रंग लाली दौड़ गई। और जब तमाम बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े तो वह बिलकुल मर गया। जब वह पहली बार नवें में आया था तो वह भी इन्हीं बच्चों की तरह बिलकुल बच्चा था।

बरस – साल
इम्तिहान – परीक्षा
पारसाल – आने वाला साल
तमाम – सभी

लेखक कहता है कि जिस तरह टोपी अपने भरे-पूरे घर में भी अकेलापन महसूस करता था, उसी तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसकी ओर ध्यान देना बिलकुल ही छोड़ दिया था, कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए जब टोपी भी हाथ उठाता, तो कोई मास्टर उससे जवाब नहीं पूछता था। परन्तु जब टोपी ने हार नहीं मानी और अपना हाथ उठाता ही रहा, तो एक दिन अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा कि टोपी तो तीन साल से यही किताब पढ़ रहा है, उसे तो सारे जवाब ज़ुबानी याद हो गए होंगे, उसके साथ बैठे इन लड़कों को अगले साल हाई स्कूल की परीक्षा देनी है। उन्हें इस साल इन लड़कों से प्रश्न पूछने दो, टोपी से तो वे आने वाले साल में भी पूछ सकते हैं। अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब की इस बात को सुन कर टोपी इतना शर्माया कि उसका काला रंग भी लाल हो गया। और जब सभी बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े तो टोपी मानो बिलकुल मर ही गया हो। जब वह पहली बार नवीं कक्षा में आया था, तो वह भी इन्हीं बच्चों की तरह बिलकुल बच्चा ही था। और अब दो साल इसी कक्षा में होने के कारण वह बिलकुल बूढ़ा लगता था।

फिर उसी दिन अबदुल वहीद ने रिसेज़ में वह तीर मारा कि टोपी बिलकुल बिलबिला उठा।
वहीद क्लास का सबसे तेज़ लड़का था। मॉनीटर भी था। और सबसे बड़ी बात यह है कि वह लाल तेल वाले डॉक्टर शुरफ़ुद्दीन का बेटा था।
उसने कहा,” बलभद्दर! अबे तू हम लोगन में का घुसता है। एड्थ वालन से दोस्ती कर। हम लोग तो निकल जाएँगे, बाकी तुहें त उन्हीं सभन के साथ रहे को हुएहै।”
यह बात टोपी के दिल के आर-पार हो गई। और उसने कसम खाई कि टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, उसे पास होना है।
परन्तु बीच में चुनाव आ गए।
डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेल वाले खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो उसमें कोई पढ़-लिख कैसे सकता है!
वह तो जब डॉक्टर साहब की ज़मानत ज़ब्त हो गई तब घर में ज़रा सन्नाटा हुआ और टोपी ने देखा कि इम्तिहान सिर पर खड़ा है।
वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु ऐसे वातावरण में क्या कोई पढ़ सकता था? इसलिए उसका पास ही हो जाना बहुत था।
“वाह! दादी बोलीं,” भगवान नजरे-बंद से बचाए। रफ़्तार अच्छी है। तीसरे बरस तीसरे दर्जे में पास तो हो गए।….”

रिसेज़ – लंच, स्कूल में दोपहर के भोजन का समय
बिलबिला- बहुत अधिक गुस्से में आना
मॉनीटर – मुखिया
सन्नाटा – शांति

नजरे-बंद – जो किसी स्थान पर निगरानी के लिए रखा गया हो और जिसे निश्चित सीमा के बाहर जाने की आज्ञा न हो

topi shukla

जब अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर ने टोपी को कक्षा में बेइज्जत किया था, उसी दिन अबदुल वहीद ने लंच में एक ऐसी बात कही कि टोपी बहुत अधिक गुस्से में आ गया। वहीद कक्षा का सबसे तेज़ लड़का था। कक्षा का मुखिया भी था।

और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह लाल तेल वाले डॉक्टर शुरफ़ुद्दीन का बेटा था। अबदुल वहीद ने टोपी से कहा कि वह उन लोगों के साथ क्यों खेलता है। उसे तो आठवीं कक्षा वालों से दोस्ती करनी चाहिए क्योंकि वे लोग तो आगे दसवीं कक्षा में चले जाएँगे और टोपी को तो आठवीं वालों के साथ ही रहना है तो उनसे दोस्ती करना टोपी के लिए अच्छा होगा। यह बात टोपी को बहुत बुरी लगी और ऐसा लगा जैसे यह बात उसके दिल के आर-पार हो गई हो। और उसने उसी समय कसम खाई कि इस साल उसे टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, वह पास होकर ही दिखाएगा।

परन्तु साल के बीच में ही चुनाव आ गए। टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण, नीले तेल वाले, चुनाव लड़ने के लिए खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो, उस घर में कोई पढ़-लिख कैसे सकता है? वह तो जब डॉक्टर साहब चुनाव हार गए तब घर में थोड़ी शांति हुई और टोपी ने देखा कि उसकी परीक्षा को ज्यादा समय नहीं रहा है। वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु जैसा वातावरण टोपी के घर में बना हुआ था ऐसे वातावरण में कोई कैसे पढ़ सकता था? इसलिए टोपी का पास हो जाना ही बहुत था। टोपी के दो साल एक ही कक्षा में रहने के बाद जब वह पास हुआ तो उसकी दादी बोली कि वाह! टोपी को भगवान नजरे-बंद से बचाए। बहुत अच्छी रफ़्तार पकड़ी है। तीसरे साल पास हुआ वो भी तीसरी श्रेणी में, चलो पास तो हो गया।

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राही मासूम रज़ा का जीवन परिचय

राही मासूम रज़ा (१ सितंबर, १९२५-१५ मार्च १९९२)  का जन्म गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एमए करने के बाद उर्दू में `तिलिस्म-ए-होशरुबा' पर पीएच.डी. की। पीएच.डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे।

कबीर की साखी

पाठ-1 कबीर की साखी

पाठ प्रवेश

‘साखी’ शब्द ‘साक्षी’ शब्द का ही तद्भव रूप है। साक्षी शब्द साक्ष्य से बना है जिसका अर्थ होता है-प्रत्यक्ष ज्ञानेन। यह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु शिष्य को प्रदान करता है। संत संप्रदाय में अनुभव ज्ञान की ही महत्ता है, शास्त्रीय ज्ञान की नहीं। कबीर का अनुभव क्षेत्र विस्तृत था। कबीर जगह-जगह भ्रमण कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे।

अतः उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसी कारण उनकी भाषा को ‘पचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है। कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भी कहा जाता है।

‘साखी’ वस्तुत: दोहा छंद ही है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा। प्रस्तुत पाठ की साखियाँ प्रमाण हैं कि सत्य की साक्षी देता हुआ ही गुरु शिष्य को जीवन के तत्वज्ञान की शिक्षा देता है। यह शिक्षा जितनी प्रभावपूर्ण होती है उतनी ही याद रह जाने योग्य भी।

साखी

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोड़।

अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ।।

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि ।

ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहिं।।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि ।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ।।

सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै ।।

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।

राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ ।।

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।

बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ ।।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोई।

ऐकै अषिर पीव का, पढ़े सु पंडित होइ।

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।

पाठ का सार

कबीर द्वारा रचित ‘साखी’ रचना नीति पर आधारित है। प्रस्तुत सभी साखियाँ उपदेशात्मक है। कबीर का कहना है कि मनुष्य को हमेशा मीठी वाणी बोलनी चाहिए जिससे वह स्वयं और दूसरे, दोनों ही प्रसन्न हों। कबीर का मानना है कि ईश्वर है, जब मनुष्य ज्ञान रूपी दीपक अपने हृदय में जलाए तो अज्ञानता रूपी अंधकार को मिटाकर उस ईश्वर को प्राप्त कर सकता। यह भी कहा गया है कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अपने मन के अंधकार को भी समाप्त करना पड़ता है। इन साखियों में कबीर का दुख उभरकर आता है। संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खाते-पीते हैं और सोते हैं अर्थात सुख-सुविधाओं से भरा जीवन व्यतीत करते हैं। उन्हें ईश्वरीय ज्ञान से कुछ लेना-देना नहीं। दूसरी ओर वे भी हैं, जो  सदा जागृत रहते हैं। प्रभु के वियोग में तड़पते रहते हैं। निदंक को कबीर ने स्वभाव-सुधारक के रूप में प्रस्तुत किया है और कहा है यदि हम अपना स्वभाव सुधारना चाहते हैं, तो सदा निंदक को पास रखें ताकि वह हमारी त्रुटियाँ बताता रहे। उन्हें साखियों में यह भी बताया गया है कि बड़े-बड़े ग्रंथ पढ़ने से ईश्वर नहीं मिलता ।प्रेम से केवल उसका नाम लेने पर उसकी प्राप्ति होती है। अंत में कबीर यह कहकर सचेत करना चाहते हैं कि यदि सांसारिक विषय-वासनाओं को त्याग दें तो ईश्वर की प्राप्ति होती है।

मीरा के पद

पाठ-2 मीरा के पद

 हरि आप हरो जन री भीर।                           

 द्रौपदी री लाज राखी, आप बढ़ायो चीर।

 भगत कारण रूप नरहरि, धर्यो आप सरीर।

 बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी कुण्जर पीर,दासी मीरों लाल गिरघर, हरो म्हारी भीर।

 शब्दार्थ-

  • हरि-कृष्ण
  • हरो-दूर करो
  • भीर -पीड़ा
  • लाज राखी -इज्ज़त बचाई
  • बढ़ाया -बढ़ाए
  • चीर -वस्त्र
  • धारयो -धारण किया
  • गजराज -हाथी
  • राख्यो-रक्षा करो
  • काटी कुंजर पीर -हाथी से पीड़ा से मुक्त किया

पद का भावार्थ

प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई ने अपने पदों में अपने आराध्य देव श्रीकृष्ण के प्रति अपनी भक्ति, आस्था और श्रद्धा की है। वे उन्हें अपना संरक्षक मानती हैं। पहले   पद में वे अपने प्रभु श्रीकृष्ण से जन-जन की पीड़ा हरने की विनती करती भक्त प्रहलाद, गजराज तथा कुंजर का उदाहरण देकर कृष्ण को अपने प्रति कर्त्तव्य   का स्मरण कराती हैं की हे गिरिधर! आप मेरी भी पीड़ा हरण कीजिए। मुझे सांसारिक भव-बंधनों से मुक्त कीजिए। इस प्रकार मीरा अपने आराध्य की   क्षमताओं का गुणगान करते हुए उनका स्मरण करती है।

प्रसंग

प्रस्तुत पद हमारी हिन्दी पाठ्य-पुस्तक स्पर्श से लिया गया है।इस पाठ की कवियत्री मीराबाई हैं।इस पद में मीरा अपने आराध्य से अन्य जनों के साथ अपने   कष्ट को भी दूर करने की प्रार्थना करती हैं।

व्याख्या

पहले पद में मीराबाई श्री कृष्ण का भक्तों के प्रति प्रेम और अपना श्री कृष्ण के प्रति भक्ति भाव का वर्णन करती है। - पहले पद में मीरा श्री कृष्ण से कहती   हैं कि जिस प्रकार आपने द्रोपदी, प्रह्लाद और ऐरावत के दुखों को दूर किया था उसी तरह मेरे भी सारे दुखों का नाश कर दो।

मीरा के पद

स्याम म्हाने चाकर राखो जी,

गिरधारी लाला म्हाँने चाकर राखोजी।

चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ।

बिन्दरावन री कुंज गली में, गोविन्द लीला गास्यूँ।

चाकरी में दरसण पास्यूँ, सुमरण पास्यूँ खरची।

भाव भगती जागीरी पास्यूँ, तीनूं बाताँ सरसी।

मोर मुगट पीताम्बर सौहे, गल वैजन्ती माला।

बिन्दरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला।

ऊँचा ऊँचा महल बणावं बिच बिच राखूँ बारी।

साँवरिया रा दरसण पास्यूँ, पहर कुसुम्बी साड़ी।

आधी रात प्रभु दरसण, दीज्यो जमनाजी रे तीरा।

मीराँ रा प्रभु गिरधर नागर, हिवड़ो घणो अधीरां।।

 शब्दार्थ

  • मोर मुकुट- मोर पंख से बना हुआ मुकुट
  • पीताम्बर- पीला वस्त्र
  • सौहे- सुशोभित है
  • गल- गले में
  • वैजन्तीएक प्रकार का फूल
  • धेनु- गाय
  • बारी फुलवारी
  • सांवरिया- सांवला कृष्ण
  • पहरपहनकर
  • कुसुंबी- लाल रंग की
  • दिज्यो- देना
  • तीरा- किनारे
  • हिबडों- ह्रदय
  • घणो- बहुत
  • अधीरा- बेचैनी

पद का भावार्थ

दूसरे पद में मीरा अपने आराध्य का सामीप्य पाने के लिए उनकी चाकरी करने की इच्छा प्रकट करती हैं। वे श्रीकृष्ण काम करने को तत्पर हैं। प्रातः उठकर   उनके दर्शन करना चाहती हैं। वे वृंदावन की कुंज गलियों में कृष्ण-लीला का गुणगान वह चाहती हैं। उनके रूप-सौंदर्य का वर्णन करते हुए वे इष्टदेव से यमुना   के किनारे दर्शन देने का भी अनुरोध करती हैं। मीरा इन पदों में कभी अपने आराध्य से मनुहार करती हैं, तो कभी लाड़ लड़ाती हैं, मौका मिलने पर शिकायत   करने से भी इकती हैं। इस प्रकार मीरा का संपूर्ण व्यक्तित्व कृष्ण से जुड़ा हुआ है। इनकी भक्ति दैन्य और माधुर्य भाव की है। इन पदों का श्रीकृष्ण के प्रति   एकनिष्ठ प्रेम दृष्टिगोचर होता है।

प्रसंग

प्रस्तुत पद हमारी हिन्दी पाठ्य-पुस्तक स्पर्श से लिया गया है। इसकी कवियत्री मीराबाई हैं।इस पद में मीरा श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम का वर्णन कर रही हैं   और श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए कितनी व्याकुल हैं,ये दर्शा रही हैं।

व्याख्या

दूसरे पद में मीरा श्री कृष्ण के दर्शन का एक भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहती, वह श्री कृष्ण की दासी बनाने को तैयार है, बाग़- बगीचे लगाने को भी   तैयार है, गली गली में श्री कृष्ण की लीलाओं का बखान भी करना चाहती है, ऊँचे ऊँचे महल भी बनाना चाहती है, ताकि दर्शन का एक भी मौका न चुके ।इस   पद में श्री कृष्ण के मन मोहक रूप का वर्णन भी किया है और मीरा कृष्ण के दर्शन के लिए इतनी व्याकुल है की आधी रात को ही कृष्ण को दर्शन देने के लिए बुला रही है।

बिहारी के दोहे

पाठ-3 दोहे के बिहारी

कवि परिचय

बिहारी का जन्म 1595 में ग्वालियर में हुआ था। जब बिहारी सात-आठ साल के थे तभी इनके पिता ओरछा चले आए, जहाँ बिहारी ने आचार्य केशवदास से काव्य शिक्षा पाई। यहीं बिहारी रहीम के संपर्क में आए। बिहारी ने अपने जीवन के कुछ वर्ष जयपुर में भी बिताए। बिहारी रसिक जीव थे  ,पर इनकी रसिकता नागरिक जीवन की रसिकता थी। उनका स्वभाव विनोदी और व्यंग्यप्रिय था।

पाठ प्रवेश

मांजी, पौंछी, चमकाइ, युत प्रतिभा जतन अनेक।

दीरघ जीवन, विविध सुख, रची ‘सतसई’ एक।

बिहारी ने केवल एक ही ग्रंथ की रचना की-‘बिहारी सतसई’। इस ग्रंथ में लगभग सात सौ दोहे हैं।

दोहा जैसे छोटे से छंद में गहरी अर्थव्यंजना के कारण कहा जाता है कि बिहारी गागर में सागर भरने में निपुण थे। उनके दोहों के अर्थगांभीर्य को देखकर कहा जाता है

सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर।

बिहारी की ब्रजभाषा मानक ब्रजभाषा है। सतसई में मुख्यतः प्रेम और भक्ति के सारगर्भित दोहे हैं। इसमें अनेक दोहे नीति संबंधी हैं। यहाँ सतसई के कुछ दोहे दिए जा रहे हैं।

बिहारी मुख्य रूप से शृंगारपरक दोहों के लिए जाने जाते हैं, किंतु उन्होंने लोक-व्यवहार, नीति ज्ञान आदि विषयों पर भी लिखा है। संकलित दोहों में सभी प्रकार की छटाएँ हैं। इन दोहों से आपको ज्ञात होगा कि बिहारी कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक अर्थ भरने की कला में निपुण हैं।

दोहे

सोहत ओढ़ पीतु पटु स्याह सलोने गात।

मनौ नीलमनि-सैल पर आतपु पर्यो प्रभात। ।

कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।

जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ-दाघ ।।

बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।

सौंह करें भौंहनु हँसै, दैन कहँ नटि जाइ ||

कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।

भरे भौन मैं करत हैं नैननु हीं सब बात।।

बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन माँह।

देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह ।।

कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।

कहिहै सबुत तेरो हियौ,मेरे सिर की बात।।

प्रगट भये द्विराज -कुल सुबस बसे ब्रज आइ।

मेरे हरौ कलेस सब,केसव केसवराइ।।

जप माला छापै तिलक,सरै न एकौ काम।

मन -कांचे नाचे बृंथा ,सांचैर रांचे रामु।। पर

दोहे का प्रतिपाद्य:-

उत्तर-   बिहारी रीतिकाल के सुप्रसिद्ध कवि थे। अपने काव्य में इन्होंने शृंगार और भक्ति के दोहों को स्थान दिया। प्रस्तुत दोहों में कवि ने भगवान श्रीकृष्ण के साँवले-सलोने रूप का मनोहारी वर्णन किया है। गर्मी ने वन को ऐसा तपोवन बना दिया है कि हिरन, बाघ, साँप, मोर जो स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के शत्रु होते हैं, वे भी इकट्ठे बैठे हैं। गोपियाँ श्रीकृष्ण से बातें करने के लालच में उनकी बाँसुरी छिपा देती हैं। नायक व नायिका का सगे-संबंधियों से घिरे होने पर नेत्रों से वार्तालाप का बखूबी चित्रण किया गया है। जेठ मास की दुपहरी की भीषणता का वर्णन किया गया है। वियोगी नायिका की असमंजसपूर्ण स्थिति का भावपूर्ण वर्णन है। कवि चाहता है कि भगवान कृष्ण व उसके पिता दोनों उसके सभी कष्ट दूर करें। बाहरी ढोंग, आडंबर, दिखावे की अपेक्षा मन में बसे राम की भक्ति द्वारा कार्य  है। इस प्रकार हम कह सकते हैं बिहारी गागर में सागर भरने की कला में निपुण हैं।

मनुष्यता

पाठ-4 मनुष्यता

कविमैथिलीशरणगुप्त

पाठ- प्रवेश

प्रकृति के अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य में चेतना शक्ति की प्रबलता होती ही है। वह अपने ही नहीं औरों के हिताहित का भी खयाल रखने में, औरों के लिए भी कुछ कर सकने में समर्थ होता है। पशु चरागाह में जाते हैं, अपने-अपने हिस्से का चर आते हैं, पर मनुष्य ऐसा नहीं करता। वह जो कमाता है, जो भी कुछ उत्पादित करता है, वह औरों के लिए भी करता है, औरों के सहयोग से करता है।

प्रस्तुत पाठ का कवि अपनों के लिए जीने-मरने वालों को मनुष्य तो मानता है लेकिन यह मानने को तैयार नहीं है कि मनुष्यों में मनुष्यता के पूरे-पूरे लक्षण भी हैं। वह तो उन मनुष्यों को ही महान मानेगा जिनमें अपने और अपनों के हित चिंतन से कहीं पहले और सर्वोपरि दूसरों का हित चिंतन हो। उसमें वे गुण हों जिनके कारण कोई मनुष्य इस मृत्युलोक से गमन कर जाने के बावजूद युगों तक औरों की यादों में भी बना रह पाता है। उसकी मृत्यु भी सुमृत्यु हो जाती है। आखिर क्या हैं वे गुण ?

कविता

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,

मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।

हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,

मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।

वही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,

उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।

उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;

तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।

अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,

तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।

उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,

सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।

अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही; वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।

विरुद्धवाद बुद्ध का दया- प्रवाह में बहा,

विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?

अहा! वही उदार है परोपकार जो करे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,

सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।

अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,

दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं। अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े, समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।

परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी, अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

‘मनुष्य मात्र बंधु है’ यही बड़ा विवेक है,

पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।

फलानुसार कर्म के अवश्य परंतु बाह्य भेद हैं,

परन्तु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,

विपत्ति, विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।

घंटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,

अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

शब्दार्थ

  • मर्त्य मरणशील
  • पशु- प्रवृत्ति-पशु जैसा स्वभाव
  • दानशील- सहृदय
  • उदार- कृतार्थ
  • कीर्ति कूजती- मधुर ध्वनि करती
  • क्षुधार्थ- भूख से व्याकुल
  • रंतिदेव- एक परम दानी राजा
  • करस्थ- हाथ में पकड़ा हुआ / लिया हुआ
  • दधीचि- एक प्रसिद्ध ऋषि जिनकी हड्डियों से इंद्र का वज्र बना था
  • परार्थ- जो दूसरों के लिए हो
  • अस्थिजाल- हड्डियों का समूह
  • उशीनर क्षितीश- गंधार देश का राजा
  • स्वमांस- अपने शरीर का मांस
  • आभारी- धन्य
  • कर्ण- दान देने के लिए प्रसिद्ध कुंती
  • यश- महाविभूति/ बड़ी भारी पूँजी
  • वशीकृता- वश में की हुई
  • विरुद्धवाद बुद्ध का दया- प्रवाह में बहा--बुद्ध ने करुणावश उस समय की पारंपरिक मान्यताओं का विरोध किया था
  • मदांध- जो गर्व से अंधा हो
  • बुद्ध ने करुणावश उस समय की पारंपरिक मान्यताओं का विरोध किया था
  • वित्त- धन-संपत्ति
  • परस्परावलंब- एक-दूसरे का सहारा
  • अमर्त्य-अंक- अपंक देवता की गोद/ कलंक-रहित
  • स्वयंभू- परमात्मा/स्वयं उत्पन्न होने वाला
  • अंतरैक्यआत्मा की एकता/अंतःकरण की एकता
  • प्रमाणभूत- साक्षी
  • अभीष्ट इच्छित
  • अतर्क- तर्क से परे
  • सतर्क पंथ- सावधान यात्री

पाठ का सार

इस कविता में कवि मनुष्यता का सही अर्थ समझाने का प्रयास कर रहा है। पहले भाग में कवि कहता है कि मृत्यु से नहीं डरना चाहिए क्योंकि मृत्यु तो निश्चित है, पर हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि लोग हमें मृत्यु के बाद भी याद रखें । असली मनुष्य वही है, जो दूसरों के लिए जीना व मरना सीख ले। दूसरे भाग में कवि कहता है कि हमें उदार बनना चाहिए क्योंकि उदार मनुष्यों का हर जगह गुणगान होता है। मनुष्य वही कहलाता है, जो दूसरों की चिंता करे। तीसरे भाग में कवि कहता है कि पुराणों में उन लोगों के बहुत उदाहरण हैं जिन्हें उनकी त्याग भाव के लिए आज भी याद किया जाता है। सच्चा मनुष्य वही है जो त्याग भाव जान ले। चौथे भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के मन में दया और करुणा का भाव होना चाहिए, मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों के लिए मरता और जीता है। पांचवें भाग में कवि कहना चाहता है कि यहाँ कोई अनाथ नहीं है क्योंकि हम सब उस एक ईश्वर की संतान हैं। हमें भेदभाव से ऊपर उठ कर सोचना चाहिए। छठे भाग में कवि कहना चाहता है कि हमें दयालु बनना चाहिए क्योंकि दयालु और परोपकारी मनुष्यों का देवता भी स्वागत करते हैं। अतः हमें दूसरों का परोपकार व कल्याण करना चाहिए। सातवें भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के बाहरी कर्म अलग अलग हो परन्तु हमारे वेद साक्षी है कि सभी की आत्मा एक है, हम सब एक ही ईश्वर की संतान है ।अतः सभी मनुष्य भाई-बंधु हैं और मनुष्य वही है जो दुःख में दूसरे मनुष्यों के काम आये। अंतिम भाग में कवि कहना चाहता है कि विपत्ति और विघ्न को हटाते हुए मनुष्य को अपने चुने हुए रास्तों पर चलना चाहिए, आपसी समझ को बनाये रखना चाहिए और भिन्नता नहीं बढ़ाना चाहिए। ऐसी सोच वाला मनुष्य ही मनुष्य कहलाने योग्य होता है

पर्वत प्रदेश में पावस

पाठ- 5 पर्वत प्रदेश में पावस

कवि- सुमित्रानंदनपंत

पाठ प्रवेश

कौन होगा जिसका मन पहाड़ों पर जाने को न मचलता हो। जिन्हें तक जाने का अवसर नहीं मिलता वे भी अपने आसपास के पर्वत प्रदेश में जाने का अवसर शायद ही हाथ से जाने देते हों। ऐसे में कोई कवि और उसकी कविता अगर कक्षा में बैठे-बैठे ही वह अनुभूति दे जाए जैसे वह अभी-अभी पर्वतीय अंचल में विचरण करके लौटा हो, तो!

प्रस्तुत कविता ऐसे ही रोमांच और प्रकृति के सौंदर्य को अपनी आँखों निरखने की अनुभूति देती है। यही नहीं, सुमित्रानंदन पंत की अधिकांश कविताएँ पढ़ते हुए यही अनुभूति होती है कि मानो हमारे आसपास की सभी दीवारें कहीं विलीन हो गई हो। हम किसी ऐसे रम्य स्थल पर आ पहुँचे हैं जहाँ पहाड़ों की अपार श्रृंखला है, आसपास झरने बह रहे हैं और सब कुछ भूलकर हम उसी में लीन रहना चाहते हैं।

महाप्राण निराला ने भी कहा था : पंत जी में सबसे ज़बरदस्त कौशल जो है, यह है “शैली” (Shelley) की तरह अपने विषय को अनेक उपमाओं से सँवारकर मथुर से मधुर और कोमल से कोमल कर देना।

कविता

पर्वत  प्रदेश में पावस

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,

पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश।

मेखलाकार पर्वत अपार

अपने सहस्र दुग-सुमन फाड़.,

अवलोक रहा है बार-बार

जीनीचे जल में निज महाकार,

जिसके चरणों में पला ताल

दर्पण-सा फैला है विशाल!

गिरि का गौरव गाकर झर- झर मद में नस-नस उत्तेजित कर

मोती की लड़ियों- से सुंदर

झरते हैं झाग भरे निर्झर।

गिरिवर के उर से उठ उठ कर उच्चाकांक्षाओं से तरुवर

हैं झाँक रहे नीरव नभ पर अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।

उड़ गया, अचानक लो, भूधर फड़का अपार पारद* के पर!

रव-शेष रह गए हैं निर्झर !

है टूट पड़ा भू पर अंबर!

धँस गए धरा में सभय शाल!

उठ रहा धुआँ, जल गया ताल! -यों जलद-यान में विचर- विचर था इंद्र खेलता इंद्रजाल।

शब्दार्थ

  • पावस- वर्षा ऋतु
  • प्रकृति वेश- प्रकृति का रूप
  • मेखलाकार- करघनी के आकार की पहाड़ की ढाल
  • सहस्र- हज़ार
  • दृग-सुमन- पुष्प रूपी आंखें
  • अवलोक- देखना
  • महाकार- विशाल आकार
  • दर्पण- आईना
  • मद- मस्ती
  • झाग- फेन
  • उर- हृदय
  • उच्चाकांक्षा- ऊँचा उठने की कामना
  • तरुवर- पेड़
  • नीरव नभ- शांत आकाश
  • अनिमेष- लगातार

पाठ का सार

प्रस्तुत कविता में कवि ने वर्षा ऋतु में पर्वतीय प्रदेश पर होनेवाले प्रकृति में क्षण-क्षण परिवर्तन को बड़े ही सुंदर ढंग से व्यक्त 1 किया है। वर्षा ऋतु में कवि को यहाँ का दृश्य देखकर ऐसा लगता है कि मानो मेखलाकर पर्वत अपने ऊपर खिले सुमन रूपी नेत्रों से तालाब के पारदर्शी जल में अपना प्रतिबिंब देख रहा हो। साथ ही उसे पर्वतों के नीचे का तालाब दर्पण की भांति प्रतीत होता है। पहाड़ों के बीच में बहते झरने पहाड़ों का गौरवगान करते प्रतीत होते हैं। पहाड़ों की छाती पर उगे ऐसे लगते हैं मानो मन में आकांक्षाएँ लिए आकाश की ओर निहार रहे हों। कभी बादलों के छा जाने से ऐसा लगने वृक्ष लगता है कि पर्वत बादल रूपी पंख लगाकर आकाश में उड़ रहे हैं। ऐसे समय में झरने दिखाई नहीं पड़ते, केवल उनका स्वर सुनाई देता है। कभी ऐसा लगता है कि बादल धरती पर आक्रमण कर रहे हैं। तालाब से उठता कोहरा ऐसे लगता है कि जैसे तालाब में आग लग गई हो और धुआँ उठ रहा हो । ये सभी जादुई दृश्य देखकर ऐसा लगता है जैसे-इंद्र देवता जादू के खेल दिखा रहे हैं।

मधुर मधुर मेरे दीपक जल

पाठ-6  मधुर-मधुर मेरे दीपक जल

कवयित्री- महादेवी वर्मा

जीवन -परिचय

कवयित्री महादेवी वर्मा जी का जन्म सन् 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में हुई थी । उल्लेखनीय है कि कवयित्री महादेवी वर्मा जी मिडिल में पूरे प्रांत में अव्वल आईं और छात्रवृत्ति की हक़दार भी बनी थीं। यह सिलसिला कई कक्षाओं तक चलता रहा।

एक समय ऐसा भी आया कि इन्होंने बौद्ध भिक्षुणी बनने की चाहत रखी, परन्तु महात्मा गांधी के आह्वान पर सामाजिक कार्यों में जुट गईं। नारी शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ ही इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया कवयित्री महादेवी वर्मा जी ने छायावाद के अन्य चार रचनाकारों में से भिन्न अपना एक विशिष्ट स्थान कायम किया | इनका सभी काव्य वेदनामय था ।

11 सितम्बर 1987 को कवयित्री का देहावसान हो गया भारत सरकार ने 1956 में उन्हें पद्मभूषण अलंकरण से अलंकृत किया था तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित सभी महत्वपूर्ण पुरस्कार से कवयित्री नवाजी जा चुकी हैं।

इनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं-

  • गद्य रचनाएं – स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, मेरा परिवार, चिंतन के क्षण, अतीत के चलचित्र और श्रृंखला की कड़ियाँ ।
  • काव्य कृतियां - बारहमासा,सांध्यगीत,दीपशिखा, प्रथम आयाम, अग्नि रेखा, यामा, नीहार, रश्मि, नीरजा इत्यादि|

पाठ -प्रवेश

औरों से बतियाना, औरों को समझाना, औरों को राह सुझाना तो सब करते ही हैं, कोई सरलता से कर लेता है, कोई थोड़ी कठिनाई उठाकर, कोई थोड़ी झिझक-संकोच के बाद तो कोई किसी तीसरे की आड़ लेकर। लेकिन इससे कहीं ज़्यादा कठिन और ज़्यादा श्रमसाध्य होता है अपने आप को समझाना। अपने आप से बतियाना, अपने आप को सही राह पर बनाए रखने के लिए तैयार करना। अपने आप को आगाह करना, सचेत करना और सदा चैतन्य बनाए रखना।

प्रस्तुत पाठ में कवयित्री अपने आप से जो अपेक्षाएँ करती हैं, यदि वे पूरी हो जाएँ तो न सिर्फ़ उसका अपना, बल्कि हम सभी का कितना भला हो सकता है। चूँकि, अलग-अलग शरीरधारी होते हुए भी हम हैं तो प्रकृति की मनुष्य नामक एक ही निर्मिति।

कविता

मधुर मधुर मेरे दीपक जल!

मधुर मधुर मेरे दीपक जल!

युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,

 प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन,

मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन;

दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,

तेरे जीवन का अणु गल गल!

पुलक पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,

माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण

विश्व-शलभ सिर धुन कहता ‘मैं

हाय न जल पाया तुझ में मिल’!

सिहर सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक,

स्नेहहीन नित कितने दीपक;

जलमय सागर का उर जलता,

विद्युत ले घिरता है बादल!

विहँस विहँस मेरे दीपक जल!

शब्दार्थ-

  • सौरभ- सुगन्ध
  • विपुल- विस्तृत
  • मृदुल- कोमल
  • अपरिमित- असीमित
  • पुलक- रोमांच
  • ज्वाला- कण
  • शलभ- पतंगा
  • आग की लपट- आग का लघुतम अंश
  • सिर धुनना- पछताना
  • सिहरना- कांपना/थरथराना
  • स्नेहहीन- तेल/प्रेम से हीन
  • उर- हृदय
  • विद्युत- बिजली

कविता का सार

प्रस्तुत कविता में कवयित्री महादेवी वर्मा जी आस्था रूपी दीपक को जलाकर ईश्वर के मार्ग को रौशन करना चाहती हैं। वह अपने शरीर के कण-कण को जलाकर, अपने अंदर छाये अहंकार को समाप्त करना चाहती हैं। इसके बाद जो प्रकाश फैलेगा, उसमें कवयित्री अपने प्रियतम का मार्ग जरूर देख पायेंगी। वह संसार के दूसरे व्यक्तियों के लिए भी यही कामना करती हैं और उन्हें भक्ति का सही मार्ग दिखाने के लिए उनकी सहायता करना चाहती हैं। इसीलिए उन्होंने कविता में प्रकृति के कई सारे ख़ास उदाहरण भी दिए हैं। उनके अनुसार सच्ची भक्ति के मार्ग में चलने का केवल एक ही रास्ता है –आपसी ईर्ष्या एवं द्वेष का त्याग ।

तोप

पाठ –7 तोप

वीरेन डंगवाल (1947-2015)

कवि –परिचय

5 अगस्त 1947को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के कीर्तिनगर में जन्मे वीरेन डंगवाल ने आरंभिक शिक्षा नैनीताल में और उच्च शिक्षा इलाहाबाद में पाई।

 समाज के साधारण जन और हाशिए पर स्थित जीवन के विलक्षण ब्योरे और दृश्य वीरेन की कविताओं की विशिष्टता मानी जाती है। इन्होंने ऐसी बहुत-सी चीज़ों और जीव-जंतुओं को अपनी कविता का आधार बनाया है जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा किए रहते हैं।

वीरेन के अब तक दो कविता संग्रह इसी दुनिया में और दुष्चक्र में स्रष्टा प्रकाशित हो चुके हैं। पहले संग्रह पर प्रतिष्ठित श्रीकांत वर्मा पुरस्कार और दूसरे पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार के अलावा इन्हें अन्य कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। वीरेन डंगवाल ने कई महत्त्वपूर्ण कवियों की अन्य भाषाओं में लिखी गई कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया है। 28 सितंबर 2015 को इनका देहावसान हुआ।

 पाठ -प्रवेश

प्रतीक और धरोहर दो किस्म की हुआ करती हैं। एक वे जिन्हें देखकर या जिनके बारे में जानकर हमें अपने देश और समाज की प्राचीन उपलब्धियों का भान होता है और दूसरी वे जो हमें बताती हैं कि हमारे पूर्वजों से कब, क्या चूक हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप देश की कई पीढ़ियों को दारुण दुख और दमन झेलना पड़ा था।

प्रस्तुत पाठ में ऐसे ही दो प्रतीकों का चित्रण है। पाठ हमें याद दिलाता है कि कभी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने के इरादे से आई थी। भारत ने उसका स्वागत ही किया था, लेकिन करते-कराते वह हमारी शासक बन बैठी। उसने कुछ बाग बनवाए तो कुछ तोपें भी तैयार कीं। उन तोपों ने इस देश को फिर से आज़ाद कराने का सपना साकार करने निकले जाँबाज़ों को मौत के घाट उतारा। पर एक दिन ऐसा भी आया जब हमारे पूर्वजों ने उस सत्ता को उखाड़ फेंका। तोप को निस्तेज कर दिया। फिर भी हमें इन प्रतीकों के बहाने यह याद रखना होगा कि भविष्य में कोई और ऐसी कंपनी यहाँ पाँव न जमाने पाए जिसके इरादे नेक न हों और यहाँ फिर वही तांडव मचे जिसके घाव अभी तक हमारे दिलों में हरे हैं। भले ही अंत में उनकी तोप भी उसी काम क्यों न आए जिस काम में इस पाठ की तोप आ रही है....

कविता

कंपनी बाग के मुहाने पर

धर रखी गई है यह 1857 की तोप इसकी होती है बड़ी सम्हाल, विरासत में मिले कंपनी बाग की तरह

साल में चमकाई जाती है दो बार।

सुबह-शाम कंपनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी

उन्हें बताती है यह तोप

कि मैं बड़ी जबर

उड़ा दिए थे मैंने

अच्छे-अच्छे सूरमाओं के धज्जे

अपने ज़माने में

अब तो बहरहाल

छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फ़ारिग हो

तो उसके ऊपर बैठकर

चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप

कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं

खास कर गौरैयें

वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप

एक दिन तो होना ही है उसका मुँह बंद।

शब्दार्थ

  • मुहाने- प्रवेश द्वार
  • सम्हाल- देखभाल
  • धर रखी रखी गई
  • विरासत- पूर्व पीढ़ियों से प्राप्त वस्तुएँ
  • सैलानी- दर्शनीय स्थलों पर आने वाले यात्री
  • सूरमा(ओं)- वीर
  • धज्जे-चिथड़े- चि थड़े करना
  • फ़ारिग- मुक्त/खाली

कविता का सार

‘तोप’ कविता ‘वीरेन डंगवाल’ द्वारा रचित है। इस कविता में कवि ब्रिटिश शासन द्वारा बनाए गए कंपनी बाग के मुहाने पर रखी गई तोप के विषय में बता रहे हैं। यह तोप सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की है। उस समय यह तोप शक्तिशाली थी। इस तोप ने अनेक शूरवीरों को मौत की नींद सुला दिया, परंतु अब यह प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह गई है। 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन इस तोप को चमकाया जाता है। इसे देखने के लिए अनेक यात्री आते हैं। उन यात्रियों को तोप यह बताती है कि एक समय था, जब मैं अत्यंत सामथ्र्यवान थी, पर नियति के कारण आज मैं शांत खड़ी हूँ। मुझ पर छोटे बच्चे घुड़सवारी करते हैं। चिड़ियाँ मुझ पर बैठकर गपशप करती हैं। गौरैया मेरे अंदर तक घुस जाती हैं, क्योंकि आज मैं डर की वस्तु नहीं हूँ। इसी प्रकार अत्याचारी को भी एक दिन शांत होना पड़ता है। कभी न कभी उसके अत्याचार का अंत जरूर होता है। इस प्रकार तोप अत्याचारी व्यक्ति का प्रतीक बन गई है।

कर चले हम फिदा

पाठ-8 कर चले हम फ़िदा

कैफ़ी आज़मी(1919-2002)

कवि – परिचय

5अगस्त 1947 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के कीर्तिनगर में जन्मे वीरेन डंगवाल ने आरंभिक शिक्षा नैनीताल में और उच्च शिक्षा इलाहाबाद में पाई। पेशे से प्राध्यापक डंगवाल पत्रकारिता से भी जुड़े हुए हैं।

समाज के साधारण जन और हाशिए पर स्थित जीवन के विलक्षण ब्योरे और दृश्य वीरेन की कविताओं की विशिष्टता मानी जाती है। इन्होंने ऐसी बहुत-सी चीज़ों और जीव-जंतुओं को अपनी कविता का आधार बनाया है जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा किए रहते हैं।

वीरेन के अब तक दो कविता संग्रह इसी दुनिया में और दुष्चक्र में स्रष्टा प्रकाशित हो चुके हैं। पहले संग्रह पर प्रतिष्ठित श्रीकांत वर्मा पुरस्कार और दूसरे पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार के अलावा इन्हें अन्य कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। वीरेन डंगवाल ने कई महत्त्वपूर्ण कवियों की अन्य भाषाओं में लिखी गई कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया है। 28 सितंबर 2015 को इनका देहावसान हुआ।     

पाठ प्रवेश

जिंदगी प्राणीमात्र को प्रिय होती है। कोई भी इसे यूँ ही खोना नहीं चाहता। असाध्य रोगी तक जीवन की कामना करता है। जीवन की रक्षा, सुरक्षा और उसे जिलाए रखने के लिए प्रकृति ने न केवल तमाम साधन ही उपलब्ध कराए हैं, सभी जीव-जंतुओं में उसे बनाए,बचाए रखने की भावना भी पिरोई है। इसीलिए शांतिप्रिय जीव भी अपने प्राणों पर संकट आया जान उसकी रक्षा हेतु मुकाबल के लिए तत्पर हो जाते हैं।

लेकिन इससे ठीक विपरीत होता है सैनिक का जीवन, जो अपने नहीं, जब औरों के जीवन पर, उनकी आज़ादी पर आ बनती है, तब मुकाबले के लिए अपना सीना तान कर खड़ा हो जाता है। यह जानते हुए भी कि उस मुकाबले में औरों की जिंदगी और आज़ादी भले ही बची रहे, उसकी अपनी मौत की संभावना सबसे अधिक होती है।

प्रस्तुत पाठ जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म ‘हकीकत’ के लिए लिखा गया था, ऐसे ही सैनिकों के हृदय की आवाज़ बयान करता है, जिन्हें अपने किए-धरे पर नाज़ है। इसी के साथ इन्हें अपने देशवासियों से कुछ अपेक्षाएँ भी हैं। चूँकि जिनसे उन्हें वे अपेक्षाएँ हैं वे देशवासी और कोई नहीं, हम और आप ही हैं, इसलिए आइए, इसे पढ़कर अपने आप से पूछें कि हम उनकी अपेक्षाएँ पूरी कर रहे हैं या नहीं?

कविता

कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई  फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया

कट गए सर हमारे तो कुछ गम नहीं सर हिमालय का हमने न झुकने दिया

मरते-मरते रहा बाँकपन साथियों

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो साथियो

जिंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर जान देने की रुत रोज़ आती नहीं हुस्न और इश्क दोनों को रुस्वा करे वो जवानी जो खूँ में नहाती नहीं

आज धरती बनी है दुलहन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो राह कुर्बानियों की ना वीरान हो

तुम  सजाते ही न रहना नए काफ़िले फ़तह का जश्न इस जश्न के बाद है जिंदगी मौत से मिल रही है गले

बाँध लो अपने सर से कफ़न साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

खींच दो अपने खूँ से ज़मीं पर लकीर इस तरफ़ आने पाए न रावन कोई तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे

छू न पाए सीता का दामन कोई

राम भी तुम, तुम्हीं लक्ष्मण साथियों

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो।

शब्दार्थ

  • फ़िदा- न्योछावर
  • हवाले- सौंपना
  • रूत- मौसम
  • हुस्न- सुंदरता
  • रुस्वा- बदनाम
  • खूं- खून
  • काफिले- यात्रियों का समूह
  • फतहजीत
  • जश्न- खुशी मनाना
  • नब्ज- नाड़ी
  • कुर्बानियां- बलिदान
  • ज़मीं- जमीन
  • लकीर- रेखा

कविता का सार

प्रस्तुत कविता में देश के सैनिकों की भावनाओं का वर्णन है। सैनिक कभी भी देश के मानसम्मान को बचाने से पीछे नहीं हटेगा। फिर चाहे उसे अपनी जान से ही हाथ क्यों ना गवाना पड़े। भारत – चीन युद्ध के दौरान सैनिकों को गोलियाँ लगने के कारण उनकी साँसें रुकने वाली थी, ठण्ड के कारण उनकी नाड़ियों में खून जम रहा था, परन्तु उन्होंने किसी चीज़ की परवाह न करते हुए दुश्मनों का बहदुरी से मुकाबला किया और दुश्मनों को आगे नहीं बढ़ने दिया। सैनिक गर्व से कहते है कि हमें अपने सर भी कटवाने पड़े, तो हम ख़ुशी ख़ुशी कटवा देंगे, पर हमारे गौरव के प्रतिक हिमालय को नहीं झुकने देंगे अर्थात हिमालय पर दुश्मनों के कदम नहीं पड़ने देंगे। लेकिन देश के लिए प्राण न्योछावर करने की ख़ुशी कभी कभी किसी किसी को ही मिल पाती है अर्थात सैनिक देश पर मर मिटने का एक भी मौका नई खोना चाहते। जिस तरह से दुल्हन को लाल जोड़े में सजाया जाता है, उसी तरह सैनिकों ने भी अपने प्राणों का बलिदान दे कर धरती को खून से लाल कर दिया है। सैनिक कहते हैं कि हम तो देश के लिए बलिदान दे रहे हैं, परन्तु हमारे बाद भी ये सिलसिला चलते रहना चाहिए। जब भी जरुरत हो तो इसी तरह देश की रक्षा के लिए एकजुट होकर आगे आना चाहिए। सैनिक अपने देश की धरती को सीता के आँचल की तरह मानते हैं और कहते हैं कि अगर कोई हाथ आँचल को छूने के लिए  आगे बढ़े तो उसे तोड़ दो। अपने वतन की रक्षा के लिए तुम ही राम हो और तुम ही लक्ष्मण हो अब इस देश की रक्षा का दायित्व तुम पर है ।

आत्मत्रण

पाठ-9 आत्मत्राण

रवींद्रनाथ ठाकुर (1861-1941)

कवि -परिचय

6 मई 1861 को बंगाल के एक संपन्न परिवार में जन्मे रवींद्रनाथ ठाकुर नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय हैं। इनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। छोटी उम्र में ही स्वाध्याय से अनेक विषयों का ज्ञान अर्जित कर लिया। बैरिस्ट्री पढ़ने के लिए विदेश भेजे गए लेकिन बिना परीक्षा दिए ही लौट आए।

रवींद्रनाथ की रचनाओं में लोक-संस्कृति का स्वर प्रमुख रूप से मुखरित होता है। प्रकृति से इन्हें गहरा लगाव था। इन्होंने लगभग एक हज़ार कविताएँ और दो . हज़ार गीत लिखे हैं। चित्रकला, संगीत और भावनृत्य के प्रति इनके विशेष अनुराग के कारण रवींद्र संगीत नाम की एक अलग धारा का ही सूत्रपात हो गया। इन्होंने शांति निकेतन नाम की एक शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्था की स्थापना की। यह अपनी तरह का अनूठा संस्थान माना जाता है।

अपनी काव्य कृति गीतांजलि के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए रवींद्रनाथ ठाकुर की अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं-नैवैद्य, पूरबी, बलाका, क्षणिका, चित्र और सांध्यगीत, काबुलीवाला और सैकड़ों अन्य कहानियाँ; उपन्यास- गोरा, घरे बाइरे और रवींद्र के निबंध।

पाठ -प्रवेश

तैरना चाहने वाले को पानी में कोई उतार तो सकता है, उसके आस-पास भी बना रह सकता है, मगर तैरना चाहने वाला जब स्वयं हाथ-पाँव चलाता है तभी तैराक बन पाता है। परीक्षा देने जाने वाला जाते समय बड़ों से आशीर्वाद की कामना करता ही है, बड़े आशीर्वाद देते भी हैं, लेकिन परीक्षा तो उसे स्वयं ही देनी होती है। इसी तरह जब दो पहलवान कुश्ती लड़ते हैं तब उनका उत्साह तो सभी दर्शक बढ़ाते हैं, इससे उनका मनोबल बढ़ता है, मगर कुश्ती तो उन्हें खुद ही लड़नी पड़ती है।

प्रस्तुत पाठ में कविगुरु मानते हैं कि प्रभु में सब कुछ संभव कर देने की सामर्थ्य है, फिर भी वह यह कतई नहीं चाहते कि वही सब कुछ कर दें। कवि कामना करता है कि किसी भी आपद-विपद में, किसी भी द्वंद्व में सफल होने के लिए संघर्ष वह स्वयं करे, प्रभु को कुछ न करना पड़े। फिर आखिर वह अपने प्रभु से चाहते क्या हैं?

रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रस्तुत कविता का बंगला से हिंदी में अनुवाद श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने किया है। द्विवेदी जी का हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में अपूर्व योगदान है। यह अनुवाद बताता है कि अनुवाद कैसे मूल रचना की ‘आत्मा’ को अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम है।

कविता

विपदाओं से मुझे बचाओ,यह मेरी प्रार्थना नहीं

केवल इतना हो(करुणामय)

कभी न विपदा में पाऊँ भय।

दु:ख-ताप से व्यथित चित्त’ को न दो सांत्वना नहीं सही

पर इतना होवे (करुणामय)

दुख को मैं कर सकूँ सदा जय।

कोई कहीं सहायक न मिले तो

अपना बल पौरुष न हिले;

हानि उठानी पड़े जगत् में लाभ अगर वंचना रही

तो भी मन में ना मानूँ क्षय ।।

मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं

बस इतना होवे (करुणायम) तरने हो शक्ति अनामय।

मेरा भार अगर लघु करके न दो सांत्वना नहीं सही।

केवल इतना रखना अनुनय_

वहन कर सकूँ इसको निर्भय।

नत शिर होकर सुख के दिन में

तव मुख पहचानूँ छिन छिन में।

दु:ख-रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही

उस दिन ऐसा हो करुणामय,

तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय ।।

शब्दार्थ

  • विपदा-  विपत्ति/मुसीबत
  • करुणामय - दूसरों पर दया करने वाला
  • दुःख ताप-  कष्ट की पीड़ा दुखी
  • व्यथित- दुखी
  • सहायक- मददगार
  • पौरुष- पराक्रम
  • क्षय – नाश
  • त्राण-भय निवारण / बचाव / आश्रय
  • अनुदिन- प्रतिदिन
  • अनामय- रोग रहित/सस्वस्थ्
  • सांत्वना- ढाँढ़स बँधाना, तसल्ली
  • अनुनय- विनय
  • नत शिर - सिर झुकाकर
  • दुःख रात्रि- दुख से भरी रात
  • वंचना – धोखा देना/छलना
  • निखिल -संपूर्ण
  • संशय- संदेह

कविता का सार

प्रस्तुत कविता महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा बांग्ला में लिखी गई थी। इसका हिन्दी में अनुवाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने किया। प्रस्तुत कविता में कवि ने इस बात का वर्णन किया है कि ईश्वर केवल उनकी सहायता करते हैं, जो खुद अपनी सहायता करने की कोशिश करते हैं। जो मुसीबतों का सामना करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, उन्हें ही जीवन के संघर्ष में जीत मिलती है।

अर्थात अगर आप बिना कुछ किये ये चाहें कि भगवान •आपकी मुसीबतों को ख़त्म कर दें और आपको कभी कोई दुःख ना मिले, तो स्वयं भगवान भी आपके लिए कुछ नहीं करेंगे। आपको ईश्वर पर भरोसा रखते हुए, हमेशा अपनी मुसीबतों का सामना खुद से ही करना पड़ेगा, तभी ईश्वर आपको आत्मबल एवं शक्ति प्रदान करेंगे। जिससे आप तमाम मुसीबतों व कष्टों के बावजूद भी अंत में विजयी हो जाओगे और मुश्किलों के आगे कभी घुटने नहीं टेकोगे।

बड़े भाई साहब

पाठ -10 बड़े भाई साहब

प्रेमचंद(1880-1936)

लेखक परिचय

इनका जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के लमही गाँव में हुआ। इनका मूल नाम धनपत राय था परन्तु इन्होनें उर्दू में नबाव राय और हिंदी में प्रेमचंद नाम से काम किया। निजी व्यवहार और पत्राचार ये धनपत राय से ही करते थे। आजीविका के लिए स्कूल मास्टरी, इंस्पेक्टरी, मैनेजरी करने के अलावा इन्होनें ‘हंस’ ‘माधुरी’ जैसी प्रमुख पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। ये अपने जीवन काल में ही कथा सम्राट और उपन्यास सम्राट कहे जाने लगे थे।

पाठ प्रवेश

अभी तुम छोटे हो इसलिए इस काम में हाथ मत डालो। यह सुनते हो कई बार बच्चों के मन में आता है काश, हम बड़े होते तो कोई हमें यों न टोकता। लेकिन इस मुलाके में न रहिएगा, क्योंकि बड़े होने से कुछ भी करने का अधिकार नहीं मिल जाता। घर के बड़े को कई बार तो उन कामों में शामिल होने से भी अपने को रोकना पड़ता है जो उसी उम्र के और लड़के बेधड़क करते रहते हैं। जानते हो क्यों, क्योंकि वे लड़के अपने घर में किसी से बड़े नहीं होते।

प्रस्तुत पाठ में भी एक बड़े भाई साहब हैं, जो हैं तो छोटे ही, लेकिन घर में उनसे छोटा एक भाई और है। उससे उम्र में केवल कुछ साल बड़ा होने के कारण उनसे बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ की जाती हैं। बड़ा होने के नाते वह खुद भी यही चाहते और कोशिश करते हैं कि वह जो कुछ भी करें वह छोटे भाई के लिए एक मिसाल का काम करे। इस आदर्श स्थिति को बनाए रखने के फेर में बड़े भाई साहब का बचपना तिरोहित हो जाता है।

शब्दार्थ

  • तालीम- शिक्षा
  • पुख्ता- मजबूत
  • सामंजस्य- तालमेल
  • तम्बीह- डाँट डपट
  • मसलन- उदाहरणत:
  • इबारत- लेख
  • कोशिश- चेष्टा
  • जमात- कक्षा
  • हर्फ़- अक्षर
  • मिहनत(मेहनत)- परिश्रम
  • लताड़- डाँट-डपट
  • योजना- स्कीम
  • अमल करना- पालन करना
  • सूक्ति बाण- व्यंग्यात्मक कथन/तीखी बातें
  • अवहेलना- तिरस्कार
  • नसीहत- सलाह
  • फ़जीहत- अपमान
  • तिरस्कार- उपेक्षा
  • सालाना इम्तिहान- वार्षिकपरीक्षा
  • लज्जास्पद- शर्मनाक
  • शरीक- शामिल
  • आतंक- भय
  • अव्वल- प्रथम
  • ववाद- कार्यक्रम
  • आधिपत्य- साम्राज्य
  • महीप- राजा
  • कुकर्म- बुरा काम
  • अभिमान- घमंड
  • मुमतहीन- परीक्षक
  • प्रयोजन- उद्देश्य
  • खुराफात- व्यर्थ की बातें
  • हिमाकत- व्यर्थ की बातें
  • किफ़ायत- बचत से
  • दुरुपयोग- अनुचित उपयोग
  • निःस्वाद- बिना स्वाद का
  • ता़ज्जुब- आश्चर्य
  • टास्क- कार्य
  • जलील- अपमानित
  • प्राणांतक- प्राण लेने वाला
  • कांतिहीन- चेहरे पर चमक न होना
  • स्वच्छंदता- आजादी
  • सहिष्णुता- सहनशीलता
  • कनकौआ- पतंग
  • अदब- इज्जत
  • ज़हीन- प्रतीभावान
  • त़जुरबा- अनुभव
  • बदहवास- बेहाल
  • मुहताज- दूसरे पर आश्रित

पाठ के सार

बड़े भाई साहब’ कहानी प्रेमचंद द्वारा रचित है। प्रेमचंद की कहानियाँ हमेशा शिक्षाप्रद रही हैं। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से किसी-न-किसी समस्या पर प्रहार किया है। बड़े भाई साहब समाज में समाप्त हो रहे, कर्तव्यों के अहसास को दुबारा जीवित करने का प्रयास मात्र है। इस कहानी में बड़े भाई साहब अपने कर्तव्यों को संभालते हुए, अपने भाई के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा कर रहे हैं। उनकी उम्र इतनी नहीं है, जितनी उनकी ज़िम्मेदारियाँ है। लेकिन उनकी ज़िम्मेदारियाँ उनकी उम्र के आगे छोटी नज़र आती हैं। वह स्वयं के बचपन को छोटे भाई के लिए तिलाजंलि देते हुए भी नहीं हिचकिचाते हैं। उन्हें इस बात का अहसास है कि उनके गलत कदम छोटे भाई के भविष्य को बिगाड़ सकते हैं। वह अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ करने से भी नहीं चूकते। एक चौदह साल के बच्चे द्वारा उठाया गया कदम छोटे भाई के उज्जवल भविष्य की नींव रखता है। यही आदर्श बड़े भाई को छोटे भाई के सामने और भी ऊँचा बना देते हैं। यह कहानी सीख देती है कि मनुष्य उम्र से नहीं अपने किए गए कामों और कर्तव्यों से बड़ा होता है। वर्तमान युग में मनुष्य विकास तो कर रहा है परन्तु आदर्शों को भुलता जा रहा है। भौतिक सुख एकत्र करने की होड़ में हम अपने आदर्शों को छोड़ चुके हैं। हमारे लिए आज भौतिक सुख ही सब कुछ है। अपने से छोटे और बड़ों के प्रति हमारी ज़िम्मेदारियाँ हमारे लिए आवश्यक नहीं प्रेमचंद ने इन्हें कर्तव्यों के महत्व को सबके सम्मुख रखा है।

डायरी का एक पन्ना

पाठ-11 डायरी का एक पन्ना

सीताराम सेकसरिया

लेखक – परिचय

1892 में राजस्थान के नवलगढ़ में जन्मे सीताराम सेकसरिया का अधिकांश जीवन कलकत्ता (कोलकाता) में बीता। व्यापार-व्यवसाय से जुड़े सेकसरिया अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक और नारी शिक्षण संस्थाओं के प्रेरक, संस्थापक,संचालक रहे।

महात्मा गांधी के आह्वान पर स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस के करीबी रहे। सत्याग्रह आंदोलन के दौरान जेल यात्रा भी की। कुछ साल तक आज़ाद हिंद फ़ौज के मंत्री भी रहे। भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया।

सीताराम सेकसरिया को विद्यालयी शिक्षा पाने का अवसर नहीं मिला। स्वाध्याय से ही पढ़ना-लिखना सीखा। स्मृतिकण, मन की बात, बीता युग, याद और दो भागों में एक कार्यकर्ता की डायरी उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। नयी

पाठ -प्रवेश

अंग्रेजों से देश को मुक्ति दिलाने के लिए महात्मा गांधी ने सत्याग्रह आंदोलन छेड़ा था। इस आंदोलन ने जनता में आज़ादी की अलख जगाई। देश भर से ऐसे लाखों लोग सामने आए जो इस महासंग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर थे। 26 जनवरी 1930 को गुलाम भारत में पहली बार स्वतंत्रता दिवस मनाया गया था। यह सिलसिला आगे भी जारी रहा। आज़ादी के ढाई साल बाद, 1950 में यही दिन हमारे अपने गणतंत्र के लागू होने का दिन भी बना।

प्रस्तुत पाठ के लेखक सीताराम सेकसरिया आज़ादी की कामना करने वाले उन्हीं अनंत लोगों में से एक थे। वह दिन-प्रतिदिन जो भी देखते, सुनते और महसूस करते थे, उसे अपनी निजी डायरी में दर्ज कर लेते थे। यह क्रम कई वर्षों तक चला। इस पाठ में उनकी डायरी का 26 जनवरी 1931 का लेखाजोखा है।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस और स्वयं लेखक सहित कलकत्ता (कोलकाता) के लोगों ने देश का दूसरा स्वतंत्रता दिवस किस जोश-खरोश से मनाया, अंग्रेज़ प्रशासकों ने इसे उनका अपराध मानते हुए उन पर और विशेषकर महिला कार्यकर्ताओं पर कैसे-कैसे जुल्म ढाए, यही सब इस पाठ में वर्णित है। यह पाठ हमारे उन शहीद क्रांतिकारियों की कुर्बानियों की याद तो दिलाता ही है, साथ ही यह भी उजागर करता है कि एक संगठित समाज कृतसंकल्प हो तो ऐसा कुछ भी नहीं जो वह न कर सके।

शब्दार्थ

  • पुनरावृत्ति- फिर से आना
  • अपने/अपनाहम/हमारे/मेरा (लेखक के लेखन शैली का उदाहरण)
  • गश्त- पुलिस कर्मचारी का पहरे के लिए घूमना
  • सारजेंट- सेना में एक पद
  • मोनुमेंट- स्मारक
  • कौंसिल- परिषद्
  • चौरंगी- कलकत्ता (कोलकाता) शहर में एक स्थान का नाम
  • वैलेंटियर- स्वयंसेवक
  • संगीन- गंभीर
  • मदालसा- जानकीदेवी एवं जमना लाल बजाज की पुत्री का नाम

पाठ का सार

डायरी का एक पन्ना सीताराम सेकसरिया द्वारा लिखित एक संस्मरण है,जो हमें 1930-31के आस पास हो रही राजनीतिक हलचल के बारे में बताता है। इस पाठ में लेखक की डायरी में 26जनवरी 1931दिन का लेखा जोखा है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस और स्वयं लेखक सहित कलकत्ता के लोगों ने देश का दूसरा स्वतंत्रता दिवस किस धूमधाम और जोश-खरोश से मनाया यह बताया है। इसमें उस दिन घटित की घटनाओं का वर्णन है, जब बंगाल के लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए अपूर्व जोश दिखाया था। इससे पहले हमेशा यह समझा जाता था कि वहाँ के लोग आज़ादी की लड़ाई लड़ने के इच्छुक नहीं हैं, लेकिन 26 जनवरी 1931को घटी इन घटनाओं द्वारा उन्होंने दिखा दिया कि वे भी किसी से कम नहीं हैं। पुलिस की बर्बरता और कठोरता के बाद भी हजारों लोगों ने स्वाधीनता मार्च में हिस्सा लिया, जिनमें औरतें भी बड़ी संख्या में शामिल थीं। उन्होंने लाठियाँ खायीं,खून बहाया लेकिन फिर भी वे पीछे नहीं हटे और अपना काम करते रहे। एक, डॉक्टर, जो घा की देखभाल कर रहा था,उसने उनके इलाज के साथ उनके फोटो भी लिए ताकि उन्हें अख़बारों में छपवा कर इस घटना को पूरे देश तक पहुँचाया जा सके। साथ ही ब्रिटिश सरकार की क्रूरता को भी दुनिया को दिखाया जा सके।

ततांरा-वामीरो कथा

पाठ -12 ततांरा -वामीरो कथा

लीलाधर मंडलोई(1954)

लेखक- परिचय

इनका जन्म 1954 को जन्माष्टमी के दिन छिंदवाड़ा जिले के एक छोटे से गाँव गुढ़ी में हुआ। इनकी शिक्षा-दीक्षा भोपाल और रायपुर में हुई। प्रसारण की उच्च शिक्षा के लिए 1987 में कॉमनवेल्थ रिलेशंस ट्रस्ट, लंदन की ओर से   आमंत्रित किये गए। इन दिनों प्रसार भारती दूरदर्शन के महानिदेशक का कार्यभार संभाल रहे हैं।

पाठ- प्रवेश

जो सभ्यता जितनी पुरानी है, उसके बारे में उतने ही ज्यादा किस्से-कहानियाँ भी सुनने को मिलती हैं। किस्से ज़रूरी नहीं कि सचमुच उस रूप में घटित हुए हों। जिस रूप में हमें सुनने या पढ़ने को मिलते हैं। इतना ज़रूर है कि इन किस्सों में कोई न कोई संदेश या सीख निहित होती है। अंदमान निकोबार द्वीपसमूह में भी तमाम तरह के किस्से मशहूर हैं। इनमें से कुछ को लीलाधर मंडलोई ने फिर से लिखा है।

प्रस्तुत पाठ तताँरा-वामीरो कथा इसी द्वीपसमूह के एक छोटे से द्वीप पर केंद्रित है। उक्त द्वीप में विद्वेष गहरी जड़ें जमा चुका था। उस विद्वेष को जड़ मूल से उखाड़ने के लिए एक युगल को आत्मबलिदान देना पड़ा था। उसी बलिदान की कथा यहाँ बयान की गई है।

प्रेम सबको जोड़ता है और घृणा दूरी बढ़ाती है, इससे भला कौन इनकार कर सकता है। इसीलिए जो समाज के लिए अपने प्रेम का, अपने जीवन तक का बलिदान करता है, समाज उसे न केवल याद रखता है बल्कि उसके बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देता। यही वजह है कि तत्कालीन समाज के सामने एक मिसाल कायम करने वाले इस युगल को आज भी उस द्वीप के निवासी गर्व और श्रद्धा के साथ याद करते हैं

शब्दार्थ-

  • लोककथा- जन-समाज में प्रचलित कथा
  • आत्मीय- अपना
  • साहसिक कारनामा- साहसपूर्ण कार्य
  • विलक्षण- असाधारण
  • बयार- शीतल - मंद वायु
  • तंद्रा- एकाग्रता
  • चैतन्य- चेतना
  • विकल- बेचैन/व्याकुल
  • संचार- उत्पन्न होना (भावना का)
  • असंगत- अनुचित
  • सम्मोहित- मुग्ध
  • झुंझलाना- चिढ़ना
  • अन्यमनस्कता- जिसका चित्र कहीं और हो
  • निर्निमेष- बिना पलक झपकाए
  • अचंभित- चकित
  • रोमांचित- पुलकित
  • निश्चल- स्थिर
  • अफवाह- उड़ती खबर
  • उफनना- उबलना
  • निषेध परंपरा- वह परंपरा जिस पर रोक लगी हो
  • शमन- शांत करना
  • घोंपना- भोंकना
  • दरार- रेखा की तरह का लंबा छिद्र जो फटने के कारण पड़ जाता है।

पाठ का सार

प्रस्तुत पाठ‘तताँरा वामीरो कथा’अंडमान निकोबार द्वीप समूह के एक छोटे से द्वीप पर केंद्रित है। उस द्वीप पर एक -दूसरे से शत्रुता का भाव अपनी अंतिम सीमा पर पहुँच चूका था। इस शत्रुता की भावना को जड़ से उखाड़ने के लिए एक जोड़े को आत्मबलिदान देना पड़ा था। उसी जोड़े के बलिदान का वर्णन लेखक ने प्रस्तुत पाठ में किया है।

बहुत समय पहले, जब लिटिल अंदमान और कार -निकोबार एक साथ जुड़े हुए थे, तब वहाँ एक बहुत सुंदर गाँव हुआ करता था। उसी गाँव के पास में ही एक सुंदर और शक्तिशाली युवक रहा करता था। जिसका नाम तताँरा था। निकोबार के सभी व्यक्ति उससे बहुत प्यार करते थे। इसका एक कारण था कि तताँरा एक भला और सबकी मदद करने वाला व्यक्ति था। जब भी कोई मुसीबत में होता तो हर कोई उसी को याद करता था और वह भी भागा -भागा वहाँ उनकी मदद करने के लिए पहुँच जाता था। तताँरा हमेशा अपनी पारम्परिक पोशाक ही पहनता था और हमेशा अपनी कमर में एक लकड़ी की तलवार को बाँधे रखता था। लोगों का मानना था कि उस तलवार में लकड़ी की होने के बावजूद भी अनोखी दैवीय शक्तियाँ हैं। तताँरा कभी भी अपनी तलवार को अपने से अलग नहीं करता था। वह दूसरों के सामने तलवार का प्रयोग भी नहीं करता था। तताँरा की तलवार जिज्ञासा पैदा करने वाला एक ऐसा राज था, जिसको कोई नहीं जानता था।

तीसरी कसम के शिल्पकार

पाठ- 13 तीसरी कसम के शिल्पकार शैलेंद्र

प्रह्लाद अग्रवाल (1947)

लेखक- परिचय

इनका जन्म 1947 मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में हुआ। इन्होनें हिंदी से एम.ए की शिक्षा हासिल की। इन्हें किशोर वय से ही हिंदी फिल्मों के इतिहास और फिल्मकारों के जीवन और अभिनय के बारे में विस्तार से जानने और उस पर चर्चा करने का शौक रहा। इन दिनों ये सतना के शासकीय स्वसाशी स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रध्यापन कर रहे हैं और फिल्मों के विषय में बहुत कुछ लिख चुके हैं और आगे भी इसी क्षेत्र में लिखने को कृत संकल्प हैं।

प्रमुख कार्य

प्रमुख कृतियाँ – सांतवाँ दशक, तानशाह, मैं खुशबू, सुपर स्टार, राज कपूर: आधी हकीकत आधा फ़साना, कवि शैलन्द्रः जिंदगी की जीत में यकीन, पप्यासा: चिर अतृप्त गुरुदत्त, उत्ताल उमंग: सुभाष घई की फिल्मकला, ओ रे माँझी: बिमल राय का सिनेमा और महाबाजार के महानायक: इक्कीसवीं सदी का सिनेमा।

पाठ -प्रवेश

साल के किसी महीने का शायद ही कोई शुक्रवार ऐसा जाता हो जब कोई न कुछ को वह कोई हिंदी फ़िल्म सिने पर्दे पर न पहुँचती हो। इनमें से कुछ सफल रहती हैं तो कुछ असफल। कुछ दर्शकों को कुछ अर्से तक याद रह जाती हैं, • सिनेमाघर से बाहर निकलते ही भूल जाते हैं। लेकिन जब कोई फ़िल्मकार किसी • साहित्यिक कृति को पूरी लगन और ईमानदारी से पर्दे पर उतारता है तो उसकी फ़िल्म न केवल यादगार बन जाती है बल्कि लोगों का मनोरंजन करने के साथ ही उन्हें कोई बेहतर संदेश देने में भी कामयाब रहती है।

एक गीतकार के रूप में कई दशकों तक फ़िल्म क्षेत्र से जुड़े रहे कवि और गीतकार ने जब फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कृति ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम’ को सिने पर्दे पर उतारा तो वह मील का पत्थर सिद्ध हुई। आज भी उसकी गणना हिंदी की कुछ अमर फ़िल्मों में की जाती है। इस फ़िल्म ने न केवल अपने गीत, संगीत, कहानी की बदौलत शोहरत पाई बल्कि इसमें अपने ज़माने के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर ने अपने फ़िल्मी जीवन की सबसे बेहतरीन एक्टिंग करके सबको चमत्कृत कर दिया। फ़िल्म की हीरोइन वहीदा रहमान ने भी वैसा ही अभिनय कर दिखाया जैसी उनसे उम्मीद थी ।

इस मायने में एक यादगार फ़िल्म होने के बावजूद ‘तीसरी कसम’ को आज इसलिए भी याद किया जाता है क्योंकि इस फ़िल्म के निर्माण ने यह भी उजागर कर दिया कि हिंदी फ़िल्म जगत में एक सार्थक और उद्देश्यपरक फ़िल्म बनाना कितना कठिन और जोखिम का  काम है।

शब्दार्थ :–

  • अंतराल- के बाद
  • अभिनीत- अभिनय किया गया
  • सर्वोत्कृष्ट- कैमरे की रील में उतार चित्र पर प्रस्तुत करना
  • सार्थकतासफलता के बाद
  • कलात्मकता- कला से परिपूर्ण
  • संवेदनशीलता- भावुकता
  • सिद्धार्थतीव्रता
  • अनन्य- परम/अत्यधिक
  • पारिश्रमिक- मेहनताना
  • आगाह- सचेत
  • बमुश्किल- बहुत कठिनाई से
  • वितरक- प्रसारित करने वाले लोग
  • नामजद- विख्यात
  • मंतव्य- इच्छा
  • अभिजात्य- परिष्कृत
  • भाव- प्रवण
  • दुरुह- कठिन
  • स्पंदित- संचालित करना/गतिमान
  • हुजूम- भीड़
  • रूपांतरण- किसी एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित करना
  • त्रासद- दुखद
  • धन-लिप्सा- धन की अत्यधिक चाह
  • जीवन सापेक्ष- जीवन के प्रति
  • कला मर्मज्ञ- कला की परख करने वाला
  • किवदंती- कहावत

पाठ की समीक्षा

शैलेंद्र बीस सालों से फ़िल्म इंडस्ट्री से थे। वे वहाँ के तौर-तरीकों से पूर्व रूप से परिचित थे। फिर भी वे उन तौर-तरीकों में उलझकर अपनी इनसानियत नहीं खोना चाहते थे। उनके एक गीत में ‘दसों दिशाओं’ शब्द पर शंकर जय किशन ने आपत्ति जताई। उनके अनुसार लोग केवल चार दिशाओं से ही परिचित हैं दस दिशाओं से नहीं, परंतु शैलेंद्र अपनी बात पर अड़े रहे। उन्होंने कहा कि दर्शकों की रुचि का परिष्कार करना चाहिए न कि उसमें उथलापन लाना चाहिए। उनके गीतों में प्रवाह और गहराई साथ-साथ थे। ‘तीसरी कसम’ उन फ़िल्मों में से एक है, जिन्होंने साहित्य के साथ पूरा न्याय किया। शैलेंद्र ने इस फ़िल्म में गाड़ीवान हीरामन पर राजकपूर को हावी नहीं होने दिया बल्कि राजकपूर को हीरामन बना दिया। प्रसिद्ध अभिनेत्री वहीदा रहमान की साधारण-सी साड़ी में लिपटी हीराबाई बनाकर प्रस्तुत किया। वहीदा की बोलती आँखें और सरल हृदय गाड़ीवान ने सबका मन मोह लिया।

आजकल की फ़िल्में लोकतत्व से दूर होती हैं। वे त्रासद स्थितियों को ग्लोरीफाई करके वीभत्स बना देती हैं, जिससे दर्शकों का भावनात्मक शोषण हो सके। ‘तीसरी कसम’ में प्रस्तुत दुख सहज व स्वाभाविक था। इसमें भावना व संवेदना दोनों की प्रमुखता थी।

गिरगिट

पाठ-14 गिरगिट

अंतोन चेखव(1860-1904)

लेखक -परिचय

इनका जन्म दक्षिणी रूस के तगनोर नगर में 1860 में हुआ था। इन्होनें शिक्षा काल से ही कहानियाँ लिखना आरम्भ कर दिया था। उन्नीसवीं सदी का नौवाँ दशक रूस के लिए कठिन समय था। ऐसे समय में चेखव ने उन मौकापरस्त लोगों को बेनकाब करती कहानियाँ लिखीं जिनके लिए पैसा और पद ही सब कुछ था।

प्रमुख कार्य

कहानियाँ- गिरगिट, क्लर्क की मौत, वान्का, तितली, एक कलाकार की कहानी, घोंघा,ईओनिज,रोमांस,दुलहन।

नाटक – वाल्या मामा, तीन बहनें, सीगल और चेरी का बगीचा।

पाठ प्रवेश

जो भी अन्याय करता है उसके अन्याय को भी न्याय के तराजू में तोला जाता है।सभी व्यक्तियों के अंदर इस तरह की न्याय व्यवस्था के कारण निडरता की भावना पैदा हो जाती है। ऐसी शासन व्यवस्था तभी कायम हो सकती है, जब शासन करने वाले बिना किसी भेदभाव के, अपने अधिकारों और कर्तव्यों का पालन करेंगे। जब कभी भी शासन करने वाले अपना काम सही ढंग से नहीं करते, तब देश में अनियंत्रित एवं विधि विरोधी शासनावस्था का बोलबाला बढ़ जाता है।

शब्दार्थ

  • जब्त- कब्जा करना
  • झरबेरियाँ– बेर की एक किस्म
  • किकियाना– कष्ट में होने पर कुत्ते द्वारा की जाने वाली आवाज़
  • काठगोदाम- लकड़ी का गोदाम
  • कलफ़- मांड लगाया गया कपड़ा
  • बारजोयस- कुत्ते की एक प्रजाति
  • पेचीदा- कठिन
  • गुजारिश– प्रार्थना
  • हरज़ाना- नुकसान के बदले में दी जाने वाली रकम
  • बरदाश्त- सहना
  • खँखारते– खाँसते हुए
  • त्योरियाँ– भौहें चढ़ाना
  • विवरण– ब्योरा देना
  • भद्दा– कुरूप
  • नस्ल– जाति
  • आल्हाद– ख़ुशी

 पाठ का सार

गिरगिट पाठ मशहूर रूसी लेखक चेखव की रचना है, जिसमें उन्होंने उस समय की राजनितिक स्थितियों पर करारा व्यंग्य किया है। बड़े अधिकारियों के तलवे चाटने वाले पुलिसवाले कैसे आम जनता का शोषण करते हैं, इसे बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है ।एक नागरिक को कुत्ते के कट लेने पर पहले तो पुलिस इंस्पेक्टर कुत्ते के खिलाफ बोलता है लेकिन जैसे ही उसे पता चलता है, कुत्ता बड़े अफसर का है तो तुरंत पलटी मार कर कुत्ते के पक्ष में बोलने लगता है ।उसके बाद तो कहानी पूरी तरह अपने नाम को सार्थक करती नज़र आती है। लोगों की बातों के अनुसार जिस प्रकार पल-पल में वह रंग बदलता है, उसे देखकर तो गिरगिट को भी शर्म आ जाये। लेकिन वह इतना ढीठ है कि उस पर किसी बात का कोई असर नहीं होता और वह अंत तक केवल रंग ही बदलता रहता है। जनता के दुःख दर्द से उसे कोई लेना देना नहीं होता.।

अब कहां दूसरों के दुख से दुखी होने वाले

पाठ-15 अब कहां दूसरों के दुख से दुखी होने वाले

निदा फ़ाज़ली (1938-2016)

लेखक-परिचय-

12 अक्तूबर 1938 को दिल्ली में जन्मे निदा फ़ाज़ली का बचपन ग्वालियर में बीता। निदा फ़ाज़ली उर्दू की साठोत्तरी पीढ़ी के महत्त्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। आम बोलचाल की भाषा में और सरलता से किसी के भी दिलोदिमाग में घर कर सके, ऐसी कविता करने में इन्हें महारत हासिल है।

निदा फ़ाज़ली की लफ़्ज़ों का पुल नामक कविता की पहली पुस्तक आई। शायरी की किताब खोया हुआ सा कुछ के लिए 1999 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित निदा फ़ाज़ली की आत्मकथा का पहला भाग दीवारों के बीच और दूसरा दीवारों के पार शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। फ़िल्म उद्योग से संबद्ध रहे निदा फ़ाज़ली का निधन 8 फ़रवरी 2016 को हुआ। यहाँ तमाशा मेरे आगे किताब में संकलित एक अंश प्रस्तुत है।

पाठ-प्रवेश

कुदरत ने यह धरती उन तमाम जीवधारियों के लिए अता फरमाई थी जिन्हें खुद उसी ने जन्म दिया था। लेकिन हुआ यह कि आदमी नाम के कुदरत के सबसे अज़ीम करिश्मे ने धीरे-धीरे पूरी धरती को ही अपनी जागीर बना लिया और अन्य तमाम जीवधारियों को दरबदर कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अन्य जीवधारियों की या तो नस्लें खत्म होती गईं या उन्हें अपना ठौर-ठिकाना छोड़कर कहीं और जाना पड़ा या फिर आज भी वे एक आशियाने की तलाश में मारे-मारे फिर रहे हैं।

इतना भर हुआ रहा होता तब भी गनीमत होती, लेकिन आदमी नाम के इस जीव की सब कुछ समेट लेने की भूख यहीं पूरी नहीं हुई। अब वह अन्य प्राणियों को ही नहीं खुद अपनी जात को भी बेदखल करने से ज़रा भी परहेज़ नहीं करता। आलम यह है कि उसे न तो किसी के सुख-दुख की चिंता है, न किसी को सहारा या सहयोग देने की मंशा ही। यकीन न आता हो तो इस पाठ को पढ़ जाइए और साथ ही याद कीजिएगा अपने आसपास के लोगों को। बहुत संभव है इसे पढ़ते हुए ऐसे बहुत लोग याद आएँ जो कभी न कभी किसी न किसी के प्रति वैसा ही बरताव करते रहे हों।

शब्दार्थ

  • हाकिम- राजा/मालिक
  • लसकर- सेना
  • लकब- पद सूचक नाम
  • प्रतीकात्मक- प्रतीक स्वरूप
  • दालान- बरामदा
  • सिमटना- सिकुड़ना
  • जलजले- भूकंप
  • सैलाब- बाढ़
  • सैलानी- पर्यटक
  • अज़ीज़- प्रिय
  • मजार- दरगाह
  • डेरा- अस्थाई पड़ाव
  • अजान- नमाज के समय की सूचना जो मस्जिद की छत या दूसरी ऊंची जगह पर खड़े होकर दी जाती है।

पाठ का सार

बाइबिल के सोलोमन को कुरआन में सुलेमान कहा गया है। वे 1025 वर्ष पूर्व एक बादशाह थे । वे मुष्य की ही नहीं पशु पक्षियों की भी भाषा समझते थे ।

एक बार वे अपने लश्कर के साथ रास्ते से गुजर रहे थे रास्ते में कुछ चीटियाँ उनके घोड़ों की आवाज़ सुनकर अपने बिलों की तरफ वापस चल पड़ी। सुलेमान ने उनसे कहा “घबराओ नहीं “,सुलेमान को खुदा ने सबका रखवाला बनया है । मैं किसी के लिए मुसीबत नहीं हूँ। सबके लिए मुहब्बत हूँ ।यह कहकर वह अपनी मंजिल की ओर बढ़ने लगा । यह धरती किसी एक की नहीं है । सभी जीव जंतुओं का सामान अधिकार है। पहले पूरा संसार एक था मनुष्य ने ही इसे एक टुकड़े में बांटा है पहले लोग मिलजुलकर रहते थे अब वे बंट चुके हैं। बढती हुई आबादी में समंदर को पीछे धकेल दिया पेड़ों को राते से हटा दिया है। फैलते हुए प्रदुषण ने पंछियों को बस्तियों से भागना शुरू कर दिया है। प्रकृति का रूप बदल गया है। लेखक की माँ कहती थी कि सूरज ढले आँगन के पेड़ से पत्ते मत तोड़ो । दिया बत्ती के वक़्त फूल मत तोड़ो । दरिया पर जाओ तो उसे सलाम करो । कबूतरों को मत सताया करो । मुर्गे को मत परेशान करो वे अज़ान देकर सबको जगाता है।

पतझड़ में टूटी पत्तियां

पाठ-16 पतझड़ में टूटी पत्तियां,झेन की देन

रविंद्र केलेकर(1925 -2010)

लेखक परिचय-

इनका जन्म 7 मार्च 1925 को कोंकण क्षेत्र में हुआ था।ये छात्र जीवन से ही गोवा मुक्ति आंदोलन में शामिल हो गए। गांधीवादी चिंतक के रूप में विख्यात केलेकर ने अपने लेखन में जन-जीवन के विविध पक्षों, मान्यताओं और व्यकितगत विचारों को देश और समाज परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। इनकी अनुभवजन्य टिप्पणियों में अपनी चिंतन की मौलिकता के साथ ही मानवीय सत्यतक पहुँचने की सहज चेष्टा रहती है।

प्रमुख कार्य-

कृतियाँ – कोंकणी में उजवाढाचे सूर, समिधा, सांगली ओथांबे, मराठी में कोंकणीचें राजकरण, जापान जसा दिसला और हिंदी में पतझड़ में टूटी पत्तियाँ पुरस्कार – गोवा कला अकादमी के साहित्य पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कार ।

पाठ-प्रवेश

ऐसा माना जाता है कि थोड़े में बहुत कुछ कह देना कविता का गुण है। जब कभी यह गुण किसी गद्य रचना में भी दिखाई देता है तब उसे पढ़ने वाले को यह मुहावरा याद नहीं रखना पड़ता कि ‘सार-सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय’। सरल लिखना, थोड़े शब्दों में लिखना ज्यादा कठिन काम है। फिर भी यह काम होता रहा है। सूक्ति कथाएँ, आगम कथाएँ, जातक कथाएँ, पंचतंत्र की कहानियाँ उसी लेखन के प्रमाण हैं। यही काम कोंकणी में रवींद्र केलेकर ने किया है।

प्रस्तुत पाठ के प्रसंग पढ़ने वालों से थोड़ा कहा बहुत समझना की माँग करते हैं। ये प्रसंग महज पढ़ने-गुनने की नहीं, एक जागरूक और सक्रिय नागरिक बनने की प्रेरणा भी देते हैं। पहला प्रसंग गिन्नी का सोना जीवन में अपने लिए सुख-साधन जुटाने वालों से नहीं बल्कि उन लोगों से परिचित कराता है जो इस जगत को जीने और रहने योग्य बनाए हुए हैं।

दूसरा प्रसंग झेन की देन बौद्ध दर्शन में वर्णित ध्यान की उस पद्धति की याद दिलाता है जिसके कारण जापान के लोग आज भी अपनी व्यस्ततम दिनचर्या के बीच कुछ चैन भरे पल पा जाते हैं।

शब्दार्थ-

  • व्यावहारिकता– समय और अवसर देखकर काम करने की सूझ
  • प्रैक्टिकल आईडियालिस्ट- व्यावहारिक आदर्श
  • बखान- बयान करना
  • सूझ-बुझ- काम करने की समझ
  • स्तर– श्रेणी
  • के स्तर- के बराबर
  • सजग– सचेत
  • शाश्वत– जो बदला ना जा सके
  • शुद्ध सोना- बिना मिलावट का सोना
  • गिन्नी का सोना– सोने में ताँबा मिला हुआ
  • मानसिक– दिमागी
  • मनोरुग्न- तनाव के कारण मन से अस्वस्थ
  • प्रतिस्पर्धा- होड़
  • स्पीड- गति
  • टी-सेरेमनी– जापान में चाय पिने का विशेष आयोजन
  • चा-नो-यू– जापान में टी सेरेमनी का नाम
  • दफ़्ती- लकड़ी की खोखली सड़कने वाली दीवार जिस पर चित्रकारी होती है
  • पर्णकुटी– पत्तों से बानी कुटिया
  • बेढब सा- बेडौल सा
  • चाजीन- जापानी विधि से चाय पिलाने वाला

पाठ का भावार्थ

पाठ में वर्णित प्रसंग पढ़नेवालों से ‘थोड़ा कहा अधिक समझना’ की माँग करते हैं। ये प्रसंग महज पढ़ने-गुनने हेतु नहीं हैं एक जागरूक और सक्रिय नागरिक बनने की प्रेरणा देते हैं। पहला प्रसंग ‘गिन्नी का सोना’ जीवन में अपने लिए सुख-साधन जुटाने वालों से नहीं बल्कि उन लोगों से परिचय कराता है जो इस जगत् को जीने और रहने योग्य बनाए हुए हैं। दूसरा प्रसंग ‘झेन की देन’ बौद्ध दर्शन में वर्णित ध्यान की पद्धति की याद दिलाता है जिसके कारण जापान के लोग आज भी अपनी व्यस्ततम दिनचर्या के बीच कुछ चैन भरे पल बिता लेते हैं।

कारतूस

पाठ-17  कारतूस

हबीब तनवीर(1923-2009)

लेखक-परिचय

1923 में छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर ने 1944 में नागपुर से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात ब्रिटेन की नाटक अकादमी से नाट्य-लेखन का अध्ययन करने गए और फिर दिल्ली लौटकर पेशेवर नाट्यमंच की स्थापना की।

नाटककार, कवि, पत्रकार, नाट्य निर्देशक, अभिनेता जैसे कई रूपों में ख्याति प्राप्त हबीब तनवीर ने लोकनाट्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया। कई पुरस्कारों, फेलोशिप और पद्मश्री से सम्मानित हबीब तनवीर के प्रमुख नाटक हैं-आगरा बाज़ार, चरनदास चोर, देख रहे हैं नैन, हिरमा की अमर कहानी। इन्होंने बसंत ऋतु का सपना, शाजापुर की शांति बाई, मिट्टी की गाड़ी और मुद्राराक्षस नाटकों का आधुनिक रूपांतर भी किया।

पाठ– प्रवेश

अंग्रेज़ इस देश में व्यापारी के भेष में आए थे। शुरू में व्यापार ही करते रहे, लेकिन उनके इरादे केवल व्यापार करने के नहीं थे। धीरे-धीरे उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी ने रियासतों पर कब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया। उनकी नीयत उजागर होते ही अंग्रेज़ों को हिंदुस्तान से खदेड़ने के प्रयास भी शुरू हो गए।

प्रस्तुत पाठ में एक ऐसे ही जाँबाज़ के कारनामों का वर्णन है जिसका एकमात्र लक्ष्य था अंग्रेज़ों को इस देश से बाहर करना। कंपनी के हुक्मरानों की नींद हराम कर देने वाला यह दिलेर इतना निडर था कि शेर की माँद में पहुँचकर उससे दो-दो हाथ करने की मानिंद कंपनी की बटालियन के खेमे में ही नहीं आ पहुँचा, बल्कि उनके कर्नल पर ऐसा रौब गालिब किया कि उसके मुँह से भी वे शब्द निकले जो किसी शत्रु या अपराधी के लिए तो नहीं ही बोले जा सकते थे।

शब्दार्थ

  • तख़्त- सिंहासन
  • मसलेहत– रहस्य
  • ऐश पसं- द भोग विलास पसंद करने वाला
  • जाँबाज़- जान की बाज़ी लगाने वाला
  • दमखम– शक्ति और दृढ़ता
  • जाती तौर पर- व्यक्तिगत रूप से
  • वज़ीफा- परवरिश के लिए दी जाने वाली राशि
  • मुकर्रर– तय करना
  • तलब- किया याद किया
  • हुक्मरां- शासक
  • गर्द- धूल
  • काफ़िला– एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाने वाले यात्रियों का समूह
  • शुब्हे- संदेह
  • दिवार हमगोश दारद– दीवारों के भी कान होते हैं
  • लावलश्कर- सेना का बड़ा समूह और युद्ध सामग्री
  • कारतूस- पीतल और दफ़्ती आदि की एक नली जिसमें गोली तथा बारूद भरी होती है

पाठ का भावार्थ उज्जैन

प्रस्तुत पाठ में भी एक ऐसे अपनी जान पर खेल जाने वाले शूरवीर के कारनामों का वर्णन किया गया है। जिसका केवल एक ही लक्ष्य था – अंग्रेजों को देश से बाहर निकालना। कंपनी के हुक्म चलाने वालों की उसने नींद हराम कर राखी थी। वह इतना निडर था कि मुसीबत को खुद बुलावा देते हुए न सिर्फ कंपनी के अफसरों के बीच पहुँचा बल्कि उनके कर्नल पर ऐसा रौब दिखाया कि कर्नल के मुँह से भी उसकी तारीफ़ में ऐसे शब्द निकले जैसे किसी दुश्मन के लिए नहीं निकल सकते।