कबीर की साखी

टोपी शुक्ला

Topi Shukla Class 10 Chapter 3 Summary, Explanation, Question Answers

टोपी शुक्ला पाठ सार

प्रस्तुत पाठ में लेखक टोपी की कहानी पाठकों को सुनाना चाहते हैं। इसलिए लेखक कहता है कि वह इफ़्फ़न की कहानी पूरी नहीं सुनाएगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाएगा जितनी टोपी की कहानी के लिए उसे जरुरी लग रही है। इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना शायद टोपी की कहानी अधूरी है। ये दोनों लेखक की कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को सभी प्यार से टोपी कह कर पुकारते हैं और दूसरे को इफ़्फ़न।

इफ़्फ़न की दादी पूरब की रहने वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी हुई और वह लखनऊ आ गई, परन्तु जब तक ज़िंदा रही, वह पूरब की ही भाषा बोलती रही। लखनाऊ की उर्दू तो उनके लिए ससुराल की भाषा थी। उन्होंने तो मायके की भाषा को ही गले लगाए रखा था क्योंकि उनकी इस भाषा के सिवा उनके आसपास कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझ पाता। जब उनके बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल तड़पने लगा, परन्तु इस्लाम के आचार्यों के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था? बेचारी का दिल उदास हो गया। लेकिन इफ़्फ़न के जन्म के छठे दिन के स्नान/पूजन/उत्सव पर उन्होंने जी भरकर उत्सव मना लिया था।

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी किसी इस्लामी आचार्य की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थी। दूध-घी खाती हुई बड़ी हुई थी परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गई थी। जब भी वह अपने मायके जाती तो जितना उसका मन होता, जी भर के खा लेती। क्योंकि लखनऊ वापिस आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता।

इफ़्फ़न को अपनी दादी से बहुत ज्यादा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अम्मी, बड़ी बहन और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह सबसे ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार इफ़्फ़न को डाँट देती थी और कभी-कभी तो मार भी दिया करती थी। बड़ी बहन भी अम्मी की ही तरह कभी-कभी डाँटती और मारती थी। अब्बू भी कभी-कभार घर को न्यायालय समझकर अपना फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब भी मौका मिलता वह उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थी। बस एक दादी ही थी जिन्होंने कभी भी किसी बात पर उसका दिल नहीं दुखाया था। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थी।

इफ़्फ़न की दादी की बोली टोपी के दिल में उतर गई थी, उसे भी इफ़्फ़न की दादी की बोली बहुत अच्छी लगती थी। इफ़्फ़न की दादी टोपी को अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दी कहने का अर्थ है टोपी की माँ और इफ़्फ़न की दादी की बोली एक जैसी थी। टोपी को अपनी दादी बिलकुल भी पसंद नहीं थी। उसे तो अपनी दादी से नफ़रत थी। वह पता नहीं कैसी भाषा बोलती थी। टोपी को अपनी दादी की भाषा और इफ़्फ़न के अब्बू की भाषा एक जैसी लगती थी। लेखक कहता है कि टोपी जब भी इफ़्फ़न के घर जाता था तो उसकी दादी के ही पास बैठने की कोशिश करता था। टोपी को इफ़्फ़न की दादी का हर एक शब्द शक़्कर की तरह मिठ्ठा लगता था। पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत की तरह मज़ेदार लगता। तिल के बने व्यंजनों की तरह अच्छा लगता था। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी टोपी से हमेशा एक ही सवाल पूछ कर बात आगे बढ़ती थी कि उसकी अम्माँ क्या कर रही है। पहले-पहले तो टोपी को समझ में नहीं आया कि ये अम्माँ क्या होता है परन्तु बाद-बाद में उसे समझ में आ गया कि माता जी को ही अम्माँ कहा जाता है। जब टोपी ने अम्माँ शब्द सुना तो उसे यह शब्द बहुत अच्छा लगा। जिस तरह गुड़ की डाली को मुँह में रख कर उसके स्वाद का आनंद लिया जाता है उसी तरह वह इस शब्द को भी बार-बार बोलता रहा। “अम्माँ”। “अब्बू”। “बाजी”। उसे ये शब्द बहुत पसंद आए।

एक दिन टोपी को बैंगन का भुरता ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी (टोपी की माँ) खाना परोस रही थी। टोपी ने कह दिया कि अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता। अम्मी! यह शब्द सुनते ही मेज़ पर बैठे सभी लोग चौंक गए, उनके हाथ खाना खाते-खाते रुक गए। वे सभी लोग टोपी के चेहरे की ओर देखने लगे। टोपी की दादी सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गई थी और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा । एक ही बात बार-बार पूछ रही थी कि क्या अब वो इफ़्फ़न के घर जाएगा? इसके उत्तर में हर बार टोपी “हाँ” ही कहता था। मुन्नी बाबू और भैरव जो टोपी के भाई थे वे टोपी की पिटाई का तमाशा देखते रहे। लेखक कहता है कि जब टोपी की पिटाई हो रही थी, उसी समय मुन्नी बाबू एक और बात जोड़ कर बोले कि एक दिन, उन्होंने इसे रहीम कबाबची की दुकान पर कबाब खाते देखा था। सच्ची बात यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी। ताकि टोपी घर पर उनकी शिकायत न कर दे। उस दिन तो टोपी की इतनी पिटाई हो गई थी कि उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। दूसरे दिन जब टोपी स्कूल गया और स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे पिछले दिन की सारी बातें बता दी। दोनों भूगोल शास्त्र की कक्षा को छोड़कर बाहर निकल गए। पंचम की दूकान से इफ़्फ़न ने केले ख़रीदे क्योंकि बात यह थी कि टोपी फल के अलावा बाहर की किसी भी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था।

 

टोपी बहुत ही भोलेपन से इफ़्फ़न से कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वे लोग दादी बदल ले? उसकी दादी इफ़्फ़न के घर और इफ़्फ़न की दादी उसके घर आ जाए। टोपी कहता है कि उसकी दादी की बोली तो इफ़्फ़न के परिवार की बोली की तरह ही है। टोपी की इस बात का जवाब देते हुए इफ़्फ़न कहता है कि टोपी की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती। उसके अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। क्योंकि उसकी दादी उसके अब्बू की अम्माँ भी तो हैं। जब टोपी और इफ़्फ़न बात कर रहे थे उसी समय इफ़्फ़न का नौकर आया और खबर दी कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है। शाम को जब वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ शांति थी। घर लोगों से भरा हुआ था। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए पूरा घर खली हो चूका था। जबकि टोपी को दादी का नाम भी मालूम नहीं था, परन्तु उसका इफ़्फ़न की दादी से बहुत गहरा सम्बन्ध बन गया था। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे क्योंकि दोनों को ही उनके घर में कोई समझने वाला नहीं था। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन दूर कर दिया था। टोपी इफ़्फ़न को सहानुभूति देता हुआ कहता है कि इफ़्फ़न दादी की जगह उसकी दादी मर गई होती तो ठीक हुआ होता।

लेखक कहता है कि टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी भी ऐसे लड़के से कभी भी दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता कोई ऐसी नौकरी करते हो जिसमें बदली होती रहती हो। दस अक्तूबर सन पैंतालीस का टोपी के जीवन के इतिहास में बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। टोपी दादी के मरने के बाद तो अकेला महसूस कर ही रहा था और अब इफ़्फ़न के चले जाने पर वह और भी अकेला हो गया था क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त नहीं बन सका था। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। अब न तो इफ़्फ़न था और न ही इफ़्फ़न की दादी जो उसे समझ सके। घर में ले-देकार एक बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह अब सीता के साथ ही समय गुजारने लगा।

ठण्ड के दिन शुरू हो गए थे और मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया और भैरव के लिए भी नया कोट बना लेकिन टोपी को मुन्नी बाबू का पुराना कोट मिला। वैसे कोट बिलकुल नया ही था क्योंकि जब वह बनाया गया तब वह मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी गई कोई भी चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी ठण्ड ही खाएगा। इस पर दादी और टोपी के बीच बहस हो गई और दादी ने पूरा घर अपने सिर पर उठा लिया। जब टोपी को उसकी माँ ने दादी को उल्टा जवाब देने के लिए पीटा तो उनकी बूढ़ी नौकरानी सीता टोपी को समझाने लगी कि अब वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया है। उसे दादी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए । सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया है परन्तु टोपी के लिए दसवीं कक्षा में पहुँचना इतना भी आसान नहीं था। दसवीं कक्षा में पहुँचने के लिए टोपी को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी थी। दो साल तो टोपी फेल ही हुआ था। वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी टोपी पढ़ाई करने बैठता था तो कभी उसके बड़े भाई मुन्नी बाबू को कोई काम याद आ जाता था या उसकी माँ को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी, अगर ये सारी चीज़े न होती तो कभी उसका छोटा भाई भैरव उसकी कापियों के पन्नों को फाड़ कर उनके हवाई जहाज़ बना कर उड़ाने लग जाता। यह तो थी पहले साल की बात। दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया था। जिसके कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाया और दूसरी साल भी फेल हो गया। तीसरे साल वह पास तो हो गया परन्तु थर्ड डिवीज़न में। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया।

टोपी के सभी दोस्त दसवीं कक्षा में थे। इसलिए वह उन्हीं से मिलता और उन्हीं के साथ खेलता था। अपने साथ नवीं कक्षा में पढ़ने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं थी। वह जब भी कक्षा में बैठता, उसे अजीब लगता था। टोपी ने किसी न किसी तरह इस साल को झेल लिया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवीं कक्षा में ही बैठना पड़ा तो वह बिलकुल गीली मिट्टी का पिंड हो गया, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। जो विद्यार्थी सन उनचास में आठवीं कक्षा में थे वे अब दसवीं कक्षा में थे। जो सन उनचास में सातवीं कक्षा में थे वे टोपी के साथ पहुँच गए थे। उन सभी के बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देने लगा था।

वहीद जो कक्षा का सबसे तेज़ लड़का था, उसने टोपी से पूछा कि वह उन लोगों के साथ क्यों खेलता है। उसे तो आठवीं कक्षा वालों से दोस्ती करनी चाहिए। क्योंकि वे लोग तो आगे दसवीं कक्षा में चले जाएँगे और टोपी को तो आठवीं वालों के साथ ही रहना है तो उनसे दोस्ती करना टोपी के लिए अच्छा होगा। यह बात टोपी को बहुत बुरी लगी और ऐसा लगा जैसे यह बात उसके दिल के आर-पार हो गई हो। और उसने उसी समय कसम खाई कि इस साल उसे टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, वह पास होकर ही दिखाएगा। परन्तु साल के बीच में ही चुनाव आ गए। टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण, नीले तेल वाले, चुनाव लड़ने के लिए खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो, उस घर में कोई पढ़-लिख कैसे सकता है? वह तो जब टोपी के पिता चुनाव हार गए तब घर में थोड़ी शांति हुई और टोपी ने देखा कि उसकी परीक्षा को ज्यादा समय नहीं रहा है। वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु जैसा वातावरण टोपी के घर में बना हुआ था ऐसे वातावरण में कोई कैसे पढ़ सकता था? इसलिए टोपी का पास हो जाना ही बहुत था। टोपी के दो साल एक ही कक्षा में रहने के बाद जब वह पास हुआ तो उसकी दादी बोली कि वाह! टोपी को भगवान नजरे-बंद से बचाए। बहुत अच्छी रफ़्तार पकड़ी है। तीसरे साल पास हुआ वो भी तीसरी श्रेणी में, चलो पास तो हो गया।

परन्तु लेखक कहता है कि सभी को उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस वजह से दो साल फेल हुआ और तीसरी साल में थर्ड डिवीज़न से पास हुआ।

टोपी शुक्ला पाठ की व्याख्या

इफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है कि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी ने सदा इफ्फन कहा। इफ़्फ़न ने इसका बुरा माना। परन्तु वह इफ्फन पुकारने पर बोलता रहा। इसी बोलते रहने में उसकी बड़ाई थी। यह नामों का चक्कर भी अजीब होता है। उर्दू और हिंदी एक ही भाषा, हिंदवी के दो नाम हैं। परन्तु आप खुद देख लीजिए कि नाम बदल जाने से कैसे-कैसे घपले हो रहे हैं। नाम कृष्ण हो तो उसे अवतार कहते हैं और मुहम्मद हो तो पैगम्बर। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल गए कि दोनों ही दूध देने वाले जानवर चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोवर्धन और ब्रजकुमार थे। इसलिए तो कहता हूँ कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल यह कि अधूरे हैं बल्कि बेमानी हैं। इसलिए इफ़्फ़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही है और परम्पराओं के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं।

घपला – गड़बड़

पैगम्बर – पैगाम देने वाला

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लेखक कहता है कि इफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी हमेशा ही इफ्फन कहकर पुकारता था। इफ़्फ़न को इस बात का बुरा लगता था। परन्तु जब भी टोपी उसे इफ्फन पुकारता है इफ़्फ़न उसे बोलता रहा की वह गलत बोल रहा है। वह हर समय टोपी को अपने नाम को सही बोलने के लिए कहता रहता था। लेखक कहता है कि यह नामों का जो चक्कर होता है वह बहुत ही अजीब होता है। हिंदवी एक भाषा है जिसके उर्दू और हिंदी दो अलग-अलग नाम हैं। परन्तु खुद देख लीजिए कि केवल नाम बदल जाने से कैसी-कैसी गड़बड़ हो जाती हैं। यदि नाम “कृष्ण” हो तो उसे अवतार कहते हैं और अगर नाम “मुहम्मद” हो तो पैगम्बर (अर्थात पैगाम देने वाला)।

कहने का अर्थ है की एक को ईश्वर और दूसरे को ईश्वर का पैगाम देने वाला कहा जाता है। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल जाते हैं कि दोनों ही दूध देने वाले जानवरों को चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोवर्धन और ब्रज में रहने वाले कुमार थे। इसलिए लेखक कहता है कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल अधूरे हैं बल्कि यह बेमानी कही जायगी। इसलिए इफ़्फ़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही है और परम्पराओं के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं। अर्थात इफ़्फ़न क्या सोच रहा है।

इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परन्तु हम लोग टोपी की कहानी कह-सुन रहे हैं। इसलिए मैं इफ़्फ़न की पूरी कहानी नहीं सुनाऊँगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाऊँगा जितनी टोपी की कहानी के लिए जरुरी है।

मैंने इसे ज़रूरी जाना कि इफ़्फ़न के बारे में आपको कुछ बता दूँ क्योंकि इफ़्फ़न आपको इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देगा। न टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की। ये दोनों दो आज़ाद व्यक्ति हैं। इन दोनों व्यक्तियों का डेवलपमेंट एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ। इन दोनों को दो तरह की घरेलू परम्पराएँ मिलीं। इन दोनों ने जीवन के बारे में अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है।

डेवलपमेंट – विकास
परम्पराएँ – रीती रिवाज़
अटूट – जिसे तोड़ा न जा सके

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परन्तु प्रस्तुत पाठ में लेखक टोपी की कहानी पाठकों को सुनाना चाहते हैं। इसलिए लेखक कहता है कि वह इफ़्फ़न की कहानी पूरी नहीं सुनाएगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाएगा जितनी टोपी की कहानी के लिए उसे जरुरी लग रही है।

लेखक कहता है कि उसे यह ज़रूरी लगा कि इफ़्फ़न के बारे में वह पाठकों को कुछ बता दे क्योंकि इफ़्फ़न इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देने वाला है। वह कहानी में टोपी के साथ हर जगह है पर यह जान लेना चाहिए कि न तो टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की परछाई है। ये दोनों ही इस कहानी के दो आज़ाद व्यक्ति हैं। इन दोनों व्यक्तियों का विकास एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ अर्थात इन दोनों के विकास में एक-दूसरे का कोई योगदान नहीं है। इन दोनों को दो तरह के घरेलू रीती रिवाज़ मिले। इन दोनों ने ही जीवन के बारे में हमेशा से अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना शायद टोपी की कहानी अधूरी है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का सबसे अहम हिस्सा है।

मैं हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं यह बेवकूफ़ी क्यों करूँ! क्या मैं रोज अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता हूँ कि हम दोनों भाई-भाई हैं? यदि में नहीं कहता तो क्या आप कहते हैं? हिन्दू-मुस्लिम अगर भाई-भाई हैं तो कहने की जरुरत नहीं। यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क पड़ेगा। मुझे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है।

मैं तो एक कथाकार हूँ और एक कथा सुना रहा हूँ। मैं टोपी और इफ़्फ़न की बात कर रहा हूँ। ये इस कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को टोपी कहा गया और दूसरे को इफ़्फ़न।

कथाकार – कथा सुनाने वाला

लेखक कहता है कि वह हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा है। लेखक कहता है कि वह यह बेवकूफ़ी आखिर करे भी तो क्यों करे। क्या वह रोज अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता फिरता है कि वे दोनों भाई-भाई हैं? लेखक पाठकों से पूछता है कि यदि वह नहीं कहता तो क्या पाठकों में से कोई यह कहता हैं? हिन्दू-मुस्लिम अगर भाई-भाई हैं तो कहने की जरुरत ही नहीं है। और यदि नहीं है तो लेखक के कहने से क्या फ़र्क पड़ जाएगा क्योंकि लेखक कहता है कि उसे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है। चुनाव की बात लेखक ने इसलिए की है क्योंकि अक्सर चुनावों में नेता इस पंक्ति का प्रयोग करते हैं।

लेखक कहता है कि वह तो एक कथा-सुनाने वाला है और एक कथा सुना रहा है। लेखक टोपी और इफ़्फ़न की कहानी की बात कर रहा है। ये दोनों लेखक की कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को सभी प्यार से टोपी कह कर पुकारते हैं और दूसरे को इफ़्फ़न।

इफ़्फ़न के दादा और परदादा बहुत प्रसिद्ध मौलवी थे। काफ़िरों के देश में पैदा हुए। काफ़िरों के देश में मरे। परन्तु वसीयत करके मरे कि लाश करबला ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने इस देश में एक साँस तक ना ली। उस खानदान में जो पहला हिन्दुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह बढ़कर इफ़्फ़न का बाप हुआ।

जब इफ़्फ़न के पिता सय्यद मुरतुज़ा हुसैन मरे तो उन्होंने यह वसीयत नहीं की कि उनकी लाश करबला ले जाई जाए। वह एक हिन्दुस्तानी कब्रिस्तान में दफन किए गए।

इफ़्फ़न की परदादी भी बड़ी नमाजी बीबी थीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैन और जाने कहाँ की यात्रा कर आई थीं। परन्तु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा जरूर रखवातीं और माश का सदका भी जरूर उतरवातीं।

मौलवी – इस्लाम धर्म का आचार्य
काफ़िर – गैर मुस्लिम
वसीयत – अपनी मृत्यु से पहले ही अपनी सम्पति या उपभोग की वस्तुओं को लिखित रूप से विभाजित कर देना
करबला –
इस्लाम का एक पवित्र स्थान
नमाजी – नियमित रूप से नमाज पढ़ने वाला
सदका – एक टोटका

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न के दादा और परदादा इस्लाम धर्म के बहुत प्रसिद्ध आचार्य थे। गैर मुस्लिम देश में पैदा हुए। और गैर मुस्लिम देश में ही मरे। परन्तु मरने से पहले ही उन्होंने लिखित रूप में कह रखा था कि मरने के बाद उनकी लाश करबला (इस्लाम का एक पवित्र स्थान) ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने हिंदुस्तान में एक साँस तक नहीं ली। उस खानदान में जो पहला हिन्दुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह इफ़्फ़न के पिता थे।


जब इफ़्फ़न के पिता सय्यद मुरतुज़ा हुसैन मरे तो उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं लिखी जो इफ़्फ़न के दादा और परदादा ने लिखी थी, कि उनकी लाश करबला ले जाई जाए। वह एक हिन्दुस्तानी कब्रिस्तान में दफन किए गए।

इफ़्फ़न की परदादी नियमित रूप से नमाज पढ़ने वाली बीबी थीं। करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैन और न जाने कहाँ-कहाँ की यात्रा कर के आई थीं। परन्तु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा जरूर रखवातीं और माश का एक टोटका भी जरूर उतरवातीं। यह एक हिन्दू रीती-रिवाज़ के अंतर्गत आता है।

इफ़्फ़न की दादी भी नमाज़-रोज़े की पाबंद थीं। परन्तु जब इकलौते बेटे को चेचक निकली तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुईं और बोलीं, “माता मोरे बच्चे को माफ़ करद्यो।” पूरब में रहने वाली थीं। नौ या दस बरस की थीं जब ब्याह कर लखनऊ आईं, परन्तु जब तक ज़िंदा रहीं पूरबी बोलती रहीं। लखनाऊ की उर्दू ससुराली थी। वह तो मायके की भाषा को गले लगाए रहीं क्योंकि इस भाषा के सिवा इधर-उधर कोई ऐसा नहीं था जो उसके दिल की बात समझता। जब बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल फड़का परन्तु मौलवी के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था! बेचारी दिल मसोसकर रह गईं। हाँ इफ़्फ़न की छठी… पर उन्होंने जी भरकर जश्न मना लिया।

बात यह थी कि इफ़्फ़न अपने दादा के मरने के बाद पैदा हुआ था। मर्दों और औरतों के इस फ़र्क को ध्यान में रखना ज़रूरी है क्योंकि इस बात को ध्यान में रखे बगैर इफ़्फ़न की आत्मा का नाक-नक्शा समझ में नहीं आ सकता।

पाबंद – नियम, वचन आदि का पालन करनेवाला
छठी – जन्म के छठे दिन का स्नान/पूजन/उत्सव
जश्न – उत्सव/ख़ुशी का जलसा
नाक-नक्शा – रूप-रंग

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी भी नमाज़-रोज़े का नियम के अनुसार पालन करने वाली थी। परन्तु जब इकलौते बेटे को चेचक के दाने निकले तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुई और बोली कि माता मेरे बच्चे को माफ़ कर दो। ऐसा इसलिए कहा क्योंकि हिन्दू धर्म में चेचक को माता कहा जाता है। इस बात का ज़िक्र लेखक ने इसलिए किया है क्योंकि इफ़्फ़न की दादी मुस्लिम होते हुए भी हिन्दू धर्म का अनुसरण कर रही थी। इफ़्फ़न की दादी पूरब की रहने वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी हुई और वह लखनऊ आ गई, परन्तु जब तक ज़िंदा रही, वह पूरब की ही भाषा बोलती रही। लखनाऊ की उर्दू तो उनके लिए ससुराल की भाषा थी। उन्होंने तो मायके की भाषा को ही गले लगाए रखा था क्योंकि उनकी इस भाषा के सिवा उनके आसपास कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझ पाता। जब उनके बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल तड़पने लगा, परन्तु इस्लाम के आचार्यों के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था? बेचारी का दिल उदास हो गया। लेकिन इफ़्फ़न के जन्म के छठे दिन के स्नान/पूजन/उत्सव पर उन्होंने जी भरकर उत्सव मना लिया था।
बात यह थी कि इफ़्फ़न अपने दादा के मरने के बाद पैदा हुआ था। कहानी को समझने के लिए मर्दों और औरतों के इस फ़र्क को ध्यान में रखना ज़रूरी है और इस बात को ध्यान में रखे बगैर इफ़्फ़न की आत्मा के रूप-रंग को नहीं समझा जा सकता।

इफ़्फ़न की दादी किसी मौलवी की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थीं। दूध-घी खाती हुई आई थीं परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गईं जो घी पिलाई हुई काली हाँडियों में असामियों के यहाँ से आया करता था। बस मायके जातीं तो लपड़-शपड़ जी भर के खा लेतीं। लखनऊ आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने मियाँ से उन्हें यही तो एक शिकायत थी कि वक्त देखे न मौका, बस मौलवी ही बने रहते हैं।

ससुराल में उनकी आत्मा सदा बेचैन रही। जब मरने लगीं तो बेटे ने पूछा कि लाश करबला जाएगी या नज़फ, तो बिगड़ गईं। बोलीं, “ए बेटा जउन तूँ से हमरी लाश ना सँभाली जाए त हमरे घर भेज दिहो।”

हाँडियाँ – मिट्टी का वह छोटा गोलाकार बरतन
मियाँ – पति

topi shukla

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी किसी इस्लामी आचार्य की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थी। दूध-घी खाती हुई बड़ी हुई थी परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गई थी जो घी से भरी हुई काली मिट्टी के छोटे गोलाकार बरतन में असम के व्यापारी लाया करते थे। जब भी वह अपने मायके जाती तो लपड़-शपड़ अर्थात जितना उसका मन होता, जी भर के खा लेती। क्योंकि लखनऊ वापिस आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने पति से उन्हें यही एक शिकायत थी कि वे हर वक्त जब भी देखो बस मौलवी ही बने रहते थे।

इफ़्फ़न की दादी की आत्मा ससुराल में सदा बेचैन रही अर्थात वे ससुराल में बहुत खुश नहीं थी। जब मरने वाली थी तो उनके बेटे ने उनसे पूछा कि वे क्या चाहती है कि उनकी लाश करबला जानी चाहिए या नज़फ, तो वह बिगड़ गई और गुस्से में बोली कि बेटा अगर उससे उनकी लाश नहीं सँभाली जाती तो वह उनकी लाश को उनके घर भेज दें।

मौत सिर पर थी इसलिए उन्हें यह याद नहीं रह गया कि अब घर कहाँ है। घरवाले कराची में हैं और घर कस्टोडियन का हो चुका है। मरते वक्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती हैं। उस वक्त तो मनुष्य अपने सबसे ज्यादा खूबसूरत सपने देखता है (यह कथाकार का खयाल है, क्योंकि वह अब तक मरा नहीं है!) इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था। कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी से बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़ याद आया जो उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और जो उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बेशुमार चीज़ें याद आई। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नज़फ कैसे जा सकती थीं!

वह बनारस के ‘फातमैन’ में दफ़न की गईं क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी। इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने आकर खबर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी बीबी कही जाती थीं।


इफ़्फ़न तब चौथी में पढ़ता था और टोपी से उसकी मुलाकात हो चुकी थी।

कस्टोडियन – जिस सम्पति पर किसी का मालिकाना हक़ न हो उसका सरक्षण करने वाला विभाग
बीजू पेड़ – गुठली की सहायता से उगाया गया पेड़
बेशुमार – बहुत सारी

लेखक कहता है की इफ़्फ़न की दादी मौत के नजदीक थी इसलिए शायद उन्हें यह याद नहीं रहा कि अब उनका घर कहाँ है। उनके सभी मायके वाले अब कराची में हैं और उनके मायके के घर का सरक्षण हो चुका है। लेखक का मानना है कि मरते वक्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती हैं क्योंकि उस वक्त तो मनुष्य अपने सबसे ज्यादा खूबसूरत सपने देखता है, ऐसा लेखक इसलिए सोचता है क्योंकि वह अब तक मरा नहीं है। इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था। कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी से बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़ जो उन्होंने खुद आम की गुठली की मदद से उगाया था, याद आया। वह उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और वह पेड़ भी उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बहुत सारी चीज़ें उन्हें याद आई। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नज़फ कैसे जा सकती थी।

वह बनारस के ‘फातमैन’ में दफ़न की गई क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन यानी इफ़्फ़न के पिता की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी। जब इफ़्फ़न की दादी का देहांत हुआ उस समय इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने स्कूल आकर खबर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी को सभी बीबी कह कर पुकारते थे। उस समय इफ़्फ़न चौथी कक्षा में पढ़ता था और टोपी से उसकी मुलाकात हो चुकी थी।

इफ़्फ़न को अपनी दादी से बड़ा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अपनी अम्मी, अपनी बाज़ी और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह ज़रा ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार डाँट मार दिया करती थीं। बाज़ी का भी यही हल था। अब्बू भी कभी-कभार घर को कचहरी समझकर फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब मौका मिलता उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थीं। बस एक दादी थी जिन्होंने कभी उसका दिल नहीं दुखाया। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थीं।

बाज़ी – बड़ी बहन
कचहरी – न्यायालय

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न को अपनी दादी से बहुत ज्यादा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अम्मी, बड़ी बहन और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह सबसे ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार इफ़्फ़न को डाँट देती थी और कभी-कभी तो मार भी दिया करती थी। बड़ी बहन भी अम्मी की ही तरह कभी-कभी डाँटती और मारती थी। अब्बू भी कभी-कभार घर को न्यायालय समझकर अपना फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब भी मौका मिलता वह उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थी। बस एक दादी ही थी जिन्होंने कभी भी किसी बात पर उसका दिल नहीं दुखाया था। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थी।

“सोता है संसार जागता है पाक परवरदिगार। आँखों से देखी नहीं कहती। कानों की सुनी कहती हूँ कि एक मुलुक में एक बादशाह रहा…..”


दादी की भाषा पर वह कभी नहीं मुस्कराया। उसे तो अच्छी-भली लगती थी। परन्तु अब्बू नहीं बोलने देते थे। और जब भी वह दादी से इसकी शिकायत करता तो वह हँस पड़तीं,” अ मोरा का है बेटा! अनपढ़ गँवारन की बोली तूँ काहे को बोले लग्यो। तूँ अपने अब्बा की ही बोली बोलौ।” बात ख़त्म हो जाती और कहानी शुरू हो जाती-


“त ऊ बादशा का किहिस कि तुरंते ऐक ठो हिरन मार लियावा…. ”


यह बोली टोपी के दिल में उतर गई थी। इफ़्फ़न की दादी उसे अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दीं। अपनी दादी से तो उसे नफ़रत थी, नफ़रत। जाने कैसी भाषा बोलती थीं। इफ़्फ़न के अब्बू और उसकी भाषा एक थी।

पाक – पवित्र
परवरदिगार – परमेश्वर
मुलुक – देश

लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी पूरब की भाषा में इफ़्फ़न को कहानी सुनाते हुए कहती थी कि जब सारा संसार सोता है तब परमेश्वर जागता है। दादी इफ़्फ़न से कहती, कि वह आँखों से देखी घटना नहीं सुनाती। वह कानों की सुनी हुई घटना को सुनाती है कि “एक देश में एक बादशाह रहता था…..”
दादी की भाषा पर कभी भी इफ़्फ़न नहीं मुस्कुराया। उसे तो दादी की भाषा अच्छी-भली लगती थी। परन्तु इफ़्फ़न के अब्बू उसे दादी की भाषा नहीं बोलने देते थे। और जब भी इफ़्फ़न दादी से शिकायत करता कि उसके अब्बू उसे उनकी भाषा नहीं बोलने देते तो दादी हँस पड़ती थी और इफ़्फ़न से कहती थी कि उसका क्या है वह तो अनपढ़ गँवार है और उसकी बोली इफ़्फ़न को नहीं बोलनी चाहिए। उसे तो अपने अब्बा की ही बोली बोलनी चाहिए। दादी इसी तरह रोज़ बात को ख़त्म कर देती और कहानी सुनना शुरू कर देती कि “तब उस बादशाह ने एक दिन एक हिरण मार लिया।”

इफ़्फ़न की दादी की बोली टोपी के दिल में उतर गई थी, उसे भी इफ़्फ़न की दादी की बोली बहुत अच्छी लगती थी। टोपी की माँ और इफ़्फ़न की दादी की बोली एक जैसी थी। टोपी को अपनी दादी बिलकुल भी पसंद नहीं थी। उसे तो अपनी दादी से नफ़रत थी। वह पता नहीं कैसी भाषा बोलती थी। टोपी को अपनी दादी की भाषा और इफ़्फ़न के अब्बू की भाषा एक जैसी लगती थी।

वह जब इफ़्फ़न के घर जाता तो उसकी दादी ही के पास बैठने की कोशिश करता। इफ़्फ़न की अम्मी और बाजी से वह बातचीत करने की कभी कोशिश ही न करता। वे दोनों अलबत्ता उसकी बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तीं परन्तु जब बात बढ़ने लगती तो दादी बीच-बचाव करवा देतीं-
“तैं काहे को जाथै उन सभन के पास मुँह पिटावे को झाड़ू मारे। चल इधर आ….” वह डाँटकर कहतीं। परन्तु हर शब्द शक़्कर का खिलौना बन जाता। अमावट बन जाता। तिलवा बन जाता… और वह चुपचाप उनके पास चला जाता।


“तोरी अम्माँ का कर रहीं…” दादी हमेशा यहीं से बात शुरू करतीं। पहले तो वह चकरा जाता कि यह अम्माँ क्या होता है। पीर वह समझ गया माता जी को कहते हैं।

अलबत्ता – बल्कि
अमावट – पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत
तिलवा – तिल के बने व्यंजन

लेखक कहता है कि टोपी जब भी इफ़्फ़न के घर जाता था तो उसकी दादी के ही पास बैठने की कोशिश करता था। इफ़्फ़न की अम्मी और बड़ी बहन से तो वह बातचीत करने की कभी कोशिश नहीं करता था। क्योंकि वे दोनों ही टोपी की बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तीं थी परन्तु जब बात बढ़ने लगती थी तो दादी बीच-बचाव करवा देतीं थी और टोपी को डाँटते हुए कहती थी कि वो क्यों उन सब के पास जाता है उनके पास कोई काम नहीं होता उसे परेशान करने के आलावा। ये कह कर दादी टोपी को अपने पास बुला लेती । टोपी को इफ़्फ़न की दादी की डाँट का हर एक शब्द शक़्कर की तरह मीठा लगता था। पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत की तरह मज़ेदार लगता। तिल के बने व्यंजनों की तरह अच्छा लगता और वह दादी की डाँट सुन कर चुपचाप उनके पास चला आता। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी टोपी से हमेशा एक ही सवाल पूछ कर बात आगे बढ़ाती थी कि उसकी अम्मा क्या कर रही है। पहले-पहले तो टोपी को समझ में नहीं आया कि ये अम्मा क्या होता है परन्तु बाद में उसे समझ में आ गया कि माता जी को ही अम्मा कहा जाता है।

यह शब्द उसे अच्छा लगा। अम्माँ। वह इस शब्द को गुड़ की डाली की तरह चुभलाता रहा। अम्माँ। अब्बू। बाजी।
फिर एक दिन गज़ब हो गया।
डॉक्टर भृगु नारायण शुक्ला नीले तेल वाले के घर में भी बीसवीं सदी प्रवेश कर चुकी थी। यानी खाना मेज़-कुरसी पर होता था। लगती तो थालियाँ ही थीं परन्तु चौके पर नहीं।
उस दिन ऐसा हुआ कि बैंगन का भुरता उसे ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी खाना परोस रही थी। टोपी ने कहा-
“अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता।”
अम्मी!
मेज़ पर जितने हाथ थे रुक गए। जितनी आँखें थीं वो टोपी के चेहरे पर जम गईं।

चुभलाना – मुँह में कोई खाद्य पदार्थ रखकर उसे जीभ से बार-बार हिलाकर इधर-उधर करना
गज़ब – मुसीबत
चौका – चार वस्तुओं का समूह

topi shukla

लेखक कहता है कि जब टोपी ने अम्मा शब्द सुना तो उसे यह शब्द बहुत अच्छा लगा। जिस तरह गुड़ की डाली को मुँह में रख कर उसे जीभ से बार-बार हिलाकर इधर-उधर करके उसके स्वाद का आनंद लिया जाता है उसी तरह वह इस शब्द को भी बार-बार बोलता रहा। “अम्माँ”। “अब्बू”। “बाजी”। उसे ये शब्द बहुत पसंद आए।
फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसने टोपी को मुसीबत में डाल दिया।

डॉक्टर भृगु नारायण शुक्ला नीले तेल वाले (टोपी के पिता) के घर में भी बीसवीं सदी प्रवेश कर चुकी थी। कहने का अर्थ है कि अब टोपी के घर में भी खाना मेज़-कुरसी पर खाया जाता था। लगती तो थालियाँ ही थीं परन्तु जैसे पहले जमीन पर पालथी मार कर खाना खाया जाता था, उसकी जगह पर मेज़-कुरसी का प्रयोग किया जाने लगा था। उस दिन ऐसा हुआ कि टोपी को बैंगन का भुरता ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी (टोपी की माँ) खाना परोस रही थी। टोपी ने कह दिया कि अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता। अम्मी! यह शब्द सुनते ही मेज़ पर बैठे सभी लोग चौंक गए, उनके हाथ खाना खाते-खाते रुक गए। वे सभी लोग टोपी के चेहरे की ओर देखने लगे।

अम्मी! यह शब्द इस घर में कैसे आया। अम्मी! परम्पराओं की दीवार डोलने लगी।
“ये लफ़्ज़ तुमने कहाँ सीखा?” सुभद्रादेवी ने सवाल किया।
“लफ़्ज़?” टोपी ने आँखें नचाईं। “लफ़्ज़ का होता है माँ?”
“ये अम्मी कहना तुमको किसने सिखाया है?” दादी गरजीं।
“ई हम इफ़्फ़न से सीखा है।”
“उसका पूरा नाम क्या है?”
“ई हम ना जानते।”
“तैं कउनो मियाँ के लइका से दोस्ती कर लिहले बाय का रे?” रामदुलारी की आत्मा गनगना गई।
“बहू, तुमसे कितनी बार कहूँ कि मेरे सामने गँवारों की यह ज़बान न बोला करो।” सुभद्रादेवी रामदुलारी पर बरस पड़ीं।
लड़ाई का मोर्चा बदल गया।

डोलने – हिलने
लफ़्ज़ – शब्द

लेखक कहता है कि सभी यह सोच रहे थे कि यह “अम्मी” शब्द इस घर में कैसे आया। ऐसा लग रहा था जैसे रीति-रिवाजों की दीवार हिलने लगी हो। सुभद्रादेवी (टोपी की दादी) ने टोपी से सवाल किया कि ये लफ़्ज़ उसने कहाँ से सीखा? लफ़्ज़ सुनते ही टोपी ने अपनी आँखें घुमाई और अपनी माँ से लफ़्ज़ का अर्थ पूछने लगा। दादी फिर से गुस्से से पूछने लगी कि ये अम्मी कहना उसको किसने सिखाया है? इस पर टोपी ने उत्तर दिया कि यह उसने इफ़्फ़न से सीखा है। इफ़्फ़न सुनते ही दादी ने उसका पूरा नाम जानना चाहा परन्तु टोपी ने कहा कि उसे नहीं पता कि इफ़्फ़न का पूरा नाम क्या है? इतने में टोपी की माँ रामदुलारी बोल पड़ी कि “तैं कउनो मियाँ के लइका से दोस्ती कर लिहले बाय का रे?” अर्थात कहीं किसी मियाँ यानि मुस्लिम के लड़के से तो दोस्ती नहीं कर ली है। रामदुलारी की इस बोली पर सुभद्रादेवी बरस पड़ीं और कहने लगी की उसने कितनी बार रामदुलारी से कहा है कि इस तरह उसके सामने गँवारों की यह ज़बान न बोला करे। लेखक कहता है कि अब ऐसा लग रहा था कि लड़ाई का विषय ही बदल गया हो।
दूसरी लड़ाई के दिन थे इसलिए जब डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेल वाले को यह पता चला कि टोपी ने कलेक्टर साहब के लड़के से दोस्ती गाँठ ली है तो वह अपना गुस्सा पी गए और तीसरे ही दिन कपड़े और शक्कर के परमिट ले आए।
परन्तु उस दिन टोपी की बड़ी दुर्गति बनी। सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गईं और रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा।

“तैं फिर जय्यबे ओकरा घरे?”
“हाँ।”
“अरे तोहरा हाँ में लुकारा आगे माटी मिलाऊ।”
….रामदुलारी मारते-मारते थक गई। परन्तु टोपी ने यह नहीं कहा कि वह इफ़्फ़न के घर नहीं जाएगा। मुन्नी बाबू और भैरव उसकी कुटाई का तमाशा देखते रहे।

परमिट – अनुमति जो सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर लिखित रूप में दी जाती है
दुर्गति – बुरी दशा

कुटाई – पिटाई

लड़ाई का दूसरा दिन था इसलिए जब टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेल वाले को यह पता चला कि टोपी ने कलेक्टर साहब के लड़के से पक्की दोस्ती कर ली है (कहने का अर्थ है कि इफ़्फ़न के पिता कलेक्टर थे) तो वह अपना गुस्सा पी गए और तीसरे ही दिन टोपी की दोस्ती का फायदा उठा कर उन्होंने इफ़्फ़न के पिता से कपड़े और शक्कर के परमिट (अनुमति जो सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर लिखित रूप में दी जाती है) ले लिए ।

ये बात तो दूसरे-तीसरे दिन की है परन्तु जिस दिन सभी को पता चला था कि टोपी ने एक मुस्लिम लड़के से दोस्ती कर रखी है, तो उस दिन टोपी की बड़ी बुरी दशा हुई थी। टोपी की दादी सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गई थी और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा था और एक ही बात बार-बार पूछ रही थी कि क्या अब वह इफ़्फ़न के घर जाएगा? इसके उत्तर में हर बार टोपी “हाँ” ही कहता था। रामदुलारी उसके हर बार “हाँ” कहने पर कहती थी कि वह उसकी हाँ को मिट्टी में मिला देगी। टोपी की माँ टोपी को मारते-मारते थक गई परन्तु टोपी ने यह नहीं कहा कि वह इफ़्फ़न के घर नहीं जाएगा। मुन्नी बाबू और भैरव जो टोपी के भाई थे, वे टोपी की पिटाई का तमाशा देखते रहे।

“हम एक दिन एको रहीम कबाबची की दुकान पर कबाबो खाते देखा रहा।” मुन्नी बाबू ने टुकड़ा लगाया।
कबाब!
“राम राम राम!” रामदुलारी घिन्ना के दो कदम पीछे हट गईं। टोपी मुन्नी की तरफ़ देखने लगा। क्योंकि असलियत यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब कहते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी। टोपी को यह मालूम था परन्तु वह चुगलखोर नहीं था। उसने अब तक मुन्नी बाबू की कोई बात इफ़्फ़न के सिवा किसी और को नहीं बताई थी।
“तूँ हम्में कबाब खाते देखे रह्यो?”
“ना देखा रहा ओह दिन?” मुन्नी बाबू ने कहा।
“तो तुमने उसी दिन क्यों नहीं बताया?” सुभद्रादेवी ने सवाल किया।
“इ झु_आ है दादी!” टोपी ने कहा।

घिन्न – नफ़रत
असलियत – सच्ची बात
चुगलखोर – शिकायत करने वाला

लेखक कहता है कि जब टोपी की पिटाई हो रही थी, उसी समय मुन्नी बाबू एक और बात जोड़ कर बोले कि एक दिन टोपी को उन्होंने रहीम कबाबची की दुकान पर कबाब खाते देखा था। कबाब का नाम सुनते ही टोपी की माँ रामदुलारी नफ़रत के साथ दो कदम पीछे हट गई और “राम, राम, राम” कहने लगी। टोपी मुन्नी की तरफ़ देखने लगा क्योंकि सच्ची बात यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी ताकि टोपी घर पर उनकी शिकायत न कर दे। टोपी को यह मालूम था परन्तु वह शिकायत करने वाला नहीं था। उसने अब तक मुन्नी बाबू की कोई बात इफ़्फ़न के सिवा किसी और को नहीं बताई थी। टोपी मुन्नी बाबू की ओर देख कर बोला क्या उसने टोपी को कबाब खाते देखा था? तो मुन्नी ने फिर से कहा क्यों उस दिन नहीं देखा था क्या? इस पर टोपी की दादी सुभद्रादेवी ने मुन्नी बाबू से सवाल किया कि उसने उसी दिन क्यों नहीं बताया? टोपी बस बोलता रह गया कि मुन्नी झूठ बोल रहा है।

टोपी बहुत उदास रहा। वह अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि झूठ और सच के किस्से में पड़ता-और सच्ची बात तो यह है कि वह इतना बड़ा कभी नहीं हो सका। उस दिन तो वह इतना पिट गया था कि उसका सारा बदन दुख रहा था। वह बस लगातार एक ही बात सोचता रहा कि अगर एक दिन के वास्ते वह मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाता तो समझ लेता उनसे। परन्तु मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाना उसके बस में तो था नहीं। वह मुन्नी बाबू से छोटा पैदा हुआ था और उनसे छोटा ही रहा।
दूसरे दिन वह जब स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे सारी बातें बता दीं। दोनों जुग़राफ़िया का घंटा छोड़कर सरक गए। पंचम की दूकान से इफ़्फ़न ने केले ख़रीदे। बात यह है कि टोपी फल के अलावा और किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था।

बदन – शरीर
वास्ते – नाते, लिए
जुग़राफ़िया – भूगोल शास्त्र
सरक गए – निकल गए

लेखक कहता है कि जिस दिन टोपी की पिटाई हुई थी, उस दिन टोपी बहुत उदास रहा। टोपी अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि वह झूठ और सच को साबित करने की कोशिश करता और सच्ची बात तो यह है कि वह इतना बड़ा कभी हो भी नहीं सका। उस दिन तो टोपी की इतनी पिटाई हो गई थी कि उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। वह बस लगातार एक ही बात सोचता रहा कि अगर एक दिन के लिए वह अपने बड़े भाई मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाता तो वह जरूर उन्हें सबक सिखाता। परन्तु मुन्नी बाबू से बड़ा होना उसके लिये बिलकुल नामुमकिन था। वह मुन्नी बाबू से छोटा पैदा हुआ था और हमेशा उनसे छोटा ही रहने वाला था।


दूसरे दिन जब टोपी स्कूल गया और स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे पिछले दिन की सारी बातें बता दी। दोनों भूगोल शास्त्र की कक्षा को छोड़कर बाहर निकल गए। पंचम की दूकान से इफ़्फ़न ने केले ख़रीदे क्योंकि बात यह थी कि टोपी फल के अलावा बाहर की किसी भी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था।

“अय्यसा ना हो सकता का की हम लोग दादी बदल लें,” टोपी ने कहा। “तोहरी दादी हमरे घर आ जाएँ अउर हमरी तोहरे घर चली जाएँ। हमरी दादी त बोलियो तूँहीं लोगन को बो-ल-थीं।”
“यह नहीं हो सकता।” इफ़्फ़न ने कहा,” अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। और मुझे कहानी कौन सुनाएगा? तुम्हारी दादी को बारह बुर्ज की कहानी आती है?”
“तूँ हम्मे एक ठो दादियो ना दे सकत्यो?” टोपी ने खुद अपने दिल के टूटने की आवाज़ सुनी।
“जो मेरी दादी हैं वह मेरे अब्बू की अम्माँ भी तो हैं।” इफ़्फ़न ने कहा।
यह बात टोपी की समझ में आ गई।
“तुम्हारी दादी मेरी दादी की तरह बूढ़ी होंगी?”
“हाँ।”
“तो फ़िकर न करो।” इफ़्फ़न ने कहा,” मेरी दादी कहती हैं कि बूढ़े लोग मर जाते हैं।”
“हमरी दादी ना मरिहे।”
“मरेगी कैसे नहीं? क्या मेरी दादी झूठी हैं?”
ठीक उसी वक्त नौकर आया और पता चला कि इफ़्फ़न की दादी मर गईं।

अय्यसा – ऐसा
तोहरी – तुम्हारी
सकत्यो – सकता
फ़िकर – चिंता

टोपी बहुत ही भोलेपन से इफ़्फ़न से कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वे लोग दादी बदल ले? उसकी दादी इफ़्फ़न के घर और इफ़्फ़न की दादी उसके घर आ जाए। टोपी कहता है कि उसकी दादी की बोली तो इफ़्फ़न के परिवार की बोली की तरह ही है। टोपी की इस बात का जवाब देते हुए इफ़्फ़न कहता है कि टोपी की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती। उसके अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। और अगर उसकी दादी टोपी के घर चली जायगी तो उसे कहानी कौन सुनाएगा? इफ़्फ़न टोपी से पूछता है कि क्या उसकी दादी को बारह बुर्ज की कहानी आती है? टोपी इफ़्फ़न के इस तरह के जवाब को सुनकर अंदर से टूट गया और इफ़्फ़न से कहने लगा कि क्या वह उसे एक दादी भी नहीं दे सकता है। फिर इफ़्फ़न टोपी को समझाते हुए कहता है कि जो उसकी दादी हैं वह उसके अब्बू की अम्माँ भी तो हैं। यह बात टोपी को समझ आ गई। फिर इफ़्फ़न टोपी से पूछता है कि टोपी की दादी भी तो उसकी दादी की तरह बूढ़ी होंगी। टोपी हामी भरता है। इफ़्फ़न टोपी को कहता है कि वह चिंता न करे क्योंकि उसकी दादी कहती हैं कि बूढ़े लोग मर जाते हैं। टोपी कहता है कि उसकी दादी नहीं मारेगी। इस पर इफ़्फ़न कहता है कि कैसे नहीं मारेगी? क्या उसकी दादी झूठ बोलती है?


जब टोपी और इफ़्फ़न बात कर रहे थे उसी समय इफ़्फ़न का नौकर आया और खबर दी कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है।

इफ़्फ़न चला गया। टोपी अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिम्नेज़ियम में चला गया। बूढ़ा चपड़ासी एक तरफ बैठा बीड़ी पी रहा था। वह एक कोने में बैठकर रोने लगा। शाम को वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ सन्नाटा था। घर भरा हुआ था। रोज़ जितने लोग हुआ करते थे उससे ज्यादा ही लोग थे। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए घर खली हो चूका था। जबकि उसे दादी का नाम तक नहीं मालूम था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की कोई चीज़ नहीं खाई थी। प्रेम इन बातों का पाबन्द नहीं होता। टोपी और दादी में एक ऐसा ही सम्बन्ध हो चूका था। इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह इस सम्बन्ध को बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले न समझ पाए थे। दोनों अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों प्यासे थे। एक ने दूसरे की प्यास बुझा दी थी। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन मिटा दिया था। एक बहत्तर बरस की थी और दूसरा आठ साल का।
“तोरी दादी की जगह हमरी दादी मर गई होतीं त ठीक भया होता।” टोपी ने इफ़्फ़न को पुरसा दिया।
इफ़्फ़न ने कोई जवाब नहीं दिया। उसे इस बात का जवाब आता ही नहीं था। दोनों दोस्त चुपचाप रोने लगे।

सन्नाटा – शांति
पुरसा – सहानुभूति

लेखक कहता है कि जब नौकर ने आकर बताया कि इफ़्फ़न की दादी का देहांत हो गया है तो इफ़्फ़न स्कूल से घर चला गया। टोपी स्कूल में अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिम्नेज़ियम में चला गया। वहाँ बूढ़ा चपड़ासी एक तरफ बैठा बीड़ी पी रहा था। टोपी वहाँ एक कोने में बैठकर रोने लगा। शाम को जब वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ शांति थी। ऐसा नहीं है की घर में कोई नहीं था, घर लोगों से भरा हुआ था। जितने लोग रोज़ हुआ करते थे उससे ज्यादा ही लोग थे। परन्तु एक दादी के न होने से टोपी के लिए पूरा घर खाली हो चूका था। जबकि टोपी को दादी का नाम भी मालूम नहीं था परन्तु उसका इफ़्फ़न की दादी से बहुत गहरा सम्बन्ध बन गया था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की कोई चीज़ नहीं खाई थी। प्रेम इन बातों को नहीं मानता। टोपी और दादी में एक ऐसा सम्बन्ध हो चूका था जिसे शायद अगर इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह भी बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले नहीं समझ पाए थे। दोनों अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों ही प्यार के प्यासे थे और एक ने दूसरे की इस प्यास को बुझा दिया था। दोनों अपने-अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे क्योंकि दोनों को ही उनके घर में कोई समझने वाला नहीं था। दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन दूर कर दिया था। एक बहत्तर बरस की थी और दूसरा आठ साल का। टोपी इफ़्फ़न को सहानुभूति देता हुआ कहता है कि इफ़्फ़न की दादी की जगह उसकी दादी मर गई होती तो ठीक हुआ होता। इफ़्फ़न ने टोपी की इस बात का कोई जवाब नहीं दिया, असल में इफ़्फ़न को टोपी की इस बात का जवाब आता ही नहीं था। फिर दोनों दोस्त चुपचाप रोने लगे।

टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी ऐसे लड़के से दोस्ती नहीं करेगा जिसका बाप ऐसी नौकरी करता हो जिसमें बदली होती रहती है।
दस अक्तूबर सन पैंतालीस का यूँ तो कोई महत्त्व नहीं परन्तु टोपी के आत्म-इतिहास में इस तारीख का बहुत महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। इफ़्फ़न की दादी के मरने के थोड़े ही दिनों बाद यह तबादला हुआ था, इसलिए टोपी और अकेला हो गया क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त न बन सका। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। और यह बात भी थी कि उन तीनो को इसका एहसास था कि वे कलेक्टर के बेटे हैं। किसी ने टोपी को मुँह नहीं लगाया।

आत्म-इतिहास – जीवन के इतिहास
तबादला – बदली, स्थानांतरण

लेखक कहता है कि टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी भी ऐसे लड़के से कभी भी दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता कोई ऐसी नौकरी करते हो जिसमें बदली होती रहती हो। दस अक्तूबर सन पैंतालीस का ऐसे तो कोई महत्त्व नहीं है परन्तु टोपी के जीवन के इतिहास में इस तारीख का बहुत अधिक महत्त्व है, क्योंकि इस तारीख को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। इफ़्फ़न की दादी के मरने के थोड़े दिनों बाद ही इफ़्फ़न के पिता की बदली हुई थी। टोपी दादी के मरने के बाद तो अकेला महसूस कर ही रहा था और अब इफ़्फ़न के चले जाने पर वह और भी अकेला हो गया था क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त नहीं बन सका था। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परन्तु केवल अंग्रेजी बोलता था। और उन तीनो को इसका एहसास था कि वे कलेक्टर के बेटे हैं इसलिए अकड़ कर रहते थे और किसी को अपने से ऊपर नहीं समझते थे। यही कारण था कि उनमें से किसी ने भी टोपी को मुँह नहीं लगाया अर्थात किसी ने भी टोपी के साथ दोस्ती नहीं की।

topi shukla

माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए वह बंगले में चला गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने हिट किया। गेंद सीधे टोपी मुँह पर आई। उसने घबराकर हाथ उठाया। गेंद उसके हाथों में आ गई।
“हाउज़ दैट!”

हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। वह बेचारा यह समझ सका कि जब ‘हाउज़ दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए

“हू आर यू?” डब्बू ने सवाल किया।
“बलभद्र नरायण।” टोपी ने जवाब दिया।
“हू इज़ योर फ़ादर?” यह सवाल गुड्डू ने किया।
“भृगु नरायण”
“ऐं।” बीलू ने अंपायर को आवाज़ दी, “ई भिरगू नरायण कौन ऐ? एनी ऑफ़ अवर चपरासीज़?”
“नाहीं साहब।” अंपायर ने कहा,” सहर के मसहूर दागदर हैं।”
“यू मीन डॉक्टर?” डब्बू ने सवाल किया।
“यस सर!” हेड माली को इतनी अंग्रेजी आ गई थी।
“बट ही लुक्स सो क्लम्ज़ी।” बीलू बोला।
“ए!” टोपी अकड़ गया। “तनी जबनीया सँभाल कर बोलो। एक लप्पड़ में नाचे लगिहो।”
“ओह यू…” बीलू ने हाथ चला दिया। टोपी लुढ़क गया। फिर वह गालियाँ बकता हुआ उठा। परन्तु हेड माली बीच में आ गया और डब्बू ने अपने अलसेशियन को शुशकार दिया।

मसहूर – प्रसिद्ध
क्लम्ज़ी – भद्दा
अकड़ – घमंड
लप्पड़ – थपड़
शुशकार – कुत्ते को किसी के पीछे लगाने के लिए नीलाले जाने वाली आवाज़

लेखक कहता है कि माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए टोपी इफ़्फ़न के जाने के बाद बंगले में गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने गेंद को बोन्ड्री की ओर मारा। गेंद सीधे टोपी के मुँह पर आई।

उसने घबराकर जैसे ही हाथ उठाया, गेंद उसके हाथों में आ गई। जैसे ही गेंद टोपी के हाथों में आई, वैसे ही गेंद करने वाला गुड्डू चिल्लाया “हाउज़ दैट”। हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। उस बेचारे को अब तक सिर्फ यह समझ आ सका था कि जब ‘हाउज़ दैट’ का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए। टोपी को देख कर डब्बू ने सवाल किया कि तुम कौन हो? डब्बू के इस सवाल के जवाब में टोपी ने अपना पूरा नाम बताया की वह बलभद्र नरायण है। फिर गुड्डू ने सवाल किया कि उसके पिता का क्या नाम है? टोपी ने बताया कि उसके पिता का नाम भृगु नरायण है। बीलू ने अंपायर बने हेड चपरासी को आवाज़ दी और उससे पूछा कि ये भृगु नरायण कौन है? क्या वो उनके चपरासियों में से एक है? अंपायर बने हेड चपरासी ने बीलू के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि भृगु नरायण उनका कोई चपरासी नहीं है, वह तो शहर का प्रसिद्ध दागदर है। डब्बू माली के दागदर शब्द को सही करता हुआ पूछता है कि क्या वह डॉक्टर कहना चाहता है। हेड माली हामी भरता है। उसे उनके साथ रहते हुए इतनी अंग्रेजी तो आ ही गई थी। बीलू टोपी को देख कर बोलता है कि वह भद्दा दिख रहा है। टोपी यह सुन कर घमंड के साथ बोलता है कि वह अपनी जुबान संभाल कर बात करे। अगर उसने उन्हें एक थप्पड़ मार दिया तो वे नाचने लगेंगे। इतना सुनते ही बीलू ने टोपी पर हाथ चला दिया और टोपी गिर गया। फिर टोपी उसे गालियाँ बकता हुआ उठा। परन्तु हेड माली उनकी लड़ाई को ख़त्म करने के लिए बीच में आया। इतने में डब्बू ने अपने अलसेशियन कुत्ते को आवाज दे कर टोपी के पीछे छोड़ दिया।

पेट में सात सुइयाँ भुकीं तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर उसने कलेक्टर साहब के बँगले की और रुख नहीं किया। परन्तु अब प्रश्न यह खड़ा हो गया कि फिर आखिर वह करे क्या? घर में ले-देकार बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह उसी के पल्लू में चला गया और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। इसलिए दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे।
“टेक मत किया करो बाबू!” एक रात जब मुन्नी बाबू और भैरव का दाज करने पर वह बहुत पीटा तो सीता ने उसे अपनी कोठरी में ले जा कर समझाना शुरू किया।

भुकीं – चुभी
रुख – चेहरा
दाज – बराबरी

लेखक कहता है कि जब डब्बू ने अपने अलसेशियन कुत्ते को आवाज दे कर टोपी के पीछे छोड़ दिया तो कुत्ते ने टोपी को काट लिया। फिर जब टोपी के पेट में सात सुइयाँ चुभाई गई तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर उसने कलेक्टर साहब के बँगले की ओर चेहरा नहीं किया। परन्तु अब प्रश्न यह खड़ा हो गया कि फिर आखिर वह करे क्या? क्योंकि अब न तो इफ़्फ़न था और न ही इफ़्फ़न की दादी जो उसे समझ सके। घर में ले-देकार एक बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुःख-दर्द समझती थी। तो वह अब सीता के साथ ही समय गुजारने लगा और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। क्योंकि सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे और टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। तो दोनों की स्थिति एक सी थी इसलिए दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे। एक रात जब मुन्नी बाबू और भैरव की बराबरी करने के कारण टोपी बहुत पीटा तो सीता ने उसे अपनी कोठरी में ले जा कर समझाना शुरू किया कि वह इस तरह किसी की बराबरी करने की कोशिश न किया करे।

बात यह हुई कि जाड़ों के दिन थे। मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया। भैरव के लिए भी नया कोट बना। टोपी को मुन्नी बाबू का कोट मिला। कोट बिलकुल नया था। मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो था उन्ही के लिए। था तो उतरन। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी जाने वाली चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी जाड़ा खाए।

“हम जाड़ा-ओड़ा ना खाएँगे। भात खाएँगे।” टोपी ने कहा।
“तुम जूते खाओगे।” सुभद्रादेवी बोलीं।
“आपको इहो ना मालूम कि जूता खाया ना जात पहिना जात है।”
“दादी से बदतमीज़ी करते हो।” मुन्नी बाबू ने बिगड़कर कहा।
“त का हम इनकी पूजा करें।”
फिर क्या था! दादी ने आसमान सिर पर उठा लिया। रामदुलारी ने उसे पीटना शुरू किया….

जाड़ा – ठण्ड
उतरन – किसी के द्वारा पहनकर उतारे हुए वे पुराने कपड़े जिनका उपयोग अब वह न करता हो
बदतमीज़ी – अपमान
आसमान सिर पर उठाना – बहुत अधिक शोर मचाना

लेखक कहता है कि सीता टोपी को इसलिए समझा रही थी क्योंकि बात यह हुई कि ठण्ड के दिन थे और मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया और भैरव के लिए भी नया कोट बना लेकिन टोपी को मुन्नी बाबू का पुराना कोट मिला। वैसे कोट बिलकुल नया ही था क्योंकि जब वह बनाया गया तब वह मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो उन्हीं के लिए था। भले ही वह उसे ना पहनते हो। टोपी ने वह कोट उसी वक्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी गई कोई भी चीज़ वापिस तो ली नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी ठण्ड ही खाएगा। टोपी छोटा था इसलिए ठण्ड खाने का अर्थ समझा नहीं और भोलेपन से बोला कि वह कोई ठण्ड नहीं खाएगा। वह तो भात खाएगा। इस पर टोपी की दादी सुभद्रादेवी बोली कि वह तो जूते खाएगा। टोपी उनकी इस बात पर झट से बोल पड़ा कि क्या उन्हें इतना भी नहीं पता कि जूता खाया नहीं जाता बल्कि पहना जाता है। टोपी के इस तरह बोलने पर मुन्नी बाबू गुस्से से टोपी को डाँटते हुए बोले कि वह दादी का अपमान क्यों कर रहा है? इस पर भी टोपी उल्टा जवाब देता हुआ बोला कि तो क्या वह उनकी पूजा करे? यह सुनते ही दादी ने बहुत अधिक शोर मचाना शुरू कर दिया और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को पीटना शुरू कर दिया।

“तूँ दसवाँ में पहुँच गइल बाड़।” सीता ने कहा, “तूँ हें दादी से टर्राव के त ना न चाही। कीनों ऊ तोहार दादी बाड़िन।”
सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि वह दसवें में पहुँच गया है, परन्तु यह बात इतनी आसान नहीं थी। दसवें में पहुँचाने के लिए उसे बड़े पापड़ बेलने पड़े। दो साल तो वह फेल ही हुआ। नवें में तो वह सन उनचास ही में पहुँच गया था, परन्तु दसवें में वह सन बावन में पहुँच सका।
जब वह पहली बार फ़ेल हुआ मुन्नी बाबू इन्टरमीडिएट में फ़र्स्ट आए और भैरव छठे में। सारे घर ने उसे ज़बान की नोक पर रख लिया। वह बहुत रोया। बात यह नहीं थी कि वह गाउदी था। वह काफ़ी तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी वह पढ़ने बैठता मुन्नी बाबू को कोई काम निकल आता या रामदुलारी को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी-यह सब कुछ न होता तो पता चलता कि भैरव ने उसकी कापियों के हवाई जहाज़ उड़ा डाले हैं।
दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया।

तीसरे साल वह थर्ड डिवीज़न में पास हो गया। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया।
परन्तु हमें उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए।

पापड़ बेलना – बहुत मेहनत करना
इन्टरमीडिएट – माध्यमिक
ज़बान की नोक पर रखना – लगातार किसी की बात करना
गाउदी – मुर्ख, मन्दबुद्धि

जब टोपी को उसकी माँ ने दादी को उल्टा जवाब देने के लिए पीटा तो उनकी बूढ़ी नौकरानी सीता टोपी को समझाने लगी कि अब वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया है। उसे दादी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए आखिरकार वह उसकी दादी है। सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया है परन्तु टोपी के लिए दसवीं कक्षा में पहुँचना इतना भी आसान नहीं था। दसवीं कक्षा में पहुँचने के लिए टोपी को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी थी। दो साल तो टोपी फेल ही हुआ था। नवीं कक्षा में तो टोपी सन उनचास ही में पहुँच गया था, परन्तु दसवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते साल बावन हो चूका था। जब टोपी पहली बार फेल हुआ तो उसका बड़ा भाई मुन्नी बाबू माध्यमिक (10th) कक्षा में प्रथम आया और उसका छोटा भाई भैरव छठी कक्षा में प्रथम आया। सभी घरवाले हर समय टोपी की ही बात करने लगे। उस समय टोपी बहुत रोया था। ऐसी बात नहीं थी कि वह मुर्ख या मन्दबुद्धि था। वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था परन्तु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। जब भी टोपी पढ़ाई करने बैठता था तो कभी उसके बड़े भाई मुन्नी बाबू को कोई काम याद आ जाता था या उसकी माँ को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी, अगर ये सारी चीज़े न होती तो कभी उसका छोटा भाई भैरव उसकी कापियों के पन्नों को फाड़ कर उनके हवाई जहाज़ बना कर उड़ाने लग जाता। यह तो थी पहले साल की बात। दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया था। जिसके कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाया और दूसरी साल भी फेल हो गया। तीसरे साल वह पास तो हो गया परन्तु थर्ड डिवीज़न में। यह थर्ड डिवीज़न कलंक के टिके की तरह उसके माथे से चिपक गया।

परन्तु लेखक कहता है कि सभी को उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस वजह से दो साल में फेल हुआ और तीसरी साल में थर्ड डिवीज़न से पास हुआ।

सन उनचास में वह अपने साथियों के साथ था। वह फेल हो गया। साथी आगे निकल गए। वह रह गया। सन पचास में उसे उसी दर्जे में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो पिछले साल आठवें में थे।
पीछे वालों के साथ एक ही दर्जे में बैठना कोई आसान काम नहीं है। उसके दोस्त दसवें में थे। वह उन्हीं से मिलता, उन्हीं के साथ खेलता। अपने साथ हो जाने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहो सकी। वह जब भी क्लास में बैठता उसे अपना बैठना अजीब लगता। उस पर सितम यह हुआ कि कमज़ोर लड़कों को मास्टर जी समझाते तो उसकी मिसाल देते –

“क्या मतलब है साम अवतार (या मुहम्मद अली?) बलभद्र की तरह इसी दर्जे में टिके रहना चाहते हो क्या?”
यह सुन सारा दर्जा हँस पड़ता। हँसने वाले वे होते जो पिछले साल आठवें में थे।
वह किसी न किसी तरह इस साल को झेल गया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवें दर्जे में ही बैठना पड़ा तो वह बिलकुल गीली मिट्टी का लौंदा हो गया, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। आठवें वाले दसवें में थे। सातवें वाले उसके साथ! उनके बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देता था।

दर्जे – कक्षा
सितम – ज़ुल्म

मिसाल – उदाहरण
गीली मिट्टी का लौंदा – गीली मिट्टी का पिंड

लेखक कहता है कि सन उनचास में टोपी अपने साथियों के साथ था। जब वह फेल हो गया तो उसके सभी साथी आगे निकल गए और वह नवीं कक्षा में ही रह गया। सन पचास में उसे उसी कक्षा में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो पिछले साल आठवीं कक्षा में थे। पिछली कक्षा वालों के साथ एक ही कक्षा में बैठना कोई आसान काम नहीं होता। टोपी के सभी दोस्त दसवीं कक्षा में थे। इसलिए वह उन्हीं से मिलता और उन्हीं के साथ खेलता था। अपने साथ नवीं कक्षा में पढ़ने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं हो सकी थी। वह जब भी कक्षा में बैठता, उसे अपना उस कक्षा में बैठना अजीब लगता था। उस पर ज़ुल्म यह हुआ कि कक्षा के कमज़ोर लड़कों को जब मास्टर जी समझाते तो उस का उदाहरण देते हुए कहते कि साम अवतार (या मुहम्मद अली), बलभद्र की तरह इसी कक्षा में टिके रहना चाहते हो क्या? यह सुन कर सारी कक्षा हँसने लगती। हँसने वाले वे विद्यार्थी होते थे जो पिछले साल आठवीं कक्षा में थे। टोपी ने किसी न किसी तरह इस साल को झेल लिया। परन्तु जब सन इक्यावन में भी उसे नवीं कक्षा में ही बैठना पड़ा तो उसे बहुत अधिक शर्म महसूस होने लगी, क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। जो विद्यार्थी सन उनचास में आठवीं कक्षा में थे वे अब दसवीं कक्षा में थे। जो सन उनचास में सातवीं कक्षा में थे वे टोपी के साथ पहुँच गए थे। उन सभी के बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देने लगा था।

वह अपने भरे-पूरे घर की ही तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसका नोटिस लेना बिलकुल ही छोड़ दिया था कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए वह भी हाथ उठता तो कोई मास्टर उससे जवाब न पूछता। परन्तु जब उसका हाथ उठता ही रहा तो एक दिन अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा –


“तीन बरस से यही किताब पढ़ रहे हो, तुम्हें तो सारे जवाब ज़ुबानी याद हो गए होंगे! इन लड़कों को अगले साल हाई स्कूल का इम्तिहान देना है। तुमसे पारसाल पूछ लूँगा।”
टोपी इतना शर्माया कि उसके काले रंग लाली दौड़ गई। और जब तमाम बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े तो वह बिलकुल मर गया। जब वह पहली बार नवें में आया था तो वह भी इन्हीं बच्चों की तरह बिलकुल बच्चा था।

बरस – साल
इम्तिहान – परीक्षा
पारसाल – आने वाला साल
तमाम – सभी

लेखक कहता है कि जिस तरह टोपी अपने भरे-पूरे घर में भी अकेलापन महसूस करता था, उसी तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसकी ओर ध्यान देना बिलकुल ही छोड़ दिया था, कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए जब टोपी भी हाथ उठाता, तो कोई मास्टर उससे जवाब नहीं पूछता था। परन्तु जब टोपी ने हार नहीं मानी और अपना हाथ उठाता ही रहा, तो एक दिन अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा कि टोपी तो तीन साल से यही किताब पढ़ रहा है, उसे तो सारे जवाब ज़ुबानी याद हो गए होंगे, उसके साथ बैठे इन लड़कों को अगले साल हाई स्कूल की परीक्षा देनी है। उन्हें इस साल इन लड़कों से प्रश्न पूछने दो, टोपी से तो वे आने वाले साल में भी पूछ सकते हैं। अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर साहब की इस बात को सुन कर टोपी इतना शर्माया कि उसका काला रंग भी लाल हो गया। और जब सभी बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े तो टोपी मानो बिलकुल मर ही गया हो। जब वह पहली बार नवीं कक्षा में आया था, तो वह भी इन्हीं बच्चों की तरह बिलकुल बच्चा ही था। और अब दो साल इसी कक्षा में होने के कारण वह बिलकुल बूढ़ा लगता था।

फिर उसी दिन अबदुल वहीद ने रिसेज़ में वह तीर मारा कि टोपी बिलकुल बिलबिला उठा।
वहीद क्लास का सबसे तेज़ लड़का था। मॉनीटर भी था। और सबसे बड़ी बात यह है कि वह लाल तेल वाले डॉक्टर शुरफ़ुद्दीन का बेटा था।
उसने कहा,” बलभद्दर! अबे तू हम लोगन में का घुसता है। एड्थ वालन से दोस्ती कर। हम लोग तो निकल जाएँगे, बाकी तुहें त उन्हीं सभन के साथ रहे को हुएहै।”
यह बात टोपी के दिल के आर-पार हो गई। और उसने कसम खाई कि टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, उसे पास होना है।
परन्तु बीच में चुनाव आ गए।
डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेल वाले खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो उसमें कोई पढ़-लिख कैसे सकता है!
वह तो जब डॉक्टर साहब की ज़मानत ज़ब्त हो गई तब घर में ज़रा सन्नाटा हुआ और टोपी ने देखा कि इम्तिहान सिर पर खड़ा है।
वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु ऐसे वातावरण में क्या कोई पढ़ सकता था? इसलिए उसका पास ही हो जाना बहुत था।
“वाह! दादी बोलीं,” भगवान नजरे-बंद से बचाए। रफ़्तार अच्छी है। तीसरे बरस तीसरे दर्जे में पास तो हो गए।….”

रिसेज़ – लंच, स्कूल में दोपहर के भोजन का समय
बिलबिला- बहुत अधिक गुस्से में आना
मॉनीटर – मुखिया
सन्नाटा – शांति

नजरे-बंद – जो किसी स्थान पर निगरानी के लिए रखा गया हो और जिसे निश्चित सीमा के बाहर जाने की आज्ञा न हो

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जब अंग्रेजी-साहित्य के मास्टर ने टोपी को कक्षा में बेइज्जत किया था, उसी दिन अबदुल वहीद ने लंच में एक ऐसी बात कही कि टोपी बहुत अधिक गुस्से में आ गया। वहीद कक्षा का सबसे तेज़ लड़का था। कक्षा का मुखिया भी था।

और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह लाल तेल वाले डॉक्टर शुरफ़ुद्दीन का बेटा था। अबदुल वहीद ने टोपी से कहा कि वह उन लोगों के साथ क्यों खेलता है। उसे तो आठवीं कक्षा वालों से दोस्ती करनी चाहिए क्योंकि वे लोग तो आगे दसवीं कक्षा में चले जाएँगे और टोपी को तो आठवीं वालों के साथ ही रहना है तो उनसे दोस्ती करना टोपी के लिए अच्छा होगा। यह बात टोपी को बहुत बुरी लगी और ऐसा लगा जैसे यह बात उसके दिल के आर-पार हो गई हो। और उसने उसी समय कसम खाई कि इस साल उसे टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, वह पास होकर ही दिखाएगा।

परन्तु साल के बीच में ही चुनाव आ गए। टोपी के पिता डॉक्टर भृगु नारायण, नीले तेल वाले, चुनाव लड़ने के लिए खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो, उस घर में कोई पढ़-लिख कैसे सकता है? वह तो जब डॉक्टर साहब चुनाव हार गए तब घर में थोड़ी शांति हुई और टोपी ने देखा कि उसकी परीक्षा को ज्यादा समय नहीं रहा है। वह पढ़ाई में जुट गया। परन्तु जैसा वातावरण टोपी के घर में बना हुआ था ऐसे वातावरण में कोई कैसे पढ़ सकता था? इसलिए टोपी का पास हो जाना ही बहुत था। टोपी के दो साल एक ही कक्षा में रहने के बाद जब वह पास हुआ तो उसकी दादी बोली कि वाह! टोपी को भगवान नजरे-बंद से बचाए। बहुत अच्छी रफ़्तार पकड़ी है। तीसरे साल पास हुआ वो भी तीसरी श्रेणी में, चलो पास तो हो गया।

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राही मासूम रज़ा का जीवन परिचय

राही मासूम रज़ा (१ सितंबर, १९२५-१५ मार्च १९९२)  का जन्म गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एमए करने के बाद उर्दू में `तिलिस्म-ए-होशरुबा' पर पीएच.डी. की। पीएच.डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे।

कबीर की साखी

पाठ-1 कबीर की साखी

पाठ प्रवेश

‘साखी’ शब्द ‘साक्षी’ शब्द का ही तद्भव रूप है। साक्षी शब्द साक्ष्य से बना है जिसका अर्थ होता है-प्रत्यक्ष ज्ञानेन। यह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु शिष्य को प्रदान करता है। संत संप्रदाय में अनुभव ज्ञान की ही महत्ता है, शास्त्रीय ज्ञान की नहीं। कबीर का अनुभव क्षेत्र विस्तृत था। कबीर जगह-जगह भ्रमण कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे।

अतः उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसी कारण उनकी भाषा को ‘पचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है। कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भी कहा जाता है।

‘साखी’ वस्तुत: दोहा छंद ही है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा। प्रस्तुत पाठ की साखियाँ प्रमाण हैं कि सत्य की साक्षी देता हुआ ही गुरु शिष्य को जीवन के तत्वज्ञान की शिक्षा देता है। यह शिक्षा जितनी प्रभावपूर्ण होती है उतनी ही याद रह जाने योग्य भी।

साखी

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोड़।

अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ।।

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि ।

ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहिं।।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि ।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ।।

सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै ।।

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।

राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ ।।

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।

बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ ।।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोई।

ऐकै अषिर पीव का, पढ़े सु पंडित होइ।

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।

पाठ का सार

कबीर द्वारा रचित ‘साखी’ रचना नीति पर आधारित है। प्रस्तुत सभी साखियाँ उपदेशात्मक है। कबीर का कहना है कि मनुष्य को हमेशा मीठी वाणी बोलनी चाहिए जिससे वह स्वयं और दूसरे, दोनों ही प्रसन्न हों। कबीर का मानना है कि ईश्वर है, जब मनुष्य ज्ञान रूपी दीपक अपने हृदय में जलाए तो अज्ञानता रूपी अंधकार को मिटाकर उस ईश्वर को प्राप्त कर सकता। यह भी कहा गया है कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अपने मन के अंधकार को भी समाप्त करना पड़ता है। इन साखियों में कबीर का दुख उभरकर आता है। संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खाते-पीते हैं और सोते हैं अर्थात सुख-सुविधाओं से भरा जीवन व्यतीत करते हैं। उन्हें ईश्वरीय ज्ञान से कुछ लेना-देना नहीं। दूसरी ओर वे भी हैं, जो  सदा जागृत रहते हैं। प्रभु के वियोग में तड़पते रहते हैं। निदंक को कबीर ने स्वभाव-सुधारक के रूप में प्रस्तुत किया है और कहा है यदि हम अपना स्वभाव सुधारना चाहते हैं, तो सदा निंदक को पास रखें ताकि वह हमारी त्रुटियाँ बताता रहे। उन्हें साखियों में यह भी बताया गया है कि बड़े-बड़े ग्रंथ पढ़ने से ईश्वर नहीं मिलता ।प्रेम से केवल उसका नाम लेने पर उसकी प्राप्ति होती है। अंत में कबीर यह कहकर सचेत करना चाहते हैं कि यदि सांसारिक विषय-वासनाओं को त्याग दें तो ईश्वर की प्राप्ति होती है।

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