आत्मकथ्य

पाठ 4: आत्मकथ्य

जयशंकर प्रसाद

कवि परिचय

इनका जन्म सन 1889 में वाराणसी में हुआ था। काशी के प्रसिद्ध क्वींस कॉलेज में वे पढ़ने गए परन्तु स्थितियां अनुकूल ना होने के कारण आँठवी से आगे नही पढ़ पाए। बाद में घर पर ही संस्कृत, हिंदी, फारसी का अध्ययन किया। छायावादी काव्य प्रवृति के प्रमुख कवियों में ये एक थे। इनकी मृत्यु सन 1937 में हुई।

प्रमुख कार्य

काव्य-कृतियाँ – चित्राधार, कानन कुसुम, झरना, आंसू, लहर, और कामायनी नाटक – अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी उपन्यास कंकाल, तितली और इरावती ।

कहानी संग्रह – आकाशदीप, आंधी और इंद्रजाल

शब्दार्थ

  • मधुप – मन रूपी भौंरा
  • अनंत नीलिमा – अंतहीन विस्तार
  • व्यंग्य मलिन -खराब ढंग से निंदा करना
  • गागर – रीती खाली घड़ा
  • प्रवंचना – धोखा
  • मुसक्या कर -मुस्कुरा कर
  • अरुण-कोपल – लाल गाल
  • अनुरागिनी उषा – प्रेम भरी भोर
  • स्मृति पाथेय – स्मृति रूपी सम्बल
  • पन्था- रास्ता
  • कंथा – अंतर्मन

पाठ प्रवेश

इस कविता में कवि ने अपने अपनी आत्मकथा न लिखने के कारणों को बताया है। कवि कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का मन रूपी भौंरा प्रेम गीत गाता हुआ अपनी कहानी सुना रहा है। झरते पत्तियों की ओर इशारा करते हुए कवि कहते हैं कि आज असंख्य पत्तियाँ मुरझाकर गिर रही हैं यानी उनकी जीवन लीला समाप्त हो रही है।

कविता का संक्षिप्त परिचय

प्रेमचंद के संपादन में हंस (पत्रिका) का एक आत्मकथा विशेषांक निकलना तय हुआ था। प्रसाद जी के मित्रों ने आग्रह किया कि वे भी आत्मकथा लिखें। प्रसाद जी इससे सहमत न थे। इसी असहमति के तर्क से पैदा हुई कविता है-आत्मकथ्य। यह कविता पहली बार 1932 में हंस के आत्मकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। छायावादी शैली में लिखी गई इस कविता में जयशंकर प्रसाद ने जीवन के यथार्थ एवं अभाव पक्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। छायावादी सूक्ष्मता के अनुरूप ही अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए जयशंकर प्रसाद ने ललित, सुंदर एवं नवीन शब्दों और बिंबों का प्रयोग किया है। इन्हीं शब्दों एवं बिंबों के सहारे उन्होंने बताया है कि उनके जीवन की कथा एक सामान्य व्यक्ति के जीवन की कथा है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं। है जिसे महान और रोचक मानकर लोग वाह-वाह करेंगे। कुल मिलाकर इस कविता में एक तरफ़ कवि द्वारा यथार्थ की स्वीकृति है तो दूसरी तरफ़ एक महान कवि की विनम्रता भी।

कविता

मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

मुरझाकर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत – नीलिमा में असंख्य जीवन - - इतिहास

यह लो करते ही रहते हैं अपना व्यंगय – मलिन उपहास

तब भी कहते हो – कह डालूं दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे यह गागर रीती।

भावार्थ- कवि कहता है कि गुंजन करते भँवरे और डालों से मुरझाकर गिरती पत्तियाँ जीवन की करुण कहानी सुना रहे हैं। उसका अपना जीवन भी व्यथाओं की कथा है। इस अनंत नीले आकाश के तले नित्य प्रति असंख्य जीवन इतिहास (आत्मकथाएँ) लिखे जा रहे है। इन्हें लिखने वालों ने अपने आपको ही व्यंग्य तथा उपहास का पात्र बनाया है। कवि मित्रों से पूछता हैं कि क्या यह सब देखकर भी वे चाहते हैं कि वह अपनी दुर्बलताओं से युक्त आत्मकथा लिखें। इस खाली गगरी जैसी महत्वहीन आत्मकथा को पढ़कर उन्हें क्या सुख मिलेगा।

कविता

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले –

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उङाऊँ मैं।

भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।

उज्जवल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिल-खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की।

भावार्थ- कवि अपने मित्रों से कहता है- कहीं ऐसा न हो कि मेरे रस शून्य, खाली गागर जैसे जीवन के बारे में पढ़कर तुम स्वयं को ही अपराधी समझने लगो। तुम्हें ऐसा लगे कि तुमने ही मेरे जीवन से रस चुराकर अपनी सुख की गगरी को भरा है।

कवि कहता है कि वह अपनी भूलों और ठगे जाने के विषय में बताकर अपनी सरलता की हँसी उङाना नहीं चाहता। मैं अपने प्रिय के साथ बिताए जीवन के मधुर क्षणों की कहानी किस बल पर सुनाऊँ। वे खिल-खिलाकर हँसते हुए की गई बातें अब एक असफल प्रेमकथा बन चुकी है। उन भूली हुई मधुर स्मृतियों को जगाकर मैं अपने मन को व्यथित करना नहीं चाहता।

कविता

आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।

जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।

अनुरागिनी उषा लेती थी, निज सुहाग मधुमाया में।

उसकी स्मृति पाथेय बनी है, थके पथिक की पंथा की।

सीवन को उधेङ कर देखोगे क्यों मेरी कथा की ?

भावार्थ- कवि कहता है- मैंने जीवन में जो सुख के सपने देखे वे कभी साकार नहीं हुए। सुख मेरी बाँहों में आते-आते मुझे तरसाकर भाग गए। मेरा अपने प्रिय को पाने का सपना अधूरा ही रह गया।मेरी प्रिया के गालों पर छाई लालिमा इतनी सुंदर और मस्ती भरी थी कि लगता था प्रेममयी उषा भी अपनी माँग में सौभाग्य सिंदूर भरने के लिए उसी से लालिमा लिया करती थी।आज मैं एक थके हुए यात्री के समान हूँ। प्रिय की स्मृतियाँ मेरी इस जीवन यात्रा में पथ भोजन के समान है। उन्हीं के सहारे मैं जीवन बिताने का बल जुटा पा रहा हूँ। मैं नही चाहता कि कोई मेरी इन यादों की गुदड़ी को उधेड़कर मेरे व्यथित हृदय में झाँके । मित्रों! आत्मकथा लिखकर मेरी वेदनामय स्मृतियों को क्यों जगाना चाहते हो ?

कविता

छोटे से जीवन की कैसे बङी कथाएँ आज कहूँ ?

क्या, यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ ?

सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा ?

अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा ।

भावार्थ- कवि का कहना है कि उनका जीवन एक साधारण सीधे-सादे व्यक्ति की कहानी है। इस छोटे से जीवन को बढ़ा-चढ़ाकर लिखना उसके लिए संभव नहीं है। इस पाखण्ड के बजाय तो उसका मौन रहना और दूसरों की यश-गाथाएँ सुनते रहना कहीं अच्छा है।

वह अपने मित्रों से कहता है कि वे उस जैसे भोले-भोले निष्कपट, दुर्बल हृदय, सदा छले जाते रहे व्यक्ति की आत्मकथा सुनकर क्या करेंगे ? उनको इसमें कोई उल्लेखनीय विशेषता या प्रेरणापद बात नहीं मिलेगी। इसके अतिरिक्त यह आत्मकथा लिखने का उचित समय भी नहीं है। मुझे निरंतर पीड़ित करने वाली व्यथाएँ थककर शांत हो चुकी है। मैं नहीं चाहता कि आत्मकथा लिखकर मैं उन कटु व्यथित करने वाली स्मृतियों को फिर से जगा दूँ।

उत्साह, अट नहीं रही है

पाठ 5: उत्साह, अट नहीं रही है

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कवि-परिचय

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल के महिषादल में सन् 1899 में हुआ। वे मूलतः गढ़ाकोला (जिला उन्नाव), उत्तर प्रदेश के निवासी थे। निराला की औपचारिक शिक्षा नौवीं तक महिषादल में ही हुई। उन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी का ज्ञान अर्जित किया। वे संगीत और दर्शनशास्त्र के भी गहरे अध्येता थे। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद की विचारधारा ने उन पर विशेष प्रभाव डाला।

निराला का पारिवारिक जीवन दुखों और संघर्षों से भरा था। आत्मीय जनों के असामयिक निधन ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया। साहित्यिक मोर्चे पर भी उन्होंने अनवरत संघर्ष किया। सन् 1961 में उनका देहांत हो गया।

उनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ हैं- अनामिका, परिमल, गीतिका, कुकुरमुत्ता और नए पत्ते। उपन्यास, कहानी, आलोचना और निबंध लेखन में भी उनकी ख्याति अविस्मरणीय है। निराला रचनावली के आठ खंडों में उनका संपूर्ण साहित्य प्रकाशित है।

पाठ प्रवेश

उत्साह एक आह्वान गीत है जो बादल को संबोधित है। बादल निराला का प्रिय विषय है। कविता में बादल एक तरफ़ पीड़ित-प्यासे जन की आकांक्षा है, तो दूसरी तरफ़ वही बादल नयी कल्पना और नए अंकुर के लिए विध्वंस, विषय, और क्रांति चेतना को संभव करने वाला भी। कवि जीवन को व्यापक और समग्र दृष्टि से देखता है। कविता में ललित कल्पना और क्रांति-चेतना दोनों हैं। सामाजिक क्रांति या बदलाव में साहित्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, निराला इसे ‘नवजीवन’ औ ‘नूतन कविता’ के संदर्भों में देखते हैं।

अट नहीं रही है कविता फागुन की मादकता को प्रकट करती है। कवि फागुन की सर्वव्यापक सुंदरता को अनेक संदर्भों में देखता है। जब मन प्रसन्न हो तो हर तरफ फागुन का ही सौंदर्य और उल्लास दिखाई पड़ता है। सुंदर शब्दों के चयन एवं प ने कविता को भी फागुन की ही तरह सुंदर एवं ललित बना दिया है।

उत्साह

बादल, गरजो!

घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ!

ललित ललित, काले घुंघराले,

बाल कल्पना के से पाले,

विद्युत छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले!

वज्र छिपा, नूतन कविता फिर भर दो!

बादल गरजो!

भावार्थ - कवि बादलों से गरजने का आह्वान करता है। कवि का कहना है कि बादलों की रचना में एक नवीनता है। काले-काले घुंघराले बादलों का अनगढ़ रूप ऐसे लगता है, जैसे उनमें किसी बालक की कल्पना समाई हुई हो। उन्हीं बादलों से कवि कहता है कि वे पूरे आसमान को घेर कर घोर ढंग से गर्जना करें। बादल के हृदय में किसी कवि की तरह असीम ऊर्जा भरी हुई है। इसलिए कवि बादलों से कहता है कि वे किसी नई कविता की रचना कर दें और उस रचना से सबको भर दें।

विकल विकल, उन्मन थे उन्मन

विश्व के निदाघ के सकल जन,

आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!

तप्त धरा, जल से फिर शीतल कर दो बादल, गरजो!

भावार्थ : इन पंक्तियों में कवि ने तपती गर्मी से बेहाल लोगों के बारे में लिखा है। सभी लोग तपती गर्मी से बेहाल हैं और उनका मन कहीं नहीं लग रहा है। ऐसे में कई दिशाओं से बादल घिर आए हैं। कवि उन बादलों से कहता है कि तपती धरती को अपने जल से शीतल कर दें।

अट नहीं रही है

अट नहीं रही है

आभा फागुन की

तन सट नहीं रही है।

 भावार्थ  -  इस कविता में कवि ने वसंत ऋतु की सुंदरता का बखान किया है। वसंत ऋतु का आगमन हिंदी के फागुन महीने में होता है। ऐसे में फागुन की आभा इतनी अधिक है कि वह कहीं समा नहीं पा रही है ।

कहीं साँस लेते हो,

घर-घर भर देते हो,

उड़ने को नभ में तुम

पर-पर कर देते हो,

आँख हटाता हूँ तो

हट नहीं रही है।

भावार्थ  - वसंत जब साँस लेता है तो उसकी खुशबू से हर घर भर उठता है। कभी ऐसा लगता है कि बसंत आसमान में उड़ने के लिए अपने पंख फड़फड़ाता है। कवि उस सौंदर्य से अपनी आँखें हटाना चाहता है लेकिन उसकी आँखें हट नहीं रही है।

पत्तों से लदी डाल

कहीं हरी, कहीं लाल,

कहीं पड़ी है उर में

मंद गंध पुष्प माल,

पाट-पाट शोभा श्री

पट नहीं रही है।

भावार्थ  - पेड़ों पर नए पत्ते निकल आए हैं, जो कई रंगों के हैं। कहीं -कहीं पर कुछ पेड़ों के गले में लगता है कि भीनी-भीनी खुशबू देने वाले फूलों की माला लटकी हुई है। हर तरफ सुंदरता बिखरी पड़ी है और वह इतनी अधिक है कि धरा पर समा नहीं रही है।

यह दन्तुरित मुस्कान, फसल

पाठ 6: यह दन्तुरित मुस्कान, फसल

नागार्जुन

कवि परिचय

नागार्जुन का जन्म बिहार के दरभंगा जिले के सतलखा गाँव में सन् 1911 में हुआ। उनका मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। आरंभिक शिक्षा संस्कृत पाठशाला में हुई, फिर अध्ययन के लिए वे बनारस और कलकत्ता (कोलकाता) गए। 1936 में वे श्रीलंका गए, और वहीं बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। दो साल प्रवास के बाद 1938 में स्वदेश लौट आए। घुमक्कड़ी और अक्खड़ स्वभाव के धनी नागार्जुन ने अनेक बार संपूर्ण भारत की यात्रा की। सन् 1998 में उनका देहांत हो गया।

नागार्जुन की प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं-युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, हज़ार-हज़ार बाँहों वाली, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, मैं मिलटरी का बूढ़ा घोड़ा।

पाठ -प्रवेश

यह दंतुरित मुसकान कविता में छोटे बच्चे की मनोहारी मुसकान देखकर कवि के मन में जो भाव उमड़ते हैं उन्हें कविता में अनेक बिंबों के माध्यम से प्रकट किया गया है। कवि का मानना है कि इस सुंदरता में ही जीवन का संदेश है। इस सुंदरता की व्याप्ति ऐसी है कि कठोर से कठोर मन भी पिघल जाए। इस दंतुरित मुसकान की मोहकता तब और बढ़ जाती है जब उसके साथ नज़रों का बाँकपन जुड़ जाता है।

फसल शब्द सुनते ही खेतों में लहलहाती फसल आँखों के सामने आ जाती है। परंतु फसल है क्या और उसे पैदा करने में किन-किन तत्वों का योगदान होता है, इसे बताया है नागार्जुन ने अपनी कविता फसल में। कविता यह भी रेखांकित करती है कि प्रकृति और मनुष्य के सहयोग से ही सृजन संभव है। बोलचाल की भाषा की गति और लय कविता को प्रभावशाली बनाती है।

कहना न होगा कि यह कविता हमें उपभोक्ता-संस्कृति के दौर में कृषि-संस्कृति के निकट ले जाती है।

शब्दार्थ-

  • दंतुरित- बच्चों के नए नए दांत
  • धूलि -धूसर गात-धूल मिट्टी से सने अंग -प्रत्यंग
  • जलजात- कमल का फूल
  • अनिमेष- बिना पलक झपकाए लगातार देखना
  • इतर- दूसरा
  • कनखी- तिरछी निगाह से देखना
  • छविमान- सुंदर

कविता (भाग -1)

तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान

मृतक में भी डाल देगी जान

धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात.....

छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात

परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,

पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण

भावार्थ- कवि को यह दृश्य देखकर ऐसा लगता है, मानो किसी तालाब से चलकर कमल का फूल उनकी झोंपड़ी में खिला हुआ है। कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अगर यह बालक किसी पत्थर को छू ले, तो वह भी पिघलकर छू जल बन जाए और बहने लगे। अगर वो किसी पेड़ को छू ले, फिर चाहे वो बांस हो या फिर बबूल, उससे शेफालिका के फूल ही झरेंगे।

छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल

तुम मुझे पाए नहीं पहचान ?

बाँस था कि बबूल ?

देखते ही रहोगे अनिमेष!

थक गए हो?

आँख लूँ मैं फेर ?

भावार्थ-कवि को ऐसा लगता है कि उस बच्चे के निश्छल चेहरे में वह जादू है कि उसको छू लेने से बाँस या बबूल से भी शेफालिका के फूल झरने लगते हैं। बच्चा कवि को पहचान नहीं पा रहा है और उसे अपलक देख रहा है। कवि उस बच्चे से कहता है कि यदि वह बच्चा इस तरह अपलक देखते-देखते थक गया हो, तो उसकी सुविधा के लिए कवि उससे आंख फेर लेता है।

क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार ?

यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज

मैं न पाता जान

धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य !

चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!

इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क?

भावार्थ-कवि को इस बात का जरा भी अफसोस नहीं है कि बच्चे से पहली बार में उसकी जान पहचान नहीं हो पाई है। लेकिन वह इस बात के लिए उस बच्चे और उसकी माँ का अदा करना चाहता है कि उनके कारण ही कवि को भी उस बच्चे के सौंदर्य का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। कवि तो उस बच्चे के लिए एक अजनबी है, परदेसी है इसलिए वह खूब समझता है कि उससे उस बच्चे की कोई जान पहचान नहीं है।

उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क

देखते तुम इधर कनखी मार

और होतीं जब कि आँखें चार

तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान

मुझे लगती बड़ी ही छविमान!

भावार्थ- बच्चा अपनी माँ की उँगली चूस रहा है तो ऐसा लगता है कि उसकी माँ उसे अमृत का पान करा रही है। इस बीच वह बच्चा कनखियों से कवि को देखता है। जब दोनों की आँखें आमने सामने होती हैं तो कवि को उस बच्चे की सुंदर मुसकान की सुंदरता के दर्शन हो जाते हैं।

छाया मत छूना

पाठ 7: छाया मत छूना

गिरिजाकुमार माथुर

कवि परिचय

गिरिजा कुमार का जन्म सन् 1918 में गुना, मध्य प्रदेश में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा झाँसी, उत्तर प्रदेश में ग्रहण करने के बाद उन्होंने एम.ए. अंग्रेज़ी व एल.एल.बी. की उपाधि लखनऊ से अर्जित की। शुरू में कुछ समय तक वकालत की। बाद में आकाशवाणी और दूरदर्शन में कार्यरत हुए। उनका निधन सन् 1994 में हुआ।

गिरिजाकुमार माथुर की प्रमुख रचनाएँ हैं- नाश और निर्माण, धूप धान, शिलापंख चमकीले, भीतरी नवी के धान, की यात्रा (काव्य-संग्रह); जन्म कैद (नाटक); नयी कविता : सीमाएँ और संभावनाएँ (आलोचना) ।

पाठ -प्रवेश

छाया मत छूना कविता के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि जीवन में सुख और दुख दोनों की उपस्थिति है। विगत के सुख को यादकर वर्तमान के दुख को और गहरा करना तर्कसंगत नहीं है। कवि के शब्दों में इससे दुख दूना होता है। विगत की सुखद काल्पनिकता से चिपके रहकर वर्तमान से पलायन की अपेक्षा,कठिन यथार्थ से रू-ब-रू होना ही जीवन की प्राथमिकता होनी चाहिए।

कविता अतीत की स्मृतियों का भूल वर्तमान का सामना कर भविष्य का वरण करने का संदेश देती है। वह यह बताती है कि जीवन के सत्य को छोड़कर उसकी छायाओं से भ्रमित रहना जीवन की कठोर वास्तविकता से दूर रहना है।

शब्दार्थ

  • छाया -भ्रम, दुविधा
  • सुरंग -रंग- बिरंगी
  • छवियों का चित्रगंध -चित्र की स्मृति के साथ उसके आसपास की गंध का अनुभव
  • यामिनी- तारों भरी चांदनी रात
  • कुंतल-लंबे केश
  • प्रभुता का शरण-बिंब- बड़प्पन का अहसास
  • दुविधाहत साहस- साहस होते हुए भी दुविधाग्रस्त रहना

कविता

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना

जीवन में है सुरंग- सुधियां सुहावनी

छवियों के चित्र- गंध फैली ममभावनी;

तन- सुगंध शेष रही,बीत गई यामिनी,

कुंतल के फूलों की याद बनी चांदनी।

भूली -सी एक छुअन बनता हर जीवित- क्षण

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने पुराने मीठे पलों को याद कर रहा है। ये सारी यादें उनके सामने रंग-बिरंगी छवियों की तरह प्रकट हो रही हैं, जिनके साथ उनकी सुगंध भी है। कवि को अपने प्रिय के तन की सुगंध भी महसूस होती है। यह चांदनी रात का चंद्रमा कवि को अपने प्रिय के बालों में लगे फूल की याद दिला रहा है। इस प्रकार हर जीवित क्षण जो हम जी रहे हैं, वह पुरानी यादों रूपी छवि में बदलता जाता है। जिसे याद करके हमें केवल दुःख ही प्राप्त हो सकता है, इसलिए कवि कहते हैं छाया मत छूना, होगा दुःख दूना

यश है या न वैभव है, मान है न सरमाया;

जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया ।

प्रभुता का शरण बिंब केवल मृगतृष्णा है,

हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।

जो है यथार्थ कठिन, उसका तू कर  पूजन

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना

भावार्थ:- इन पंक्तियों में कवि हमें यह सन्देश देना चाहते हैं कि इस संसार में धन, ख्याति, मान, सम्मान इत्यादि के पीछे भागना व्यर्थ है। यह सब एक भ्रम की तरह हैं।

कवि का मानना यह है कि हम अपने जीवन काल में – धन, यश, ख्याति इन सब के पीछे भागते रहते हैं और खुद को बड़ा और मशहूर समझते हैं। लेकिन जैसे हर चांदनी रात के बाद एक काली रात आती है, उसी तरह सुख के बाद दुःख भी आता है। कवि ने इन सारी भावनाओं को छाया बताया है।

दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,

क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?

जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण,

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना

भावार्थ:-  कवि के अनुसार, हमारा शरीर कितना भी सुखी हो, परन्तु हमारी आत्मा के दुखों की कोई सीमा नहीं है। हम तो किसी भी छोटी-सी बात पर खुद को दुखी कर के बैठ जाते हैं। फिर चाहे वो शरद ऋतू के आने पर चाँद का ना खिलना हो या फिर वसंत ऋतू के चले जाने पर फूलों का खिलना हो। हम इन सब चीजों के विलाप में खुद को दुखी कर बैठते हैं।

इसलिए कवि ने हमें यह संदेश दिया है कि जो चीज़ हमें ना मिले या फिर जो चीज़ हमारे बस में न हो, उसके लिए खुद को दुखी करके चुपचाप बैठे रहना, कोई समाधान नहीं हैं, बल्कि हमें यथार्थ की कठिन परिस्थितियों का डट कर सामना करना चाहिए एवं एक उज्जवल भविष्य की कल्पना करनी चाहिए।

कन्यादान

पाठ  8: कन्यादान

ऋतुराज

कवि- परिचय

ऋतुराज का जन्म सन् 1940 में भरतपुर में हुआ। राजस्थान • विश्वविद्यालय, जयपुर से उन्होंने अंग्रेजी में एम.ए. किया। चालीस वर्षों तक अंग्रेजी साहित्य के अध्यापन के बाद अब सेवानिवृत्ति लेकर वे जयपुर में रहते हैं। उनके अब तक आठ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें एक मरणधर्मा और अन्य, पुल पर पानी, सुरत निरत और लीला मुखारविंद प्रमुख हैं। उन्हें सोमदत्त, परिमल सम्मान, मीरा पुरस्कार, पहल सम्मान तथा बिहारी पुरस्कार मिल चुके हैं।

मुख्यधारा से अलग समाज के हाशिए के लोगों की चिंताओं को ऋतुराज ने अपने लेखन का विषय बनाया है। उनकी कविताओं में दैनिक जीवन के अनुभव का यथार्थ है और वे अपने आसपास रोजमर्रा में घटित होने वाले सामाजिक शोषण और विडंबनाओं पर निगाह डालते हैं। यही कारण है। कि उनकी भाषा अपने परिवेश और लोक जीवन से जुड़ी हुई है।

पाठ-प्रवेश

कन्यादान कविता में माँ बेटी को स्त्री के परंपरागत ‘आदर्श’ रूप से हटकर सीख दे रही है। कवि का मानना है कि समाज-व्यवस्था द्वारा स्त्रियों के लिए आचरण संबंधी जो प्रतिमान गढ़ लिए जाते हैं, वे आदर्श के मुलम्मे में बंधन होते हैं। ‘कोमलता’ के गौरव में ‘कमजोरी’ का उपहास छिपा रहता है। लड़की जैसा न दिखाई देने में इसी आदर्शीकरण का प्रतिकार है। बेटी माँ के सबसे निकट और उसके सुख-दुख की साथी होती है। इसी कारण उसे अंतिम पूँजी कहा गया है। कविता में कोरी भावुकता नहीं बल्कि माँ के संचित अनुभवों की पीड़ा की प्रामाणिक अभिव्यक्ति है। इस छोटी-सी कविता में स्त्री जीवन के प्रति ऋतुराज जी की गहरी संवेदनशीलता अभिव्यक्त हुई है।

कविता

कितना प्रामाणिक था उसका दुख

लड़की को दान में देते वक्त

जैसे वही उसकी अंतिम पूँजी हो

लड़की अभी सयानी नहीं थी

अभी इतनी भोली सरल थी

कि उसे सुख का आभास तो होता था

लेकिन दुख बाँचना नहीं आता था

पाठिका थी वह धुँधले प्रकाश की

कुछ तुकों और कुछ लयबद्ध पंक्तियों की

माँ ने कहा पानी में झाँककर

अपने चेहरे पर मत रीझना

आग रोटियाँ सेंकने के लिए है

जलने के लिए नहीं

वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह

बंधन हैं स्त्री जीवन के

माँ ने कहा लड़की होना पर लड़की जैसी दिखाई मत देना।।

शब्दार्थ

  • पूंजी- संपत्ति
  • धुंधला-धूमिल
  • रीझना-मुग्ध होना
  • आभूषण-गहना
  • सरल-आसान

संगतकार

पाठ 9: संगतकार

मंगलेश डबराल

कवि परिचय

मंगलेश डबराल का जन्म सन् 1948 में टिहरी गढ़वाल (उत्तरांचल) के काफलपानी गाँव में हुआ और शिक्षा-दीक्षा हुई देहरादून में। दिल्ली आकर हिंदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद वे भोपाल में भारत भवन से प्रकाशित होने वाले पूर्वग्रह में सहायक संपादक हुए। इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की।

सन् 1983 में जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक का पद सँभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद आजकल वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हैं।

मंगलेश डबराल के चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं- पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं और आवाज़ भी एक जगह है। साहित्य अकादेमी पुरस्कार, पहल सम्मान से सम्मानित मंगलेश की ख्याति अनुवादक के रूप में भी है।

पाठ-प्रवेश

संगतकार कविता गायन में मुख्य गायक का साथ देनेवाले संगतकार की भूमिका के महत्व पर विचार करती है। दृश्य माध्यम की प्रस्तुतियों जैसे-नाटक, फ़िल्म, संगीत, नृत्य के बारे में तो यह सही है ही; हम समाज और इतिहास में भी ऐसे अनेक प्रसंगों को देख सकते हैं जहाँ नायक की सफलता में अनेक लोगों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कविता हममें यह संवेदनशीलता विकसित करती है कि उनमें से प्रत्येक का अपना-अपना महत्त्व है और उनका सामने न आना उनकी कमजोरी नहीं मानवीयता है। संगीत की सूक्ष्म समझ और कविता की दृश्यात्मकता इस कविता को ऐसी गति देती है मानो हम इसे अपने सामने घटित होता देख रहे हो।

काव्यांश-1

मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती

वह आवाज सुंदर कमजोर काँपती हुई थी वह मुख्य गायक का छोटा भाई है

या उसका शिष्य

या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार

मुख्य गायक की गरज में

वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से

भावार्थ - कवि अपनी इन पंक्तियों में कहता है कि जब मुख्य गायक अपने चट्टान जैसे भारी स्वर में गाता है, तब संगतकार हमेशा उसका साथ देता है। संगतकार की आवाज बहुत ही कमजोर, कापंती हुई प्रतीत हो रही है। लेकिन फिर भी वह बहुत ही मधुर थी, जो मुख्य गायक की आवाज के साथ मिलकर उसकी प्रभावशीलता को और बढ़ा देती है। कवि को ऐसा लगता है कि यह संगतकार गायक का कोई बहुत ही करीब का रिश्तेदार या जान-पहचान वाला है, या फिर ये उसका कोई शिष्य है, जो कि उससे गायकी सीख रहा है। इस प्रकार, वह बिना किसी की नजर में आए, निरंतर अपना कार्य करता रहता है

काव्यांश-2

गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में

खो चुका होता है

या अपने ही सरगम को लाँघकर

चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में

तब संगतकार ही स्थायी को सँभाले रहता है

जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान

जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन जब वह नौसिखिया था।

भावार्थ - इन पंक्तियों में कवि ने यह बताने का प्रयास किया है कि जब कोई महान संगीतकार अपने गाने की लय में डूब जाता है, तो उसे गाने के सुर-ताल की भनक नहीं पड़ती और वह कभी कभी अपने गाने में कहीं भटक-सा जाता है। आगे सुर कैसे पकड़ना है, यह उसे सम नहीं आता और वह उलझ-सा जाता है।

काव्यांश-3

तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला

प्रेरणा साथ छोड़ती हुई, उत्साह अस्त होता हुआ

आवाज से राख जैसा कुछ गिरता हुआ तभी मुख्य गायक को ढाँढस बँधाता

कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर

कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ

यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है

और यह कि फिर से गाया जा सकता है

भावार्थ - उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जब कभी मुख्य गायक ऊंचे स्वर में गाता है तो उसका गला बैठने लगता है। उससे सुर सँभलते नहीं हैं। तब गायक को ऐसा लगने लगता है जैसे कि अब उससे आगे गाया नहीं जाएगा। उसके भीतर निराशा छाने लगती है। उसका मनोबल खत्म होने लगता है। उसकी आवाज कांपने लगती हैं जिससे उसके मन की निराशा व हताशा प्रकट होने लगती है।

उस समय मुख्य गायक को हौसला बढ़ाने वाला व उसके अंदर उत्साह जगाने वाला संगतकार का मधुर स्वर सुनाई देता हैं। उस सुंदर आवाज को सुनकर मुख्य गायक फिर नए जोश से गाने लगता है

कवि आगे कहते हैं कि कभी- कभी संगतकार मुख्य गायक को यह बताने के लिए भी उसके स्वर में अपना स्वर मिलाता है कि वह अकेला नहीं है। कोई है जो उसका साथ हर वक्त देता है। और यह भी बताने के लिए कि जो राग या गाना एक बार गाया जा चुका है। उसे फिर से दोबारा गाया जा सकता है।

काव्यांश-4

गाया जा चुका राग

और उसकी आवाज में जो एक हिचक साफ सुनाई देती है

या अपने स्वर को ऊंचा न उठाने की जो कोशिश है

उसे विफलता नहीं

उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

भावार्थ - उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जब भी संगतकार मुख्य गायक के स्वर में अपना स्वर मिलता है यानि उसके साथ गाना गाता है तो उसकी आवाज में एक हिचक साफ सुनाई देती है। और उसकी हमेशा यही कोशिश रहती है कि उसकी आवाज मुख्य गायक की आवाज से धीमी रहे।

लेकिन हमें इसे संगतकार की कमजोरी या असफलता नही माननी चाहिए क्योंकि वह मुख्य गायक के प्रति अपना  सम्मान प्रकट करने के लिए ऐसा करता है। यानि अपना स्वर ऊँचा कर वह मुख्य गायक के सम्मान को ठेस नही पहुंचाना चाहता है। यह उसका मानवीय गुण हैं।

नेता जी का चश्मा

पाठ 10: नेताजी का चश्मा

स्वयं प्रकाश

लेखक परिचय

स्वयंप्रकाश का जन्म सन् 1947 में इंदौर (मध्यप्रदेश) स्वयं में हुआ। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने वाले स्वयं प्रकाश का बचपन और नौकरी का बड़ा हिस्सा राजस्थान में बीता। फिलहाल स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद वे भोपाल में रहते हैं और वसुधा पत्रिका के संपादन से जुड़े हैं।

आठवें दशक में उभरे स्वयं प्रकाश आज समकालीन कहानी के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनके तेरह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें सूरज कब निकलेगा, आएँगे अच्छे दिन भी, आदमी जात का आदमी और संधान उल्लेखनीय हैं। उनके बीच में विनय और ईंधन उपन्यास चर्चित रहे हैं। उन्हें पहल सम्मान, बनमाली पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादेमी पुरस्कार आदि पुरस्कारों से जा चुका है। पुरस्कृत किया जा चुका है।

पाठ प्रवेश

चारों ओर सीमाओं से घिरे भूभाग का नाम ही देश नहीं होता। देश बनता है उसमें रहने वाले सभी नागरिकों, नदियों, पहाड़ों, पेड़-पौधों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों से और इन सबसे प्रेम करने तथा इनकी समृद्धि के लिए प्रयास करने का नाम देशभक्ति है। नेताजी का चश्मा कहानी कैप्टन चश्मे वाले के माध्यम से देश के करोड़ों नागरिकों के योगदान को रेखांकित करती है जो इस देश के निर्माण में अपने-अपने तरीके से सहयोग करते हैं। कहानी यह कहती हैं कि बड़े ही नहीं बच्चे भी इसमें शामिल हैं।

सारांश

प्रस्तुत कहानी द्वारा समाज में देश प्रेम की भावना को जागृत किया गया है। पाठ का नायक ‘कैप्टन’ साधारण व्यक्ति होने के बावजूद भी एक देशभक्त नागरिक है। वह कभी नेताजी को बिना चश्मे के नहीं रहने देता है। इस कहानी द्वारा लेखक चाहता है कि देशवासी लोगों की कुर्बानियों को न भूलें और उन्हें उचित सम्मान दें।

बालगोबिन भगत

पाठ 11: बालगोविन भगत

रामवृक्ष बेनीपुरी

लेखक परिचय

रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में सन् 1899 में हुआ। माता-पिता का निधन बचपन में ही हो जाने के कारण जीवन के आरंभिक वर्ष अभावों-कठिनाइयों और संघर्षों में बीते। दसवीं तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सन् 1920 में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गए। कई बार जेल भी गए। उनका देहावसान सन् 1968 में हुआ।

15 वर्ष की अवस्था में बेनीपुरी जी की रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं। वे बेहद प्रतिभाशाली पत्रकार थे। उन्होंने अनेक दैनिक, साप्ताहिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, जिनमें तरुण भारत, किसान मित्र, बालक, में, योगी, जनता, जनवाणी और नयी धारा उल्लेखनीय हैं।

पाठ- प्रवेश 

बालगोबिन भगत रेखाचित्र के माध्यम से लेखक ने एक ऐसे विलक्षण चरित्र का उद्घाटन किया है जो मनुष्यता, लोक संस्कृति और सामूहिक चेतना का प्रतीक है। वेशभूषा या बाह्य अनुष्ठानों से कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास का आधार जीवन के मानवीय सरोकार होते हैं। बालगोबिन भगत इसी आधार पर लेखक को संन्यासी लगत हैं। यह पाठ सामाजिक रूढ़ियों पर भी प्रहार करता है। इस रेखाचित्र की एक विशेषता यह है कि बालगोबिन भगत के माध्यम से ग्रामीण जीवन की सजीव झाँकी देखने क मिलती है।

शब्दार्थ

  • मंझोला- ना बहुत बड़ा ना बहुत छोटा
  • कमली- कंबल
  • पतोहू- पुत्रवधू
  • रोपनी- धान की रोपाई
  • कलेवा- सुबह का जलपान
  • पुरवाई- पूरब की ओर से बहने वाली हवा
  • आधरतिया-आधी रात
  • खंजड़ी- डफली के ढंग का परंतु आकार में उससे छोटा एक वाद्य यंत्र
  • निस्तब्धता- सन्नाटा
  • लोही- प्रातःकाल की लालिमा
  • कुहासा -कोहरा
  • कुश -एक प्रकार की नुकीली घास
  • बोदा- कम बुद्धि वाला
  • संबल- सहारा

लखनवी अन्दाज

पाठ-12: लखनवी अंदाज

यशपाल

लेखक परिचय

यशपाल का जन्म सन् 1903 में पंजाब के फीरोजपुर छावनी में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा काँगड़ा में ग्रहण करने के लाहौर के नेशनल कॉलेज से उन्होंने बी.ए. किया। वहाँ उनका परिचय भगत सिंह और सुखदेव से हुआ। स्वाधीनता सम की क्रांतिकारी धारा से जुड़ाव के कारण वे जेल भी उनका मृत्यु सन् 1976 में हुई।

यशपाल की रचनाओं में आम आदमी के सरोकारों की संस्थिति है। वे यथार्थवादी शैली के विशिष्ट रचनाकार हैं। सामाजिक विषमता, राजनैतिक पाखंड और रूढ़ियों ई खिलाफ़ उनकी रचनाएँ मुखर हैं। उनके कहानी संग्रहों में ज्ञानदान, तर्क का तूफ़ान, पिंजरे की उड़ान, वा दुलिया, फूलो का त उल्लेखनीय हैं। उनका झूठा सच उपन्यास भारत भाजन की त्रासदी का मार्मिक दस्तावेज़ है। अमिता, दिव्या, र्टी कामरेड, दादा कामरेड, मेरी तेरी उसकी बात, के अन्य प्रमुख उपन्यास हैं। भाषा की स्वाभाविकता और नोवता उनकी रचनागत विशेषता है।

पाठ प्रवेश

यूँ तो यशपाल ने लखनवी अंदाज व्यंग्य यह साबित करने के लिए लिखा था कि बिना कथ्य के कहानी नहीं लिखी जा सकती परंतु एक स्वतंत्र रचना के रूप में इस रचना को पढ़ा जा सकता है। यशपाल उस पतनशील सामंती वर्ग पर कटाक्ष करते हैं। जो वास्तविकता से बेखबर एक बनावटी जीवन शैली का आदी है। कहना न होगा कि आज के समय में भी ऐसी परजीवी संस्कृति को देखा जा सकता है।

शब्दार्थ

  • मुफस्सिल - केंद्र नगर के इर्द -गिर्द के स्थान
  • सफेदपोश -भद्र व्यक्ति
  • किफायत -मितव्यता
  • आदाब अर्ज -अभिवादन का एक ढंग
  • गुमान- भ्रम
  • एहतियात-सावधानी
  • बुरक देना-छिड़क देना
  • स्फुरण- फड़कना
  • प्लावित- पानी भर जाना
  • मेदा-अमाशय
  • तसलीम-सम्मान में
  • तहज़ीब-शिष्टता
  • नफासत-स्वच्छता
  • नजाकत- कोमलता

मानवीय करुणा की दिव्य चमक

पाठ 13: मानवीय करुणा की दिव्य चमक

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (1927-1983)

लेखक परिचय

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म सन् 1927 में जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनकी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। वे अध्यापक, आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर विनमान में उपसंपादक और पराग के संपादक रहे। सन् 1983 में उनका आकस्मिक निधन हो गया।

सर्वेश्वर बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। वे कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, निबंधकार और नाटककार थे। सर्वेश्वर को प्रमुख कृतियाँ हैं-काठ की घंटियाँ, कुआनो नदी, जंगल का दर्द, खूँटियों पर टँगे लोग (कविता-संग्रह); पागल कुत्तों का मसीहा, सोया हुआ जल (उपन्यास); लड़ाई (कहानी-संग्रह); बकरी (नाटक); भौं भौं खौं खौं, बतूता का जूता, लाख की नाक (बाल साहित्य)। चरचे और चरखे उनके लेखों का संग्रह है। खूँटियों पर टँगे लोग पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला।

पाठ -प्रवेश

संस्मरण स्मृतियों से बनता है और स्मृतियों की विश्वसनीयता उसे महत्त्वपूर्ण बनाती है। फ़ादर कामिल बुल्के पर लिखा सर्वेश्वर का यह संस्मरण इस कसौटी पर खरा उतरता है। अपने को भारतीय कहने वाले फ़ादर बुल्के जन्मे तो बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में जो गिरजॉ, पादरियों, धर्मगुरुओं और संतों की भूमि कही जाती हैं परंतु उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाया भारत को। फ़ादर बुल्के एक संन्यासी थे परंतु पारंपरिक अर्थ में नहीं। सर्वेश्वर का फ़ादर बुल्के से अंतरंग संबंध था जिसकी झलक हमें इस संस्मरण में मिलती है। लेखक का मानना है कि जब तक रामकथा है, इस विदेशी भारतीय साधु को याद किया जाएगा तथा उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों के अगाध प्रेम का उदाहरण माना जाता है।

शब्दार्थ

  • आस्था-विश्वास
  • देहरी-दहलीज
  • आतुर-अधीर
  • निर्लिप्त- आसक्ति रहित
  • आवेश- जोश
  • लबालब- भरा हुआ
  • धर्माचार- धर्म का पालन या आचरण
  • रूपांतर- किसी वस्तु का बदला हुआ रूप
  • अकाट्य- जो कटे ना सके
  • विरल- कम मिलने वाली
  • ताबूत- शव या मुर्दा ले जाने वाला संदूक या बक्सा
  • करील- झाड़ी के रूप में उगने वाला एक कंटीला और बिना पत्ते का पौधा गैरिक वसन- साधनों द्वारा धारण किए जाने वाले गेरुए वस्त्र
  • श्रद्धानत- प्रेम और भक्ति युक्त पूज्य भाव

यह एक कहानी भी

पाठ 14: एक कहानी यह भी

मन्नू भंडारी -1931

लेखिका परिचय

मन्नू भंडारी का जन्म सन् 1931 में गाँव भानपुरा, जिला मन मंदसौर (मध्य प्रदेश) में हुआ परंतु उनकी इंटर तक की शिक्षा-दीक्षा हुई राजस्थान के अजमेर शहर में। बाद में उन्होंने हिंदी में एम.ए. किया। दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलिज में अध्यापन कार्य से अवकाश प्राप्ति के बाद आजकल दिल्ली में ही रहकर स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कथा साहित्य की प्रमुख हस्ताक्षर मन्नू भंडारी की प्रमुख रचनाएँ हैं- एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, यही सच है, त्रिशंकु (कहानी-संग्रह); आपका बंटी, महाभोज (उपन्यास)। इसके अलावा उन्होंने फ़िल्म एवं टेलीविज़न धारावाहिकों के लिए पटकथाएँ भी लिखी हैं। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए हिंदी अकादमी के शिखर सम्मान सहित उन्हें अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं जिनमें भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के पुरस्कार शामिल हैं।

पाठ प्रवेश

एक कहानी यह भी के संदर्भ में सबसे पहले तो हम यह जान लें कि मन्नू भंडारी ने पारिभाषिक अर्थ में कोई सिलसिलेवार आत्मकथा नहीं लिखी है। अपने आत्मकथ्य में उन्होंने उन व्यक्तियों और घटनाओं के बारे में लिखा है जो उनके लेखकीय जीवन से जुड़े हुए हैं। संकलित अंश में मन्नू जी के किशोर जीवन से जुड़ी घटनाओं के साथ उनके पिताजी और उनकी कॉलिज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का व्यक्तित्व विशेष तौर पर उभरकर आया है, जिन्होंने आगे चलकर उनके लेखकीय व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेखिका ने यहाँ बहुत ही खूबसूरती से साधारण लड़की के असाधारण बनने के प्रारंभिक पड़ावों को प्रकट किया है। सन् ’46-’47 की आजादी की आँधी ने मन्नू जी को भी अछूता नहीं छोड़ा। छोटे शहर की युवा होती लड़की ने आजादी की लड़ाई में जिस तरह भागीदारी की उसमें उसका उत्साह, ओज, संगठन-क्षमता और विरोध करने का तरीका देखते ही बनता है

शब्दार्थ

  • अहवादी-घमंडी
  • भग्नावशेष-खंडहर
  • विस्फारित-और अधिक फैलना
  • आक्रांत-कष्टग्रस्त
  • निषिद्ध-जिस पर रोक लगाई गई हो
  • वर्चस्वदबदबा

स्त्री शिक्षा विरोधी कुतर्काें का खंडन

पाठ -15 स्त्री- शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

लेखक- महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864-1938)

लेखक परिचय

महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1864 में ग्राम दौलतपुर, जिला रायबरेली (उ.प्र.) में हुआ। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण स्कूली शिक्षा पूरी कर उन्होंने रेलवे में नौकरी कर ली। बाद में उस नौकरी से इस्तीफा देकर सन् 1903 में प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती का संपादन शुरू किया और सन् 1920 तक उसके संपादन से जुड़े रहे। सन् 1938 में उनका देहांत हो गया।

महावीरप्रसाद द्विवेदी केवल एक व्यक्ति नहीं थे वे एक संस्था थे जिससे परिचित होना हिंदी साहित्य के गौरवशाली अध्याय से परिचित होना है। वे हिंदी के पहले व्यवस्थित संपादक, भाषावैज्ञानिक, इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, वैज्ञानिक चिंतन एवं लेखन के स्थापक, समालोचक और अनुवादक थे। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- रसज्ञ रंजन, महावीरप्रम साहित्य सीकर, साहित्य-संदर्भ, अद्भुत आलाप (निबंध संग्रह)। संपत्तिशास्त्र उनकी अर्थशास्त्र से संबंधित पुस्तक है। महिला मोद महिला उपयोगी पुस्तक है तो आध्यात्मिकी दर्शन की द्विवेदी काव्य माला में उनकी कविताएँ हैं। उनका संपूर्ण साहित्य महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली के पंद्रह खंडों में प्रकाशित है।

पाठ -प्रवेश

आज हमारे समाज में लड़कियाँ शिक्षा पाने एवं कार्यक्षेत्र में क्षमता दर्शाने में लड़कों से बिलकुल भी पीछे नहीं हैं किंतु यहाँ तक पहुँचने के लिए अनेक स्त्री-पुरुषों ने लंबा संघर्ष किया। नवजागरण काल के चिंतकों ने मात्र स्त्री-शिक्षा ही नहीं बल्कि समाज में जनतांत्रिक एवं वैज्ञानिक चेतना के संपूर्ण विकास के लिए अलख जगाया। द्विवेदी जी का यह लेख उन सभी पुरातनपंथी विचारों से लोहा लेता है जो स्त्री-शिक्षा को व्यर्थ अथवा समाज के विघटन का कारण मानते थे। इस लेख की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें परंपरा को ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारा गया है, बल्कि विवेक से फैसला लेकर ग्रहण करने योग्य को लेने की बात की गई है और परंपरा का जो हिस्सा सड़-गल चुका है, उसे रूढ़ि मानकर छोड़ देने की। यह विवेकपूर्ण दृष्टि संपूर्ण नवजागरण काल की विशेषता है। आज इस निबंध का अनेक दृष्टियों से ऐतिहासिक महत्त्व है।

यह लेख पहली बार सितंबर 1914 की सरस्वती में पढ़े लिखों का पांडित्य शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। बाद में द्विवेदी जी ने इसे महिला मोद पुस्तक में शामिल करते समय इसका शीर्षक स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन रख दिया था। इस निबंध की भाषा और वर्तनी को हमने संशोधित करने का प्रयास नहीं किया है।

शब्दार्थ

  • विद्यमान -उपस्थित
  • कुमार्गगामी-बुरी राह पर चलने वाले
  • दलीलें-तर्क
  • उपेक्षा-तिरस्कार
  • न्यायशीलता-न्याय के अनुसार आचरण करना
  • अल्पज्ञ-थोड़ा जानने वाला

नौबतखाने में इबादत

पाठ  16: नौबतखाने में इबादत

यतींद्रनाथ मिश्र- 1977

लेखक परिचय

यतींद मिश्र का जन्म सन् 1977 में अयोध्या (उत्तर प्रदेश) में हुआ। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से हिंदी में एम.ए. किया। वे आजकल स्वतंत्र लेखन के साथ अर्द्धवार्षिक सहित पत्रिका का संपादन कर रहे हैं। सन् 1999 में साहित्य और कलाओं के संवर्द्धन और अनुशीलन के लिए एक सांस्कृतिक न्यास ‘विमला देवी फाउंडेशन’ का संचालन भी कर रहे हैं।

यतींद्र मिश्र के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं- यदा-कदा, अयोध्या तथा अन्य कविताएँ, ड्योढ़ी पर आलाप। इसके अलावा शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी जीवन और संगीत साधना पर एक पुस्तक गिरिजा लिखी। रीतिकाल के अंतिम प्रतिनिधि कवि द्विजदेव की ग्रंथावली (2000) का सह-संपादन किया। कुँवर नारायण पर केंद्रित दो पुस्तकों के अलावा स्पिक मैके के लिए विरासत-2001 के कार्यक्रम के लिए रूपंकर कलाओं पर केंद्रित थाती का संपादन भी किया। युवा रचनाकार यतींद्र मिश्र को भारत भूषण अग्रवाल कविता सम्मान, हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान आदि कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। कविता, संगीत व अन्य ललित कलाओं के साथ-साथ समाज और संस्कृति के विविध क्षेत्रों में भी उनकी गहरी रुचि है।

पाठ प्रवेश

 नौबतखाने में इबादत प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पर रोचक शैली में लिखा गया व्यक्ति-चित्र है। यतींद्र मिश्र ने बिस्मिल्ला खाँ का परिचय तो दिया ही है, साथ ही उनकी रुचियों, उनके अंतर्मन की बुनावट, संगीत की साधना और लगन को संवेदनशील भाषा में व्यक्त किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया गया है कि संगीत एक आराधना है। इसका विधि-विधान है। इसका शास्त्र है, इस शास्त्र से परिचय आवश्यक है, सिर्फ़ परिचय ही नहीं उसका अभ्यास ज़रूरी है और अभ्यास के लिए गुरु-शिष्य परंपरा ज़रूरी है, पूर्ण तन्मयता ज़रूरी है, धैर्य जरूरी है, मंथन जरूरी है। वह लगन और धैर्य बिस्मिल्ला खाँ में है। तभी 80 वर्ष की उम्र में भी उनकी साधना चलती रही है। यतींद्र मिश्र संगीत की शास्त्रीय परंपरा के गहरे जानकार हैं, इस पाठ में इसकी कई अनुगूंजें हैं जो पाठ को बार-बार पढ़ने के लिए आमंत्रित करती हैं। भाषा सहज, प्रवाहमयी तथा प्रसंगों और संदर्भों से भरी हुई है।

शब्दार्थ

  • ड्योढ़ी-दहलीज
  • नौबतखाना- प्रवेश द्वार के ऊपर मंगल-ध्वनि बजाने का स्थान
  • रियाज- अभ्यास
  • मार्फत-द्वारा
  • मुरछंग- एक प्रकार का लोक वाद्ययंत्र
  • नेमत-ईश्वर की देन
  • दाद -शाबाशी
  • गमक-सुगंध
  • अदब-कायदा
  • तालीम -शिक्षा
  • शिरकत-शामिल होना

संस्कृति

पाठ  18: संस्कृति

भदंत आनंद कौसल्यायन

लेखक परिचय

भदंत आनंद कौसल्यायन का जन्म सन् 1905 में पंजाब के अंबाला जिले के सोहाना गाँव में हुआ। उनके बचपन का नाम हरनाम दास था। उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलिज से बी.ए. किया। अनन्य हिंदी सेवी कौसल्यायन जी बौद्ध भिक्षु थे और उन्होंने देश-विदेश की काफ़ी यात्राएँ की तथा बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। वे गांधी जी के साथ लंबे अर्से तक वर्धा में रहे। सन् 1988 में उनका निधन हो गया।

भदंत आनंद कौसल्यायन की 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। जिनमें भिक्षु के पत्र, जो भूल ना सका, आह ! ऐसी दरिद्रता, बहानेबाजी, यदि बाबा ना होते, रेल का टिकट, कहाँ क्या देखा आदि प्रमुख हैं। बौद्धधर्म-दर्शन संबंधित उनके मौलिक और अनूदित अनेक ग्रंथ हैं जिनमें जातक कथाओं का अनुवाद विशेष उल्लेखनीय है।

पाठ-प्रवेश

संस्कृति निबंध हमें सभ्यता और संस्कृति से जुड़े अनेक जटिल प्रश्नों से टकराने की प्रेरणा देता है। इस निबंध में भदंत आनंद कौसल्यायन जी ने अनेक उदाहरण देकर यह बताने का प्रयास किया है कि सभ्यता और संस्कृति किसे कहते हैं, दोनों एक ही वस्तु हैं अथवा अलग-अलग। वे सभ्यता को संस्कृति का परिणाम मानते हुए कहते हैं कि मानव संस्कृति अविभाज्य वस्तु है। उन्हें संस्कृति का बँटवारा करने वाले लोगों पर आश्चर्य होता है और दुख भी। उनकी दृष्टि में जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी नहीं है, वह न सभ्यता है और न संस्कृति।

शब्दार्थ

  • आध्यात्मिक -परमात्मा या आत्मा से संबंध रखने वाला
  • साक्षात -आंखों के सामने,प्रत्यक्ष
  • आविष्कर्ता-आविष्कार करने वाला
  • परिष्कृत -किसका परिष्कार किया गया हो
  • शीतोष्ण -ठंडा और गर्म
  • वशीभूत -वश में होना
  • तृष्णा -प्यास,लोभ
  • अवश्यंभावी -जिसका होना निश्चित हो
  • अविभाज्य-जो बांटा ना जा सके

सूरदास के पद

पाठ 1: सूरदास के पद

सूरदास

कवि परिचय

इनका जन्म सन 1478 में माना जाता है। एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र में हुआ था जबकि दूसरी मान्यता के अनुसार इनका जन्म स्थान दिल्ली के पास ही माना जाता है। महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य सूरदास अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। सुर‘वात्सल्य’और ‘श्रृंगार’ के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। इनकी मृत्यु 1583 में पारसौली में हुई।

प्रमुख कार्य

ग्रन्थ – सूरसागर, साहित्य लहरी और सूर सारावली।

शब्दार्थ

  • बड़भागी-भाग्यवान
  • अपरस-अछूता
  • तगा-धागा
  • पुरइन पात- कमल का पत्ता
  • माहँ-में
  • पाऊँ-पैर
  • बोरयौ-डुबोया
  • परागी-मुग्ध होना
  • अधार-आधार
  • आवन–आगमन
  • बिरहिनि-वियोग में जीने वाली।
  • हुतीं-थीं
  • जीतहिं तैं -जहाँ से
  • उत–उधर
  • मरजादा-मर्यादा
  • न लही-नहीं रही
  • जक री-रटती रहती हैं
  • सु-वह
  • ब्याधि –रोग
  • करी–भोगा
  • तिनहिं–उनको
  • मन चकरी-जिनका मन स्थिर नहीं रहता।
  • मधुकर-भौंरा
  • हुते-थे
  • पठाए–भेजा
  • आगे के-पहले के
  • पर हित-दूसरों के कल्याण के लिए
  • डोलत धाए-घूमते-फिरते थे
  • पाइहैं–पा लेंगी

पद-1

उधौ,तुम हौ अति बड़भागी।

अपरस रहत सनेह तगा तैं,नाहिन मन अनुरागी |

पुरइनि पात रहत जल भीतर,ता रस देह न दागी।

ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि,बूँद न ताकौं लागी ।

प्रीति-नदी में पाँव न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।

‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।

भावार्थ

गोपियां उद्धव के द्वारा उप गए संदेश को सुनकर व्यंग्य करती है और कहती  हैं, हे उद्धव ! तुम बड़े भाग्यशाली हो, जो तुम श्री कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम से वंचित हो। तुम उस कमल के पत्ते के समान हो, जो जल में रहकर भी जल के एक बूंद से अछूता होता है। तुम उस तेल के गागर के समान हो, जिस पर पानी का एक बूंद भी नहीं चिपकता। तुम प्रेम के अथाह सागर के पास रहकर भी उसमें डुबकी नहीं लगा सके। हम गोपियां बहुत ही मूर्ख हैं, जो उनके प्रेम में इस प्रकार चिपक गईं, जैसे गुड में चीटियां चिपक जाती हैं।

पद-2

मन की मन ही माँझ रही।

कहिए जाइ कौन पै ऊधौ,नाहीं परत कही।

अवधि अधार आस आवन की,तन मन बिथा सही।

अब इन जोग सँदेसनि सुनि सुनि,बिरहिनि बिरह दही |

चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।

‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।

भावार्थ

गोपियां उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव अब हमारे मन की बात मन में ही रह गए हमें श्री कृष्ण से ही अपने मन की बात कहनी थी, परंतु वह तुम्हारे हाथों संदेश भिजवा कर हमें और भी दुखी कर दिए। उनसे मिलने की इंतजार में हम हर तरह की विरह वेदना को सह रहे थे परंतु उन्होंने हमारे दुख को और भी बढ़ा दिया।

हे उद्धव, अब हम धीरज क्यों धरे? कैसे धरे? हमारी आशा का एकमात्र तिनका भी डूब गया। प्रेम की मर्यादा है कि प्रेम के बदले प्रेम दिया जाए, परंतु कृष्ण ने हमारे साथ छल किया है। उन्होंने मर्यादा का का उल्लंघन किया है।

पद- 3

हमारैं हरि हारिल की लकरी।

मन क्रम बचन नंद नंदन उर,यह दृढ़ करि पकरी ।

जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि,कान्ह-कान्ह जकरी।।

सुनत जोग लागत है ऐसौ,ज्यौं करुई ककरी।

सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए,देखी सुनी न करी ।

यह तौ‘सूर’तिनहिं लै सौपौं,जिनके मन चकरी ।l

भावार्थ

गोपियां कहती हैं कि कृष्ण हमारे लिए हारिल की लकड़ी के समान है,जिस प्रकार से हारिल चिड़िया एक लकड़ी को अपने जीवन का आधार मानती है, उसी प्रकार कृष्ण हमारे जीवन का आधार है।हमने तो सिर्फ नंद बाबा के पुत्र श्री कृष्ण को ही अपना माना है। उद्धव के द्वारा दिए गए योग का संदेश गोपियों को कड़वी ककड़ी के समान लगता है। गोपियां कहती है कि हे उद्धव,आप ये योग का संदेश उन्हें जा कर दें, जिनका मन चंचल है। हमने तो अपने मन में श्रीकृष्ण को सदा के लिए बसा लिया है।

पद-4

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।

समुझी बात कहत मधुकर के,समाचार सब पाए।

इक अति चतुर हुते पहिलैं हीं,अब गुरु ग्रंथ पढाए।

बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी,जोग-सँदेस पठाए।

ऊधौ भले लोग आगे के,पर हित डोलत धाए।

अब अपने मन फेर पाइहैं,चलत जु हुते चुराए।

ते क्यौं अनीति करैं आपुन,जे और अनीति छुड़ाए।

राज धरम तौ यहै‘ सूर’,जो प्रजा न जाहिं सताए ।।

भावार्थ

गोपियां कहते हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है। वे पहले से ही बहुत चलाक थे ।अब वह बड़े- बड़े ग्रंथ पढ़कर और भी ज्ञानी हो गए हैं, तभी तो उन्होंने हमारे मन की बात जान कर भी उद्धव से योग का संदेश भिजवाया है। इसमें उद्धव कोई दोष नहीं है।गोपियां उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव! आप जाकर श्री कृष्ण से यह कहें कि मथुरा जाते वक्त वे हमारा मन भी अपने साथ ले गए थे, उसे वापस कर दें। वे अत्याचारियों को दंडित करने के लिए मथुरा गए हैं, परंतु वे खुद अत्याचार कर रहे हैं। यह राज धर्म नहीं है।

राम-लक्ष्मण परशुराम संवाद

पाठ 2: राम -लक्ष्मण -परशुराम संवाद

तुलसीदास

कवि परिचय

इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में सन 1532 में हुआ था। तुलसी का बचपन संघर्षपूर्ण था। जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही माता पिता से उनका बिछोह हो गया। कहा जाता है की गुरुकृपा से उन्हें रामभक्ति का मार्ग मिला। वे मानव मल्यों के उपासक कवि थे। रामभक्ति परम्परा में तुलसी अतुलनीय हैं।

प्रमुख कार्य रचनाएँ रामचरितमानस, कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्णगीतावली, विनयपत्रिका

शब्दार्थ

  • भंजनिहारा-भंग करने वाला
  • रिसाइ- क्रोध करना
  • रिपु – शत्रु
  • बिलगाउ-अलग होना
  • अवमाने-अपमान करना
  • लरिकाई- बचपन में
  • परसु – फरसा
  • कोही -क्रोधी
  • महिदेव–ब्राह्मण
  • बिलोक-देखकर
  • अर्भक-बच्चा
  • महाभट – महान योद्धा
  • मही- धरती
  • कुठारु-कुल्हाड़ा
  • कुम्हड़बतिया – बहुत कमजोर
  • तर्जनी- अंगूठे के पास की अंगुली
  • कुलिस- कठोर
  • सरोष –क्रोध सहित
  • कौसिक–विश्वामित्र
  • भानुबंस-सूर्यवंश
  • निरंकुश–जिस पर किसी का दबाब ना हो।
  • असंकू-शंका सहित
  • कालकवलु–मृत
  • अबुधु –नासमझ
  • हटकह -मना करने पर
  • अछोभा – शांत
  • बधजोगु- मारने योग्य
  • अकरुण – जिसमे करुणा ना हो
  • गाधिसूनु – गाधि के पुत्र यानी विश्वामित्र
  • अयमय -लोहे का बना हुआ
  • नेवारे -मना करना
  • ऊखमय- गन्ने से बना हुआ
  • कृसानु –अग्नि

पद-1

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥…………………………………………………………..

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धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥

भावार्थ

 इन पंक्तियों के माध्यम से श्री राम परशुराम से कहते हैं,हे नाथ! जिसने भी इस धनुष को तोड़ा है, वह आपका कोई दास ही होगा ।कहिए, क्या आज्ञा है? इस पर परशुराम क्रोधित हो उठे और उसने कहा कि सेवक वही होता है जो सेवक जैसा कार्य करता है , जिसने भी इस धनुष को तोड़ा है उसने मुझे युद्ध के लिए ललकारा है-

परशुराम को क्रोधित देखकर लक्ष्मण व्यंग पूर्वक कहते हैं कि हे नाथ!बचपन में तो हमने ऐसे कई धनुषों को तोड़ा है ।इस धनुष में ऐसा क्या है, जिससे आप इतने क्रोधित हो उठे?लक्ष्मण की बात सुनकर परशुराम और भी क्रोधित होते हैं और कहते हैं कि तुम्हारी मौत तुम्हें पुकार रही है,इसलिए तुम अहंकारवश ऐसी बातें बोल रहे हो । सारे धनुष एक समान नहीं होते। यह कोई साधारण धनुष नहीं है ।

परशुराम कहते हैं कि तुम मुझे एक साधारण मुनि समझ रहे हो और अब तक मैं तुम्हें एक बालक समझकर माफ़ कर रहा था।

पद-2

लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥…………………………………………………………………

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गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥

भावार्थ

परशुराम को क्रोधित देखकर लक्ष्मण हंसते हुए कहते हैं कि हमें तो सारे धनुष एक ही समान लगते हैं। इसके टूटने से ऐसी क्या आफत आ गई?

वैसे इस धनुष के टूटने में श्रीराम का कोई दोष नहीं है,उन्होंने तो मात्र इसे छुआ ही था। इस बीच श्री राम  लक्ष्मण को चुप रहने का इशारा करते हैं। परशुराम और भी क्रोधित होकर बोलते हैं कि तुम्हें मेरे व्यक्तित्व का पता नहीं है, मैं कोई साधारण मुनि नहीं हूं। वे अपने फरसे को दिखाते हुए कहते हैं, यह वही फरसा है, जिससे मैंने सहस्त्रों क्षत्रियों का संहार किया है, जिसकी गर्जना से गर्भ में पल रहे बच्चे का भी नाश हो जाता है। यह जग जाहिर है।

पद-3

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।…………………………………………………………………….

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सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा।।

परशुराम की डिंगे सुनकर लक्ष्मण हंसते हुए कहते हैं - आप तो अपने आप को एक वीर योद्धा समझते हैं और अपने फूंक से पहाड़ को उड़ाना चाहते हैं। हम यहां कोई कुम्हड़ा का बतिया नहीं हैं, जो आपकी उंगली दिखाने से मुरझा जायेंगे।

आपके हाथ में कुल्हाड़ा और कंधे पर तीर -धनुष देखकर हम आपको एक वीर योद्धा समझ बैठे थे और अभिमानवश कुछ बोल दिये। आपको भृगु मुनि का पुत्र जानकर हम अपने क्रोध की अग्नि को जलने नहीं दिए। वैसे भी हमारे कुल की मर्यादा है  कि हम ब्राम्हण, देवता, भक्त और गाय पर अपनी वीरता नहीं आजमाते । आप ब्राह्मण हैं, इसलिए आप का वध करके मैं पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता। आप मेरा वध कर भी दें, फिर भी मुझे आपके सामने झुकना ही पड़ेगा।आगे लक्ष्मण कहते हैं कि आपके वचन ही किसी व्रज की भाँति कठोर हैं, तो फिर आप को इस कुल्हाड़े और धनुष की क्या ज़रूरत है?

पद-4

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥…………………………………………………………….

………………………………………………………………………………….

विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥

भावार्थ-  लक्ष्मण की बात सुनकर परशुराम बहुत ही क्रोधित होकर विश्वामित्र से बोले हे विश्वामित्र! यह बालक क्षण भर में काल के मुंह में समा जाएगा। यह बालक बहुत ही कुबुद्धि, उदंड, कुटिल, मूर्ख और निडर है। अगर इसे बचाना चाहते हो, तो इसे मेरे प्रताप के बारे में बता कर बचा लो। यह बालक सूर्यवंशी रूपी चंद्रमा में कलंक की तरह है।

इस बात पर लक्ष्मण ने कहा, हे मुनि! आपके पराक्रम को आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आप अपने ही मुंह से अपने पराक्रम को कितने प्रकार से वर्णन कर चुके हैं।आप वीरता का व्रत धारण करने वाले धैर्यवान हैं। इसीलिए गाली देते हुए आप शोभायमान नहीं दिखते हैं।

जो शूरवीर होते हैं, वे व्यर्थ में अपनी झूठी प्रशंसा नहीं करते, बल्कि युद्ध भूमि में अपनी वीरता सिद्ध करते हैं।

पद-5

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागी बोलावा।।

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अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहूँ न बूझ अबूझ॥

भावार्थ

आप तो ऐसे बार-बार मेरे लिए यमराज को बुला रहे हैं लक्ष्मण के इस कटु वचन को सुनकर परशुराम अपना फरसा निकालते हुए कहते हैं कि यह बालक मरने योग्य ही है, इसलिए हे मुनिवर! (विश्वामित्र) मुझे दोष नहीं देना।

परशुराम को क्रोधित देखकर विश्वामित्र कहते हैं कि साधु के लिए बच्चों की बातों पर क्रोध करना शोभा नहीं देता। वे क्षमा के पात्र होते हैं। परशुराम कहते हैं कि मैं दयाहीन साधु हूं। मैं सिर्फ आपके प्रेम और सद्भाव के कारण इस बालक को जीवित छोड़ रहा हूं वरना मैं इसका वध अपने फरसे से कब का कर चुका होता।

परशुराम की बात सुनकर विश्वामित्र मन ही मन मुस्कुराते हैं और कहते हैं कि परशुराम इन दोनों को कोई साधारण क्षत्रिय समझ रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि ये बालक शूरवीर और पराक्रमी क्षत्रिय हैं।

पद-6

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥……………………………………………………………………….

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बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥

भावार्थ

लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं,हे मुनिवर !आपके शील स्वभाव को सारा संसार जानता है। लगता है कि गुरु -दक्षिणा अभी आपका बाकी है। आप अपने माता पिता के कर्ज को कब का उतार चुके हैं। आप गुरु- दक्षिणा से वंचित होने के लिए बार-बार मुझे अपने फरसे को दिखा कर भयभीत कर रहे हैं। शायद आपको युद्ध में किसी पराक्रमी से सामना नहीं हुआ है।

लक्ष्मण के कटु वाणी को सुनकर परशुराम अति क्रोधित हो जाते हैं और अपने फरसे को निकालकर आक्रमण करने की मुद्रा में आ जाते हैं। यह बात सुनकर दरबार में उपस्थित लोग अनुचित-अनुचित कह कर पुकारने लगते हैं और श्री राम अपनी आँखों के इशारे से लक्ष्मण जी को चुप होने का इशारा करते हैं।

इस प्रकार लक्षमण द्वारा कहा गया प्रत्येक वचन आग में घी की आहुति के सामान था और परशुराम जी को अत्यंत क्रोधित होते देखकर श्री राम ने अपने शीतल वचनों से उनकी क्रोधाग्नि को शांत किया।

सवैया, कवित्त

पाठ 3: कवित्त एवं सवैये

देव (1663-1767)

कवि परिचय

देव का जन्म इटावा (उ.प्र.) में सन् 1673 में हुआ था। “ उनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। देव के अनेक आश्रयदाताओं में औरंगजेब के पुत्र आजमशाह भी थे परंतु देव को सबसे अधिक संतोष और सम्मान उनकी कविता के गुणग्राही आश्रयदाता भोगीलाल से प्राप्त हुआ। उन्होंने उनकी कविता पर रीझकर लाखों की संपत्ति दान की। उनके काव्य ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। उनमें से रसविलास, भावविलास, काव्यरसायन, भवानीविलास आदि देव के प्रमुख ग्रंथ माने ( जाते हैं। उनकी मृत्यु सन् 1767 में हुई।

देव रीतिकाल के प्रमुख कवि हैं। रीतिकालीन कविता का संबंध दरबारों, आश्रयदाताओं से था इस कारण उसमें दरबारी संस्कृति का चित्रण अधिक हुआ है। देव भी इससे अछूते नहीं थे किंतु वे इस प्रभाव से जब-जब भी मुक्त हुए, उन्होंने प्रेम और सौंदर्य के सहज चित्र खींचे। आलंकारिकता और शृंगारिकता उनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं। शब्दों की आवृत्ति के जरिए नया सौंदर्य पैदा करके उन्होंने सुंदर ध्वनि चित्र प्रस्तुत किए हैं।

पाठ –प्रवेश

यहाँ संकलित कवित्त-सवैयों में एक ओर जहाँ रूप-सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण देखने को मिलता है, वहीं दूसरी ओर प्रेम और प्रकृति के प्रति कवि के भावों की अंतरंग अभिव्यक्ति भी। पहले सवैये में कृष्ण के राजसी रूप सौंदर्य का वर्णन है जिसमें उस युग का सामंती वैभव झलकता है। दूसरे कवित्त में बसंत को बालक रूप में दिखाकर प्रकृति के साथ एक रागात्मक संबंध की अभिव्यक्ति हुई है। तीसरे कवित्त में पूर्णिमा की रात में चाँद-तारों से भरे आकाश की आभा का वर्णन है। चाँदनी रात की कांति को दर्शाने के लिए देव दूध में फेन जैसे पारदर्शी बिंब काम में लेते हैं, जो उनकी काव्य-कुशलता का परिचायक है।

कठिन शब्दों के अर्थ

  • पाँयनी – पैरों में
  • नूपुर – पायल
  • मंजु- सुंदर
  • कटि- कमर
  • किंकिनि- करधनी, पैरों में पहनने वाला आभूषण
  • धुनि -ध्वनि
  • मधुराई- सुन्दरता
  • साँवरे – सॉवले
  • अंग- शरीर
  • लसै- सुभोषित
  • पट -वस्त्र
  • पीत – पीला
  • हिये -हृदय पर
  • हुलसै- प्रसन्नता से विभोर
  • किरीट – मुकुट
  • मुखचंद – मुख रूपी चन्द्रमा
  • जुन्हाई – चाँदनी
  • द्रुम -पेड़
  • सुमन झिंगुला- फूलों का झबला।
  • केकी- मोर
  • कीर -तोता
  • हलवे-हुलसावे बातों की मिठास
  • उतारो करे राई नोन- जिस बच्ची को नजर लगी हो . उसके सिर के चारों ओर राय नमक- घुमाकर आग में जलाने का टोटका |
  • कंजकली -कमल की कली
  • चटकारी – चुटककल
  • फटिक (स्फटिक) – प्राकृतिक क्रिस्टल सिलानी शीला पर
  • उदधि – समुद्र
  • उमगे – उमड़ना
  • अमंद – जो कम ना हो
  • भीति- दीवार
  • मल्लिका- बेल की जाती का एक सफेद फूल
  • मकरंद – फूलों का रस
  • आरसी- आइना

सवैया

पाँयनि नूपुर मंजु बजैं,कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई।

साँवरे अंग लसै पट पीत,हियै हुलसै बनमाल सुहाई।

माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हंसी मुखचंद जुन्हाई।

जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रजदूलह ‘देव’ सहाई।।

व्याख्या - प्रस्तुत सवैया में कवि देव ने श्रीकृष्ण के राजसी रूप का चित्रण किया है। कृष्ण के पैरों की पायल मधुर ध्वनि पैदा कर रही है। उनकी कमर में बंधी करधनी किनकिना रही है। श्रीकृष्ण के साँवले शरीर पर पीले वस्त्र सुसोभित हो रहे हैं। उनके ह्रदय पर वनमाला सुशोभित हो रही है।उनके सिर पर मुकुट है तथा उनकी बड़ी- बड़ी आंखें चंचलता से पूर्ण है। उनका मुख चंद्रमा के समान पूर्ण है। कवि कहते हैं कि कृष्ण संसार रूपी मंदिर में सुन्दर दीपक के समान प्रकाशमान है । अतः में कृष्ण समस्त संसार को प्रकाशित कर रहे हैं।

कवित्त  

डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के, सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी है। पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैं ‘देव’, कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै।। पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन, कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै। मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि, प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दे ॥

व्याख्या - प्रस्तुत कवित्त में कवि देव ने वसंत ऋतू का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है।उन्होंने वसंत की कल्पना कामदेव के नवशिशु के रूप में की है। पेड़ की डाली बालक का झुला है। वृक्षों के नए पत्ते पलने पर पलने वाले बच्चे के लिए बिछा हुआ है। हवा स्वयं आकर बच्चे को झुला रही है। मोर और तोता मधुर स्वर मे गाकर बालक का मन बहला रहे हैं। कोयल बालक को हिलाती और तालियाँ बजाती है। कवि कहते हैं कि कमल के फूलों की कलियाँ मानो अपने सिर पर पराग रूपी पल्ला की हुई है, ताकि बच्चे पर किसी की नज़र न लगे। इस वातावरण में कामदेव का बालक वसंत इस प्रकार बना हुआ है कि मानो वह प्रातःकाल गुलाब रूपी चुटकी बजा बजाकर जगा रही है।

कवित्त

फटिक सिलानि सौं सुधारयौ सुधा मंदिर, उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।

बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए ‘देव’, दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद।  तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति,

मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद ।

आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगे,

प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद ॥

व्याख्या प्रस्तुत कवित्त में कवि देव ने शरदकालीन पूर्णिमा की रात का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है । चांदनी रात का चंद्रमा बहुत ही उज्ज्वल आका और शोभामान हो रहा है। आकाश स्फटिक पत्थर से बने मंदिर के समान लग रहा है, उसकी सुन्दरता सफ़ेद दही के समान उमड़ रही है। मंदिर के आँगन में दूध के झाग के समान, चंद्रमा की किरणों के समान विशाल फर्श बना हुआ है। आकाश में फैले मंदिर शीशे के समान पारदर्शी लग रहा है ।चंद्रमा अपनी चांदनी बिखेरता , कृष्ण की प्रेमिका राधा के प्रतिबिम्ब के समान प्यारा लग रहा है ।

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