पाठ 4: रस

रस की परिभाषा- कविता, कहानी, उपन्यास आदि को पढ़ने या सुनने से एवं नाटक को देखने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे ‘रस’ कहते हैं। रस काव्य की आत्मा है। रसों के आधार भाव हैं। भाव मन के विकारों को कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं— स्थायी भाव और संचारी भाव। यही काव्य के अंग कहलाते हैं।

भरतमुनि के अनुसार, “विभावानुभाव व्यभिचारि संयोगाद्रस निष्पत्तिः” अतः जब स्थायी भाव का संयोग विभाव, अनुभव और व्यभिचारी (संचारी) भाव से होता है, तब रस की निष्पत्ति होती है।

इसके चार अंग होते हैं-

1 स्थायी भाव

2. विभाव

3. अनुभव

4. संचारी भाव (व्यभिचारी भाव)

स्थायी भाव -रस रूप में पुष्ट या परिणत होनेवाला तथा सम्पूर्ण प्रसंग में व्याप्त रहनेवाला भाव स्थायी भाव कहलाता है।

स्थायी भाव नौ माने गये हैं—रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय और निर्वेद। वात्सल्य नाम का दसवाँ स्थायी भाव भी स्वीकार किया जाता है।

विभाव- जो व्यक्ति, वस्तु, परिस्थितियाँ आदि स्थायी भावों को जागरित या उद्दीप्त करती हैं, उन्हें विभाव कहते हैं।

विभाव दो प्रकार के होते हैं।

आलम्बन विभाव

उद्दीपन विभाव

आलम्बन विभाव- स्थायी भाव जिन व्यक्तियों, वस्तुओं आदि का अवलम्ब लेकर अपने को प्रकट करते हैं, उन्हें आलम्बन विभाव कहते हैं।

आलम्बन विभाव के दो भेद हैं-

आश्रय

विषय

आश्रय जिस व्यक्ति के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं, उसे आश्रय कहते हैं।

विषय जिस व्यक्ति या वस्तु के कारण आश्रय के चित्त में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं।

उद्दीपन विभाव

भाव को उद्दीप्त अथवा तीव्र करने वाली वस्तुएँ, चेष्टाएँ आदि को उद्दीपन विभाव कहते हैं।

उदाहरणार्थ – सुन्दर, पुष्पित और एकान्त उद्यान में शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के हृदय में रति भाव जागृत होता है। यहाँ शकुन्तला आलम्बन विभाव है और पुष्पित तथा एकान्त उद्यान उद्दीपन विभाव। दुष्यन्त आश्रय है। प्राय: नायक एवं नायिका आलम्बन विभाव होते हैं। शृंगार के उद्दीपन विभाव प्राय: बसन्त काल, उद्यान, शीतल मन्द-सुगन्धित पवन, भ्रमर-गुंजन इत्यादि होते हैं।

अनुभाव- आश्रय की बाह्य शारीरिक चेष्टाओं को अनुभव कहते हैं। अनुभव चार प्रकार के होते हैं- कायिक, मानसिक, आहार्य, सात्विक।

संचारी भाव -आश्रय के चित्त में उत्पन्न होनेवाले अस्थिर मनोविकारों को संचारी भाव कहते हैं। उदाहरणार्थ, शृंगार रस के प्रकरण में शकुन्तला से प्रीतिबद्ध दुष्यन्त के चित्त में उल्लास, चपलता, व्याकुलता आदि भाव संचारी भाव हैं। इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहते हैं.

संचारी भाव की संख्या 33 होती है।

रस के भेद- रस दस प्रकार के होते हैं। रस एवं उनके स्थायी भाव निम्नलिखित हैं-

  • श्रृंगार रस- रति
  • हास्य रस- हास
  • करुण रस- शोक
  • रौद्र रस- क्रोध
  • वीर रस- उत्साह
  • भयानक रस- भय
  • वीभत्स रस- जुगुप्सा (घृणा)
  • अद्भुत रस- विस्मय
  • शांत रस- पश्चताप/शम (निर्वेद)
  • वात्सल्य रस- वत्सल