पाठ  18: संस्कृति

भदंत आनंद कौसल्यायन

लेखक परिचय

भदंत आनंद कौसल्यायन का जन्म सन् 1905 में पंजाब के अंबाला जिले के सोहाना गाँव में हुआ। उनके बचपन का नाम हरनाम दास था। उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलिज से बी.ए. किया। अनन्य हिंदी सेवी कौसल्यायन जी बौद्ध भिक्षु थे और उन्होंने देश-विदेश की काफ़ी यात्राएँ की तथा बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। वे गांधी जी के साथ लंबे अर्से तक वर्धा में रहे। सन् 1988 में उनका निधन हो गया।

भदंत आनंद कौसल्यायन की 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। जिनमें भिक्षु के पत्र, जो भूल ना सका, आह ! ऐसी दरिद्रता, बहानेबाजी, यदि बाबा ना होते, रेल का टिकट, कहाँ क्या देखा आदि प्रमुख हैं। बौद्धधर्म-दर्शन संबंधित उनके मौलिक और अनूदित अनेक ग्रंथ हैं जिनमें जातक कथाओं का अनुवाद विशेष उल्लेखनीय है।

पाठ-प्रवेश

संस्कृति निबंध हमें सभ्यता और संस्कृति से जुड़े अनेक जटिल प्रश्नों से टकराने की प्रेरणा देता है। इस निबंध में भदंत आनंद कौसल्यायन जी ने अनेक उदाहरण देकर यह बताने का प्रयास किया है कि सभ्यता और संस्कृति किसे कहते हैं, दोनों एक ही वस्तु हैं अथवा अलग-अलग। वे सभ्यता को संस्कृति का परिणाम मानते हुए कहते हैं कि मानव संस्कृति अविभाज्य वस्तु है। उन्हें संस्कृति का बँटवारा करने वाले लोगों पर आश्चर्य होता है और दुख भी। उनकी दृष्टि में जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी नहीं है, वह न सभ्यता है और न संस्कृति।

शब्दार्थ

  • आध्यात्मिक -परमात्मा या आत्मा से संबंध रखने वाला
  • साक्षात -आंखों के सामने,प्रत्यक्ष
  • आविष्कर्ता-आविष्कार करने वाला
  • परिष्कृत -किसका परिष्कार किया गया हो
  • शीतोष्ण -ठंडा और गर्म
  • वशीभूत -वश में होना
  • तृष्णा -प्यास,लोभ
  • अवश्यंभावी -जिसका होना निश्चित हो
  • अविभाज्य-जो बांटा ना जा सके