पाठ 3: कवित्त एवं सवैये

देव (1663-1767)

कवि परिचय

देव का जन्म इटावा (उ.प्र.) में सन् 1673 में हुआ था। “ उनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। देव के अनेक आश्रयदाताओं में औरंगजेब के पुत्र आजमशाह भी थे परंतु देव को सबसे अधिक संतोष और सम्मान उनकी कविता के गुणग्राही आश्रयदाता भोगीलाल से प्राप्त हुआ। उन्होंने उनकी कविता पर रीझकर लाखों की संपत्ति दान की। उनके काव्य ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। उनमें से रसविलास, भावविलास, काव्यरसायन, भवानीविलास आदि देव के प्रमुख ग्रंथ माने ( जाते हैं। उनकी मृत्यु सन् 1767 में हुई।

देव रीतिकाल के प्रमुख कवि हैं। रीतिकालीन कविता का संबंध दरबारों, आश्रयदाताओं से था इस कारण उसमें दरबारी संस्कृति का चित्रण अधिक हुआ है। देव भी इससे अछूते नहीं थे किंतु वे इस प्रभाव से जब-जब भी मुक्त हुए, उन्होंने प्रेम और सौंदर्य के सहज चित्र खींचे। आलंकारिकता और शृंगारिकता उनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं। शब्दों की आवृत्ति के जरिए नया सौंदर्य पैदा करके उन्होंने सुंदर ध्वनि चित्र प्रस्तुत किए हैं।

पाठ –प्रवेश

यहाँ संकलित कवित्त-सवैयों में एक ओर जहाँ रूप-सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण देखने को मिलता है, वहीं दूसरी ओर प्रेम और प्रकृति के प्रति कवि के भावों की अंतरंग अभिव्यक्ति भी। पहले सवैये में कृष्ण के राजसी रूप सौंदर्य का वर्णन है जिसमें उस युग का सामंती वैभव झलकता है। दूसरे कवित्त में बसंत को बालक रूप में दिखाकर प्रकृति के साथ एक रागात्मक संबंध की अभिव्यक्ति हुई है। तीसरे कवित्त में पूर्णिमा की रात में चाँद-तारों से भरे आकाश की आभा का वर्णन है। चाँदनी रात की कांति को दर्शाने के लिए देव दूध में फेन जैसे पारदर्शी बिंब काम में लेते हैं, जो उनकी काव्य-कुशलता का परिचायक है।

कठिन शब्दों के अर्थ

  • पाँयनी – पैरों में
  • नूपुर – पायल
  • मंजु- सुंदर
  • कटि- कमर
  • किंकिनि- करधनी, पैरों में पहनने वाला आभूषण
  • धुनि -ध्वनि
  • मधुराई- सुन्दरता
  • साँवरे – सॉवले
  • अंग- शरीर
  • लसै- सुभोषित
  • पट -वस्त्र
  • पीत – पीला
  • हिये -हृदय पर
  • हुलसै- प्रसन्नता से विभोर
  • किरीट – मुकुट
  • मुखचंद – मुख रूपी चन्द्रमा
  • जुन्हाई – चाँदनी
  • द्रुम -पेड़
  • सुमन झिंगुला- फूलों का झबला।
  • केकी- मोर
  • कीर -तोता
  • हलवे-हुलसावे बातों की मिठास
  • उतारो करे राई नोन- जिस बच्ची को नजर लगी हो . उसके सिर के चारों ओर राय नमक- घुमाकर आग में जलाने का टोटका |
  • कंजकली -कमल की कली
  • चटकारी – चुटककल
  • फटिक (स्फटिक) – प्राकृतिक क्रिस्टल सिलानी शीला पर
  • उदधि – समुद्र
  • उमगे – उमड़ना
  • अमंद – जो कम ना हो
  • भीति- दीवार
  • मल्लिका- बेल की जाती का एक सफेद फूल
  • मकरंद – फूलों का रस
  • आरसी- आइना

सवैया

पाँयनि नूपुर मंजु बजैं,कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई।

साँवरे अंग लसै पट पीत,हियै हुलसै बनमाल सुहाई।

माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हंसी मुखचंद जुन्हाई।

जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रजदूलह ‘देव’ सहाई।।

व्याख्या - प्रस्तुत सवैया में कवि देव ने श्रीकृष्ण के राजसी रूप का चित्रण किया है। कृष्ण के पैरों की पायल मधुर ध्वनि पैदा कर रही है। उनकी कमर में बंधी करधनी किनकिना रही है। श्रीकृष्ण के साँवले शरीर पर पीले वस्त्र सुसोभित हो रहे हैं। उनके ह्रदय पर वनमाला सुशोभित हो रही है।उनके सिर पर मुकुट है तथा उनकी बड़ी- बड़ी आंखें चंचलता से पूर्ण है। उनका मुख चंद्रमा के समान पूर्ण है। कवि कहते हैं कि कृष्ण संसार रूपी मंदिर में सुन्दर दीपक के समान प्रकाशमान है । अतः में कृष्ण समस्त संसार को प्रकाशित कर रहे हैं।

कवित्त  

डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के, सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी है। पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैं ‘देव’, कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै।। पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन, कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै। मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि, प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दे ॥

व्याख्या - प्रस्तुत कवित्त में कवि देव ने वसंत ऋतू का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है।उन्होंने वसंत की कल्पना कामदेव के नवशिशु के रूप में की है। पेड़ की डाली बालक का झुला है। वृक्षों के नए पत्ते पलने पर पलने वाले बच्चे के लिए बिछा हुआ है। हवा स्वयं आकर बच्चे को झुला रही है। मोर और तोता मधुर स्वर मे गाकर बालक का मन बहला रहे हैं। कोयल बालक को हिलाती और तालियाँ बजाती है। कवि कहते हैं कि कमल के फूलों की कलियाँ मानो अपने सिर पर पराग रूपी पल्ला की हुई है, ताकि बच्चे पर किसी की नज़र न लगे। इस वातावरण में कामदेव का बालक वसंत इस प्रकार बना हुआ है कि मानो वह प्रातःकाल गुलाब रूपी चुटकी बजा बजाकर जगा रही है।

कवित्त

फटिक सिलानि सौं सुधारयौ सुधा मंदिर, उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।

बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए ‘देव’, दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद।  तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति,

मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद ।

आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगे,

प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद ॥

व्याख्या प्रस्तुत कवित्त में कवि देव ने शरदकालीन पूर्णिमा की रात का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है । चांदनी रात का चंद्रमा बहुत ही उज्ज्वल आका और शोभामान हो रहा है। आकाश स्फटिक पत्थर से बने मंदिर के समान लग रहा है, उसकी सुन्दरता सफ़ेद दही के समान उमड़ रही है। मंदिर के आँगन में दूध के झाग के समान, चंद्रमा की किरणों के समान विशाल फर्श बना हुआ है। आकाश में फैले मंदिर शीशे के समान पारदर्शी लग रहा है ।चंद्रमा अपनी चांदनी बिखेरता , कृष्ण की प्रेमिका राधा के प्रतिबिम्ब के समान प्यारा लग रहा है ।