कबीर की साखी

पाठ-1 कबीर की साखी

पाठ प्रवेश

‘साखी’ शब्द ‘साक्षी’ शब्द का ही तद्भव रूप है। साक्षी शब्द साक्ष्य से बना है जिसका अर्थ होता है-प्रत्यक्ष ज्ञानेन। यह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु शिष्य को प्रदान करता है। संत संप्रदाय में अनुभव ज्ञान की ही महत्ता है, शास्त्रीय ज्ञान की नहीं। कबीर का अनुभव क्षेत्र विस्तृत था। कबीर जगह-जगह भ्रमण कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे।

अतः उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसी कारण उनकी भाषा को ‘पचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है। कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भी कहा जाता है।

‘साखी’ वस्तुत: दोहा छंद ही है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा। प्रस्तुत पाठ की साखियाँ प्रमाण हैं कि सत्य की साक्षी देता हुआ ही गुरु शिष्य को जीवन के तत्वज्ञान की शिक्षा देता है। यह शिक्षा जितनी प्रभावपूर्ण होती है उतनी ही याद रह जाने योग्य भी।

साखी

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोड़।

अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ।।

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि ।

ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहिं।।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि ।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ।।

सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै ।।

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।

राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ ।।

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।

बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ ।।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोई।

ऐकै अषिर पीव का, पढ़े सु पंडित होइ।

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।

पाठ का सार

कबीर द्वारा रचित ‘साखी’ रचना नीति पर आधारित है। प्रस्तुत सभी साखियाँ उपदेशात्मक है। कबीर का कहना है कि मनुष्य को हमेशा मीठी वाणी बोलनी चाहिए जिससे वह स्वयं और दूसरे, दोनों ही प्रसन्न हों। कबीर का मानना है कि ईश्वर है, जब मनुष्य ज्ञान रूपी दीपक अपने हृदय में जलाए तो अज्ञानता रूपी अंधकार को मिटाकर उस ईश्वर को प्राप्त कर सकता। यह भी कहा गया है कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अपने मन के अंधकार को भी समाप्त करना पड़ता है। इन साखियों में कबीर का दुख उभरकर आता है। संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खाते-पीते हैं और सोते हैं अर्थात सुख-सुविधाओं से भरा जीवन व्यतीत करते हैं। उन्हें ईश्वरीय ज्ञान से कुछ लेना-देना नहीं। दूसरी ओर वे भी हैं, जो  सदा जागृत रहते हैं। प्रभु के वियोग में तड़पते रहते हैं। निदंक को कबीर ने स्वभाव-सुधारक के रूप में प्रस्तुत किया है और कहा है यदि हम अपना स्वभाव सुधारना चाहते हैं, तो सदा निंदक को पास रखें ताकि वह हमारी त्रुटियाँ बताता रहे। उन्हें साखियों में यह भी बताया गया है कि बड़े-बड़े ग्रंथ पढ़ने से ईश्वर नहीं मिलता ।प्रेम से केवल उसका नाम लेने पर उसकी प्राप्ति होती है। अंत में कबीर यह कहकर सचेत करना चाहते हैं कि यदि सांसारिक विषय-वासनाओं को त्याग दें तो ईश्वर की प्राप्ति होती है।

मीरा के पद

पाठ-2 मीरा के पद

 हरि आप हरो जन री भीर।                           

 द्रौपदी री लाज राखी, आप बढ़ायो चीर।

 भगत कारण रूप नरहरि, धर्यो आप सरीर।

 बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी कुण्जर पीर,दासी मीरों लाल गिरघर, हरो म्हारी भीर।

 शब्दार्थ-

  • हरि-कृष्ण
  • हरो-दूर करो
  • भीर -पीड़ा
  • लाज राखी -इज्ज़त बचाई
  • बढ़ाया -बढ़ाए
  • चीर -वस्त्र
  • धारयो -धारण किया
  • गजराज -हाथी
  • राख्यो-रक्षा करो
  • काटी कुंजर पीर -हाथी से पीड़ा से मुक्त किया

पद का भावार्थ

प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई ने अपने पदों में अपने आराध्य देव श्रीकृष्ण के प्रति अपनी भक्ति, आस्था और श्रद्धा की है। वे उन्हें अपना संरक्षक मानती हैं। पहले   पद में वे अपने प्रभु श्रीकृष्ण से जन-जन की पीड़ा हरने की विनती करती भक्त प्रहलाद, गजराज तथा कुंजर का उदाहरण देकर कृष्ण को अपने प्रति कर्त्तव्य   का स्मरण कराती हैं की हे गिरिधर! आप मेरी भी पीड़ा हरण कीजिए। मुझे सांसारिक भव-बंधनों से मुक्त कीजिए। इस प्रकार मीरा अपने आराध्य की   क्षमताओं का गुणगान करते हुए उनका स्मरण करती है।

प्रसंग

प्रस्तुत पद हमारी हिन्दी पाठ्य-पुस्तक स्पर्श से लिया गया है।इस पाठ की कवियत्री मीराबाई हैं।इस पद में मीरा अपने आराध्य से अन्य जनों के साथ अपने   कष्ट को भी दूर करने की प्रार्थना करती हैं।

व्याख्या

पहले पद में मीराबाई श्री कृष्ण का भक्तों के प्रति प्रेम और अपना श्री कृष्ण के प्रति भक्ति भाव का वर्णन करती है। - पहले पद में मीरा श्री कृष्ण से कहती   हैं कि जिस प्रकार आपने द्रोपदी, प्रह्लाद और ऐरावत के दुखों को दूर किया था उसी तरह मेरे भी सारे दुखों का नाश कर दो।

मीरा के पद

स्याम म्हाने चाकर राखो जी,

गिरधारी लाला म्हाँने चाकर राखोजी।

चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ।

बिन्दरावन री कुंज गली में, गोविन्द लीला गास्यूँ।

चाकरी में दरसण पास्यूँ, सुमरण पास्यूँ खरची।

भाव भगती जागीरी पास्यूँ, तीनूं बाताँ सरसी।

मोर मुगट पीताम्बर सौहे, गल वैजन्ती माला।

बिन्दरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला।

ऊँचा ऊँचा महल बणावं बिच बिच राखूँ बारी।

साँवरिया रा दरसण पास्यूँ, पहर कुसुम्बी साड़ी।

आधी रात प्रभु दरसण, दीज्यो जमनाजी रे तीरा।

मीराँ रा प्रभु गिरधर नागर, हिवड़ो घणो अधीरां।।

 शब्दार्थ

  • मोर मुकुट- मोर पंख से बना हुआ मुकुट
  • पीताम्बर- पीला वस्त्र
  • सौहे- सुशोभित है
  • गल- गले में
  • वैजन्तीएक प्रकार का फूल
  • धेनु- गाय
  • बारी फुलवारी
  • सांवरिया- सांवला कृष्ण
  • पहरपहनकर
  • कुसुंबी- लाल रंग की
  • दिज्यो- देना
  • तीरा- किनारे
  • हिबडों- ह्रदय
  • घणो- बहुत
  • अधीरा- बेचैनी

पद का भावार्थ

दूसरे पद में मीरा अपने आराध्य का सामीप्य पाने के लिए उनकी चाकरी करने की इच्छा प्रकट करती हैं। वे श्रीकृष्ण काम करने को तत्पर हैं। प्रातः उठकर   उनके दर्शन करना चाहती हैं। वे वृंदावन की कुंज गलियों में कृष्ण-लीला का गुणगान वह चाहती हैं। उनके रूप-सौंदर्य का वर्णन करते हुए वे इष्टदेव से यमुना   के किनारे दर्शन देने का भी अनुरोध करती हैं। मीरा इन पदों में कभी अपने आराध्य से मनुहार करती हैं, तो कभी लाड़ लड़ाती हैं, मौका मिलने पर शिकायत   करने से भी इकती हैं। इस प्रकार मीरा का संपूर्ण व्यक्तित्व कृष्ण से जुड़ा हुआ है। इनकी भक्ति दैन्य और माधुर्य भाव की है। इन पदों का श्रीकृष्ण के प्रति   एकनिष्ठ प्रेम दृष्टिगोचर होता है।

प्रसंग

प्रस्तुत पद हमारी हिन्दी पाठ्य-पुस्तक स्पर्श से लिया गया है। इसकी कवियत्री मीराबाई हैं।इस पद में मीरा श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम का वर्णन कर रही हैं   और श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए कितनी व्याकुल हैं,ये दर्शा रही हैं।

व्याख्या

दूसरे पद में मीरा श्री कृष्ण के दर्शन का एक भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहती, वह श्री कृष्ण की दासी बनाने को तैयार है, बाग़- बगीचे लगाने को भी   तैयार है, गली गली में श्री कृष्ण की लीलाओं का बखान भी करना चाहती है, ऊँचे ऊँचे महल भी बनाना चाहती है, ताकि दर्शन का एक भी मौका न चुके ।इस   पद में श्री कृष्ण के मन मोहक रूप का वर्णन भी किया है और मीरा कृष्ण के दर्शन के लिए इतनी व्याकुल है की आधी रात को ही कृष्ण को दर्शन देने के लिए बुला रही है।

बिहारी के दोहे

पाठ-3 दोहे के बिहारी

कवि परिचय

बिहारी का जन्म 1595 में ग्वालियर में हुआ था। जब बिहारी सात-आठ साल के थे तभी इनके पिता ओरछा चले आए, जहाँ बिहारी ने आचार्य केशवदास से काव्य शिक्षा पाई। यहीं बिहारी रहीम के संपर्क में आए। बिहारी ने अपने जीवन के कुछ वर्ष जयपुर में भी बिताए। बिहारी रसिक जीव थे  ,पर इनकी रसिकता नागरिक जीवन की रसिकता थी। उनका स्वभाव विनोदी और व्यंग्यप्रिय था।

पाठ प्रवेश

मांजी, पौंछी, चमकाइ, युत प्रतिभा जतन अनेक।

दीरघ जीवन, विविध सुख, रची ‘सतसई’ एक।

बिहारी ने केवल एक ही ग्रंथ की रचना की-‘बिहारी सतसई’। इस ग्रंथ में लगभग सात सौ दोहे हैं।

दोहा जैसे छोटे से छंद में गहरी अर्थव्यंजना के कारण कहा जाता है कि बिहारी गागर में सागर भरने में निपुण थे। उनके दोहों के अर्थगांभीर्य को देखकर कहा जाता है

सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर।

बिहारी की ब्रजभाषा मानक ब्रजभाषा है। सतसई में मुख्यतः प्रेम और भक्ति के सारगर्भित दोहे हैं। इसमें अनेक दोहे नीति संबंधी हैं। यहाँ सतसई के कुछ दोहे दिए जा रहे हैं।

बिहारी मुख्य रूप से शृंगारपरक दोहों के लिए जाने जाते हैं, किंतु उन्होंने लोक-व्यवहार, नीति ज्ञान आदि विषयों पर भी लिखा है। संकलित दोहों में सभी प्रकार की छटाएँ हैं। इन दोहों से आपको ज्ञात होगा कि बिहारी कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक अर्थ भरने की कला में निपुण हैं।

दोहे

सोहत ओढ़ पीतु पटु स्याह सलोने गात।

मनौ नीलमनि-सैल पर आतपु पर्यो प्रभात। ।

कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।

जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ-दाघ ।।

बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।

सौंह करें भौंहनु हँसै, दैन कहँ नटि जाइ ||

कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।

भरे भौन मैं करत हैं नैननु हीं सब बात।।

बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन माँह।

देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह ।।

कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।

कहिहै सबुत तेरो हियौ,मेरे सिर की बात।।

प्रगट भये द्विराज -कुल सुबस बसे ब्रज आइ।

मेरे हरौ कलेस सब,केसव केसवराइ।।

जप माला छापै तिलक,सरै न एकौ काम।

मन -कांचे नाचे बृंथा ,सांचैर रांचे रामु।। पर

दोहे का प्रतिपाद्य:-

उत्तर-   बिहारी रीतिकाल के सुप्रसिद्ध कवि थे। अपने काव्य में इन्होंने शृंगार और भक्ति के दोहों को स्थान दिया। प्रस्तुत दोहों में कवि ने भगवान श्रीकृष्ण के साँवले-सलोने रूप का मनोहारी वर्णन किया है। गर्मी ने वन को ऐसा तपोवन बना दिया है कि हिरन, बाघ, साँप, मोर जो स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के शत्रु होते हैं, वे भी इकट्ठे बैठे हैं। गोपियाँ श्रीकृष्ण से बातें करने के लालच में उनकी बाँसुरी छिपा देती हैं। नायक व नायिका का सगे-संबंधियों से घिरे होने पर नेत्रों से वार्तालाप का बखूबी चित्रण किया गया है। जेठ मास की दुपहरी की भीषणता का वर्णन किया गया है। वियोगी नायिका की असमंजसपूर्ण स्थिति का भावपूर्ण वर्णन है। कवि चाहता है कि भगवान कृष्ण व उसके पिता दोनों उसके सभी कष्ट दूर करें। बाहरी ढोंग, आडंबर, दिखावे की अपेक्षा मन में बसे राम की भक्ति द्वारा कार्य  है। इस प्रकार हम कह सकते हैं बिहारी गागर में सागर भरने की कला में निपुण हैं।

मनुष्यता

पाठ-4 मनुष्यता

कविमैथिलीशरणगुप्त

पाठ- प्रवेश

प्रकृति के अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य में चेतना शक्ति की प्रबलता होती ही है। वह अपने ही नहीं औरों के हिताहित का भी खयाल रखने में, औरों के लिए भी कुछ कर सकने में समर्थ होता है। पशु चरागाह में जाते हैं, अपने-अपने हिस्से का चर आते हैं, पर मनुष्य ऐसा नहीं करता। वह जो कमाता है, जो भी कुछ उत्पादित करता है, वह औरों के लिए भी करता है, औरों के सहयोग से करता है।

प्रस्तुत पाठ का कवि अपनों के लिए जीने-मरने वालों को मनुष्य तो मानता है लेकिन यह मानने को तैयार नहीं है कि मनुष्यों में मनुष्यता के पूरे-पूरे लक्षण भी हैं। वह तो उन मनुष्यों को ही महान मानेगा जिनमें अपने और अपनों के हित चिंतन से कहीं पहले और सर्वोपरि दूसरों का हित चिंतन हो। उसमें वे गुण हों जिनके कारण कोई मनुष्य इस मृत्युलोक से गमन कर जाने के बावजूद युगों तक औरों की यादों में भी बना रह पाता है। उसकी मृत्यु भी सुमृत्यु हो जाती है। आखिर क्या हैं वे गुण ?

कविता

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,

मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।

हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,

मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।

वही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,

उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।

उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;

तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।

अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,

तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।

उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,

सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।

अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही; वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।

विरुद्धवाद बुद्ध का दया- प्रवाह में बहा,

विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?

अहा! वही उदार है परोपकार जो करे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,

सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।

अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,

दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं। अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े, समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।

परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी, अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

‘मनुष्य मात्र बंधु है’ यही बड़ा विवेक है,

पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।

फलानुसार कर्म के अवश्य परंतु बाह्य भेद हैं,

परन्तु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,

विपत्ति, विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।

घंटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,

अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

शब्दार्थ

  • मर्त्य मरणशील
  • पशु- प्रवृत्ति-पशु जैसा स्वभाव
  • दानशील- सहृदय
  • उदार- कृतार्थ
  • कीर्ति कूजती- मधुर ध्वनि करती
  • क्षुधार्थ- भूख से व्याकुल
  • रंतिदेव- एक परम दानी राजा
  • करस्थ- हाथ में पकड़ा हुआ / लिया हुआ
  • दधीचि- एक प्रसिद्ध ऋषि जिनकी हड्डियों से इंद्र का वज्र बना था
  • परार्थ- जो दूसरों के लिए हो
  • अस्थिजाल- हड्डियों का समूह
  • उशीनर क्षितीश- गंधार देश का राजा
  • स्वमांस- अपने शरीर का मांस
  • आभारी- धन्य
  • कर्ण- दान देने के लिए प्रसिद्ध कुंती
  • यश- महाविभूति/ बड़ी भारी पूँजी
  • वशीकृता- वश में की हुई
  • विरुद्धवाद बुद्ध का दया- प्रवाह में बहा--बुद्ध ने करुणावश उस समय की पारंपरिक मान्यताओं का विरोध किया था
  • मदांध- जो गर्व से अंधा हो
  • बुद्ध ने करुणावश उस समय की पारंपरिक मान्यताओं का विरोध किया था
  • वित्त- धन-संपत्ति
  • परस्परावलंब- एक-दूसरे का सहारा
  • अमर्त्य-अंक- अपंक देवता की गोद/ कलंक-रहित
  • स्वयंभू- परमात्मा/स्वयं उत्पन्न होने वाला
  • अंतरैक्यआत्मा की एकता/अंतःकरण की एकता
  • प्रमाणभूत- साक्षी
  • अभीष्ट इच्छित
  • अतर्क- तर्क से परे
  • सतर्क पंथ- सावधान यात्री

पाठ का सार

इस कविता में कवि मनुष्यता का सही अर्थ समझाने का प्रयास कर रहा है। पहले भाग में कवि कहता है कि मृत्यु से नहीं डरना चाहिए क्योंकि मृत्यु तो निश्चित है, पर हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि लोग हमें मृत्यु के बाद भी याद रखें । असली मनुष्य वही है, जो दूसरों के लिए जीना व मरना सीख ले। दूसरे भाग में कवि कहता है कि हमें उदार बनना चाहिए क्योंकि उदार मनुष्यों का हर जगह गुणगान होता है। मनुष्य वही कहलाता है, जो दूसरों की चिंता करे। तीसरे भाग में कवि कहता है कि पुराणों में उन लोगों के बहुत उदाहरण हैं जिन्हें उनकी त्याग भाव के लिए आज भी याद किया जाता है। सच्चा मनुष्य वही है जो त्याग भाव जान ले। चौथे भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के मन में दया और करुणा का भाव होना चाहिए, मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों के लिए मरता और जीता है। पांचवें भाग में कवि कहना चाहता है कि यहाँ कोई अनाथ नहीं है क्योंकि हम सब उस एक ईश्वर की संतान हैं। हमें भेदभाव से ऊपर उठ कर सोचना चाहिए। छठे भाग में कवि कहना चाहता है कि हमें दयालु बनना चाहिए क्योंकि दयालु और परोपकारी मनुष्यों का देवता भी स्वागत करते हैं। अतः हमें दूसरों का परोपकार व कल्याण करना चाहिए। सातवें भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के बाहरी कर्म अलग अलग हो परन्तु हमारे वेद साक्षी है कि सभी की आत्मा एक है, हम सब एक ही ईश्वर की संतान है ।अतः सभी मनुष्य भाई-बंधु हैं और मनुष्य वही है जो दुःख में दूसरे मनुष्यों के काम आये। अंतिम भाग में कवि कहना चाहता है कि विपत्ति और विघ्न को हटाते हुए मनुष्य को अपने चुने हुए रास्तों पर चलना चाहिए, आपसी समझ को बनाये रखना चाहिए और भिन्नता नहीं बढ़ाना चाहिए। ऐसी सोच वाला मनुष्य ही मनुष्य कहलाने योग्य होता है

पर्वत प्रदेश में पावस

पाठ- 5 पर्वत प्रदेश में पावस

कवि- सुमित्रानंदनपंत

पाठ प्रवेश

कौन होगा जिसका मन पहाड़ों पर जाने को न मचलता हो। जिन्हें तक जाने का अवसर नहीं मिलता वे भी अपने आसपास के पर्वत प्रदेश में जाने का अवसर शायद ही हाथ से जाने देते हों। ऐसे में कोई कवि और उसकी कविता अगर कक्षा में बैठे-बैठे ही वह अनुभूति दे जाए जैसे वह अभी-अभी पर्वतीय अंचल में विचरण करके लौटा हो, तो!

प्रस्तुत कविता ऐसे ही रोमांच और प्रकृति के सौंदर्य को अपनी आँखों निरखने की अनुभूति देती है। यही नहीं, सुमित्रानंदन पंत की अधिकांश कविताएँ पढ़ते हुए यही अनुभूति होती है कि मानो हमारे आसपास की सभी दीवारें कहीं विलीन हो गई हो। हम किसी ऐसे रम्य स्थल पर आ पहुँचे हैं जहाँ पहाड़ों की अपार श्रृंखला है, आसपास झरने बह रहे हैं और सब कुछ भूलकर हम उसी में लीन रहना चाहते हैं।

महाप्राण निराला ने भी कहा था : पंत जी में सबसे ज़बरदस्त कौशल जो है, यह है “शैली” (Shelley) की तरह अपने विषय को अनेक उपमाओं से सँवारकर मथुर से मधुर और कोमल से कोमल कर देना।

कविता

पर्वत  प्रदेश में पावस

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,

पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश।

मेखलाकार पर्वत अपार

अपने सहस्र दुग-सुमन फाड़.,

अवलोक रहा है बार-बार

जीनीचे जल में निज महाकार,

जिसके चरणों में पला ताल

दर्पण-सा फैला है विशाल!

गिरि का गौरव गाकर झर- झर मद में नस-नस उत्तेजित कर

मोती की लड़ियों- से सुंदर

झरते हैं झाग भरे निर्झर।

गिरिवर के उर से उठ उठ कर उच्चाकांक्षाओं से तरुवर

हैं झाँक रहे नीरव नभ पर अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।

उड़ गया, अचानक लो, भूधर फड़का अपार पारद* के पर!

रव-शेष रह गए हैं निर्झर !

है टूट पड़ा भू पर अंबर!

धँस गए धरा में सभय शाल!

उठ रहा धुआँ, जल गया ताल! -यों जलद-यान में विचर- विचर था इंद्र खेलता इंद्रजाल।

शब्दार्थ

  • पावस- वर्षा ऋतु
  • प्रकृति वेश- प्रकृति का रूप
  • मेखलाकार- करघनी के आकार की पहाड़ की ढाल
  • सहस्र- हज़ार
  • दृग-सुमन- पुष्प रूपी आंखें
  • अवलोक- देखना
  • महाकार- विशाल आकार
  • दर्पण- आईना
  • मद- मस्ती
  • झाग- फेन
  • उर- हृदय
  • उच्चाकांक्षा- ऊँचा उठने की कामना
  • तरुवर- पेड़
  • नीरव नभ- शांत आकाश
  • अनिमेष- लगातार

पाठ का सार

प्रस्तुत कविता में कवि ने वर्षा ऋतु में पर्वतीय प्रदेश पर होनेवाले प्रकृति में क्षण-क्षण परिवर्तन को बड़े ही सुंदर ढंग से व्यक्त 1 किया है। वर्षा ऋतु में कवि को यहाँ का दृश्य देखकर ऐसा लगता है कि मानो मेखलाकर पर्वत अपने ऊपर खिले सुमन रूपी नेत्रों से तालाब के पारदर्शी जल में अपना प्रतिबिंब देख रहा हो। साथ ही उसे पर्वतों के नीचे का तालाब दर्पण की भांति प्रतीत होता है। पहाड़ों के बीच में बहते झरने पहाड़ों का गौरवगान करते प्रतीत होते हैं। पहाड़ों की छाती पर उगे ऐसे लगते हैं मानो मन में आकांक्षाएँ लिए आकाश की ओर निहार रहे हों। कभी बादलों के छा जाने से ऐसा लगने वृक्ष लगता है कि पर्वत बादल रूपी पंख लगाकर आकाश में उड़ रहे हैं। ऐसे समय में झरने दिखाई नहीं पड़ते, केवल उनका स्वर सुनाई देता है। कभी ऐसा लगता है कि बादल धरती पर आक्रमण कर रहे हैं। तालाब से उठता कोहरा ऐसे लगता है कि जैसे तालाब में आग लग गई हो और धुआँ उठ रहा हो । ये सभी जादुई दृश्य देखकर ऐसा लगता है जैसे-इंद्र देवता जादू के खेल दिखा रहे हैं।

मधुर मधुर मेरे दीपक जल

पाठ-6  मधुर-मधुर मेरे दीपक जल

कवयित्री- महादेवी वर्मा

जीवन -परिचय

कवयित्री महादेवी वर्मा जी का जन्म सन् 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में हुई थी । उल्लेखनीय है कि कवयित्री महादेवी वर्मा जी मिडिल में पूरे प्रांत में अव्वल आईं और छात्रवृत्ति की हक़दार भी बनी थीं। यह सिलसिला कई कक्षाओं तक चलता रहा।

एक समय ऐसा भी आया कि इन्होंने बौद्ध भिक्षुणी बनने की चाहत रखी, परन्तु महात्मा गांधी के आह्वान पर सामाजिक कार्यों में जुट गईं। नारी शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ ही इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया कवयित्री महादेवी वर्मा जी ने छायावाद के अन्य चार रचनाकारों में से भिन्न अपना एक विशिष्ट स्थान कायम किया | इनका सभी काव्य वेदनामय था ।

11 सितम्बर 1987 को कवयित्री का देहावसान हो गया भारत सरकार ने 1956 में उन्हें पद्मभूषण अलंकरण से अलंकृत किया था तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित सभी महत्वपूर्ण पुरस्कार से कवयित्री नवाजी जा चुकी हैं।

इनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं-

  • गद्य रचनाएं – स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, मेरा परिवार, चिंतन के क्षण, अतीत के चलचित्र और श्रृंखला की कड़ियाँ ।
  • काव्य कृतियां - बारहमासा,सांध्यगीत,दीपशिखा, प्रथम आयाम, अग्नि रेखा, यामा, नीहार, रश्मि, नीरजा इत्यादि|

पाठ -प्रवेश

औरों से बतियाना, औरों को समझाना, औरों को राह सुझाना तो सब करते ही हैं, कोई सरलता से कर लेता है, कोई थोड़ी कठिनाई उठाकर, कोई थोड़ी झिझक-संकोच के बाद तो कोई किसी तीसरे की आड़ लेकर। लेकिन इससे कहीं ज़्यादा कठिन और ज़्यादा श्रमसाध्य होता है अपने आप को समझाना। अपने आप से बतियाना, अपने आप को सही राह पर बनाए रखने के लिए तैयार करना। अपने आप को आगाह करना, सचेत करना और सदा चैतन्य बनाए रखना।

प्रस्तुत पाठ में कवयित्री अपने आप से जो अपेक्षाएँ करती हैं, यदि वे पूरी हो जाएँ तो न सिर्फ़ उसका अपना, बल्कि हम सभी का कितना भला हो सकता है। चूँकि, अलग-अलग शरीरधारी होते हुए भी हम हैं तो प्रकृति की मनुष्य नामक एक ही निर्मिति।

कविता

मधुर मधुर मेरे दीपक जल!

मधुर मधुर मेरे दीपक जल!

युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,

 प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन,

मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन;

दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,

तेरे जीवन का अणु गल गल!

पुलक पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,

माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण

विश्व-शलभ सिर धुन कहता ‘मैं

हाय न जल पाया तुझ में मिल’!

सिहर सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक,

स्नेहहीन नित कितने दीपक;

जलमय सागर का उर जलता,

विद्युत ले घिरता है बादल!

विहँस विहँस मेरे दीपक जल!

शब्दार्थ-

  • सौरभ- सुगन्ध
  • विपुल- विस्तृत
  • मृदुल- कोमल
  • अपरिमित- असीमित
  • पुलक- रोमांच
  • ज्वाला- कण
  • शलभ- पतंगा
  • आग की लपट- आग का लघुतम अंश
  • सिर धुनना- पछताना
  • सिहरना- कांपना/थरथराना
  • स्नेहहीन- तेल/प्रेम से हीन
  • उर- हृदय
  • विद्युत- बिजली

कविता का सार

प्रस्तुत कविता में कवयित्री महादेवी वर्मा जी आस्था रूपी दीपक को जलाकर ईश्वर के मार्ग को रौशन करना चाहती हैं। वह अपने शरीर के कण-कण को जलाकर, अपने अंदर छाये अहंकार को समाप्त करना चाहती हैं। इसके बाद जो प्रकाश फैलेगा, उसमें कवयित्री अपने प्रियतम का मार्ग जरूर देख पायेंगी। वह संसार के दूसरे व्यक्तियों के लिए भी यही कामना करती हैं और उन्हें भक्ति का सही मार्ग दिखाने के लिए उनकी सहायता करना चाहती हैं। इसीलिए उन्होंने कविता में प्रकृति के कई सारे ख़ास उदाहरण भी दिए हैं। उनके अनुसार सच्ची भक्ति के मार्ग में चलने का केवल एक ही रास्ता है –आपसी ईर्ष्या एवं द्वेष का त्याग ।

तोप

पाठ –7 तोप

वीरेन डंगवाल (1947-2015)

कवि –परिचय

5 अगस्त 1947को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के कीर्तिनगर में जन्मे वीरेन डंगवाल ने आरंभिक शिक्षा नैनीताल में और उच्च शिक्षा इलाहाबाद में पाई।

 समाज के साधारण जन और हाशिए पर स्थित जीवन के विलक्षण ब्योरे और दृश्य वीरेन की कविताओं की विशिष्टता मानी जाती है। इन्होंने ऐसी बहुत-सी चीज़ों और जीव-जंतुओं को अपनी कविता का आधार बनाया है जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा किए रहते हैं।

वीरेन के अब तक दो कविता संग्रह इसी दुनिया में और दुष्चक्र में स्रष्टा प्रकाशित हो चुके हैं। पहले संग्रह पर प्रतिष्ठित श्रीकांत वर्मा पुरस्कार और दूसरे पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार के अलावा इन्हें अन्य कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। वीरेन डंगवाल ने कई महत्त्वपूर्ण कवियों की अन्य भाषाओं में लिखी गई कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया है। 28 सितंबर 2015 को इनका देहावसान हुआ।

 पाठ -प्रवेश

प्रतीक और धरोहर दो किस्म की हुआ करती हैं। एक वे जिन्हें देखकर या जिनके बारे में जानकर हमें अपने देश और समाज की प्राचीन उपलब्धियों का भान होता है और दूसरी वे जो हमें बताती हैं कि हमारे पूर्वजों से कब, क्या चूक हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप देश की कई पीढ़ियों को दारुण दुख और दमन झेलना पड़ा था।

प्रस्तुत पाठ में ऐसे ही दो प्रतीकों का चित्रण है। पाठ हमें याद दिलाता है कि कभी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने के इरादे से आई थी। भारत ने उसका स्वागत ही किया था, लेकिन करते-कराते वह हमारी शासक बन बैठी। उसने कुछ बाग बनवाए तो कुछ तोपें भी तैयार कीं। उन तोपों ने इस देश को फिर से आज़ाद कराने का सपना साकार करने निकले जाँबाज़ों को मौत के घाट उतारा। पर एक दिन ऐसा भी आया जब हमारे पूर्वजों ने उस सत्ता को उखाड़ फेंका। तोप को निस्तेज कर दिया। फिर भी हमें इन प्रतीकों के बहाने यह याद रखना होगा कि भविष्य में कोई और ऐसी कंपनी यहाँ पाँव न जमाने पाए जिसके इरादे नेक न हों और यहाँ फिर वही तांडव मचे जिसके घाव अभी तक हमारे दिलों में हरे हैं। भले ही अंत में उनकी तोप भी उसी काम क्यों न आए जिस काम में इस पाठ की तोप आ रही है....

कविता

कंपनी बाग के मुहाने पर

धर रखी गई है यह 1857 की तोप इसकी होती है बड़ी सम्हाल, विरासत में मिले कंपनी बाग की तरह

साल में चमकाई जाती है दो बार।

सुबह-शाम कंपनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी

उन्हें बताती है यह तोप

कि मैं बड़ी जबर

उड़ा दिए थे मैंने

अच्छे-अच्छे सूरमाओं के धज्जे

अपने ज़माने में

अब तो बहरहाल

छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फ़ारिग हो

तो उसके ऊपर बैठकर

चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप

कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं

खास कर गौरैयें

वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप

एक दिन तो होना ही है उसका मुँह बंद।

शब्दार्थ

  • मुहाने- प्रवेश द्वार
  • सम्हाल- देखभाल
  • धर रखी रखी गई
  • विरासत- पूर्व पीढ़ियों से प्राप्त वस्तुएँ
  • सैलानी- दर्शनीय स्थलों पर आने वाले यात्री
  • सूरमा(ओं)- वीर
  • धज्जे-चिथड़े- चि थड़े करना
  • फ़ारिग- मुक्त/खाली

कविता का सार

‘तोप’ कविता ‘वीरेन डंगवाल’ द्वारा रचित है। इस कविता में कवि ब्रिटिश शासन द्वारा बनाए गए कंपनी बाग के मुहाने पर रखी गई तोप के विषय में बता रहे हैं। यह तोप सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की है। उस समय यह तोप शक्तिशाली थी। इस तोप ने अनेक शूरवीरों को मौत की नींद सुला दिया, परंतु अब यह प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह गई है। 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन इस तोप को चमकाया जाता है। इसे देखने के लिए अनेक यात्री आते हैं। उन यात्रियों को तोप यह बताती है कि एक समय था, जब मैं अत्यंत सामथ्र्यवान थी, पर नियति के कारण आज मैं शांत खड़ी हूँ। मुझ पर छोटे बच्चे घुड़सवारी करते हैं। चिड़ियाँ मुझ पर बैठकर गपशप करती हैं। गौरैया मेरे अंदर तक घुस जाती हैं, क्योंकि आज मैं डर की वस्तु नहीं हूँ। इसी प्रकार अत्याचारी को भी एक दिन शांत होना पड़ता है। कभी न कभी उसके अत्याचार का अंत जरूर होता है। इस प्रकार तोप अत्याचारी व्यक्ति का प्रतीक बन गई है।

कर चले हम फिदा

पाठ-8 कर चले हम फ़िदा

कैफ़ी आज़मी(1919-2002)

कवि – परिचय

5अगस्त 1947 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के कीर्तिनगर में जन्मे वीरेन डंगवाल ने आरंभिक शिक्षा नैनीताल में और उच्च शिक्षा इलाहाबाद में पाई। पेशे से प्राध्यापक डंगवाल पत्रकारिता से भी जुड़े हुए हैं।

समाज के साधारण जन और हाशिए पर स्थित जीवन के विलक्षण ब्योरे और दृश्य वीरेन की कविताओं की विशिष्टता मानी जाती है। इन्होंने ऐसी बहुत-सी चीज़ों और जीव-जंतुओं को अपनी कविता का आधार बनाया है जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा किए रहते हैं।

वीरेन के अब तक दो कविता संग्रह इसी दुनिया में और दुष्चक्र में स्रष्टा प्रकाशित हो चुके हैं। पहले संग्रह पर प्रतिष्ठित श्रीकांत वर्मा पुरस्कार और दूसरे पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार के अलावा इन्हें अन्य कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। वीरेन डंगवाल ने कई महत्त्वपूर्ण कवियों की अन्य भाषाओं में लिखी गई कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया है। 28 सितंबर 2015 को इनका देहावसान हुआ।     

पाठ प्रवेश

जिंदगी प्राणीमात्र को प्रिय होती है। कोई भी इसे यूँ ही खोना नहीं चाहता। असाध्य रोगी तक जीवन की कामना करता है। जीवन की रक्षा, सुरक्षा और उसे जिलाए रखने के लिए प्रकृति ने न केवल तमाम साधन ही उपलब्ध कराए हैं, सभी जीव-जंतुओं में उसे बनाए,बचाए रखने की भावना भी पिरोई है। इसीलिए शांतिप्रिय जीव भी अपने प्राणों पर संकट आया जान उसकी रक्षा हेतु मुकाबल के लिए तत्पर हो जाते हैं।

लेकिन इससे ठीक विपरीत होता है सैनिक का जीवन, जो अपने नहीं, जब औरों के जीवन पर, उनकी आज़ादी पर आ बनती है, तब मुकाबले के लिए अपना सीना तान कर खड़ा हो जाता है। यह जानते हुए भी कि उस मुकाबले में औरों की जिंदगी और आज़ादी भले ही बची रहे, उसकी अपनी मौत की संभावना सबसे अधिक होती है।

प्रस्तुत पाठ जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म ‘हकीकत’ के लिए लिखा गया था, ऐसे ही सैनिकों के हृदय की आवाज़ बयान करता है, जिन्हें अपने किए-धरे पर नाज़ है। इसी के साथ इन्हें अपने देशवासियों से कुछ अपेक्षाएँ भी हैं। चूँकि जिनसे उन्हें वे अपेक्षाएँ हैं वे देशवासी और कोई नहीं, हम और आप ही हैं, इसलिए आइए, इसे पढ़कर अपने आप से पूछें कि हम उनकी अपेक्षाएँ पूरी कर रहे हैं या नहीं?

कविता

कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई  फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया

कट गए सर हमारे तो कुछ गम नहीं सर हिमालय का हमने न झुकने दिया

मरते-मरते रहा बाँकपन साथियों

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो साथियो

जिंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर जान देने की रुत रोज़ आती नहीं हुस्न और इश्क दोनों को रुस्वा करे वो जवानी जो खूँ में नहाती नहीं

आज धरती बनी है दुलहन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो राह कुर्बानियों की ना वीरान हो

तुम  सजाते ही न रहना नए काफ़िले फ़तह का जश्न इस जश्न के बाद है जिंदगी मौत से मिल रही है गले

बाँध लो अपने सर से कफ़न साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

खींच दो अपने खूँ से ज़मीं पर लकीर इस तरफ़ आने पाए न रावन कोई तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे

छू न पाए सीता का दामन कोई

राम भी तुम, तुम्हीं लक्ष्मण साथियों

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो।

शब्दार्थ

  • फ़िदा- न्योछावर
  • हवाले- सौंपना
  • रूत- मौसम
  • हुस्न- सुंदरता
  • रुस्वा- बदनाम
  • खूं- खून
  • काफिले- यात्रियों का समूह
  • फतहजीत
  • जश्न- खुशी मनाना
  • नब्ज- नाड़ी
  • कुर्बानियां- बलिदान
  • ज़मीं- जमीन
  • लकीर- रेखा

कविता का सार

प्रस्तुत कविता में देश के सैनिकों की भावनाओं का वर्णन है। सैनिक कभी भी देश के मानसम्मान को बचाने से पीछे नहीं हटेगा। फिर चाहे उसे अपनी जान से ही हाथ क्यों ना गवाना पड़े। भारत – चीन युद्ध के दौरान सैनिकों को गोलियाँ लगने के कारण उनकी साँसें रुकने वाली थी, ठण्ड के कारण उनकी नाड़ियों में खून जम रहा था, परन्तु उन्होंने किसी चीज़ की परवाह न करते हुए दुश्मनों का बहदुरी से मुकाबला किया और दुश्मनों को आगे नहीं बढ़ने दिया। सैनिक गर्व से कहते है कि हमें अपने सर भी कटवाने पड़े, तो हम ख़ुशी ख़ुशी कटवा देंगे, पर हमारे गौरव के प्रतिक हिमालय को नहीं झुकने देंगे अर्थात हिमालय पर दुश्मनों के कदम नहीं पड़ने देंगे। लेकिन देश के लिए प्राण न्योछावर करने की ख़ुशी कभी कभी किसी किसी को ही मिल पाती है अर्थात सैनिक देश पर मर मिटने का एक भी मौका नई खोना चाहते। जिस तरह से दुल्हन को लाल जोड़े में सजाया जाता है, उसी तरह सैनिकों ने भी अपने प्राणों का बलिदान दे कर धरती को खून से लाल कर दिया है। सैनिक कहते हैं कि हम तो देश के लिए बलिदान दे रहे हैं, परन्तु हमारे बाद भी ये सिलसिला चलते रहना चाहिए। जब भी जरुरत हो तो इसी तरह देश की रक्षा के लिए एकजुट होकर आगे आना चाहिए। सैनिक अपने देश की धरती को सीता के आँचल की तरह मानते हैं और कहते हैं कि अगर कोई हाथ आँचल को छूने के लिए  आगे बढ़े तो उसे तोड़ दो। अपने वतन की रक्षा के लिए तुम ही राम हो और तुम ही लक्ष्मण हो अब इस देश की रक्षा का दायित्व तुम पर है ।

आत्मत्रण

पाठ-9 आत्मत्राण

रवींद्रनाथ ठाकुर (1861-1941)

कवि -परिचय

6 मई 1861 को बंगाल के एक संपन्न परिवार में जन्मे रवींद्रनाथ ठाकुर नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय हैं। इनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। छोटी उम्र में ही स्वाध्याय से अनेक विषयों का ज्ञान अर्जित कर लिया। बैरिस्ट्री पढ़ने के लिए विदेश भेजे गए लेकिन बिना परीक्षा दिए ही लौट आए।

रवींद्रनाथ की रचनाओं में लोक-संस्कृति का स्वर प्रमुख रूप से मुखरित होता है। प्रकृति से इन्हें गहरा लगाव था। इन्होंने लगभग एक हज़ार कविताएँ और दो . हज़ार गीत लिखे हैं। चित्रकला, संगीत और भावनृत्य के प्रति इनके विशेष अनुराग के कारण रवींद्र संगीत नाम की एक अलग धारा का ही सूत्रपात हो गया। इन्होंने शांति निकेतन नाम की एक शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्था की स्थापना की। यह अपनी तरह का अनूठा संस्थान माना जाता है।

अपनी काव्य कृति गीतांजलि के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए रवींद्रनाथ ठाकुर की अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं-नैवैद्य, पूरबी, बलाका, क्षणिका, चित्र और सांध्यगीत, काबुलीवाला और सैकड़ों अन्य कहानियाँ; उपन्यास- गोरा, घरे बाइरे और रवींद्र के निबंध।

पाठ -प्रवेश

तैरना चाहने वाले को पानी में कोई उतार तो सकता है, उसके आस-पास भी बना रह सकता है, मगर तैरना चाहने वाला जब स्वयं हाथ-पाँव चलाता है तभी तैराक बन पाता है। परीक्षा देने जाने वाला जाते समय बड़ों से आशीर्वाद की कामना करता ही है, बड़े आशीर्वाद देते भी हैं, लेकिन परीक्षा तो उसे स्वयं ही देनी होती है। इसी तरह जब दो पहलवान कुश्ती लड़ते हैं तब उनका उत्साह तो सभी दर्शक बढ़ाते हैं, इससे उनका मनोबल बढ़ता है, मगर कुश्ती तो उन्हें खुद ही लड़नी पड़ती है।

प्रस्तुत पाठ में कविगुरु मानते हैं कि प्रभु में सब कुछ संभव कर देने की सामर्थ्य है, फिर भी वह यह कतई नहीं चाहते कि वही सब कुछ कर दें। कवि कामना करता है कि किसी भी आपद-विपद में, किसी भी द्वंद्व में सफल होने के लिए संघर्ष वह स्वयं करे, प्रभु को कुछ न करना पड़े। फिर आखिर वह अपने प्रभु से चाहते क्या हैं?

रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रस्तुत कविता का बंगला से हिंदी में अनुवाद श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने किया है। द्विवेदी जी का हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में अपूर्व योगदान है। यह अनुवाद बताता है कि अनुवाद कैसे मूल रचना की ‘आत्मा’ को अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम है।

कविता

विपदाओं से मुझे बचाओ,यह मेरी प्रार्थना नहीं

केवल इतना हो(करुणामय)

कभी न विपदा में पाऊँ भय।

दु:ख-ताप से व्यथित चित्त’ को न दो सांत्वना नहीं सही

पर इतना होवे (करुणामय)

दुख को मैं कर सकूँ सदा जय।

कोई कहीं सहायक न मिले तो

अपना बल पौरुष न हिले;

हानि उठानी पड़े जगत् में लाभ अगर वंचना रही

तो भी मन में ना मानूँ क्षय ।।

मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं

बस इतना होवे (करुणायम) तरने हो शक्ति अनामय।

मेरा भार अगर लघु करके न दो सांत्वना नहीं सही।

केवल इतना रखना अनुनय_

वहन कर सकूँ इसको निर्भय।

नत शिर होकर सुख के दिन में

तव मुख पहचानूँ छिन छिन में।

दु:ख-रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही

उस दिन ऐसा हो करुणामय,

तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय ।।

शब्दार्थ

  • विपदा-  विपत्ति/मुसीबत
  • करुणामय - दूसरों पर दया करने वाला
  • दुःख ताप-  कष्ट की पीड़ा दुखी
  • व्यथित- दुखी
  • सहायक- मददगार
  • पौरुष- पराक्रम
  • क्षय – नाश
  • त्राण-भय निवारण / बचाव / आश्रय
  • अनुदिन- प्रतिदिन
  • अनामय- रोग रहित/सस्वस्थ्
  • सांत्वना- ढाँढ़स बँधाना, तसल्ली
  • अनुनय- विनय
  • नत शिर - सिर झुकाकर
  • दुःख रात्रि- दुख से भरी रात
  • वंचना – धोखा देना/छलना
  • निखिल -संपूर्ण
  • संशय- संदेह

कविता का सार

प्रस्तुत कविता महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा बांग्ला में लिखी गई थी। इसका हिन्दी में अनुवाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने किया। प्रस्तुत कविता में कवि ने इस बात का वर्णन किया है कि ईश्वर केवल उनकी सहायता करते हैं, जो खुद अपनी सहायता करने की कोशिश करते हैं। जो मुसीबतों का सामना करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, उन्हें ही जीवन के संघर्ष में जीत मिलती है।

अर्थात अगर आप बिना कुछ किये ये चाहें कि भगवान •आपकी मुसीबतों को ख़त्म कर दें और आपको कभी कोई दुःख ना मिले, तो स्वयं भगवान भी आपके लिए कुछ नहीं करेंगे। आपको ईश्वर पर भरोसा रखते हुए, हमेशा अपनी मुसीबतों का सामना खुद से ही करना पड़ेगा, तभी ईश्वर आपको आत्मबल एवं शक्ति प्रदान करेंगे। जिससे आप तमाम मुसीबतों व कष्टों के बावजूद भी अंत में विजयी हो जाओगे और मुश्किलों के आगे कभी घुटने नहीं टेकोगे।

बड़े भाई साहब

पाठ -10 बड़े भाई साहब

प्रेमचंद(1880-1936)

लेखक परिचय

इनका जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के लमही गाँव में हुआ। इनका मूल नाम धनपत राय था परन्तु इन्होनें उर्दू में नबाव राय और हिंदी में प्रेमचंद नाम से काम किया। निजी व्यवहार और पत्राचार ये धनपत राय से ही करते थे। आजीविका के लिए स्कूल मास्टरी, इंस्पेक्टरी, मैनेजरी करने के अलावा इन्होनें ‘हंस’ ‘माधुरी’ जैसी प्रमुख पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। ये अपने जीवन काल में ही कथा सम्राट और उपन्यास सम्राट कहे जाने लगे थे।

पाठ प्रवेश

अभी तुम छोटे हो इसलिए इस काम में हाथ मत डालो। यह सुनते हो कई बार बच्चों के मन में आता है काश, हम बड़े होते तो कोई हमें यों न टोकता। लेकिन इस मुलाके में न रहिएगा, क्योंकि बड़े होने से कुछ भी करने का अधिकार नहीं मिल जाता। घर के बड़े को कई बार तो उन कामों में शामिल होने से भी अपने को रोकना पड़ता है जो उसी उम्र के और लड़के बेधड़क करते रहते हैं। जानते हो क्यों, क्योंकि वे लड़के अपने घर में किसी से बड़े नहीं होते।

प्रस्तुत पाठ में भी एक बड़े भाई साहब हैं, जो हैं तो छोटे ही, लेकिन घर में उनसे छोटा एक भाई और है। उससे उम्र में केवल कुछ साल बड़ा होने के कारण उनसे बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ की जाती हैं। बड़ा होने के नाते वह खुद भी यही चाहते और कोशिश करते हैं कि वह जो कुछ भी करें वह छोटे भाई के लिए एक मिसाल का काम करे। इस आदर्श स्थिति को बनाए रखने के फेर में बड़े भाई साहब का बचपना तिरोहित हो जाता है।

शब्दार्थ

  • तालीम- शिक्षा
  • पुख्ता- मजबूत
  • सामंजस्य- तालमेल
  • तम्बीह- डाँट डपट
  • मसलन- उदाहरणत:
  • इबारत- लेख
  • कोशिश- चेष्टा
  • जमात- कक्षा
  • हर्फ़- अक्षर
  • मिहनत(मेहनत)- परिश्रम
  • लताड़- डाँट-डपट
  • योजना- स्कीम
  • अमल करना- पालन करना
  • सूक्ति बाण- व्यंग्यात्मक कथन/तीखी बातें
  • अवहेलना- तिरस्कार
  • नसीहत- सलाह
  • फ़जीहत- अपमान
  • तिरस्कार- उपेक्षा
  • सालाना इम्तिहान- वार्षिकपरीक्षा
  • लज्जास्पद- शर्मनाक
  • शरीक- शामिल
  • आतंक- भय
  • अव्वल- प्रथम
  • ववाद- कार्यक्रम
  • आधिपत्य- साम्राज्य
  • महीप- राजा
  • कुकर्म- बुरा काम
  • अभिमान- घमंड
  • मुमतहीन- परीक्षक
  • प्रयोजन- उद्देश्य
  • खुराफात- व्यर्थ की बातें
  • हिमाकत- व्यर्थ की बातें
  • किफ़ायत- बचत से
  • दुरुपयोग- अनुचित उपयोग
  • निःस्वाद- बिना स्वाद का
  • ता़ज्जुब- आश्चर्य
  • टास्क- कार्य
  • जलील- अपमानित
  • प्राणांतक- प्राण लेने वाला
  • कांतिहीन- चेहरे पर चमक न होना
  • स्वच्छंदता- आजादी
  • सहिष्णुता- सहनशीलता
  • कनकौआ- पतंग
  • अदब- इज्जत
  • ज़हीन- प्रतीभावान
  • त़जुरबा- अनुभव
  • बदहवास- बेहाल
  • मुहताज- दूसरे पर आश्रित

पाठ के सार

बड़े भाई साहब’ कहानी प्रेमचंद द्वारा रचित है। प्रेमचंद की कहानियाँ हमेशा शिक्षाप्रद रही हैं। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से किसी-न-किसी समस्या पर प्रहार किया है। बड़े भाई साहब समाज में समाप्त हो रहे, कर्तव्यों के अहसास को दुबारा जीवित करने का प्रयास मात्र है। इस कहानी में बड़े भाई साहब अपने कर्तव्यों को संभालते हुए, अपने भाई के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा कर रहे हैं। उनकी उम्र इतनी नहीं है, जितनी उनकी ज़िम्मेदारियाँ है। लेकिन उनकी ज़िम्मेदारियाँ उनकी उम्र के आगे छोटी नज़र आती हैं। वह स्वयं के बचपन को छोटे भाई के लिए तिलाजंलि देते हुए भी नहीं हिचकिचाते हैं। उन्हें इस बात का अहसास है कि उनके गलत कदम छोटे भाई के भविष्य को बिगाड़ सकते हैं। वह अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ करने से भी नहीं चूकते। एक चौदह साल के बच्चे द्वारा उठाया गया कदम छोटे भाई के उज्जवल भविष्य की नींव रखता है। यही आदर्श बड़े भाई को छोटे भाई के सामने और भी ऊँचा बना देते हैं। यह कहानी सीख देती है कि मनुष्य उम्र से नहीं अपने किए गए कामों और कर्तव्यों से बड़ा होता है। वर्तमान युग में मनुष्य विकास तो कर रहा है परन्तु आदर्शों को भुलता जा रहा है। भौतिक सुख एकत्र करने की होड़ में हम अपने आदर्शों को छोड़ चुके हैं। हमारे लिए आज भौतिक सुख ही सब कुछ है। अपने से छोटे और बड़ों के प्रति हमारी ज़िम्मेदारियाँ हमारे लिए आवश्यक नहीं प्रेमचंद ने इन्हें कर्तव्यों के महत्व को सबके सम्मुख रखा है।

डायरी का एक पन्ना

पाठ-11 डायरी का एक पन्ना

सीताराम सेकसरिया

लेखक – परिचय

1892 में राजस्थान के नवलगढ़ में जन्मे सीताराम सेकसरिया का अधिकांश जीवन कलकत्ता (कोलकाता) में बीता। व्यापार-व्यवसाय से जुड़े सेकसरिया अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक और नारी शिक्षण संस्थाओं के प्रेरक, संस्थापक,संचालक रहे।

महात्मा गांधी के आह्वान पर स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस के करीबी रहे। सत्याग्रह आंदोलन के दौरान जेल यात्रा भी की। कुछ साल तक आज़ाद हिंद फ़ौज के मंत्री भी रहे। भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया।

सीताराम सेकसरिया को विद्यालयी शिक्षा पाने का अवसर नहीं मिला। स्वाध्याय से ही पढ़ना-लिखना सीखा। स्मृतिकण, मन की बात, बीता युग, याद और दो भागों में एक कार्यकर्ता की डायरी उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। नयी

पाठ -प्रवेश

अंग्रेजों से देश को मुक्ति दिलाने के लिए महात्मा गांधी ने सत्याग्रह आंदोलन छेड़ा था। इस आंदोलन ने जनता में आज़ादी की अलख जगाई। देश भर से ऐसे लाखों लोग सामने आए जो इस महासंग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर थे। 26 जनवरी 1930 को गुलाम भारत में पहली बार स्वतंत्रता दिवस मनाया गया था। यह सिलसिला आगे भी जारी रहा। आज़ादी के ढाई साल बाद, 1950 में यही दिन हमारे अपने गणतंत्र के लागू होने का दिन भी बना।

प्रस्तुत पाठ के लेखक सीताराम सेकसरिया आज़ादी की कामना करने वाले उन्हीं अनंत लोगों में से एक थे। वह दिन-प्रतिदिन जो भी देखते, सुनते और महसूस करते थे, उसे अपनी निजी डायरी में दर्ज कर लेते थे। यह क्रम कई वर्षों तक चला। इस पाठ में उनकी डायरी का 26 जनवरी 1931 का लेखाजोखा है।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस और स्वयं लेखक सहित कलकत्ता (कोलकाता) के लोगों ने देश का दूसरा स्वतंत्रता दिवस किस जोश-खरोश से मनाया, अंग्रेज़ प्रशासकों ने इसे उनका अपराध मानते हुए उन पर और विशेषकर महिला कार्यकर्ताओं पर कैसे-कैसे जुल्म ढाए, यही सब इस पाठ में वर्णित है। यह पाठ हमारे उन शहीद क्रांतिकारियों की कुर्बानियों की याद तो दिलाता ही है, साथ ही यह भी उजागर करता है कि एक संगठित समाज कृतसंकल्प हो तो ऐसा कुछ भी नहीं जो वह न कर सके।

शब्दार्थ

  • पुनरावृत्ति- फिर से आना
  • अपने/अपनाहम/हमारे/मेरा (लेखक के लेखन शैली का उदाहरण)
  • गश्त- पुलिस कर्मचारी का पहरे के लिए घूमना
  • सारजेंट- सेना में एक पद
  • मोनुमेंट- स्मारक
  • कौंसिल- परिषद्
  • चौरंगी- कलकत्ता (कोलकाता) शहर में एक स्थान का नाम
  • वैलेंटियर- स्वयंसेवक
  • संगीन- गंभीर
  • मदालसा- जानकीदेवी एवं जमना लाल बजाज की पुत्री का नाम

पाठ का सार

डायरी का एक पन्ना सीताराम सेकसरिया द्वारा लिखित एक संस्मरण है,जो हमें 1930-31के आस पास हो रही राजनीतिक हलचल के बारे में बताता है। इस पाठ में लेखक की डायरी में 26जनवरी 1931दिन का लेखा जोखा है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस और स्वयं लेखक सहित कलकत्ता के लोगों ने देश का दूसरा स्वतंत्रता दिवस किस धूमधाम और जोश-खरोश से मनाया यह बताया है। इसमें उस दिन घटित की घटनाओं का वर्णन है, जब बंगाल के लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए अपूर्व जोश दिखाया था। इससे पहले हमेशा यह समझा जाता था कि वहाँ के लोग आज़ादी की लड़ाई लड़ने के इच्छुक नहीं हैं, लेकिन 26 जनवरी 1931को घटी इन घटनाओं द्वारा उन्होंने दिखा दिया कि वे भी किसी से कम नहीं हैं। पुलिस की बर्बरता और कठोरता के बाद भी हजारों लोगों ने स्वाधीनता मार्च में हिस्सा लिया, जिनमें औरतें भी बड़ी संख्या में शामिल थीं। उन्होंने लाठियाँ खायीं,खून बहाया लेकिन फिर भी वे पीछे नहीं हटे और अपना काम करते रहे। एक, डॉक्टर, जो घा की देखभाल कर रहा था,उसने उनके इलाज के साथ उनके फोटो भी लिए ताकि उन्हें अख़बारों में छपवा कर इस घटना को पूरे देश तक पहुँचाया जा सके। साथ ही ब्रिटिश सरकार की क्रूरता को भी दुनिया को दिखाया जा सके।

ततांरा-वामीरो कथा

पाठ -12 ततांरा -वामीरो कथा

लीलाधर मंडलोई(1954)

लेखक- परिचय

इनका जन्म 1954 को जन्माष्टमी के दिन छिंदवाड़ा जिले के एक छोटे से गाँव गुढ़ी में हुआ। इनकी शिक्षा-दीक्षा भोपाल और रायपुर में हुई। प्रसारण की उच्च शिक्षा के लिए 1987 में कॉमनवेल्थ रिलेशंस ट्रस्ट, लंदन की ओर से   आमंत्रित किये गए। इन दिनों प्रसार भारती दूरदर्शन के महानिदेशक का कार्यभार संभाल रहे हैं।

पाठ- प्रवेश

जो सभ्यता जितनी पुरानी है, उसके बारे में उतने ही ज्यादा किस्से-कहानियाँ भी सुनने को मिलती हैं। किस्से ज़रूरी नहीं कि सचमुच उस रूप में घटित हुए हों। जिस रूप में हमें सुनने या पढ़ने को मिलते हैं। इतना ज़रूर है कि इन किस्सों में कोई न कोई संदेश या सीख निहित होती है। अंदमान निकोबार द्वीपसमूह में भी तमाम तरह के किस्से मशहूर हैं। इनमें से कुछ को लीलाधर मंडलोई ने फिर से लिखा है।

प्रस्तुत पाठ तताँरा-वामीरो कथा इसी द्वीपसमूह के एक छोटे से द्वीप पर केंद्रित है। उक्त द्वीप में विद्वेष गहरी जड़ें जमा चुका था। उस विद्वेष को जड़ मूल से उखाड़ने के लिए एक युगल को आत्मबलिदान देना पड़ा था। उसी बलिदान की कथा यहाँ बयान की गई है।

प्रेम सबको जोड़ता है और घृणा दूरी बढ़ाती है, इससे भला कौन इनकार कर सकता है। इसीलिए जो समाज के लिए अपने प्रेम का, अपने जीवन तक का बलिदान करता है, समाज उसे न केवल याद रखता है बल्कि उसके बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देता। यही वजह है कि तत्कालीन समाज के सामने एक मिसाल कायम करने वाले इस युगल को आज भी उस द्वीप के निवासी गर्व और श्रद्धा के साथ याद करते हैं

शब्दार्थ-

  • लोककथा- जन-समाज में प्रचलित कथा
  • आत्मीय- अपना
  • साहसिक कारनामा- साहसपूर्ण कार्य
  • विलक्षण- असाधारण
  • बयार- शीतल - मंद वायु
  • तंद्रा- एकाग्रता
  • चैतन्य- चेतना
  • विकल- बेचैन/व्याकुल
  • संचार- उत्पन्न होना (भावना का)
  • असंगत- अनुचित
  • सम्मोहित- मुग्ध
  • झुंझलाना- चिढ़ना
  • अन्यमनस्कता- जिसका चित्र कहीं और हो
  • निर्निमेष- बिना पलक झपकाए
  • अचंभित- चकित
  • रोमांचित- पुलकित
  • निश्चल- स्थिर
  • अफवाह- उड़ती खबर
  • उफनना- उबलना
  • निषेध परंपरा- वह परंपरा जिस पर रोक लगी हो
  • शमन- शांत करना
  • घोंपना- भोंकना
  • दरार- रेखा की तरह का लंबा छिद्र जो फटने के कारण पड़ जाता है।

पाठ का सार

प्रस्तुत पाठ‘तताँरा वामीरो कथा’अंडमान निकोबार द्वीप समूह के एक छोटे से द्वीप पर केंद्रित है। उस द्वीप पर एक -दूसरे से शत्रुता का भाव अपनी अंतिम सीमा पर पहुँच चूका था। इस शत्रुता की भावना को जड़ से उखाड़ने के लिए एक जोड़े को आत्मबलिदान देना पड़ा था। उसी जोड़े के बलिदान का वर्णन लेखक ने प्रस्तुत पाठ में किया है।

बहुत समय पहले, जब लिटिल अंदमान और कार -निकोबार एक साथ जुड़े हुए थे, तब वहाँ एक बहुत सुंदर गाँव हुआ करता था। उसी गाँव के पास में ही एक सुंदर और शक्तिशाली युवक रहा करता था। जिसका नाम तताँरा था। निकोबार के सभी व्यक्ति उससे बहुत प्यार करते थे। इसका एक कारण था कि तताँरा एक भला और सबकी मदद करने वाला व्यक्ति था। जब भी कोई मुसीबत में होता तो हर कोई उसी को याद करता था और वह भी भागा -भागा वहाँ उनकी मदद करने के लिए पहुँच जाता था। तताँरा हमेशा अपनी पारम्परिक पोशाक ही पहनता था और हमेशा अपनी कमर में एक लकड़ी की तलवार को बाँधे रखता था। लोगों का मानना था कि उस तलवार में लकड़ी की होने के बावजूद भी अनोखी दैवीय शक्तियाँ हैं। तताँरा कभी भी अपनी तलवार को अपने से अलग नहीं करता था। वह दूसरों के सामने तलवार का प्रयोग भी नहीं करता था। तताँरा की तलवार जिज्ञासा पैदा करने वाला एक ऐसा राज था, जिसको कोई नहीं जानता था।

तीसरी कसम के शिल्पकार

पाठ- 13 तीसरी कसम के शिल्पकार शैलेंद्र

प्रह्लाद अग्रवाल (1947)

लेखक- परिचय

इनका जन्म 1947 मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में हुआ। इन्होनें हिंदी से एम.ए की शिक्षा हासिल की। इन्हें किशोर वय से ही हिंदी फिल्मों के इतिहास और फिल्मकारों के जीवन और अभिनय के बारे में विस्तार से जानने और उस पर चर्चा करने का शौक रहा। इन दिनों ये सतना के शासकीय स्वसाशी स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रध्यापन कर रहे हैं और फिल्मों के विषय में बहुत कुछ लिख चुके हैं और आगे भी इसी क्षेत्र में लिखने को कृत संकल्प हैं।

प्रमुख कार्य

प्रमुख कृतियाँ – सांतवाँ दशक, तानशाह, मैं खुशबू, सुपर स्टार, राज कपूर: आधी हकीकत आधा फ़साना, कवि शैलन्द्रः जिंदगी की जीत में यकीन, पप्यासा: चिर अतृप्त गुरुदत्त, उत्ताल उमंग: सुभाष घई की फिल्मकला, ओ रे माँझी: बिमल राय का सिनेमा और महाबाजार के महानायक: इक्कीसवीं सदी का सिनेमा।

पाठ -प्रवेश

साल के किसी महीने का शायद ही कोई शुक्रवार ऐसा जाता हो जब कोई न कुछ को वह कोई हिंदी फ़िल्म सिने पर्दे पर न पहुँचती हो। इनमें से कुछ सफल रहती हैं तो कुछ असफल। कुछ दर्शकों को कुछ अर्से तक याद रह जाती हैं, • सिनेमाघर से बाहर निकलते ही भूल जाते हैं। लेकिन जब कोई फ़िल्मकार किसी • साहित्यिक कृति को पूरी लगन और ईमानदारी से पर्दे पर उतारता है तो उसकी फ़िल्म न केवल यादगार बन जाती है बल्कि लोगों का मनोरंजन करने के साथ ही उन्हें कोई बेहतर संदेश देने में भी कामयाब रहती है।

एक गीतकार के रूप में कई दशकों तक फ़िल्म क्षेत्र से जुड़े रहे कवि और गीतकार ने जब फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कृति ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम’ को सिने पर्दे पर उतारा तो वह मील का पत्थर सिद्ध हुई। आज भी उसकी गणना हिंदी की कुछ अमर फ़िल्मों में की जाती है। इस फ़िल्म ने न केवल अपने गीत, संगीत, कहानी की बदौलत शोहरत पाई बल्कि इसमें अपने ज़माने के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर ने अपने फ़िल्मी जीवन की सबसे बेहतरीन एक्टिंग करके सबको चमत्कृत कर दिया। फ़िल्म की हीरोइन वहीदा रहमान ने भी वैसा ही अभिनय कर दिखाया जैसी उनसे उम्मीद थी ।

इस मायने में एक यादगार फ़िल्म होने के बावजूद ‘तीसरी कसम’ को आज इसलिए भी याद किया जाता है क्योंकि इस फ़िल्म के निर्माण ने यह भी उजागर कर दिया कि हिंदी फ़िल्म जगत में एक सार्थक और उद्देश्यपरक फ़िल्म बनाना कितना कठिन और जोखिम का  काम है।

शब्दार्थ :–

  • अंतराल- के बाद
  • अभिनीत- अभिनय किया गया
  • सर्वोत्कृष्ट- कैमरे की रील में उतार चित्र पर प्रस्तुत करना
  • सार्थकतासफलता के बाद
  • कलात्मकता- कला से परिपूर्ण
  • संवेदनशीलता- भावुकता
  • सिद्धार्थतीव्रता
  • अनन्य- परम/अत्यधिक
  • पारिश्रमिक- मेहनताना
  • आगाह- सचेत
  • बमुश्किल- बहुत कठिनाई से
  • वितरक- प्रसारित करने वाले लोग
  • नामजद- विख्यात
  • मंतव्य- इच्छा
  • अभिजात्य- परिष्कृत
  • भाव- प्रवण
  • दुरुह- कठिन
  • स्पंदित- संचालित करना/गतिमान
  • हुजूम- भीड़
  • रूपांतरण- किसी एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित करना
  • त्रासद- दुखद
  • धन-लिप्सा- धन की अत्यधिक चाह
  • जीवन सापेक्ष- जीवन के प्रति
  • कला मर्मज्ञ- कला की परख करने वाला
  • किवदंती- कहावत

पाठ की समीक्षा

शैलेंद्र बीस सालों से फ़िल्म इंडस्ट्री से थे। वे वहाँ के तौर-तरीकों से पूर्व रूप से परिचित थे। फिर भी वे उन तौर-तरीकों में उलझकर अपनी इनसानियत नहीं खोना चाहते थे। उनके एक गीत में ‘दसों दिशाओं’ शब्द पर शंकर जय किशन ने आपत्ति जताई। उनके अनुसार लोग केवल चार दिशाओं से ही परिचित हैं दस दिशाओं से नहीं, परंतु शैलेंद्र अपनी बात पर अड़े रहे। उन्होंने कहा कि दर्शकों की रुचि का परिष्कार करना चाहिए न कि उसमें उथलापन लाना चाहिए। उनके गीतों में प्रवाह और गहराई साथ-साथ थे। ‘तीसरी कसम’ उन फ़िल्मों में से एक है, जिन्होंने साहित्य के साथ पूरा न्याय किया। शैलेंद्र ने इस फ़िल्म में गाड़ीवान हीरामन पर राजकपूर को हावी नहीं होने दिया बल्कि राजकपूर को हीरामन बना दिया। प्रसिद्ध अभिनेत्री वहीदा रहमान की साधारण-सी साड़ी में लिपटी हीराबाई बनाकर प्रस्तुत किया। वहीदा की बोलती आँखें और सरल हृदय गाड़ीवान ने सबका मन मोह लिया।

आजकल की फ़िल्में लोकतत्व से दूर होती हैं। वे त्रासद स्थितियों को ग्लोरीफाई करके वीभत्स बना देती हैं, जिससे दर्शकों का भावनात्मक शोषण हो सके। ‘तीसरी कसम’ में प्रस्तुत दुख सहज व स्वाभाविक था। इसमें भावना व संवेदना दोनों की प्रमुखता थी।

गिरगिट

पाठ-14 गिरगिट

अंतोन चेखव(1860-1904)

लेखक -परिचय

इनका जन्म दक्षिणी रूस के तगनोर नगर में 1860 में हुआ था। इन्होनें शिक्षा काल से ही कहानियाँ लिखना आरम्भ कर दिया था। उन्नीसवीं सदी का नौवाँ दशक रूस के लिए कठिन समय था। ऐसे समय में चेखव ने उन मौकापरस्त लोगों को बेनकाब करती कहानियाँ लिखीं जिनके लिए पैसा और पद ही सब कुछ था।

प्रमुख कार्य

कहानियाँ- गिरगिट, क्लर्क की मौत, वान्का, तितली, एक कलाकार की कहानी, घोंघा,ईओनिज,रोमांस,दुलहन।

नाटक – वाल्या मामा, तीन बहनें, सीगल और चेरी का बगीचा।

पाठ प्रवेश

जो भी अन्याय करता है उसके अन्याय को भी न्याय के तराजू में तोला जाता है।सभी व्यक्तियों के अंदर इस तरह की न्याय व्यवस्था के कारण निडरता की भावना पैदा हो जाती है। ऐसी शासन व्यवस्था तभी कायम हो सकती है, जब शासन करने वाले बिना किसी भेदभाव के, अपने अधिकारों और कर्तव्यों का पालन करेंगे। जब कभी भी शासन करने वाले अपना काम सही ढंग से नहीं करते, तब देश में अनियंत्रित एवं विधि विरोधी शासनावस्था का बोलबाला बढ़ जाता है।

शब्दार्थ

  • जब्त- कब्जा करना
  • झरबेरियाँ– बेर की एक किस्म
  • किकियाना– कष्ट में होने पर कुत्ते द्वारा की जाने वाली आवाज़
  • काठगोदाम- लकड़ी का गोदाम
  • कलफ़- मांड लगाया गया कपड़ा
  • बारजोयस- कुत्ते की एक प्रजाति
  • पेचीदा- कठिन
  • गुजारिश– प्रार्थना
  • हरज़ाना- नुकसान के बदले में दी जाने वाली रकम
  • बरदाश्त- सहना
  • खँखारते– खाँसते हुए
  • त्योरियाँ– भौहें चढ़ाना
  • विवरण– ब्योरा देना
  • भद्दा– कुरूप
  • नस्ल– जाति
  • आल्हाद– ख़ुशी

 पाठ का सार

गिरगिट पाठ मशहूर रूसी लेखक चेखव की रचना है, जिसमें उन्होंने उस समय की राजनितिक स्थितियों पर करारा व्यंग्य किया है। बड़े अधिकारियों के तलवे चाटने वाले पुलिसवाले कैसे आम जनता का शोषण करते हैं, इसे बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है ।एक नागरिक को कुत्ते के कट लेने पर पहले तो पुलिस इंस्पेक्टर कुत्ते के खिलाफ बोलता है लेकिन जैसे ही उसे पता चलता है, कुत्ता बड़े अफसर का है तो तुरंत पलटी मार कर कुत्ते के पक्ष में बोलने लगता है ।उसके बाद तो कहानी पूरी तरह अपने नाम को सार्थक करती नज़र आती है। लोगों की बातों के अनुसार जिस प्रकार पल-पल में वह रंग बदलता है, उसे देखकर तो गिरगिट को भी शर्म आ जाये। लेकिन वह इतना ढीठ है कि उस पर किसी बात का कोई असर नहीं होता और वह अंत तक केवल रंग ही बदलता रहता है। जनता के दुःख दर्द से उसे कोई लेना देना नहीं होता.।

अब कहां दूसरों के दुख से दुखी होने वाले

पाठ-15 अब कहां दूसरों के दुख से दुखी होने वाले

निदा फ़ाज़ली (1938-2016)

लेखक-परिचय-

12 अक्तूबर 1938 को दिल्ली में जन्मे निदा फ़ाज़ली का बचपन ग्वालियर में बीता। निदा फ़ाज़ली उर्दू की साठोत्तरी पीढ़ी के महत्त्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। आम बोलचाल की भाषा में और सरलता से किसी के भी दिलोदिमाग में घर कर सके, ऐसी कविता करने में इन्हें महारत हासिल है।

निदा फ़ाज़ली की लफ़्ज़ों का पुल नामक कविता की पहली पुस्तक आई। शायरी की किताब खोया हुआ सा कुछ के लिए 1999 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित निदा फ़ाज़ली की आत्मकथा का पहला भाग दीवारों के बीच और दूसरा दीवारों के पार शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। फ़िल्म उद्योग से संबद्ध रहे निदा फ़ाज़ली का निधन 8 फ़रवरी 2016 को हुआ। यहाँ तमाशा मेरे आगे किताब में संकलित एक अंश प्रस्तुत है।

पाठ-प्रवेश

कुदरत ने यह धरती उन तमाम जीवधारियों के लिए अता फरमाई थी जिन्हें खुद उसी ने जन्म दिया था। लेकिन हुआ यह कि आदमी नाम के कुदरत के सबसे अज़ीम करिश्मे ने धीरे-धीरे पूरी धरती को ही अपनी जागीर बना लिया और अन्य तमाम जीवधारियों को दरबदर कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अन्य जीवधारियों की या तो नस्लें खत्म होती गईं या उन्हें अपना ठौर-ठिकाना छोड़कर कहीं और जाना पड़ा या फिर आज भी वे एक आशियाने की तलाश में मारे-मारे फिर रहे हैं।

इतना भर हुआ रहा होता तब भी गनीमत होती, लेकिन आदमी नाम के इस जीव की सब कुछ समेट लेने की भूख यहीं पूरी नहीं हुई। अब वह अन्य प्राणियों को ही नहीं खुद अपनी जात को भी बेदखल करने से ज़रा भी परहेज़ नहीं करता। आलम यह है कि उसे न तो किसी के सुख-दुख की चिंता है, न किसी को सहारा या सहयोग देने की मंशा ही। यकीन न आता हो तो इस पाठ को पढ़ जाइए और साथ ही याद कीजिएगा अपने आसपास के लोगों को। बहुत संभव है इसे पढ़ते हुए ऐसे बहुत लोग याद आएँ जो कभी न कभी किसी न किसी के प्रति वैसा ही बरताव करते रहे हों।

शब्दार्थ

  • हाकिम- राजा/मालिक
  • लसकर- सेना
  • लकब- पद सूचक नाम
  • प्रतीकात्मक- प्रतीक स्वरूप
  • दालान- बरामदा
  • सिमटना- सिकुड़ना
  • जलजले- भूकंप
  • सैलाब- बाढ़
  • सैलानी- पर्यटक
  • अज़ीज़- प्रिय
  • मजार- दरगाह
  • डेरा- अस्थाई पड़ाव
  • अजान- नमाज के समय की सूचना जो मस्जिद की छत या दूसरी ऊंची जगह पर खड़े होकर दी जाती है।

पाठ का सार

बाइबिल के सोलोमन को कुरआन में सुलेमान कहा गया है। वे 1025 वर्ष पूर्व एक बादशाह थे । वे मुष्य की ही नहीं पशु पक्षियों की भी भाषा समझते थे ।

एक बार वे अपने लश्कर के साथ रास्ते से गुजर रहे थे रास्ते में कुछ चीटियाँ उनके घोड़ों की आवाज़ सुनकर अपने बिलों की तरफ वापस चल पड़ी। सुलेमान ने उनसे कहा “घबराओ नहीं “,सुलेमान को खुदा ने सबका रखवाला बनया है । मैं किसी के लिए मुसीबत नहीं हूँ। सबके लिए मुहब्बत हूँ ।यह कहकर वह अपनी मंजिल की ओर बढ़ने लगा । यह धरती किसी एक की नहीं है । सभी जीव जंतुओं का सामान अधिकार है। पहले पूरा संसार एक था मनुष्य ने ही इसे एक टुकड़े में बांटा है पहले लोग मिलजुलकर रहते थे अब वे बंट चुके हैं। बढती हुई आबादी में समंदर को पीछे धकेल दिया पेड़ों को राते से हटा दिया है। फैलते हुए प्रदुषण ने पंछियों को बस्तियों से भागना शुरू कर दिया है। प्रकृति का रूप बदल गया है। लेखक की माँ कहती थी कि सूरज ढले आँगन के पेड़ से पत्ते मत तोड़ो । दिया बत्ती के वक़्त फूल मत तोड़ो । दरिया पर जाओ तो उसे सलाम करो । कबूतरों को मत सताया करो । मुर्गे को मत परेशान करो वे अज़ान देकर सबको जगाता है।

पतझड़ में टूटी पत्तियां

पाठ-16 पतझड़ में टूटी पत्तियां,झेन की देन

रविंद्र केलेकर(1925 -2010)

लेखक परिचय-

इनका जन्म 7 मार्च 1925 को कोंकण क्षेत्र में हुआ था।ये छात्र जीवन से ही गोवा मुक्ति आंदोलन में शामिल हो गए। गांधीवादी चिंतक के रूप में विख्यात केलेकर ने अपने लेखन में जन-जीवन के विविध पक्षों, मान्यताओं और व्यकितगत विचारों को देश और समाज परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। इनकी अनुभवजन्य टिप्पणियों में अपनी चिंतन की मौलिकता के साथ ही मानवीय सत्यतक पहुँचने की सहज चेष्टा रहती है।

प्रमुख कार्य-

कृतियाँ – कोंकणी में उजवाढाचे सूर, समिधा, सांगली ओथांबे, मराठी में कोंकणीचें राजकरण, जापान जसा दिसला और हिंदी में पतझड़ में टूटी पत्तियाँ पुरस्कार – गोवा कला अकादमी के साहित्य पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कार ।

पाठ-प्रवेश

ऐसा माना जाता है कि थोड़े में बहुत कुछ कह देना कविता का गुण है। जब कभी यह गुण किसी गद्य रचना में भी दिखाई देता है तब उसे पढ़ने वाले को यह मुहावरा याद नहीं रखना पड़ता कि ‘सार-सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय’। सरल लिखना, थोड़े शब्दों में लिखना ज्यादा कठिन काम है। फिर भी यह काम होता रहा है। सूक्ति कथाएँ, आगम कथाएँ, जातक कथाएँ, पंचतंत्र की कहानियाँ उसी लेखन के प्रमाण हैं। यही काम कोंकणी में रवींद्र केलेकर ने किया है।

प्रस्तुत पाठ के प्रसंग पढ़ने वालों से थोड़ा कहा बहुत समझना की माँग करते हैं। ये प्रसंग महज पढ़ने-गुनने की नहीं, एक जागरूक और सक्रिय नागरिक बनने की प्रेरणा भी देते हैं। पहला प्रसंग गिन्नी का सोना जीवन में अपने लिए सुख-साधन जुटाने वालों से नहीं बल्कि उन लोगों से परिचित कराता है जो इस जगत को जीने और रहने योग्य बनाए हुए हैं।

दूसरा प्रसंग झेन की देन बौद्ध दर्शन में वर्णित ध्यान की उस पद्धति की याद दिलाता है जिसके कारण जापान के लोग आज भी अपनी व्यस्ततम दिनचर्या के बीच कुछ चैन भरे पल पा जाते हैं।

शब्दार्थ-

  • व्यावहारिकता– समय और अवसर देखकर काम करने की सूझ
  • प्रैक्टिकल आईडियालिस्ट- व्यावहारिक आदर्श
  • बखान- बयान करना
  • सूझ-बुझ- काम करने की समझ
  • स्तर– श्रेणी
  • के स्तर- के बराबर
  • सजग– सचेत
  • शाश्वत– जो बदला ना जा सके
  • शुद्ध सोना- बिना मिलावट का सोना
  • गिन्नी का सोना– सोने में ताँबा मिला हुआ
  • मानसिक– दिमागी
  • मनोरुग्न- तनाव के कारण मन से अस्वस्थ
  • प्रतिस्पर्धा- होड़
  • स्पीड- गति
  • टी-सेरेमनी– जापान में चाय पिने का विशेष आयोजन
  • चा-नो-यू– जापान में टी सेरेमनी का नाम
  • दफ़्ती- लकड़ी की खोखली सड़कने वाली दीवार जिस पर चित्रकारी होती है
  • पर्णकुटी– पत्तों से बानी कुटिया
  • बेढब सा- बेडौल सा
  • चाजीन- जापानी विधि से चाय पिलाने वाला

पाठ का भावार्थ

पाठ में वर्णित प्रसंग पढ़नेवालों से ‘थोड़ा कहा अधिक समझना’ की माँग करते हैं। ये प्रसंग महज पढ़ने-गुनने हेतु नहीं हैं एक जागरूक और सक्रिय नागरिक बनने की प्रेरणा देते हैं। पहला प्रसंग ‘गिन्नी का सोना’ जीवन में अपने लिए सुख-साधन जुटाने वालों से नहीं बल्कि उन लोगों से परिचय कराता है जो इस जगत् को जीने और रहने योग्य बनाए हुए हैं। दूसरा प्रसंग ‘झेन की देन’ बौद्ध दर्शन में वर्णित ध्यान की पद्धति की याद दिलाता है जिसके कारण जापान के लोग आज भी अपनी व्यस्ततम दिनचर्या के बीच कुछ चैन भरे पल बिता लेते हैं।

कारतूस

पाठ-17  कारतूस

हबीब तनवीर(1923-2009)

लेखक-परिचय

1923 में छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर ने 1944 में नागपुर से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात ब्रिटेन की नाटक अकादमी से नाट्य-लेखन का अध्ययन करने गए और फिर दिल्ली लौटकर पेशेवर नाट्यमंच की स्थापना की।

नाटककार, कवि, पत्रकार, नाट्य निर्देशक, अभिनेता जैसे कई रूपों में ख्याति प्राप्त हबीब तनवीर ने लोकनाट्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया। कई पुरस्कारों, फेलोशिप और पद्मश्री से सम्मानित हबीब तनवीर के प्रमुख नाटक हैं-आगरा बाज़ार, चरनदास चोर, देख रहे हैं नैन, हिरमा की अमर कहानी। इन्होंने बसंत ऋतु का सपना, शाजापुर की शांति बाई, मिट्टी की गाड़ी और मुद्राराक्षस नाटकों का आधुनिक रूपांतर भी किया।

पाठ– प्रवेश

अंग्रेज़ इस देश में व्यापारी के भेष में आए थे। शुरू में व्यापार ही करते रहे, लेकिन उनके इरादे केवल व्यापार करने के नहीं थे। धीरे-धीरे उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी ने रियासतों पर कब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया। उनकी नीयत उजागर होते ही अंग्रेज़ों को हिंदुस्तान से खदेड़ने के प्रयास भी शुरू हो गए।

प्रस्तुत पाठ में एक ऐसे ही जाँबाज़ के कारनामों का वर्णन है जिसका एकमात्र लक्ष्य था अंग्रेज़ों को इस देश से बाहर करना। कंपनी के हुक्मरानों की नींद हराम कर देने वाला यह दिलेर इतना निडर था कि शेर की माँद में पहुँचकर उससे दो-दो हाथ करने की मानिंद कंपनी की बटालियन के खेमे में ही नहीं आ पहुँचा, बल्कि उनके कर्नल पर ऐसा रौब गालिब किया कि उसके मुँह से भी वे शब्द निकले जो किसी शत्रु या अपराधी के लिए तो नहीं ही बोले जा सकते थे।

शब्दार्थ

  • तख़्त- सिंहासन
  • मसलेहत– रहस्य
  • ऐश पसं- द भोग विलास पसंद करने वाला
  • जाँबाज़- जान की बाज़ी लगाने वाला
  • दमखम– शक्ति और दृढ़ता
  • जाती तौर पर- व्यक्तिगत रूप से
  • वज़ीफा- परवरिश के लिए दी जाने वाली राशि
  • मुकर्रर– तय करना
  • तलब- किया याद किया
  • हुक्मरां- शासक
  • गर्द- धूल
  • काफ़िला– एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाने वाले यात्रियों का समूह
  • शुब्हे- संदेह
  • दिवार हमगोश दारद– दीवारों के भी कान होते हैं
  • लावलश्कर- सेना का बड़ा समूह और युद्ध सामग्री
  • कारतूस- पीतल और दफ़्ती आदि की एक नली जिसमें गोली तथा बारूद भरी होती है

पाठ का भावार्थ उज्जैन

प्रस्तुत पाठ में भी एक ऐसे अपनी जान पर खेल जाने वाले शूरवीर के कारनामों का वर्णन किया गया है। जिसका केवल एक ही लक्ष्य था – अंग्रेजों को देश से बाहर निकालना। कंपनी के हुक्म चलाने वालों की उसने नींद हराम कर राखी थी। वह इतना निडर था कि मुसीबत को खुद बुलावा देते हुए न सिर्फ कंपनी के अफसरों के बीच पहुँचा बल्कि उनके कर्नल पर ऐसा रौब दिखाया कि कर्नल के मुँह से भी उसकी तारीफ़ में ऐसे शब्द निकले जैसे किसी दुश्मन के लिए नहीं निकल सकते।