हरिहर काका

Harihar Kaka Summary, Explanation Class 10 Hindi Chapter 1

हरिहर काका पाठ सार

लेखक कहता है कि वह हरिहर काका के साथ बहुत गहरे से जुड़ा था। लेखक का हरिहर काका के प्रति जो प्यार था वह लेखक का उनके व्यावहार के और उनके विचारों के कारण था और उसके दो कारण थे। पहला कारण था कि हरिहर काका लेखक के पड़ोसी थे और दूसरा कारण लेखक को उनकी माँ ने बताया था कि हरिहर काका लेखक को बचपन से ही बहुत ज्यादा प्यार करते थे। जब लेखक व्यस्क हुआ तो उसकी पहली दोस्ती भी हरिहर काका के साथ ही हुई थी। लेखक के गाँव की पूर्व दिशा में ठाकुर जी का विशाल मंदिर था, जिसे गाँव के लोग ठाकुरबारी यानि देवस्थान कहते थे। लोग ठाकुर जी से पुत्र की मन्नत मांगते, मुक़दमे में जीत, लड़की की शादी किसी अच्छे घर में हो जाए, लड़के को नौकरी मिल जाए आदि मन्नत माँगते थे। मन्नत पूरी होने पर लोग अपनी ख़ुशी से ठाकुरजी को रूपए, ज़ेवर, और अनाज चढ़ाया करते थे। जिसको बहुत अधिक ख़ुशी होती थी वह अपने खेत का छोटा-सा भाग ठाकुरजी के नाम कर देता था और यह एक तरह से प्रथा ही बन गई। लेखक कहता है कि उसका गाँव अब गाँव के नाम से नहीं बल्कि देव-स्थान की वजह से ही पहचाना जाता था। उसके गाँव का यह देव-स्थान उस इलाके का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध देवस्थान था। हरिहर काका ने अपनी परिस्थितिओं के कारण देव-स्थान में जाना बंद कर दिया था। मन बहलाने के लिए लेखक भी कभी-कभी देव-स्थान चला जाता था। लेकिन लेखक कहता है कि वहाँ के साधु-संत उसे बिलकुल भी पसंद नहीं थे। क्योंकि वे काम करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे। भगवान को भोग लगाने के नाम पर वे दिन के दोनों समय हलवा-पूड़ी बनवाते थे और आराम से पड़े रहते थे। सारा काम वहाँ आए लोगों से सेवा करने के नाम पर करवाते थे। वे खुद अगर कोई काम करते थे तो वो था बातें बनवाने का काम।

लेखक हरिहर काका के बारे में बताता हुआ कहता है कि हरिहर काका और उनके तीन भाई हैं। सबकी शादी हो चुकी है। हरिहर काका के अतिरिक्त सभी तीन भाइयों के बाल-बच्चे हैं। कुछ समय तक तो  हरिहर काका की सभी चीज़ों का अच्छे से ध्यान रखा गया, परन्तु फिर कुछ दिनों बाद हरिहर काका को कोई पूछने वाला नहीं था। लेखक कहता है कि अगर कभी हरिहर काका के शरीर की स्थिति ठीक नहीं होती तो हरिहर काका पर मुसीबतों का पहाड़ ही गिर जाता। क्योंकि इतने बड़े परिवार के रहते हुए भी हरिहर काका को कोई पानी भी नहीं पूछता था। बारामदे के कमरे में पड़े हुए हरिहर काका को अगर किसी चीज़ की जरुरत होती तो उन्हें खुद ही उठना पड़ता। एक दिन उनका  भतीजा शहर से अपने एक दोस्त को घर ले आया । उन्हीं के आने की ख़ुशी में दो-तीन तरह की सब्ज़ियाँ, बजके, चटनी, रायता और भी बहुत कुछ बना था। सब लोगों ने खाना खा लिया और हरिहर काका को कोई पूछने तक नहीं आया। हरिहर काका गुस्से में बरामदे की ओर चल पड़े और जोर-जोर से बोल रहे थे कि उनके भाई की पत्नियाँ क्या यह सोचती हैं कि वे उन्हें मुफ्त में खाना खिला रही हैं। उनके खेत में उगने वाला अनाज भी इसी घर में आता है।

हरिहर काका के गुस्से का महंत जी ने लाभ उठाने की सोची। महंत जी हरिहर काका को अपने साथ देव-स्थान ले आए और हरिहर काका को समझाने लगे की उनके भाई का परिवार केवल उनकी जमीन के कारण उनसे जुड़ा हुआ है, किसी दिन अगर हरिहर काका यह कह दें कि वे अपने खेत किसी और के नाम लिख रहे हैं, तो वे लोग तो उनसे बात करना भी बंद कर देंगें। खून के रिश्ते ख़त्म हो जायेंगे। महंत हरिहर काका से कहता है कि उनके हिस्से में जितने खेत हैं वे उनको भगवान के नाम लिख दें। ऐसा करने से उन्हें सीधे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

सुबह होते ही हरिहर काका के तीनों भाई देव-स्थान पहुँच गए। तीनों हरिहर काका के पाँव में गिर कर रोने लगे और अपनी पत्नियों की गलती की माफ़ी माँगने लगे और कहने लगे की वे अपनी पत्नियों को उनके साथ किए गए इस तरह के व्यवहार की सज़ा देंगे। हरिहर काका के मन में दया का भाव जाग गया और वे फिर से घर वापिस लौट कर आ गए। जब अपने भाइयों के समझाने के बाद हरिहर काका घर वापिस आए तो घर में और घर वालों के व्यवहार में आए बदलाव को देख कर बहुत खुश हो गए। घर के सभी छोटे-बड़े सभी लोग हरिहर काका का आदर-सत्कार करने लगे।

गाँव के लोग जब भी कहीं बैठते तो बातों का ऐसा सिलसिला चलता जिसका कोई अंत नहीं था। हर जगह बस उन्हीं की बातें होती थी। कुछ लोग कहते कि हरिहर काका को अपनी जमीन भगवान के नाम लिख देनी चाहिए। इससे उत्तम और अच्छा कुछ नहीं हो सकता। इससे हरिहर काका को कभी न ख़त्म होने वाली प्रसिद्धि प्राप्त होगी। इसके विपरीत कुछ लोगों की यह मानते थे कि भाई का परिवार भी तो अपना ही परिवार होता है। अपनी जायदाद उन्हें न देना उनके साथ अन्याय करना होगा। हरिहर काका के भाई उनसे प्रार्थना करने लगे कि वे अपने हिस्से की जमीन को उनके नाम लिखवा दें। इस विषय पर हरिहर काका ने बहुत सोचा और अंत में इस परिणाम पर पहुंचे कि अपने जीते-जी अपनी जायदाद का स्वामी किसी और को बनाना ठीक नहीं होगा। फिर चाहे वह अपना भाई हो या मंदिर का महंत। क्योंकि उन्हें अपने गाँव और इलाके के वे कुछ लोग याद आए, जिन्होंने अपनी जिंदगी में ही अपनी जायदाद को अपने रिश्तेदारों या किसी और के नाम लिखवा दिया था। उनका जीवन बाद में किसी कुत्ते की तरह हो गया था, उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं था। हरिहर काका बिलकुल भी पढ़े-लिखे नहीं थे, परन्तु उन्हें अपने जीवन में एकदम हुए बदलाव को समझने में कोई गलती नहीं हुई और उन्होंने फैसला कर लिया कि वे जीते-जी किसी को भी अपनी जमीन नहीं लिखेंगे।

लेखक कहता है कि जैसे-जैसे समय बीत रहा था महंत जी की परेशानियाँ बढ़ती जा रही थी। उन्हें लग रहा था कि उन्होंने हरिहर काका को फसाँने के लिए जो जाल फेंका था, हरिहर काका उससे बाहर निकल गए हैं, यह बात महंत जी को सहन नहीं हो रही थी। आधी रात के आस-पास देव-स्थान के साधु-संत और उनके कुछ साथी भाला, गंड़ासा और बंदूकों के साथ अचानक ही हरिहर काका के आँगन में आ गए। इससे पहले हरिहर काका के भाई कुछ सोचें और किसी को अपनी सहायता के लिए आवाज लगा कर बुलाएँ, तब तक बहुत देर हो गई थी।  हमला करने वाले हरिहर काका को अपनी पीठ पर डाल कर कही गायब हो गए थे।वे हरिहर काका को देव-स्थान ले गए थे। एक ओर तो देव-स्थान के अंदर जबरदस्ती हरिहर काका के अँगूठे का निशान लेने और पकड़कर समझाने का काम चल रहा था, तो वहीं दूसरी ओर हरिहर काका के तीनों भाई सुबह होने से पहले ही पुलिस की जीप को लेकर देव-स्थान पर पहुँच गए थे। महंत और उनके साथियों ने हरिहर काका को कमरे में हाथ और पाँव बाँध कर रखा था और साथ ही साथ उनके मुँह में कपड़ा ठूँसा गया था ताकि वे आवाज़ न कर सकें। परन्तु हरिहर काका दरवाज़े तक लुढ़कते हुए आ गए थे और दरवाज़े पर अपने पैरों से धक्का लगा रहे थे ताकि बाहर खड़े उनके भाई और पुलिस उन्हें बचा सकें।

दरवाज़ा खोल कर हरिहर काका को बंधन से मुक्त किया गया।  हरिहर काका ने पुलिस को बताया कि वे लोग उन्हें उस कमरे में इस तरह बाँध कर कही गुप्त दरवाज़े से भाग गए हैं और उन्होंने कुछ खली और कुछ लिखे हुए कागजों पर हरिहर काका के अँगूठे के निशान जबरदस्ती लिए हैं।

यह सब बीत जाने के बाद हरिहर काका फिर से अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लग गए थे। चौबीसों घंटे पहरे दिए जाने लगे थे। यहाँ तक कि अगर हरिहर काका को किसी काम के कारण गाँव में जाना पड़ता तो हथियारों के साथ चार-पाँच लोग हमेशा ही उनके साथ रहने लगे। लेखक कहता है कि हरिहर काका के साथ जो कुछ भी हुआ था उससे हरिहर काका एक सीधे-सादे और भोले किसान की तुलना में चालाक और बुद्धिमान हो गए थे। उन्हें अब सब कुछ समझ में आने लगा था कि उनके भाइयों का अचानक से उनके प्रति जो व्यवहार परिवर्तन हो गया था, उनके लिए जो आदर-सम्मान और सुरक्षा वे प्रदान कर रहे थे, वह उनका कोई सगे भाइयों का प्यार नहीं था बल्कि वे सब कुछ उनकी धन-दौलत के कारण कर रहे हैं, नहीं तो वे हरिहर काका को पूछते तक नहीं। जब से हरिहर काका देव-स्थान से वापिस घर आए थे, उसी दिन से ही हरिहर काका के भाई और उनके दूसरे नाते-रिश्तेदार सभी यही सोच रहे थे कि हरिहर काका को क़ानूनी तरीके से उनकी जायदाद को उनके भतीजों के नाम कर देना चाहिए। क्योंकि जब तक हरिहर काका ऐसा नहीं करेंगे तब तक महंत की तेज़ नज़र उन पर टिकी रहेगी।

जब हरिहर काका के भाई हरिहर काका को समझाते-समझाते थक गए, तो उन्होंने हरिहर काका को डाँटना और उन पर दवाब डालना शुरू कर दिया। एक रात हरिहर काका के भाइयों ने भी उसी तरह का व्यवहार करना शुरू कर दिया जैसा महंत और उनके सहयोगियों ने किया था। उन्हें धमकाते हुए कह रहे थे कि ख़ुशी-ख़ुशी कागज़ पर जहाँ-जहाँ जरुरत है, वहाँ-वहाँ अँगूठे के निशान लगते जाओ, नहीं तो वे उन्हें मार कर वहीँ घर के अंदर ही गाड़ देंगे और गाँव के लोगो को इस बारे में कोई सूचना भी नहीं मिलेगी। हरिहर काका के साथ अब उनके भाइयों की मारपीट शुरू हो गई। जब हरिहर काका अपने भाइयों का मुकाबला नहीं कर पा रहे थे, तो उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर अपनी मदद के लिए गाँव वालों को आवाज लगाना शुरू कर दिया। तब उनके भाइयों को ध्यान आया कि उन्हें हरिहर काका का मुँह पहले ही बंद करना चाहिए था। उन्होंने उसी पल हरिहर काका को जमीन पर पटका और उनके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया। लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी, हरिहर काका की आवाजें बाहर गाँव में पहुँच गई थी। हरिहर काका के परिवार और रिश्ते-नाते के लोग जब तक गाँव वालों कोसमझाते की यह सब उनके परिवार का आपसी मामला है, वे सभी इससे दूर रहें, तब तक महंत जी बड़ी ही दक्षता और तेज़ी से वहाँ पुलिस की जीप के साथ आ गए। पुलिस ने पुरे घर की अच्छे से तलाशी लेना शुरू कर दिया। फिर घर के अंदर से हरिहर काका को इतनी बुरी हालत में हासिल किया गया जितनी बुरी हालत उनकी देव-स्थान में भी नहीं हुई थी। हरिहर काका ने बताया कि उनके भाइयों ने उनके साथ बहुत ही ज्यादा बुरा व्यवहार किया है, जबरदस्ती बहुत से कागजों पर उनके अँगूठे के निशान ले लिए है, उन्हें बहुत ज्यादा मारा-पीटा है।

इस घटना के बाद हरिहर काका अपने परिवार से एकदम अलग रहने लगे थे। उन्हें उनकी सुरक्षा के लिए चार राइफलधारी पुलिस के जवान मिले थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि इसके लिए उनके भाइयों और महंत की ओर से काफ़ी प्रयास किए गए थे।

असल में भाइयों को चिंता थी कि हरिहर काका अकेले रहने लगेंगे, तो देव-स्थान के महंत-पुजारी फिर से हरिहर काका को बहला-फुसला कर ले जायँगे और जमीन देव-स्थान के नाम करवा लेंगे। और यही चिंता महंत जी को भी थी कि हरिहर काका को अकेला और असुरक्षित पा उनके भाई फिर से उन्हें पकड़ कर मारेंगे और जमीन को अपने नाम करवा लेंगे। लेखक कहता है कि हरिहर काका से जुड़ी बहुत सी ख़बरें गाँव में फैल रही थी। जैसे-जैसे दिन बड़ रहे थे, वैसे-वैसे डर का मौहोल बन रहा था। सभी लोग सिर्फ यही सोच रहे थे कि हरिहर काका ने अमृत तो पिया हुआ है नहीं, तो मरना तो उनको एक दिन है ही। और जब वे मरेंगे तो पुरे गाँव में तूफ़ान आ जाएगा क्योंकि महंत और हरिहर काका के परिवार के बीच जमीन को ले कर लड़ाई हो जायगी।

पुलिस के जवान हरिहर काका के खर्चे पर ही खूब मौज-मस्ती से रह रहे थे। जिसका धन वह रहे उपास, खाने वाले करें विलास अर्थात हरिहर काका के पास धन था लेकिन उनके लिए अब उसका कोई महत्त्व नहीं था और पुलिस वाले बिना किसी कारण से ही हरिहर काका के धन से मौज कर रहे थे। अब तक जो नहीं खाया था, दोनों वक्त उसका भोग लगा रहे थे।

हरिहर काका पाठ की व्याख्या

हरिहर काका के यहाँ से मैं अभी-अभी लौटा हूँ। कल भी उनके यहाँ गया था, लेकिन न तो वह कल ही कुछ कह सके और न आज ही। दोनों दिन उनके पास मैं देर तक बैठा रहा, लेकिन उन्होंने कोई बातचीत नहीं की। जब उनकी तबियत के बारे में पूछा तब उन्होंने सिर उठाकर एक बार मुझे देखा। फिर सिर झुकाया तो मेरी ओर नहीं देखा। हालाँकि उनकी एक ही नज़र बहुत कुछ कह गई। जिन यंत्रणाओं के बीच वह घिरे थे और जिस मनः स्थिति में जी रहे थे, उसमें आँखे ही बहुत कुछ  कह देती हैं, मुँह खोलने की जरूरत नहीं पड़ती।

तबियत – शरीर की स्थिति / मन की स्थिति
यंत्रणा – यातना / कलेश / कष्ट
मनःस्थिति – मन की स्थिति

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लेखक कहता है कि वह अभी-अभी हरिहर काका के घर से लौटा है। वह पिछले कल भी उनके घर गया था, लेकिन हरिहर काका ने ना तो उससे पिछले कल बात की और ना ही उन्होंने आज कुछ बोला था। दोनों ही दिन लेखक हरिहर काका के पास बहुत समय तक बैठा रहा, लेकिन उन्होंने कोई बात नहीं की। जब लेखक ने उनसे उनके हालचाल के बारे में पूछा तो उन्होंने लेखक को एक बार सिर उठाकर देखा और फिर सिर झुका दिया और उसके बाद लेखक की ओर नहीं देखा। लेखक को उनकी एक नजर से ही सब कुछ समझ आ गया था। जिन कष्टों में वे थे और उनके मन की जो स्थिति थी, उनको अपने मुँह से कहने की भी कोई जरुरत नहीं थी क्योंकि उनकी आँखे ही सब कुछ कह रही थी।

हरिहर काका की जिन्दगी से मैं बहुत गहरे में जुड़ा हूँ। अपने गाँव में जिन चंद लोगों को मैं सम्मान देता हूँ, उनमें हरिहर काका भी एक हैं। हरिहर काका के प्रति मेरी आसक्ति के अनेक व्यावहारिक और वैचारिक कारण हैं। उनमें प्रमुख कारण दो हैं। एक तो यह कि हरिहर काका मेरे पड़ोस में रहते हैं और दूसरा कारण यह की मेरी माँ बताती हैं, हरिहर काका बचपन में मुझे बहुत दुलार करते थे। अपने कंधे पर बैठा कर घुमाया करते थे। एक पिता अपने बच्चे को जितना प्यार करता है, उससे कहीं ज्यादा प्यार हरिहर काका मुझे करते थे। और जब मैं सयाना हुआ तब मेरी पहली दोस्ती हरिहर काका के साथ ही हुई।

चंद – कुछ
आसक्ति – लगाव
व्यावहारिक – व्यावहार सम्बन्धी
वैचारिक – विचार सम्बन्धी
दुलार – प्यार
सयाना – व्यस्क / बुद्धिमान / समझदार

लेखक कहता है कि वह हरिहर काका के साथ बहुत गहरे से जुड़ा था। लेखक अपने गाँव के जिन कुछ लोगों का सम्मान करता था, हरिहर काका उनमें से एक थे। लेखक का हरिहर काका के प्रति जो प्यार था वह लेखक का उनके व्यावहार के और उनके विचारों के कारण था। लेखक का हरिहर काका के प्रति जो प्यार था उसके दो कारण थे। उनमें से पहला कारण था कि हरिहर काका लेखक के पड़ोसी थे और दूसरा कारण लेखक को उनकी माँ ने बताया था कि हरिहर काका लेखक को बचपन से ही बहुत ज्यादा प्यार करते थे। वे लेखक को अपने कंधे पर बैठा कर घुमाया करते थे। एक पिता का अपने बच्चों के लिए जितना प्यार  होता है, लेखक के अनुसार हरिहर काका का उसके लिए प्यार उससे भी अधिक था। लेखक कहता है कि जब वह व्यस्क हुआ या थोड़ा समझदार हुआ तो उसकी पहली दोस्ती भी हरिहर काका के साथ ही हुई थी।

हरिहर काका ने भी जैसे मुझसे दोस्ती के लिए ही इतनी उम्र तक प्रतीक्षा की थी। माँ बताती है कि मुझसे पहले गाँव में किसी अन्य से उनकी इतनी गहरी दोस्ती नहीं हुई थी। वह मुझसे कुछ भी नहीं छिपाते थे। खूब खुल कर बातें करते थे लेकिन फ़िलहाल मुझसे भी कुछ कहना उन्होंने बंद कर दिया है। उनकी इस स्थिति ने मुझे चिंतित कर दिया है। जैसे कोई नाव बीच मझधार में फँसी हो और उस पर सवार लोग चिल्लाकर भी अपनी रक्षा न कर सकते हों, क्योंकि उनकी चिल्लाहट दूर तक फैले सागर के बीच उठती-गिरती लहरों में विलीन हो जाने के अतिरिक्त कर ही क्या सकती है? मौन हो कर जल-समाधि लेने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं। लेकिन मन इसे मानने को कतई तैयार नहीं। जीने की लालसा की वजह से बैचेनी और छटपटाहट बढ़ गई हो, कुछ ऐसी ही स्थिति के बीच हरिहर काका घिर गए हैं।

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प्रतीक्षा – इंतज़ार
फ़िलहाल – अभी / इस समय
मझधार – बीच में (जल प्रवाह या भवसागर के मध्य में)
विलीन – लुप्त हो जाना
विकल्प – दूसरा उपाय

लेखक कहता है कि जब उसके पहले दोस्त हरिहर काका बने तो उसे ऐसा लगा जैसे हरिहर काका ने भी लेखक से दोस्ती करने के लिए अपनी इतनी लम्बी उम्र तक इन्तजार किया हो। लेखक की माँ ने लेखक को बताया था कि उससे पहले हरिहर काका की गाँव में किसी से इतनी गहरी दोस्ती नहीं हुई थी। लेखक कहता है कि हरिहर काका उससे कभी भी कुछ नहीं छुपाते थे, वे उससे सबकुछ खुल कर कह देते थे लेकिन अभी इस समय उन्होंने लेखक से भी बात करना बंद कर दिया था। उनकी इस तरह की परिस्थिति को देख कर लेखक को उनकी चिंता हो रही थी। उनकी स्थिति लेखक को इस तरह लग रही थी जैसे कोई नाव जल प्रवाह या भवसागर के मध्य में फँस गई हो और उसमे बैठे लोग किसी को चिल्लाकर भी नहीं बुला सकते क्योंकि भवसागर के बीच में होने की वजह से उनकी आवाजें कहीं लहरों की आवाजों में मिल कर लुप्त हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में चुप-चाप वहीँ पानी में ही अंतिम साँस लेने के आलावा कोई और रास्ता नहीं रह जाता। लेखक कहता है कि उसे हरिहर काका की ऐसी स्थिति पर विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसी स्थिति में जैसे जीने के लालच में बैचेनी और छटपटाहट बढ़ जाती है, कुछ ऐसी ही स्थिति केबीच में हरिहर काका फँसे हुए लग रहे थे।

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हरिहर काका के बारे में मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि वह यह समझ नहीं पा रहे हैं कि कहे तो क्या कहें? अब कोई ऐसी बात नहीं जिसे कहकर वह हल्का हो सकें। कोई ऐसी उक्ति नहीं जिसे कहकर वे मुक्ति पा सकें। हरिहर काका की स्थिति में मैं भी होता तो निश्चय ही इस गूँगेपन का शिकार हो जाता।

हरिहर काका इस स्थिति में कैसे आ फँसे? यह कौन सी स्थिति है? इसके लिए कौन जिम्मेवार है? यह सब बताने से पहले अपने गाँव का और खासकर उस गाँव की ठाकुरबारी का संक्षिप्त परिचय मैं आपको दे देना उचित समझता हूँ क्योंकि उसके बिना तो यह कहानी तो अधूरी ही रह जाएगी।

उक्ति – कथन / वाक्य
ठाकुरबारी – देवस्थान

लेखक कहता है कि हरिहर काका की इस स्थिति को देख कर उसे लग रहा था कि वे शायद समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें क्या कहना चाहिए? अब शायद कोई ऐसी बात ही नहीं थी जिसको बोल कर वे अपना मन हल्का कर सकें और न ही कोई ऐसा वाक्य या कथा है जो उनके मन को शांति प्रदान कर सके। लेखक कहता है कि हरिहर काका की जो स्थिति है उसमें अगर वह स्वयं भी होता तो वह भी शायद इसी तरह गूँगा हो जाता अर्थात किसी से बात नहीं करता।

अब बात आती है कि हरिहर काका इस स्थिति में कैसे फँस गए। यह कौन सी स्थिति है जिसके बारे में लेखक बात कर रहा है। हरिहर काका को इस स्थिति में पहुँचाने के लिए कौन जिम्मेवार हैं। यह सब बताने से पहले लेखक अपने गाँव और खासकर उस गाँव में स्थित देवस्थान के बारे में संक्षेप में बताना चाहता है क्योंकि उसको जाने बिना कहानी को समझना नामुमकिन है और कहानी उसके बिना अधूरी है।

मेरा गाँव कस्बाई शहर आरा से चालीस किलोमीटर की दुरी पर है। हसनबाजार बस स्टैंड के पास। गाँव की कुल आबादी ढाई-तीन हज़ार होगी। गाँव में तीन प्रमुख स्थान हैं। गाँव के पश्चिम किनारे का बड़ा-सा तालाब। गाँव के मध्य स्थित बरगद का पुराना वृक्ष और गाँव के पूरब में ठाकुर जी का विशाल मंदिर, जिसे गाँव के लोग ठाकुरबारी कहते हैं।

मध्य – बीच में

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लेखक कहता है कि उसका गाँव कस्बाई शहर आरा से चालीस किलोमीटर की दुरी पर हसनबाजार बस स्टैंड के पास स्थित है। गाँव की कुल आबादी लगभग ढाई-तीन हज़ार होगी। गाँव में तीन प्रमुख स्थान हैं। पहला-गाँव के पश्चिम किनारे में एक बड़ा-सा तालाब स्थित है। गाँव के बीचोंबीच एक बरगद का पुराना वृक्ष स्थित है और गाँव की पूर्व दिशा में ठाकुर जी का विशाल मंदिर है, जिसे गाँव के लोग ठाकुरबारी यानि देवस्थान कहते हैं।

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गाँव में इस ठाकुरबारी की स्थापना कब हुई, इसकी ठीक-ठीक जानकारी किसी को नहीं। इस सम्बन्ध में गाँव में जो कहानी प्रचलित है वह यह कि वर्षों पहले जब यह गाँव पूरी तरह बसा भी नहीं था, कहीं से एक संत आकर इस स्थान पर झोंपड़ी बना रहने लगे थे। वह सुबह-शाम यहाँ ठाकुरजी की पूजा किया करते थे। लोगों से माँगकर खा लेते थे और पूजा- पाठ की भावना जाग्रत किया करते थे। बाद में लोगों ने चंदा करके यहाँ ठाकुरजी का एक छोटा-सा मंदिर बनवा दिया। फिर जैसे-जैसे गाँव बसता गया और आबादी बढ़ती गई, मंदिर के कलेवर में भी विस्तार होता गया। लोग ठाकुरजी को मनौती मनाते कि पुत्र हो, मुकदमे में विजय हो, लड़की की शादी अच्छे घर में तय हो, लड़के को नौकरी मिल जाए। फिर इसमें जिनको सफलता मिलती, वह ख़ुशी से ठाकुरजी पर रूपय, ज़ेवर, अनाज चढ़ाते। अधिक ख़ुशी होती तो ठाकुरजी के नाम अपने खेत का एक छोटा-सा टुकड़ा लिख देते। यह परंपरा आज तक ज़ारी है।

प्रचलित – चलनसार
जाग्रत – जगाना
कलेवर – शरीर / देह / ऊपरी ढाँचा
मनौती – मन्नत
परंपरा – प्रथा / प्रणाली

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लेखक उसके गाँव में स्थापित देव-स्थान की स्थापना के बारे में कहता है कि गाँव में वह देव-स्थान कब स्थापित किया गया इसके बारे में कोई भी सही-सही नहीं बता सकता। इसके बारे में गाँव में जो कहानी चली आ रही है उसके अनुसार, बहुत साल पहले जब गाँव सही ढंग से बसा भी नहीं था तब न जाने कहाँ से एक संत गाँव में आकर उस स्थान पर झोंपड़ी बना कर रहने लगा। वह संत सुबह-शाम ठाकुरजी की पूजा किया करता था और लोगो से माँगकर ही खाना खाता था। वह लोगो में पूजा-पाठ की भावना को जगाने का काम करता था। बाद में लोगों ने आपस में ही कुछ धन जमा करके उस झोंपड़ी के स्थान पर ठाकुरजी का एक छोटा-सा मंदिर बना दिया। फिर जैसे-जैसे गाँव बढ़ता गया, वहाँ की आबादी भी बढ़ती गई और साथ-ही-साथ मंदिर के आकार में भी बढ़ोतरी होती गई। लोग ठाकुर जी से पुत्र की मन्नत मांगते, मुक़दमे में जीत, लड़की की शादी किसी अच्छे घर में हो जाए, लड़के को नौकरी मिल जाए आदि मन्नत माँगते थे। मन्नत पूरी होने पर लोग अपनी ख़ुशी से ठाकुरजी को रूपए, ज़ेवर, और अनाज चढ़ाया करते थे। जिसको बहुत अधिक ख़ुशी होती थी वह अपने खेत का छोटा-सा भाग ठाकुरजी के नाम कर देता था और यह एक तरह से प्रथा ही बन गई जो आज तक चली आ रही है।

अधिकांश लोगों को विश्वास है कि उन्हें अच्छी फसल होती है, तो ठाकुरजी की कृपा से। मुक़दमे में उनकी जीत हुई तो ठाकुरजी के चलते। लड़की की शादी इसलिए जल्दी तय हो गई, क्योंकि ठाकुरजी को मनौती मनाई गई थी। लोगों के इस विश्वास का ही यह परिणाम है कि गाँव की अन्य चीज़ों की तुलना में ठाकुरबारी का विकास हज़ार गुना अधिक हुआ है। अब तो यह गाँव ठाकुरबारी से ही पहचाना जाता है। यह ठाकुरबारी न सिर्फ मेरे गाँव की एक बड़ी और विशाल ठाकुरबारी है बल्कि पुरे इलाके में इसकी जोड़ की दूसरी ठाकुरबारी नहीं।
ठाकुरबारी के नाम पर बीस बीघे खेत हैं। धार्मिक लोगों की एक समिति है, जो ठाकुरबारी की देख-रेख और सञ्चालन के लिए प्रत्येक तीन साल पर एक महंत और एक पुजारी की नियुक्ति करती है।

अधिकांश – ज्यादातर
समिति – संस्था
सञ्चालन – नियंत्रण / चलाना
नियुक्ति – तैनाती / लगाया गया

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लेखक कहता है कि गाँव के ज्यादातर लोगों का विश्वास यह बन गया है कि अगर उनकी फसल अच्छी हो तो उसे वे अपनी मेहनत नहीं बल्कि ठाकुरजी की कृपा मानते हैं। किसी की मुक़दमे में जीत होती है तो उसका श्रेय भी ठाकुरजी को दिया जाता है। लड़की की अगर शादी जल्दी तय हो जाती है तो भी माना जाता है कि ठाकुरजी से मन्नत माँगने के कारण  ऐसा हुआ है। लोगो के इस तरह के विश्वास का ही परिणाम है कि देव-स्थान का विकास गाँव की बाकि सभी चीज़ों से हज़ार गुना ज्यादा हुआ है। लेखक कहता है कि उसका गाँव अब गाँव के नाम से नहीं बल्कि देव-स्थान के वजह से ही पहचाना जाता है। उसके गाँव का यह देव-स्थान केवल उसके गाँव का ही सबसे बड़ा देव-स्थान नहीं है बल्कि यह देव-स्थान तो उस इलाके का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध देवस्थान है।

लेखक कहता है कि देव-स्थान के नाम पर लगभग बीस बीघे जमीन है। देव-स्थान की देख-रेख और नियंत्रण के लिए एक धार्मिक लोगों की संस्था का निर्माण भी किया गया है, यह संस्था हर तीन साल में एक महंत और एक पुजारी को तैनात करती है जो देव-स्थान में पूजा-पाठ का ध्यान रखते है।

ठाकुरबारी का काम लोगो के अंदर ठाकुर जी के प्रति भक्ति भावना पैदा करना तथा धर्म से विमुख हो रहे लोगो को रास्ते पर लाना है। ठाकुरबारी में भजन-कीर्तन की आवाज़ बराबर गूँजती रहती है। गाँव जब भी बाढ़ या सूखे की चपेट में आता है, ठाकुरबारी के अहाते में तंबू लग जाता है। .लोग और ठाकुरबारी के साधु -संत अखंड हरिकीर्तन शुरू कर देते हैं। इसके अतिरिक्त गाँव में किसी भी पर्व-त्योहार की शुरुआत ठाकुरबारी से ही होती है। होली का सबसे पहला गुलाल ठाकुरजी को ही चढ़ाया जाता है। दीवाली का पहला दीप ठाकुरबारी में ही जलता है। जन्म, शादी और जनेऊ के अवसर पर अन्न-वस्त्र की पहली भेंट ठाकुरजी के नाम की जाती है ठाकुरजी के ब्राह्मण-साधु व्रत-कथाओं के दिन घर-घर घूमकर कथावाचन करते हैं। लोगों के खलिहान में जब फसल की दवनी होकर अनाज की ‘ढेरी’ तैयार हो जाती है, तब ठाकुरजी के नाम ‘अगउम’ निकलकर ही लोग अनाज अपने घर ले जाते हैं।

विमुख – प्रतिकूल
चपेट – आघात / प्रहार
अहाता – चारों ओर से दीवारों से घिरा हुआ मैदान
अखंड – निर्विघ्न
दवनी – गेंहूँ / धान निकालने की प्रक्रिया
अगउम – प्रयोग में लाने से पहले देवता के लिए निकाला गया अंश

लेखक देव-स्थान के काम के बारे में बताता हुआ कहता है कि देव-स्थान का काम लोगों के अंदर भगवान के प्रति आस्था और विश्वास पैदा करना और जो लोग धर्म के रास्ते से भटक गए हैं उन्हें सही रास्ता दिखाना है। देव-स्थान पर भगवान के भजन-कीर्तन की आवाजें गूँजती रहती हैं। जब कभी भी गाँव पर बाढ़ और सूखे का प्रहार होता है, तो देव-स्थान के चारों ओर से दीवारों से घिरे हुए मैदान में तंबू लग जाते हैं और वहाँ लोग और देव-स्थान के साधु-संत बिना किसी रोक-टोक वाले या बहुत लम्बे समय तक चलने वाले हरिकीर्तन शुरू कर देते हैं। इतना ही नहीं अगर गाँव में कभी भी-कोई भी पर्व-त्योहार होता है, तो उसकी शुरुआत भी देव-स्थान से ही होती है। जैसे-होली का पहला गुलाल भगवान को लगाया जाता है, दीवाली का पहला दीप भी देव-स्थान पर ही जलाया जाता है। जन्म, शादी और जनेऊ के अवसर पर भी पहली भेंट भगवान के ही नाम जाती है। भगवान के ब्राह्मण-साधु व्रत-कथाओं के दिन घर-घर घूमकर कथा का बखान करते हैं। लोगो के आँगन में जब गेंहूँ या धान निकालने की प्रक्रिया शुरू होती है और जब अनाज का ढेर तैयार हो जाता है, तो प्रयोग में लाने से पहले देवता के लिए अनाज का अंश निकाला जाता है, उसके बाद ही लोग अनाज को अपने घर ले जाते हैं।

ठाकुरबारी के साथ अधिकांश लोगों का सम्बन्ध बहुत ही घनिष्ठ है-मन और तन दोनों स्तर पर। कृषि-कार्य से अपना बचा हुआ समय वे ठाकुरबारी में ही बिताते हैं। ठाकुरबारी में साधु-संतों के प्रवचन सुन और ठाकुर जी के दर्शन कर वे अपना यह जीवन सार्थक मानने लगते हैं। उन्हें यह महसूस होता है कि ठाकुरबारी में प्रवेश करते ही वे पवित्र हो जाते हैं। उनके पिछले सारे पाप अपने आप ख़त्म हो जाते हैं।

घनिष्ठ – अत्यधिक निकटता
प्रवचन – वेद, पुराण आदि का उपदेश करना
सार्थक – उद्देश्य वाला

लेखक कहता है कि गाँव के कुछ लोगों का देव-स्थान के साथ बहुत निकटता का रिश्ता बन गया है, वे तन-मन दोनों से ही देव-स्थान के प्रति आस्थावान हैं। वे अपने कृषि के काम को ख़त्म करके बचा हुआ समय देव-स्थान में ही बिताते हैं। देव-स्थान के साधु-संतो के द्वारा वेद, पुराण आदि का उपदेश सुनकर और भगवान के दर्शन कर लेने से वे अपने जीवन को उद्देश्य से भरपूर मानते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि जैसे ही वे देव-स्थान में प्रवेश करते हैं, वे पवित्र हो जाते हैं और उनके द्वारा किये गए सारे बुरे काम अपने आप ही ख़त्म हो जाते हैं।

परिस्थितिवश इधर हरिहर काका ने ठाकुरबारी में जाना बंद कर दिया है। पहले वह अकसर ही ठाकुरबारी में जाते थे। मन बहलाने के लिए कभी-कभी मैं भी ठाकुरबारी में जाता हूँ। लेकिन वहाँ के साधु-संत मुझे फूटी आँखों नहीं सुहाते। काम-धाम करने में उनकी कोई रूचि नहीं। ठाकुरजी को भोग लगाने के नाम पर दोनों जून हलवा-पूड़ी खाते हैं और आराम से पड़े रहते हैं। उन्हें अगर कुछ आता है तो सिर्फ बात बनाना आता है।

परिस्थितिवश – परिस्थितियों के कारण
फूटी आँखों न सुहाना – थोड़ा भी अच्छा न लगना
दोनों जून – दोनों वक्त

लेखक कहता है कि हरिहर काका ने अपनी परिस्थितिओं के कारण देव-स्थान में जाना बंद कर दिया है। पहले वे लगभग हमेशा ही देव-स्थान जाया करते थे। मन बहलाने के लिए लेखक भी कभी-कभी देव-स्थान चला जाता था। लेकिन लेखक कहता है कि वहाँ के साधु-संत उसे बिलकुल भी पसंद नहीं थे। क्योंकि वे काम करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे। भगवान को भोग लगाने के नाम पर वे दिन के दोनों समय हलवा-पूड़ी बनवाते थे और आराम से पड़े रहते थे। सारा काम वहाँ आए लोगो से सेवा करने के नाम पर करवाते थे। वे खुद अगर कोई काम करते थे तो वो था बातें बनवाने का काम।

हरिहर काका चार भाई हैं। सबकी शादी हो चुकी है। हरिहर काका के आलावा सबके बाल-बच्चे हैं। बड़े और छोटे भाई के लड़के काफी सयाने हो गए हैं। दो की शादियाँ हो गई हैं। उनमें से एक पढ़-लिखकर शहर के किसी दफ़्तर में क्लर्की करने लगा है। लेकिन हरिहर काका की अपनी देह से कोई औलाद नहीं। भाइयों में हरिहर काका का नंबर दूसरा है औलाद के लिए उन्होंने दो शादियाँ कीं। लंबे समय तक प्रतीक्षारत रहे। लेकिन बिना बच्चा जने उनकी दोनों पत्नियाँ स्वर्ग सिधार गईं। लोगों ने तीसरी शादी करने की सलाह दी लेकिन अपनी गिरती हुई उम्र और धार्मिक संस्कारों की वजह से हरिहर काका ने इंकार कर दिया वह इत्मीनान और प्रेम से अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे।

आलावा – अतिरिक्त
क्लर्की – लिपिक / कर्मचारी
प्रतीक्षारत – इंतज़ार करना
इत्मीनान – तसल्ली

लेखक हरिहर काका के बारे में बताता हुआ कहता है कि हरिहर काका और उनके भाई, चार हैं। सबकी शादी हो चुकी है। हरिहर काका के अतिरिक्त सभी तीन भाइयों के बाल-बच्चे हैं। बड़े और छोटे भाई के बच्चे बहुत समझदार हो गए हैं। उनमें से दो की शादियाँ भी हो गई हैं। उनमें से एक पढ़-लिखकर शहर में कहीं लिपिक की नौकरी कर रहा है। लेकिन हरिहर काका की कोई अपनी औलाद नहीं है। भाइयों में हरिहर काका दूसरे नंबर के भाई हैं। औलाद की चाह में हरिहर काका ने दो शादियाँ की थी। बहुत लम्बे समय तक वे औलाद की प्रतीक्षा करते रहे, लेकिन औलाद को बिना जन्म दिए ही उनकी दोनों पत्नियाँ स्वर्ग सिधार गई। लोगों ने हरिहर काका को तीसरी शादी करने के लिए कहा, लेकिन अपनी बढ़ती उम्र और अपने धार्मिक संस्कारों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने तीसरी शादी करने से इंकार कर दिया। वे तसल्ली और प्यार के साथ अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे थे।

हरिहर काका के परिवार के पास कुल साठ बीघे खेत हैं। प्रत्येक भाई के हिस्से पंद्रह बीघे पड़ेंगे। कृषि-कार्य पर ये लोग निर्भर हैं। शायद इसलिए अब तक संयुक्त परिवार के रूप में ही रहते आ रहे हैं।

हरिहर काका के तीनों भाइयों ने अपनी पत्नियों को यह सीख दी थी कि हरिहर काका की अच्छी तरह सेवा करें। समय पर उन्हें नाश्ता-खाना दें। किसी तरह की तकलीफ़ न होने दें। कुछ दिनों तक वे हरिहर काका की खोज-खबर लेती रहीं। फिर उन्हें कौन पूछने वाला? ‘ठहर चौका’ लगाकर पंखा झलते हुए अपने मर्दों को अच्छे-अच्छे व्यंजन खिलातीं। हरिहर काक के आगे तो बची-खुची चीज़ें आती। कभी-कभी तो हरिहर काका को रूखा-सूखा खा कर ही संतोष करना पड़ता।

व्यंजन – अच्छा खाना
संतोष – तृप्ति / प्रसन्नता / हर्ष

harihar kaka

लेखक कहता है कि हरिहर काका के पूरे परिवार के पास लगभग साठ बीघे खेत हैं। अगर हर एक भाई को बराबर-बराबर बाँट दें तो हर एक के हिस्से में पंद्रह बीघे जमीन आएगी। ये सभी लोग अपना गुजारा खेती-बाड़ी कर के ही करते हैं। शायद यही कारण था कि अब तक ये पूरा परिवार एक साथ ही रहता था।

हरिहर काका के तीनों भाइयों ने अपनी-अपनी पत्नियों को यह कह कर रखा था कि हरिहर काका की अच्छे से सेवा होनी चाहिए। समय पर उन्हें नाश्ता-खाना आदि मिलना चाहिए। उनको किसी भी तरह की परेशानी नहीं होनी चाहिए। कुछ दिनों तक तो वे हरिहर काका की सभी चीज़ों का अच्छे से ध्यान रखती रही, परन्तु फिर कुछ दिनों बाद हरिहर काका को कोई पूछने वाला नहीं था। खाने की मेज़ सजाकर पंखा हिलाते हुए अपने-अपने पत्तियों को अच्छा-अच्छा खाना खिलाती थी और हरिहर काका के सामने जो कुछ बच जाता था वही परोसा जाता था। कभी-कभी तो हरिहर काका को बिना तेल-घी के ही रूखा-सूखा खाना खा कर प्रसन्न रहना पड़ता था।

आगे कभी हरिहर काका की तबीयत खराब हो जाती तो मुसीबत में पड़ जाते। इतने बड़े परिवार में रहते हुए भी कोई उन्हें पानी देने वाला तक नहीं। सभी अपने कामों में मशगूल। बच्चे या तो पढ़-लिख रहे होते या धमाचौकड़ी मचाते। मर्द खेतों में गए रहते। औरतें हाल पूछने भी नहीं आतीं। दालान के कमरे में अकेले पड़े हरिहर काका को स्वयं उठकर अपनी जरूरतों की पूर्ति करनी पड़ती। ऐसे वक्त अपनी पत्नियों को याद कर-करके हरिहर काका की आँखें भर आती। भाइयों के परिवार के प्रति मोहभंग की शुरुआत इन्हीं क्षणों में हुई थी।

तबीयत – शरीर की स्थिति / मन की स्थिति
मशगूल – व्यस्त
धमाचौकड़ी – उछल-कूद
दालान – बरामदा
मोहभंग – प्रेम की भ्रान्ति का नाश

लेखक कहता है कि अगर कभी हरिहर काका के शरीर की स्थिति या मन की स्थिति ठीक नहीं होती तो समझिए हरिहर काका पर मुसीबतों का पहाड़ ही गिर जाता। क्योंकि इतने बड़े परिवार के रहते हुए भी हरिहर काका को कोई पानी भी नहीं पूछता था। सभी अपने-अपने कामों को करने में व्यस्त रहते थे। बच्चे या तो अपनी पढ़ाई कर रहे होते थे या उछल-कूद कर रहे होते थे। परिवार के सभी मर्द खेतों में गए होते थे। औरते तो हरिहर काका का हाल भी पूछने नहीं आती थी। बारामदे के कमरे में पड़े हुए हरिहर काका को अगर किसी चीज़ की जरुरत होती तो उन्हें खुद ही उठना पड़ता। ऐसे समय में हरिहर काका को अपनी दोनों पत्नियों की याद आ जाती और उनकी आँखें भर जाती। लेखक के अनुसार हरिहर काका का जो भाइयों के परिवार के लिए प्यार था उसके कम होने की शुरुआत उनके साथ होने वाले इस तरह के व्यवहार से ही हुई थी।

और फिर, एक दिन तो विस्फोट ही गया। उस दिन हरिहर काका की सहन-शक्ति ज़वाब दे गई। उस दिन शहर में क्लर्की करने वाले भतीजे का एक दोस्त गाँव आया था उसी के आगमन के उपलक्ष्य में दो-तीन तरह की सब्ज़ी, बजके, चटनी, रायता आदि बने थे। बिमारी से उठे हरिहर काका का मन स्वादिष्ट भोजन के लिए बेचैन था। मन-ही-मन उन्होंने अपने भतीजे के दोस्त की सराहना की, जिसके बहाने उन्हें अच्छी चीज़ें खाने को मिलने वाली थीं। लेकिन बातें बिलकुल विपरीत हुईं। सबों ने खाना खा लिया, उनको कोई पूछने तक नहीं आया। उनके तीन भाई खाना खाकर खलियान में चले गए। दवनी हो रही थी। वे इस बात के प्रति निश्चिंत थे कि हरिहर काका को तो पहले ही खिला दिया गया होगा।

विस्फोट – फूट कर बाहर निकलना
आगमन – आने पर
उपलक्ष्य – संकेत
सराहना – प्रशंसा
निश्चिंत – बेफिक्र

लेखक कहता है कि हरिहर काका सब कुछ सहन कर रहे थे, परन्तु एक दिन सब कुछ फूट कर बाहर आ गया। उस दिन हरिहर काका की सहन-शक्ति टूट गई। उस दिन उनका जो भतीजा शहर में क्लर्की की नौकरी करता है, वह और उसका एक दोस्त गाँव आए हुए थे। उन्हीं के आने की ख़ुशी में दो-तीन तरह की सब्ज़ियाँ, बजके, चटनी, रायता और भी बहुत कुछ बना था। बिमारी से कुछ समय पहले ही ठीक हुए हरिहर काका का भी कुछ स्वादिष्ट खाना खाने का मन था। हरिहर काका मन-ही-मन भतीजे और उसके दोस्त की प्रशंसा करने लगे क्योंकि उनकी वजह से ही आज हरिहर काका को स्वादिष्ट खाना खाने को मिलने वाला था। लेकिन जैसा हरिहर काका ने सोचा था बात बिलकुल उसके उलटी हुई। सब लोगों ने खाना खा लिया और हरिहर काका को कोई पूछने तक नहीं आया। उनके तीनों भाई खाना खा कर खलियान में चले गए क्योंकि गेंहूँ और धान को अलग करने का काम चल रहा थे। वे इस बात से बैख़बर थे और सोच रहे थे कि हरिहर काका को तो पहले ही खाना दे दिया गया होगा।

अंत में हरिहर काका ने स्वयं दालान के कमरे से निकल हवेली में प्रवेश किया। तब उनके छोटे भाई की पत्नी ने रुखा-सूखा खाना लाकर उनके सामने परोस दिया-भात, मा और अचार। बस, हरिहर काका के बदन में तो जैसे आग लग गई। उन्होंने थाली उठाकर बीच आँगन में फेंक दी। झन्न की तेज़ आवाज़ के साथ आँगन में थाली गिरी। भात बिखर गया। विभिन्न घरों में बैठी लड़कियाँ, बहुएँ सब एक साथ बाहे निकल आईं। हरिहर काका गरजते  हुए हवेली से दालान की ओर  चल पड़े-“समझ रही हो कि मुफ़्त में खिलाती हो, तो अपने मन से यह बात निकाल देना। मेरे हिस्से के खेत की पैदावार इसी घर में आती है। उसमें तो मैं दो-चार नौकर रख लूँ, आराम से खाऊँ, तब भी कमी नहीं होगी। मैं अनाथ और बेसहारा नहीं हूँ। मेरे धन पर तो तुन सब मौज कर रही हो। लेकिन अब मैं तुम सबों को बताऊँगा…. आदि।”

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लेखक कहता है कि जब हरिहर काका को किसी ने खाना खाने के लिए नहीं पूछा तो वे खुद ही बरामदे वाले कमरे से निकल कर हवेली के अंदर गए। तब हरिहर काका के छोटे भाई कि पत्नी ने रुखा-सूखा खाना लाकर उनके सामने परोस दिया। जिसमें भात, दाल और अचार ही था। बस फिर क्या था, ऐसा खाना देखकर हरिहर काका को गुस्सा आ गया और उन्होंने थाली को उठाकर बीच आँगन में फेंक दिया। थाली आँगन में झन्न की आवाज़ के साथ बहुत जोर से गिरी। भात गिर कर आँगन में बिखर गया। गाँव के अलग-अलग घरों में बैठी लड़कियाँ और बहुएँ आवाज को सुनकर एक साथ बाहर आ गईं। हरिहर काका गुस्से में बरामदे की ओर चल पड़े और जोर-जोर से बोल रहे थे कि उनके भाई की पत्नियाँ क्या यह सोचती हैं कि वे उन्हें मुफ्त में खाना खिला रही हैं। अगर वे ऐसा कुछ सोचती हैं तो वे अपने मन से ऐसी बातें निकाल दें। हरिहर काका कह रहे थे कि उनके खेत में उगने वाला अनाज भी इसी घर में आता है। और अगर वो अलग रहें तो वो दो-चार नौकर रख कर आराम से अपनी जिंदगी काट सकते हैं, उनको कोई कमी नहीं होगी। वे अनाथ और बेसहारा नहीं हैं क्योंकि जब तक उनके पास धन है वे किसी को भी अपना बना सकते हैं। हरिहर काका कह रहे थे कि उनके भाई का परिवार उनके पैसों पर ही तो मौज करता है। लेकिन अब हरिहर काका सबसे उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार करने के लिए बदला लेने की बात कर रहे थे, और भी वे ना जाने क्या-क्या बोल रहे थे।

हरिहर काका जिस वक्त यह सब बोल रहे थे, उस वक्त ठाकुरबारी के पुजारी जी उनके दालान पर ही विराजमान थे। वार्षिक हुमाध के लिए वह घी और शकील लेने आए थे। लौटकर उन्होंने महंत जी को विस्तार के साथ सारी बात बताई। उनके कान खड़े हो गए। वह दिन उन्हें बहुत शुभ महसूस हुआ। उस दिन को उन्होंने ऐसे ही गुज़र जाने देना उचित नहीं समझा। तत्क्षण टिका-तिलक लगा, कंधे पर रामनामी लिखी चादर डाल ठाकुरबारी से चल पड़े। संयोग अच्छा था। हरिहर के दालान तक नहीं जाना पड़ा। रास्ते में ही हरिहर मिल गए। गुस्से में घर से निकल वह खलियान की ओर जा रहे थे। लेकिन महंत जी ने उन्हें खलियान की ओर नहीं जाने दिया। अपने साथ ठाकुरबारी पर लेते आए।

विराजमान – उपस्थित
हुमाध – हवन में प्रयुक्त होने वाली सामग्री
कान खड़े होना – सावधान होना
तत्क्षण – उसी समय
संयोग – किस्मत

लेखक कहता है कि जिस समय हरिहर काका गुस्से में सबको बातें सूना रहे थे, उस समय देव-स्थान के पुजारी जी उनके बरामदे में ही उपस्थित थे। वे उनके घर साल में होने वाले हवन के लिए लगने वाली सामग्री के लिए घी और शकील लेने के लिए आए थे। पुजारी जी ने वहाँ से लौटकर महंत जी को सारी बातें बहुत ही विस्तार से सुनाई। महंत जी सावधान हो गए। उन्हें लग रहा था कि यह दिन बहुत ही ज्यादा अच्छा है। उस दिन का ऐसे ही बीत जाना उन्होंने सही नहीं समझा। उन्होंने तुंरत टिका-तिलक लगाया, अपने कंधे पर राम नाम लिखी चादर को डाला और देव-स्थान से निकल कर चल पड़े। उनकी किस्मत अच्छी थी। हरिहर काका के बरामदे तक नहीं जाना पड़ा। उन्हें हरिहर काका रास्ते में ही मिल गए थे। क्योंकि हरिहर काका गुस्से में घर से निकल कर खलियान की ओर जा रहे थे, लेकिन महंत जी ने उन्हें रास्ते में ही रोक दिया और खलियान की ओर नहीं जाने दिया। महंत जी हरिहर काका को अपने साथ देव-स्थान ले आए।

फिर एकांत कमरे में उन्हें बैठा, खूब प्रेम से समझाने लगे-” हरिहर! यहाँ कोई किसी का नहीं है। सब माया का बंधन है। तू तो धार्मिक प्रवृति का आदमी है। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुम इस बंधन में कैसे फँस गए? ईश्वर में भक्ति लगाओ। उसके सिवाय कोई तुम्हारा अपना नहीं। पत्नी, बेटे, भाई-बंधु सब स्वार्थ के साथी हैं। जिस दिन उन्हें लगेगा कि तुमसे उनका स्वार्थ सधने वाला नहीं, उस दिन वे तुम्हें पूछेंगे तक नहीं। इसलिए ज्ञानी, संत, महात्मा ईश्वर के सिवाय किसी और में प्रेम नहीं लगाते।…..तुम्हारे हिस्से में पंद्रह बीघे खेत हैं। उसी के चलते तुम्हारे भाई के परिवार तुम्हें पकड़े हुए हैं। तुम एक दिन कह कर तो देख लो कि अपना खेत उन्हें ना देकर दूसरे को लिख दोगे, वह तुमसे बोलना बंद कर देंगे। खून का रिश्ता खत्म हो जायगा। तुम्हारे भले के लिए मैं बहुत दिनों से सोच रहा था लेकिन संकोचवश नहीं कह रहा था।

एकांत – खाली
स्वार्थ – अपना मतलब
संकोच – झिझक

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लेखक कहता है कि महंत जी हरिहर काका को एक खाली कमरे में ले गए और बहुत ही प्यार से समझाने लगे कि इस दुनिया में कोई किसी का नहीं है। इस दुनिया में लालच और सम्पति का झूठा जाल है। महंत हरिहर काका को कहता है कि उसे वे धर्म से जुड़े हुए व्यक्ति लगते हैं। उसे समझ में नहीं आ रहा कि हरिहर काका इतने समझदार होते हुए भी ऐसे बंधन में कैसे फँस गए। महंत हरिहर काका को भगवान में आस्था लगाने को कहता है क्योंकि महंत के अनुसार भगवान के सिवाय इस दुनिया में कोई अपना नहीं है। पत्नी, बेटे, भाई-बंधु सब केवल अपने मतलब के लिए ही साथ में होते हैं। जिस दिन उन्हें लगेगा कि उनका मतलब पूरा नहीं हो रहा है तो वे बात तक नहीं करेंगें। इसीलिए तो बड़े-बड़े ज्ञानी, संत, महात्मा भगवान के अलावा किसी और से प्यार नहीं करते। महंत हरिहर काका से कहता है कि उनके हिस्से में तो पंद्रह बीघे खेत हैं। जिसके कारण उनके भाइयों का परिवार उनसे जुड़ा हुआ है। किसी दिन अगर हरिहर काका यह कह दें कि वे अपने खेत किसी और के नाम लिख रहे हैं तो वे लोग तो उनसे बात करना भी बंद कर देंगें। खून के रिश्ते ख़त्म हो जायेंगे। महंत हरिहर काका से कहता है कि ये उनके भले की है और वह बहुत दिनों से उनसे कहना चाहता था लेकिन झिझक के कारण नहीं बोल पाया।

आज कह देता हूँ, तुम अपने हिस्से का खेत ठाकुर जी के नाम लिख दो। सीधे बैकुंठ को प्राप्त करोगे। तीनो लोकों में तुम्हारी कीर्ति जगमगा उठेगी। जब तक चाँद-सूरज रहेंगे, तब तक लोग तुम्हें याद करेंगे। ठाकुरजी के नाम पर ज़मीन लिख देना, तुम्हारे जीवन का महादान होगा। साधु-संत तुम्हारे पाँव पखारेंगे। सभी तुम्हारा यशोगान करेंगे। तुम्हारा यह  जीवन सार्थक हो जाएगा। अपनी शेष जिंदगी तुम इसी ठाकुरबारी में गुजारना, तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं होगी। एक माँगोगे तो चार हाज़िर की जाएँगी हम तुम्हें सिर-आँखों पर उठाकर रखेंगे। ठाकुरजी के साथ-साथ तुम्हारी आरती भी लगाएँगे। भाई का परिवार तुम्हारे लिए कुछ नहीं करेगा। पता नहीं पूर्वजन्म में तुमने कौन सा पाप किया था कि तुम्हारी दोनों पत्नियाँ अकालमृत्यु को प्राप्त हुई। तुमने औलाद का मुँह तक नहीं देखा। अपना यह जन्म तुम अकारथ न जाने दो। ईश्वर को एक भर दोगे तो दस भर पाओगे। मैं अपने लिए तो तुमसे माँग नहीं रहा हूँ। तुम्हारा यह लोक और परलोक दोनों बन जाएँ, इसकी राह मैं तुम्हें बता रहा हूँ…..।”

बैकुंठ – स्वर्ग
कीर्ति – प्रसिद्धि /ख्याति
पाँव पखारना – पाँव धोना
अकारथ – अकारण

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महंत हरिहर काका से कहता है कि उनके हिस्से में जितने खेत हैं वे उनको भगवान के नाम लिख दें। ऐसा करने से उन्हें सीधे स्वर्ग की प्राप्ति होगी। तीनों लोकों में उनकी प्रसिद्धि का ही गुणगान होगा। जब तक इस दुनिया में चाँद-सूरज रहेंगे, तब तक लोग उन्हें याद किया करेंगे। भगवान के नाम पर अपनी सारी जमीन को लिख देना उनके जीवन का महादान कहलाया जायगा। साधु-संत भी उनके पाँव धोएंगें। सभी उनकी प्रशंसा और उनका गुणगान करेंगे। उनका जीवन सफल हो जाएगा। महंत हरिहर काका से कहता है कि वे अपनी बाकी की जिंदगी देव-स्थान पर गुजार सकते हैं। वहाँ पर उन्हें कभी भी किसी भी चीज़ की कोई कमी नहीं होगी। कोई एक चीज़ माँगने पर चार चीज़ें रख दी जाएगी। वहाँ पर उनका बहुत आदर-सत्कार किया जाएगा। भगवान की पूजा के साथ-साथ हरिहर काका की भी पूजा की जाएगी। महंत हरिहर काका से कहता है कि उनके भाई का परिवार उनके लिए कुछ भी नहीं करेगा। महंत यह भी कहता है कि पता नहीं हरिहर काका ने पिछले जन्म में कौन से ऐसे पाप किये थे जिसके कारण उनकी दोनों पत्नियाँ मृत्यु से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गई और ना ही वे औलाद का सुख हासिल कर पाए। महंत हरिहर काका को कहता है कि वे अपना जीवन अकारण ही ख़राब न करें। अगर वे भगवान को एक चीज़ देंगे तो भगवान उन्हें दस चीज़ें वापिस देंगे। महंत हरिहर काका से कहता है कि वह जमीन उसके अपने लिए तो नहीं माँग रहा, वह तो सिर्फ हरिहर काका को रास्ता दिखा रहा है ताकि हरिहर काका के लोक और परलोक दोनों सुख में बीते।

हरिहर देर तक महंत जी की बातें सुनते रहे। महंत जी कि बातें उनके मन में बैठती जा रही थीं। ठीक ही तो कह रहे हैं महंत जी। कौन किसका है? पंद्रह बीघे खेत की फसल भाइयों के परिवार को देतें हैं, तब तो कोई पूछता नहीं, अगर कुछ न दें तब क्या हालत होगी? उनके जीवन में तो यह स्थिती है, मरने के बाद कौन उन्हें याद करेगा? सीधे-सीधे उनके खेत हड़प जाएँगे। ठाकुर जी के नाम लिख देंगे तो पुश्तों तक लोग उन्हें याद करेंगे। अब तक के जीवन में तो ईश्वर के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया। अंतिम समय तो यह बड़ा पुण्य कमा लें। लेकिन यह सोचते हुए भी हरिहर काका का मुँह खुल नहीं रहा था। भाई का परिवार तो अपना ही होता है। उनको न देकर ठाकुरबारी में दे देना उनके साथ धोखा और विश्वासघात होगा…..।

हड़प लेना – बेईमानी से ले लेना

लेखक कहता है कि जब महंत हरिहर काका को समझा रहे थे, तो हरिहर काका बहुत देर तक महंत की बातों को सुनते रहे। महंत की बातें हरिहर काका के मन में बैठती जा रही थी और वे सोच रहे थे कि महंत सही तो कह रहे हैं। इस दुनिया में कोई किसी का नहीं है। क्योंकि वे अपने हिस्से के पंद्रह बीघे खेत की फसल अपने भाइयों के परिवार को दे देते हैं, उसके बाद भी वहाँ उनका ध्यान नहीं रखा जाता। हरिहर काका सोचने लगे अगर वे कुछ भी न दें फिर उनका क्या होगा।  उनके जीते जी ही उनका कोई महत्त्व नहीं रह गया है, तो मरने के बादकोई उन्हें याद नहीं करेगा । उनके खेतों पर बेईमानी से कब्ज़ा कर लिया जाएगा। हरिहर काका सोचने लगे कि अगर वे अपनी जमीन भगवान के नाम लिख दें तो पीढ़ियों तक उनको याद रखा जायेगा। अब तक के जीवन में उन्होंने भगवान के लिए कुछ भी नहीं किया। अपने अंतिम समय में वे कुछ अच्छा तो कर ही सकते हैं। लेखक कहता है कि हरिहर काका ये सब सोच तो रहे थे परन्तु वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे। वे दूसरी ओर यह भी सोच रहे थे कि भाई का परिवार भी तो अपना ही परिवार होता है। अपनी जमीन उनको न देकर देव-स्थान के नाम लिख देना,  उनके साथ भी तो धोखा और विश्वासघात होगा।

अपनी बात समाप्त पर महंत जी प्रतिक्रिया जानने के लिए हरिहर की ओर देखने लगे। उन्होंने मुँह से तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके चेहरे के परिवर्तित भाव महंत जी की अनुभवी आँखों से छिपे न रह सके। अपनी सफलता पर महंत जी को बहुत ख़ुशी हुई। उन्होंने सही जगह वार किया है। इसके बाद उसी वक्त ठाकुरबारी के दो सेवकों को बुलाकर आदेश दिया कि एक साफ़-सुथरे कमरे में पलंग पर बिस्तरा लगाकर उनके आराम का इंतज़ाम करें। फिर तो महंत जी के कहने में जितना समय लगा था, उससे कम समय में ही, सेवकों ने हरिहर काका के मना करने के बावज़ूद उन्हें एक सुन्दर कमरे में पलंग पर जा लिटाया। और महंत जी! उन्होंने पुजारी जी को यह समझा दिया कि हरिहर के लिए विशेष रूप से भोजन की व्यवस्था करें। हरिहर काका को महंत जी एक विशेष उद्देश्य से ले गए थे, इसलिए ठाकुरबारी में चहल-पहल शुरू हो गई।

प्रतिक्रिया – प्रतिकार / बदला / क्रिया के विरोध में होनेवाली घटना
परिवर्तित – बदला हुआ
इंतज़ाम – प्रबंध

जब महंत जी हरिहर काका को समझा कर रुके तो वे हरिहर काका की ओर देखने लगे क्योंकि वे जानना चाहते थे कि उनके समझाने का हरिहर काका पर क्या प्रभाव पड़ा है। हरिहर काका ने अपने मुँह से तो कोई उत्तर नहीं दिया परन्तु हरिहर काका के चेहरे की बदलती हुई भावनाओं को महंत जी आसानी से पहचान गए। महंत जी जो चाहते थे वह हो रहा था इसलिए वह बहुत खुश थे। वे जानते थे कि उन्होंने सही जगह और सही समय पर वार किया है। फिर महंत जी ने उसी समय दो सेवकों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि एक साफ़-सुथरे कमरे में पलंग पर बिस्तरा लगाकर हरिहर काका के आराम का प्रबंध करें। महंत जी के कहने में जितना समय लगा था सेवकों ने उससे भी कम समय में ही काम कर दिया और हरिहर काका के मना करने के बाद भी उन्हें एक सुन्दर कमरे में पलंग पर लेटाया गया। और महंत जी ने पुजारी को यह समझा दिया था कि हरिहर काका के लिए विशेष रूप से भोजन की व्यवस्था करवाए क्योंकि हरिहर काका को महंत जी एक विशेष उद्देश्य से देव- स्थान में ले कर आए थे, इसलिए देव-स्थान में चहल-पहल शुरू हो गई।

इधर शाम को हरिहर काका के भाई जब खलियान से लौटे तब उन्हें इस दुर्घटना का पता चला पहले तो अपनी पत्नियों पर वे खूब बरसे, फिर एक जगह बैठकर चिंतामग्न हो गए। हालाँकि गाँव के किसी व्यक्ति ने भी उनसे कुछ नहीं कहा था। महंत जी ने हरिहर काका को क्या-क्या समझाया है, इसकी भी जानकारी उन्हें नहीं थी। लेकिन इसके बाबजूद उनका मन शंकालु और बेचैन हो गया। दरअसल, बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं, जिनकी जानकारी बिना बताए ही लोगो को मिल जाती है।
शाम गहराते-गहराते हरिहर काका के तीनों भाई ठाकुरबारी पहुँचे। उन्होंने हरिहर काका को वापिस घर चलने के लिए कहा। इससे पहले की हरिहर काका कुछ कहते, महंत जी बीच में आ गए -“आज हरिहर को यहीं रहने दो…. बिमारी से उठा है। इसका मन अशांत है। ईश्वर के दरबार में रहेगा तो शांति मिलेगी….।”

चिंतामग्न – सोच में पड़ना
शंकालु – संदेह करने वाला
बेचैन – व्याकुल

हरिहर काका के भाई जब शाम को काम करके खलियान से लौटे तब उन्हें सारी बात का पता चला की उनके पीछे घर में क्या-क्या हुआ है। सब कुछ जान कर पहले तो उन्होंने अपनी पत्नियों को बहुत डाँटा, फिर एक स्थान पर बैठकर सोच में पड़ गए। वैसे अभी तक गाँव के किसी व्यक्ति ने उनसे कुछ नहीं कहा था और न ही उन्हें अभी तक इस बात का पता था की महंत जी ने हरिहर काका को क्या-क्या समझाया है। लेकिन इन सब के बाद भी उनका मन संदेह में पड़ गया और व्याकुल हो गया। क्योंकि उनको इस बात का पता था की बहुत सी बातों की जानकारी लोगों को बिना बताए ही हो जाती है।

शाम के ज्यादा गहरे होते-होते हरिहर काका के तीनो भाई हरिहर काका को घर वापिस लेने के लिए देव-स्थान पहुँच गए। उन्होंने हरिहर काका को घर चलने के लिए कहा और इससे पहले हरिहर काका कुछ बोलते महंत जी बीच में ही बोल पड़े कि आज हरिहर काका को देव-स्थान में ही रहने दिया जाए क्योंकि हरिहर काका अभी कुछ दिल पहले ही बिमारी से ठीक हुए हैं और उनका मन भी शांत नहीं है। अगर हरिहर काका भगवान के पास कुछ समय बिताएँगे तो उन्हें अच्छा लगेगा।

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लेकिन उनके भाई उन्हें घर ले चलने के लिए ज़िद करने लगे। इस पर ठाकुरबारी के साधू-संत उन्हें समझने लगे। वहाँ उपस्थित गाँव के लोगों ने भी कहा कि एक रात ठाकुरबारी में रह जाएँगे तो क्या हो जाएगा? अंततः भाइयों को निराश हो वहाँ से लौटना पड़ा।
रात में हरिहर काका को भोग लगाने के लिए जो मिष्टान्न और व्यंजन मिले, वैसे उन्होंने कभी नहीं खाए थे। घी टपकते मालपुए, रस बुनिया, लड्डू, छेने की तरकारी, दही, खीर….। पुजारी जी ने स्वयं अपने हाथों से खाना परोसा था। पास में बैठे महंत जी धर्म चर्चा से मन में शांति पहुँचा रहे थे। एक ही रात में ठाकुरबारी में जो सुख-शांति और संतोष पाया, वह अपने अब तक के जीवन में उन्होंने नहीं पाया था।

मिष्टान्न – मिठाई
व्यंजन – तरह-तरह का भोजन

महंत के ये कहने पर भी कि आज हरिहर काका को देव-स्थान में ही रहने दो, उनके भाई उन्हें घर ले चलने की ज़िद करने लगे। इस पर देव-स्थान के सभी साधु-संत हरिहर काका के भाइयों को समझाने  लग गए। वहाँ पर उपस्थित गाँव के लोग भी उन्हें कहने लगे कि अगर एक रात हरिहर काका देव-स्थान पर रहेंगे तो कुछ नहीं होगा । इसके कारण हरिहर काका के भाइयों को निराश हो कर वापिस अपने घर जाना पड़ा।

देव-स्थान में रात के खाने के लिए हरिहर काका को जो खाना दिया गया, वैसी मिठाई और तरह-तरह का भोजन उन्होंने कभी नहीं खाए थे । घी टपकते मालपुए, रस बुनिया, लड्डू, छेने की तरकारी, दही, खीर और भी न जाने क्या-क्या। पुजारी जी ने स्वयं अपने हाथों से हरिहर काका को खाना परोसा था। पास में बैठे महंत जी धर्म चर्चा करते हुए हरिहर काका के मन में शांति पहुँचा रहे थे। एक ही रात में हरिहर काका ने देव-स्थान में जो सुख-शांति और संतोष पा लिया था, वह उन्होंने अपने अब तक के पुरे जीवन में हासिल नहीं किया था।

इधर तीनों भाई रात-भर सो नहीं सके। भावी आशंका उनके मन को मथती रही। पंद्रह बीघे खेत! इस गाँव की उपजाऊ ज़मीन! दो लाख से अधिक की सम्पति! अगर हाथ से निकल गई तो फिर वह कहीं के न रहेंगे।

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सुबह तड़के ही तीनों भाई पुनः ठाकुरबारी पहुँचे। हरिहर काका के पाँव पकड़ रोने लगे। अपनी पत्नियों की गलती के लिए माफ़ी माँगी तथा उन्हें दण्ड देने की बात कही। साथ ही खून के रिश्ते की माया फैलाई। हरिहर काका का दिल पसीज़ गया। वह पुनः वापिस घर लौट आए।

भावी आशंका – भविष्य की चिंता
मथना – बार-बार सोचना
पसीज़ – मन में दया का भाव जागना

जब हरिहर काका देव-स्थान में ही रुक गए तो रात-भर उनके तीनों भाइयों को नींद नहीं आई। उनके भविष्य की चिंता उनके मन में बार-बार आती रही। वे सोचते रहे कि पंद्रह बीघे खेत, जिसकी जमीन गाँव की सबसे अधिक उपजाऊ जमीन है और लगभग दो लाख से ज्यादा की संपत्ति अगर उनके हाथ से निकाल गई तो वे क्या करेंगे।

सुबह होते ही हरिहर काका के तीनों भाई फिर से देव-स्थान पहुँच गए। तीनों हरिहर काका के पाँव में गिर कर रोने लगे और अपनी पत्नियों की गलती की माफ़ी माँगने लगे और कहने लगे की वे अपनी पत्नियों को उनके साथ किए गए इस तरह के व्यवहार की सज़ा देंगे। वे हरिहर काका के सामने खून के रिश्ते की बात करने लगे। हरिहर काका के मन में दया का भाव जाग गया और वे फिर से घर वापिस लौट कर आ गए।

लेकिन यह क्या? इस बार अपने घर पर जो बदलाव उन्होंने लक्ष्य किया,उसने उन्हें सुखद आश्चर्य में डाल दिया। घर के छोटे-बड़े सब उन्हें सिर-आँखों पर उठाने को तैयार। भाइयों की पत्नियों ने उनके पैर पर माथा रख गलती के लिए क्षमा-याचना की। फिर उनकी आवभगत और जो खातिर शुरू हुई, वैसी खातिर किसी के यहाँ मेहमान आने पर भी नहीं होती होगी। उनकी रूचि और इच्छा के मुताबिक दोनों जून खाना-नाश्ता तैयार। पाँच महिलाएँ उनकी सेवा में मुस्तैद- तीन भाइयों की पत्नियाँ और दो उनकी बहुएँ। हरिहर काका आराम से दालान में पड़े रहते। जिस किसी चीज़ की इच्छा होती, आवाज़ लगाते ही हाज़िर। वे समझ गए थे कि यह सब महंत जी के चलते ही हो रहा है, इसलिए महंत जी के प्रति उनके मन में आदर और श्रद्धा के भाव निरंतर बढ़ते ही जा रहे थे।

याचना – माँगना
आवभगत – सत्कार
मुस्तैद – कमर कस कर तैयार रहना
श्रद्धा – आदरपूर्ण आस्था या विश्वास
निरंतर – लगातार

जब अपने भाइयों के समझाने के बाद हरिहर काका घर वापिस आए तो घर में और घर वालों के व्यवहार में आए बदलाव को देख कर उन्हें बहुत ही सुख देने वाली भावना महसूस हुई। घर के सभी छोटे-बड़े लोग हरिहर काका का आदर-सत्कार करने लगे। तीनों भाइयों की पत्नियों ने हरिहर काका के पैरों में अपना माथा रख कर अपने व्यवहार के लिए माफ़ी माँगी। फिर तो जो सत्कार और खातिरदारी हरिहर काका की होने लगी, वैसी तो बहुतों के घर में मेहमानों की भी नहीं होती। जो भी हरिहर काका को पसंद होता, दोनों समय वही खाना बनाया जाता। तीन भाइयों की पत्नियाँ और उनकी दो बहुएँ- सभी पाँचों महिलाएँ हरिहर काका की सेवा में कमर कस कर हमेशा तैयार रहती थी। हरिहर काका आराम से बरामदे में पड़े रहते थे। उन्हें जिस किसी चीज़ की जरुरत होती वे सिर्फ आवाज देते सब कुछ उनके सामने लाया जाता। वे यह समझ गए थे कि ये सब महंत जी के कारण ही हो रहा है, इसीलिए महंत जी के लिए उनके मन में आदर पूर्ण आस्था और विश्वास लगातार बढ़ता ही जा रहा था।

बहुत बार ऐसा होता है कि बिना किसी के कुछ बताए गाँव के लोग असली तथ्य से स्वयं वाकिफ हो जाते हैं। हरिहार काका की इस घटना के साथ ऐसा ही हुआ। दरअसल लोगो की ज़ुबान से घटनाओं की जुबान ज्यादा पैनी और असरदार होती है। घटनाएँ स्वयं ही बहुत कुछ कह देती हैं, लोगों के कहने की जरुरत नहीं रहती। न तो गाँव के लोगों से महंत जी ने ही कुछ कहा था और न ही हरिहर काका के भाइयों ने ही। इसके बावजूद गाँव के लोग सच्चाई से अवगत हो गए थे। फिर तो गाँव की बैठकों में बातों का जो सिलसिला चल निकला उसका कहीं कोई अंत नहीं। हर जगह उन्हीं का प्रसंग शुरू। कुछ लोग कहते कि हरिहर को अपनी जमीन ठाकुर जी के नाम लिख देनी चाहिए। इससे उत्तम और कुछ नहीं। इससे कीर्ति भी अचल बनी रहती है। इसके विपरीत कुछ लोगों की मान्यता यह थी कि भाई का परिवार तो अपना ही होता है। अपनी जायदाद उन्हें न देना उनके साथ अन्याय करना होगा। खून के रिश्ते के बीच दीवार बनानी होगी।

तथ्य – वास्तविक घटना
वाकिफ – परिचित
अवगत – जाना हुआ
कीर्ति – प्रसिद्धि / ख्याति
अचल – गतिहीन

लेखक कहता है कि बहुत बार ऐसा देखने में आता है कि बिना किसी के कुछ भी बताए, गाँव के लोगों को वास्तविक घटना का पता चल ही जाता है। हरिहर काका की घटना में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। बात यह है कि लोगों की जुबान किसी भी घटना को और ज्यादा असरदार और महत्वपूर्ण बना देती है। कोई भी घटना खुद भी अपने बारे में बहुत कुछ बता देती है, लोगों के कहने की कोई जरुरत ही नहीं पड़ती। गाँव के लोगों को न तो महंत जी ने कुछ बताया था और ना ही हरिहर काका के भाइयों ने कुछ बताया था। उसके बाद भी गाँव के लोग सच्चाई से खुद ही परिचित हो गए थे। फिर तो गाँव के लोग जब भी कहीं बैठते तो बातों का ऐसा सिलसिला चलता जिसका कोई अंत नहीं था। हर जगह बस उन्हीं की बातें होती थी। कुछ लोग कहते कि हरिहर काका को अपनी जमीन भगवान के नाम लिख देनी चाहिए। इससे उत्तम और अच्छा कुछ नहीं हो सकता। इससे हरिहर काका को कभी न ख़त्म होने वाली प्रसिद्धि प्राप्त होगी। इसके विपरीत कुछ लोग यह मानते थे कि भाई का परिवार भी तो अपना ही परिवार होता है। अपनी जायदाद उन्हें न देना उनके साथ अन्याय करना होगा। खून के रिश्ते के बीच दीवार बन सकती है।

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जितने मुँह उतनी बातें। ऐसा जबरदस्त मसला पहले कभी नहीं मिला था, इसलिए लोग मौन होना नहीं चाहते थे। अपने-अपने तरीके से समाधान ढूँढ रहे थे और प्रतीक्षा कर रहे थे कि कुछ घटित हो। हालाँकि ऐसी क्रम में बातें गर्माहट-भरी भी होने लगी थीं। लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में दो वर्गों में बँटने लगे थे। कई बैठकों में दोनों वर्गों के बीच आपस में तू-तू, मैं-मैं भी होने लगी। एक वर्ग के लोग चाहते थे कि हरिहर अपने हिस्से की जमीन ठाकुर जी के नाम लिख दें। तब यह ठाकुरबारी न सिर्फ इलाके की ही सबसे बड़ी ठाकुरबारी होगी, बल्कि पूरे राज्य में इसका मुकाबला कोई दूसरी ठाकुरबारी नहीं कर सकेगी। इस वर्ग के लोग धार्मिक संस्कारों के लोग हैं। साथ ही किसी-न-किसी रूप में ठाकुरबारी से जुड़े हैं। असल में जब सुबह-शाम ठाकुरजी को भोग लगाया जाता है, तब साधु-संतों के साथ गाँव के कुछ पेटू और चटोर किस्म के लोग प्रसाद पाने के लिए वहाँ जुट जाते हैं। ये लोग इसी वर्ग के हिमायती हैं। दूसरे वर्ग में गाँव के प्रगतिशील विचारों वाले लोग तथा वैसे किसान हैं, जिनके यहाँ हरिहर जैसे औरत-मर्द पल रहे होते हैं। गाँव का वातावरण तनावपूर्ण हो गया था और लोग कुछ घटित होने की प्रतीक्षा करने लगे थे।

समाधान – उपाय
प्रत्यक्ष – जो सामने दिखाई दे
परोक्ष – जो सामने दिखाई न दे
हिमायती – तरफदारी करने वाला / पक्षपाती

लेखक कहता है कि गाँव में जितने मुँह थे उतनी रंग की बातें हो रही थी। बातें करने के लिए ऐसा वाक्य कभी नहीं मिला था, इसलिए लोग चुप होने का नाम नहीं ले रहे थे। हर कोई अपनी-अपनी समझ के आधार पर समस्या के लिए उपाय खोज रहा था और ये इन्तजार कर रहे थे कि कब कुछ घटना घटित हो। इसी के कारण बातें इतनी अधिक बढ़ गई थी कि लोग सामने और बिना सामने आए हुए भी दो भागों में बँट गए थे। कई बार तो हालात ये हो जाते कि दोनों भागों के लोगों के बीच झगड़े की नौबत आ जाती। एक वर्ग के लोग ये चाहते थे कि हरिहर अपने हिस्से की जमीन भगवान के नाम लिख दें। क्योंकि वे सोचते थे कि ऐसा करने पर उनका देव-स्थान न सिर्फ इलाके की ही सबसे बड़ा देव-स्थान होगा, बल्कि पूरे राज्य में इसका मुकाबला कोई दूसरा देव-स्थान नहीं कर पाएगा। जो लोग यह सोचते थे, वे धार्मिक प्रवृत्ति के लोग थे और वे किसी न किसी तरह देव-स्थान से जुड़े हुए थे। असल में वे ऐसे लोग थे, जो सुबह-शाम जब भगवान को भोग लगाया जाता, तब साधु-संतों के साथ प्रसाद पाने के लिए वहाँ जुट जाते थे। ये लोग सिर्फ साधु-संतों और महंतों की तरफदारी करने वाले थे। दूसरे वर्ग के लोग गाँव के विकास के बारे में सोचने वाले लोग थे और वे लोग थे जिनके घर में हरिहर काका की तरह कोई न कोई औरत या मर्द था। गाँव का वातावरण बहुत ही तनाव भरा हो गया था और लोग इंतज़ार कर रहे थे कि कुछ न कुछ घटित हो।

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इधर भावी आशंकाओं के मद्देनज़र रखते हुए हरिहर काका के भाई उनसे यह निवेदन करने लगे कि अपनी जमीन वे उन्हें लिख दें। उनके सिवाय उनका और अपना है नहीं कौन? इस विषय पर हरिहर काका ने एकांत में मुझसे काफ़ी देर तक बात की। अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जीते-जी अपनी जायदाद का स्वामी किसी और को बनाना ठीक नहीं होगा। चाहे वह अपना भाई या मंदिर का महंत ही क्यों न हो? हमें अपने गाँव और इलाके के वे कुछ लोग याद आए, जिन्होंने अपनी जिंदगी में ही अपनी जायदाद अपने उत्तराधिकारियों या किसी अन्य को लिख दी थी, लेकिन उसके बाद उनका जीवन कुत्ते का जीवन हो गया। कोई उन्हें पूछने वाला नहीं रहा। हरिहर काका बिलकुल अनपढ़ व्यक्ति हैं, फिर भी इस बदलाव को उन्होंने समझ लिया और यह निश्चय किया कि जीते-जी किसी को जमीन नहीं लिखेंगे। अपने भाइयों को समझा दिया मर जाऊँगा तो अपने आप मेरी जमीन तुम्हें मिल जायगी। जमीन ले कर तो जाऊँगा नहीं। इसलिए लिखवाने की क्या जरुरत?

सिवाय – अलावा
निष्कर्ष – परिणाम

लेखक कहता है कि अपने भविष्य की चिंता को ध्यान में रख कर हरिहर काका के भाई उनसे प्रार्थना करने लगे कि वे अपने हिस्से की जमीन को उनके नाम लिखवा दें। उनके अलावा हरिहर काका की जायदाद पर हक़ जताने वाला कोई नहीं था । इस विषय पर हरिहर काका ने लेखक से बहुत समय तक बात की और लेखक और हरिहर काका अंत में इस परिणाम पर पहुंचे कि अपने जीते-जी अपनी जायदाद का स्वामी किसी और को बनाना ठीक नहीं होगा। फिर चाहे वह अपना भाई हो या मंदिर का महंत। क्योंकि लेखक और हरिहर काका को अपने गाँव और इलाके के वे कुछ लोग याद आए, जिन्होंने अपनी जिंदगी में ही अपनी जायदाद को अपने रिश्तेदारों या किसी और के नाम लिखवा दिया था। उनका जीवन बाद में किसी कुत्ते के जीवन की तरह हो गया था, उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं था। हरिहर काका बिलकुल भी पढ़े-लिखे नहीं थे, परन्तु उन्हें अपने जीवन में एकदम हुए बदलाव को समझने में कोई गलती नहीं हुई और उन्होंने फैसला कर लिया कि वे जीते-जी किसी को भी अपनी जमीन नहीं लिखेंगे। हरिहर काका ने अपने भाइयों को भी समझा दिया था कि जब वे मर जाएँगे तो अपने आप उनकी सारी जमीन उनके भाइयों की हो जायगी। वे जमीन ले कर तो मरेंगे नहीं इसलिए लिखवाने की कोई जरुरत नहीं है।

उधर महंत जी भी हरिहर काका की टोह में रहने लगे। जहाँ कहीं एकांत पाते, कह उठते -“विलम्ब न करो हरिहर। शुभ काम में देर नहीं करते। चल कर ठाकुरजी के नाम जमीन बय कर दो। फिर पूरी जिंदगी ठाकुरबारी में राज करो। मरोगे तो तुम्हारी आत्मा को ले जाने के लिए स्वर्ग से विमान आएगा। देवलोक को प्राप्त करोगे …।”

लेकिन हरिहर काका न ‘हाँ’ कहते और न ‘ना’। ‘ना’ कहकर वे महंत जी को दुखी करना नहीं चाहते थे। क्योंकि भाई के परिवार से जो सुख-सुविधाएँ उन्हें मिल रही थी, वे महंत जी की कृपा से ही। और ‘हाँ’ तो उन्हें कहना नहीं है, क्योंकि अपनी जिंदगी में अपनी जमीन उन्हें किसी को नहीं लिखनी।

इस मुद्दे पर वे जागरूक हो गए थे।

टोह – खोज
विलम्ब – देर
बय – वसीयत
जागरूक – सावधान

लेखक कहता है कि जब हरिहर काका अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे तो महंत जी हरिहर काका की खोज में रहने लगे थे। उन्हें जब भी हरिहर काका अकेले मिलते, तो वे अपनी बात रखने से पीछे नहीं हटते, वे हमेशा हरिहर काका को अपनी जमीन भगवान के नाम करने के लिए मनाते रहते थे। वे हमेशा हरिहर काका से कहते थे कि उन्हें देर नहीं करनी चाहिए। क्योंकि अच्छे काम में कभी भी देर नहीं करनी चाहिए। उन्हें जल्दी ही अपनी जमीन को भगवान के नाम कर देना चाहिए। और अपनी पूरी जिंदगी वे आराम से देव-स्थान में गुजार सकते हैं। वे हरिहर काका से कहते थे कि अगर वे ऐसा करेंगे तो उनके मरने पर उनकी आत्मा को ले जाने के लिए स्वर्ग से विमान आएगा। और वे भगवन के पास जाएँगे और स्वर्ग में ही रहेंगे।

लेकिन हरिहर काका उनकी किसी भी बात का जवाब सही से नहीं देते थे, वे ना तो उत्तर ‘हाँ’ में देते थे और न ही ‘ना’ कहते थे। ‘ना’ कहकर वे महंत जी को नाराज नहीं करना चाहते थे। क्योंकि हरिहर काका के अनुसार भाई के परिवार से जो सुख-सुविधाएँ उन्हें मिल रही थी, वे महंत जी की कारण ही संभव हुई थी। और ‘हाँ’ वे किसी को भी नहीं कहना चाहते क्योंकि उन्होंने इरादा बना दिया था कि वे अपने जीते जी अपनी जमीन को किसी के नाम भी नहीं लिखेंगे। इस विषय पर वे पूरी तरह से सावधान हो गए थे।

पर बितते समय के अनुसार महंत जी की चिंताएँ बढ़ती जा रही थीं। जाल में फँसी चिड़िया पकड़ से बाहर हो गई थी, महंत जी इस बात को सह नहीं पा रहे थे। महंत जी को लग रहा था कि हरिहर धर्म-संकट में पड़ गया है। एक ओर वह चाहता है कि ठाकुर जी को लिख दूँ, किन्तु दूसरी ओर भाई के परिवार के माया-मोह में बांध जाता है। इस स्थिति में हरिहर का अपहरण कर जबरदस्ती उससे लिखवाने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं। बाद में हरिहर स्वयं राजी हो जाएगा।

महंत जी लड़ाकू और दबंग प्रकृति के आदमी हैं। अपनी योजना को कार्य-रूप में परिणत करने के लिए वह जी-जान से जुट गए। हालाँकि यह सब गोपनीयता का निर्वाह करते हुए ही वह कर रहे थे। हरिहर काका के भाइयों को इसकी भनक तक नहीं थी।

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जबरदस्ती – बलपूर्वक
अतिरिक्त – सिवाय
विकल्प – उपाय
राजी – सहमत
दबंग – प्रभावशाली
परिणत – जिसमें परिवर्तन हुआ हो
गोपनीयता – जो सभी को न बता कर कुछ लोगो को ही बताया जाए
निर्वाह – निभाना / आज्ञानुसार कार्य करना
भनक – उड़ती खबर

लेखक कहता है कि जैसे-जैसे समय बीत रहा था महंत जी की परेशानियाँ बढ़ती जा रही थी। उन्हें लग रहा था कि उन्होंने हरिहर काका को फसाँने के लिए जो जाल फेंका था, हरिहर काका उससे बाहर निकल गए हैं, यह बात महंत जी को सहन नहीं हो रही थी। महंत जी को यह लग रहा था कि हरिहर काका धर्म-संकट में पड़ गए हैं, वे एक ओर तो अपनी जमीन भगवान के नाम लिखना चाहते हैं और वहीँ दूसरी ओर वे अपने भाइयों के परिवार से मिलने वाले आदर-सत्कार के कारण उनसे बाँध गए हैं।

महंत जी बहुत जी लड़ने वाले और प्रभावशाली किस्म के व्यक्ति थे। अपनी योजना को, जो बिलकुल ही बदल गई थी, पूरा करने के लिए महंत जी अपनी पूरी ताकत से लग गए। महंत जी इस कार्य को कुछ ही लोगों को बताकर कर रहे थे। इस बात की जानकारी हरिहर काका के भाइयों को भी नहीं थी।

बात अभी हाल की ही है। आधी रात के आस-पास ठाकुरबारी के साधु-संत और उनके पक्षधर भाला, गंड़ासा और बंदूक से लैस एकाएक हरिहर काका के दालान पर आ धमके। हरिहर काका के भाई इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं थे। इससे पहले की वे जवाबी करवाई करें और गुहार लगाकर अपने लोगों को जुटाएँ, तब तक आक्रमणकारी उनको पीठ पर लादकर चंपत हो गए।

गाँव में किसी ने ऐसी घटना नहीं देखी थी, न सुनी ही थी। सारा गाँव जाग गया। शुभचिंतक तो उनके यहाँ जुटने लगे लेकिन अन्य लोग अपने दालान और मकान की छतों पर जमा होकर आहाट लेने और बातचीत करने लगे।

अप्रत्याशित – आकस्मिक / जिसकी आशा न रही हो

गुहार – रक्षा के लिए गुहार
चंपत – गायब हो जाना
शुभचिंतक – भलाई चाहने वाला
आहाट – किसी के आने-जाने, बात करने की मंद आवाज

लेखक कहता है की अभी कुछ समय पहले की ही बात है। आधी रात के आस-पास देव-स्थान के साधु-संत और उनके कुछ साथी भाला, गंड़ासा और बंदूकों के साथ अचानक ही हरिहर काका के आँगन में आ गए। हरिहर काका के भाई इस अचानक हुए हमले के लिए तैयार नहीं थे। इससे पहले हरिहर काका के भाई कुछ सोचें और किसी को अपनी सहायता के लिए आवाज लगा कर बुलाएँ, तब तक बहुत देर हो गई थी, हमला करने वाले हरिहर काका को अपनी पीठ पर डाल कर कही गायब हो गए थे।

लेखक कहता है कि उसके गाँव में किसी ने भी ऐसी किसी भी घटना को न तो पहले कभी देखा था और न ही ऐसी किसी घटना के बारे में सुना था। सारा गाँव शोर के कारण जाग गया। हरिहर काका की भलाई चाहने वाले उनके घर में इकठ्ठे होने लगे और बाकि लोग अपने आँगनों और मकानों की छतों पर जमा हो कर किसी के भी आने-जाने और बात-चीत करने की आवाजों को सुन कर आपस में बातें करने लगे।

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हरिहर काका के भाई लोगों के साथ उन्हें ढूँढने निकले। उन्हें लगा कि यह महंत का काम है। वे मय दल-बल ठाकुरबारी जा पहुँचे। वहाँ खामोशी और शांति नजर आई। रोज की भाँति ठाकुरबारी का मुख्य फाटक बंद था। वातावरण में रात का सन्नाटा और सूनापन व्याप्त मिला। उन्हें लगा, यह काम महंत का नहीं, बाहर के डाकुओं का है। वे तो हरजाने कि मोटी रकम लेकर ही हरिहर काका को मुक्त करेंगे।

खोज में निकले लोग किसी दूसरी दिशा की ओर प्रस्थान करते कि इसी समय ठाकुरबारी के अंदर से बातचीत करने की सम्मिलित, किन्तु धीमी आवाज सुनाई पड़ी। सबके कान खड़े हो गए। उन्हें यकीन हो गया कि हरिहर काका इसी में हैं। अब क्या सोचना? वे ठाकुरबारी का फाटक पीटने लगे। इसी समय ठाकुरबारी की छत से रोड़े पत्थर उनके ऊपर गिरने लगे। वे तितर-बितर होने लगे। अपने हथियार सँभाले। लेकिन हथियार सँभालने से पहले ही ठाकुरबारी के कमरों की खिड़कियों से फायरिंग शुरू हो गई। एक नौजवान के पैर में गोली लग गई। वह गिर गया। उसके गिरते ही हरिहर काका के भाइयों के पक्षधर भाग चले। सिर्फ वे तीन भाई बचे रह गए। अपने तीनो के बूते इस युद्ध को जितना उन्हें संभव नहीं जान पड़ा। इसलिए वे कस्बे के पुलिस थाने की और दौड़ पड़े।

मय – युक्त / भरा हुआ
दल-बल – संगी-साथी
सन्नाटा – चुपी / मौन
व्याप्त – पूरी तरह फैला और समाया हुआ
हरजाने – हानि के बदले दिया जाने वाला धन
प्रस्थान – जाना
सम्मिलित – सामूहिक
तितर-बितर – अस्त-व्यस्त
बूते – अपने बल पर

लेखक कहता है कि हरिहर काका के अपहरण के बाद हरिहर काका के भाई लोगों के साथ हरिहर काका की तलाश में निकल गए। उन्हें लगा की ये सब महंत का किया काम है। इसलिए वे अपने सगे-साथियों से भरे एक समूह के साथ देव-स्थान जा पहुँचे। वहाँ पर पहुँच कर उन्हें सिर्फ चुप्पी और शांति ही नजर आई। हमेशा की तरह देव-स्थान का प्रमुख दरवाजा बंद ही था। वातावरण में रात की खामोशी और सूनापन फैला हुआ था। फिर सबको लगा कि यह काम महंत का नहीं है, यह काम बाहर के किसी डाकू के समूह का है और वे हरिहर काका के बदले में उनके परिवार से बहुत ज्यादा धन की माँग करेंगे और जब उनके घर वाले पूरा धन दे-देंगे तभी वे हरिहर काका को छोड़ेंगे।

जब खोज में निकले लोगों को लगा की हरिहर काका देव-स्थान में नहीं है तो वे दूसरी दिशा में उन्हें खोजने के लिए जाने लगे, तभी उसी समय उन्हें देव-स्थान के अंदर से सामूहिक परन्तु बहुत धीमी आवाजें सुनाई पड़ी। सभी के कान खड़े हो गए अर्थात सभी ध्यान से सुनने लगे। अब सभी को पूरा भरोसा हो गया था कि हरिहर काका देव-स्थान में ही हैं। फिर तो बिना सोचे-समझे, बिना देर किए लोग देव-स्थान के प्रमुख दरवाजे को पीटने लगे। तभी देव-स्थान की छत से रोड़े-पत्थर बरसने शुरू हो गए, जिसके कारण वे अस्त-व्यस्त हो कर बिखरने लगे। सभी अपने-अपने हथियारों को सँभालने लगे। परन्तु जब तक वे अपने हथियार सँभालते उससे पहले ही देव-स्थान की खिड़कियों से फायरिंग शुरू हो गई। एक नौजवान के पैर पर गोली लग गई और वह गिर गया। उसके गिरते ही हरिहर काका के भाइयों के साथ आए साथी भाग गए। अब सिर्फ हरिहर काका के तीनों भाई ही वहां रह गए थे। हरिहर काका के भाइयों को उनके अकेले के दम पर सबका मुकाबला करना कठिन लगा तो वे भी शहर के पुलिस थाने की ओर सहायता के लिए भागे।

उधर ठाकुरबारी के भीतर महंत और उनके कुछ चंद विश्वासी साधु सादे और लिखे कागजों पर अनपढ़ हरिहर काका के अँगूठे के निशान जबरन ले रहे थे। हरिहर काका तो महंत के इस व्यवहार से जैसे आसमान से जमीन में आ गए थे। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि महंत जी इस रूप में भी आएँगे। जिस महंत को वे आदरणीय और श्रद्धेय समझते थे, वह महंत अब उन्हें घृणित, दुराचारी और पापी नजर आने लगा था। अब वह उस महंत की सूरत भी देखना नहीं चाहते थे। अब अपने भाइयों का परिवार महंत की तुलना में उन्हें ज्यादा पवित्र, नेक और अच्छा लगने लगा था। हरिहर काका ठाकुरबारी से अपने घर पहुँचने के लिए बेचैन थे। लेकिन लोग उन्हें पकडे हुए थे। और महंत जी उन्हें समझा रहे थे -“तुम्हारे भले के लिए ही यह सब किया गया हरिहर। अभी तुम्हें लगेगा कि हम लोगों ने तुम्हारे साथ ज़ोर-जबरदस्ती की, लेकिन बाद में तुम समझ जाओगे कि जिस धर्म-संकट में तुम पड़े थे, उससे उबारने के लिए यही एकमात्र रास्ता था….।

जबरन – जबरदस्ती
आदरणीय – आदर के योग्य
श्रद्धेय – श्रद्धा के योग्य
घृणित – घिनौना
दुराचारी – दुष्ट / बुरा आचरण करने वाला
नेक – भला
बेचैन – व्याकुल
उबारना – पार करना / निकलना
एकमात्र – केवल एक

लेखक कहता है कि एक ओर तो हरिहर काका को बचाने आए सभी लोग भाग गए थे और दूसरी ओर देव-स्थान के अंदर महंत और उनके कुछ साथी कुछ लिखे हुए कागजों पर ज़बरदस्ती अनपढ़ हरिहर काका के अँगूठे के निशान लेना चाह रहे थे। हरिहर काका तो महंत के इस तरह के व्यवहार से जैसे आसमान से जमीन पर गिर गए थे क्योंकि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि महंत जी का ऐसा भी कोई रूप सामने आएगा। जिस महंत को वे आदर और सम्मान तथा श्रद्धा के समान समझते थे, वे असल में इतने घिनौने, दुष्ट और पापी प्रकृति के निकलेंगे। अब हरिहर काका के मन में महंत के लिए नफरत पैदा हो गई थी, वे महंत की सूरत भी नहीं देखना चाहते थे। हरिहर काका को अब अपने भाइयों का परिवार महंत की तुलना में बहुत ही पवित्र, नेक और अच्छा लगने लगा था।

हरिहर काका अपने घर जाने के लिए बहुत ज्यादा व्याकुल हो रहे थे। लेकिन महंत के साथियों ने उन्हें पकड़ रखा था। महंत जी हरिहर काका को समझा रहे थे कि यह सब जो उन्होंने किया है वह हरिहर काका के भले के लिए ही किया है। इस समय हरिहर काका को लग सकता है कि महंत उनके साथ जोर-जबरदस्ती कर रहा है, परन्तु महंत कहता है कि जिस धर्म-संकट में हरिहर काका फँस गए थे उससे बाहर निकालने के लिए यही एक रास्ता था।

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एक ओर ठाकुरबारी के भीतर जबरन अँगूठे का निशान लेने और पकड़कर समझाने का कार्य चल रहा था तो दूसरी ओर हरिहर काका के तीनों भाई सुबह होने से पहले ही पुलिस की जीप के साथ ठाकुरबारी पहुँचे। जीप से तीनों भाई, एक दरोगा और पुलिस के आठ जवान उतरे। पुलिस इंचार्ज ने ठाकुरबारी के फाटक पर आवाज लगाई। दस्तक दी। लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं। अब पुलिस के जवानों ने ठाकुरबारी के चारों तरफ घेरा डालना शुरू किया। ठाकुरबारी अगर छोटी रहती तो पुलिस के जवान आसानी से उसे घेर लेते, लेकिन विशालकाय ठाकुरबारी को पुलिस के सिमित जवान घेर सकने में असमर्थ साबित हो रहे थे। फिर भी जितना संभव हो सका, उस रूप में उन्होंने घेरा डाल दिया और अपना-अपना मोर्चा सँभाल सुबह की प्रतीक्षा करने लगे।

दरोगा – इंस्पेक्टर
इंचार्ज – प्रभारी
दस्तक – दरवाजा खटखटाना
सीमित – सीमा के अंदर
असमर्थ – योग्यता न होना

लेखक कहता है कि एक ओर तो देव-स्थान के अंदर जबरदस्ती हरिहर काका के अँगूठे का निशान लेने और पकड़कर समझने का काम चल रहा था, तो वहीं दूसरी ओर हरिहर काका के तीनों भाई सुबह होने से भी पहले ही पुलिस की जीप को लेकर देव-स्थान पर पहुँच गए थे। जीप से तीनो भाई, एक सब-इंस्पेक्टर और आठ जवान उतरे। पुलिस की ओर से पुलिस प्रभारी ने देव-स्थान का प्रमुख दरवाजा खटखटाया और आवाज भी दी। लेकिन देव-स्थान के अंदर से कोई आवाज बाहर नहीं आई। जब किसी ने देव-स्थान का दरवाजा नहीं खोला और न ही कोई उत्तर दिया तो पुलिस ने देव-स्थान को चारों ओर से घेरना शुरू कर दिया। देव-स्थान अगर छोटा होता तो पुलिस आसानी से उसे घेर लेती, लेकिन देव-स्थान इतना विशाल था कि पुलिस के उन थोड़े से सिपाहियों के लिए ये आसान नहीं था। फिर भी जितना हो सकता था उन्होंने देव-स्थान को चारों ओर से घेर लिया और अपने-अपने स्थान पर पहरा देते हुए सुबह का इंतज़ार करने लगे।

हरिहर काका के भाइयों ने सोचा था कि जब वे पुलिस के साथ ठाकुरबारी पहुँचेंगे तो ठाकुरबारी के भीतर से हमले होंगें और साधु-संत रँगे हाथों पकड़ लिए जायँगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। ठाकुरबारी के अंदर से एक रोड़ा भी बाहर नहीं आया। शायद पुलिस को आते हुए उन्होंने देख लिया था।

सुबह होने में अभी कुछ देर थी। इसलिए पुलिस इंचार्ज रह-रहकर ठाकुरबारी का फाटक खोलने और साधु-संतों को आत्मसमर्पण करने के लिए आवाज लगा रहे थे। साथ ही पुलिस वर्ग की ओर से हवाई फायर भी किए जा रहे थे, लेकिन ठाकुरबारी की ओर से कोई जवाब नहीं आ रहा था।

रँगे हाथों पकड़ना – जुर्म करते हुए पकड़े जाना
रोड़ा – छोटा पत्थर
आत्मसमर्पण – हथियार डाल देना

जब हरिहर काका के भाई पुलिस को ले कर देव-स्थान आए तो उन्हें लगा था कि पुलिस पर भी देव-स्थान के अंदर से उसी तरह से रोडों और पत्थर से हमला होगा जिस तरह उन पर हुआ था और साधु-संत जुर्म करते हुए पकड़े जायँगे। लेकिन जैसा उन्होंने सोचा था वैसा कुछ भी नहीं हुआ। देव-स्थान के अंदर से एक छोटा-सा पत्थर भी नहीं आया। ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने पुलिस को आते हुए देख लिया था।
सुबह होने में अभी काफी समय बाकि था इसलिए पुलिस प्रभारी बार-बार कुछ समय के विराम के बाद दरवाजे को खटखटाता और साधु-संतों को हथियार डालने को बोलता रहा। इसके साथ ही पुलिस बीच-बीच में हवा में भी फायर कर रही थी, लेकिन देव-स्थान से इसके जवाब में कोई भी कार्यवाही नहीं हुई।

सुबह तड़के एक वृद्ध साधु ने ठाकुरबारी का फाटक खोल दिया। उस साधु की उम्र अस्सी वर्ष की अधिक की होगी। वह लाठी के सहारे काँपते हुए खड़ा था। पुलिस इंचार्ज ने उस वृद्ध साधु के पास पहुँच हरिहर काका और ठाकुरबारी के महंत, पुजारी और अन्य साधुओं के बारे में पूछा। लेकिन उसने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया। पुलिस इंचार्ज ने कई बार उससे पूछा। डाँट लगाई, धमकियाँ दीं, लेकिन हर बार एक ही वाक्य कहता, “मुझे कुछ मालूम नहीं” ऐसे वक्त पुलिस के लोग मार-पीट का सहारा लेकर भी बात उगलवाते हैं; लेकिन उस साधु की वय देखकर पुलिस इंचार्ज को महटिया जाना पड़ा।

वय – उम्र
महटिया – नजरअंदाज कर देना

लेखक कहता है कि जब सुबह हुई तो एक बहुत ही वृद्ध साधु ने देव-स्थान का प्रमुख दरवाजा खोल दिया। देखने से लग रहा था कि उस साधु की उम्र अस्सी वर्ष से भी अधिक की होगी। वह लाठी ले कर खड़ा था और काँप रहा था। पुलिस प्रभारी उस वृद्ध साधु के पास गया और उससे हरिहर काका और देव-स्थान के महंत, पुजारी और दूसरे साधुओं के बारे में पूछा। लेकिन उस वृद्ध ने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया। पुलिस प्रभारी ने उससे बहुत बार एक ही बात पूछी, उसे बहुत बार डाँटा भी और साथ-ही-साथ धमकियाँ भी दी, परन्तु वह वृद्ध साधु हर बार एक ही उत्तर दे रहा था कि उसे कुछ भी नहीं पता। ऐसे वक्त में अगर पुलिस के सामने उस वृद्ध साधु की जगह कोई और होता तो पुलिस उससे मार-पीट कर सब बातें उगलवा देती, परन्तु उस साधु की उम्र के कारण पुलिस प्रभारी को सब कुछ नजरअंदाज करना पड़ा।

पुलिस इंचार्ज के नेतृत्व में पुलिस के जवान ठाकुरबारी की तलाशी लेने लगे। लेकिन न तो ठाकुरबारी के नीचे के कमरों में ही कोई पाया गया और न ही छत के कमरों में ही। पुलिस के जवानों ने खूब छन-बीन की, उस वृद्ध साधू के अलावा कोई दूसरा ठाकुरबारी में नहीं मिला।

हरिहर काका के भाई चिंता, परेशानी और दुखद आश्चर्य से घिर गए। ठाकुरबारी के महंत और साधु-संत हरिहर काका को ले कर कहाँ भाग गए? अब क्या होगा? काफ़ी पैसे खर्च कर पुलिस को लाए थे। पुलिस के साथ आने के बाद वह अंदर ही अंदर गर्व महसूस कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि अब भाई को वे आसानी से घर ले जाएँगे तथा साधु-संतों को जेल भिजवा देंगे। लेकिन दोनों में से एक भी नहीं हुआ।

लेखक कहता है कि पुलिस प्रभारी के नेतृत्व में सभी पुलिस के जवान देव-स्थान की अच्छे से तलाशी लेने लगे। लेकिन न तो पुलिस को देव-स्थान के नीचे वाले कमरों में कुछ मिला और न ही देव-स्थान के छत के कमरों में कोई मिला। पुलिस के जवानों ने देव-स्थान की बहुत अच्छे से छान-बीन की, परन्तु उन्हें उस वृद्ध साधु अलावा उस देव-स्थान पर और कोई भी नहीं मिला।

हरिहर काका के भाई अब चिंता, परेशानी और दुःख के बादलों में घिर गए थे। वे बस यही सोच रहे थे कि देव-स्थान के महंत और साधु-संत हरिहर काका को कहाँ लेकर गए होंगें। अब वे क्या करेंगें, क्योंकि उन्हें हरिहर काका नहीं मिल रहे थे। उन्होंने बहुत सारे पैसे दे कर पुलिस को देव-स्थान तक लाया था। जब वे पुलिस को अपने साथ ले कर आए थे तो उनको अपने ऊपर गर्व हो रहा था क्योंकि उन्हें लग रहा था कि अब वे आसानी से अपने भाई अर्थात हरिहर काका को अपने साथ घर ले कर जाएँगे और उन जुर्म करने वाले साधु-संतों को वे जेल भिजवा देंगें। परन्तु उनकी एक भी इच्छा पूरी नहीं हुई।

ठाकुरबारी के जो कमरे खुले थे, उनकी तलाशी पहले ली गई थी। बाद में जिन कमरों की चिटकिनी बंद थी, उन्हें भी खोलकर देखा गया था। एक कमरे के बाहर बड़ा-सा ताला लटक रहा था। पुलिस और हरिहर काका के भाई सब वहीं एकत्र हो गए। उस कमरे की कुंजी की माँग वृद्ध साधु से की गई तो उसने साफ़ कह दिया, “मेरे पास नहीं।”

जब उससे पूछा गया, “इस कमरे में क्या है?” तब उसने जवाब दिया, “अनाज है।”

पुलिस इंचार्ज अभी सोच ही रहे थे कि इस कमरे का ताला तोड़ कर देखा जाए या छोड़ दिया जाए कि अचानक उस कमरे के दरवाजे को भीतर से किसी ने धक्का देना शुरू किया।

पुलिस के जवान सावधान हो गए।

एकत्र – इकठ्ठे
कुंजी – चाबी

लेखक कहता है कि देव-स्थान के जितने भी कमरे खुले हुए थे, पहले उन कमरों की तलाशी ली गई। उसके बाद जो कमरे कुंडी लगाकर बंद किए गए थे, उन्हें खोल कर देखा गया था। कहीं कुछ नहीं मिला। फिर एक कमरा जिसके बाहर बड़ा-सा ताला लटक रहा था, उस के सामने पुलिस और हरिहर काका के भाई सब इकठ्ठे हो गए। उस कमरे की ताली जब उस वृद्ध साधु से माँगी गई तो उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि उसके पास नहीं है। जब पुलिस ने वृद्ध साधु से पूछा कि उस कमरे न क्या रखा है, तो उसने जवाब दिया कि उस कमरे में अनाज रखा गया है। पुलिस के प्रभारी अभी सोच ही रहे थे कि उस कमरे का ताला तोडना है या उस कमरे की तलाशी नहीं लेनी है, तभी उस कमरे को किसी ने अंदर की ओर से धक्का देना शुरू कर दिया। यह देख कर पुलिस के जवान सावधान हो गए।

ताला तोड़कर कमरे का दरवाजा खोला गया। कमरे के अंदर हरिहर काका जिस स्थिति में मिले, उसे देख कर उनके भाइयों का खून खौल उठा। उस वक्त अगर महंत, पुजारी या अन्य नौजवान साधु उन्हें नजर आ जाते तो वे जीते-जी उन्हें नहीं छोड़ते।

हरिहर काका के हाथ और पाँव तो बाँध ही दिए गए थे, उनके मुँह में कपड़ा ठूँसकर बाँध दिया गया था। हरिहर काका जमीन पर लुढ़कते हुए दरवाजे तक आ गए थे और पैर से दरवाज़े पर धक्का लगाया था।

काका को बंधनमुक्त किया गया, मुँह से कपड़े निकाले गए। हरिहर काका ने ठाकुरबारी के महंत,पुजारी और साधुओं की काली करतूतों का परदाफ़ाश करना शुरू किया कि वह साधु नहीं, डाकू, हत्यारे और कसाई हैं, कि उन्हें इस रूप में कमरे में बंद कर गुप्त दरवाज़े से भाग गए, कि उन्होंने के सादे और लिखे हुए कागज़ों पर जबरन उनके अँगूठे के निशान लिए… आदि।

खून खौल उठना – बहुत क्रोध आना
परदाफ़ाश -भेद प्रकट कर देना

harihar kaka

लेखक कहता है कि जब कमरे को किसी ने अंदर की ओर से धक्का देना शुरू कर दिया तो पुलिस ने कमरे का ताला तोड़ दिया और कमरे को खोल दिया। उस कमरे के अंदर हरिहर काका उन्हें जिस स्थिति में मिले उसे देखकर उनके भाइयों को इतना अधिक गुस्सा आ गया था कि अगर उस समय देव-स्थान के महंत, पुजारी या अन्य नौजवान साधु उन्हें नजर आ जाते तो वे उन्हें मार ही डालते।

कमरे में हरिहर काका को हाथ और पाँव बाँध कर रखा गया था और साथ ही साथ उनके मुँह में कपड़ा ठूँसा गया था ताकि वे आवाज़ न कर सकें। परन्तु हरिहर काका दरवाज़े तक लुढ़कते हुए आ गए थे और दरवाज़े पर अपने पैरों से धक्का लगा रहे थे ताकि बाहर खड़े उनके भाई और पुलिस उन्हें बचा सकें।

दरवाज़ा खोल कर हरिहर काका को बंधन से मुक्त किया गया। उनके मुँह से कपड़ा निकाला गया। हरिहर काका ने देव-स्थान के महंत, पुजारी और साधुओं के सभी गुनाहों का भेद खोलना शुरू किया कि वह लोग साधु नहीं, डाकू, हत्यारे और कसाई हैं, वे लोग काका को उस कमरे में इस तरह बाँध कर कही छिपे हुए दरवाज़े से भाग गए हैं और उन्होंने कुछ खाली और कुछ लिखे हुए कागजों पर हरिहर काका के अँगूठे के निशान जबरदस्ती लिए हैं और भी हरिहर काका उनके भेद खोलते ही जा रहे थे।

हरिहर काका ने देर तक अपना बयान दर्ज कराए। उनके शब्द-शब्द से साधुओं के प्रति नफ़रत और घृणा व्यक्त हो रही थी। जिंदगी ने कभी किसी के खिलाफ़ उन्होंने इतना नहीं कहा होगा जितना ठाकुरबारी के महंत, पुजारी और साधुओं के बारे में कहा।

हरिहर काका पुनः अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लगे थे इस बार उन्हें दालान पर नहीं, घर के अंदर रखा गया था -किसी बहुमूल्य वस्तु की तरह सँजोकर, छिपाकर। उनकी सुरक्षा के लिए रिश्ते-नाते के जितने ‘सुरमा’ थे, सबको बुला लिया गया था। हथियार जुटा लिए गए थे। चौबीसों घंटे पहरे दिए जाने लगे थे। अगर किसी आवश्यक कार्यवश काका घर से गाँव में निकलते तो चार-पाँच की संख्या में हथियारों से लैस लोग उनके आगे-पीछे चलते रहते। रात में चारों तरफ से घेरकर सोते। भाइयों ने ड्यूटी बाँट ली थी। आधे लोग सोते तो आधे लोग जागकर पहरा देते रहते।

बयान – हाल / वृतांत
घृणा – घिन
बहुमूल्य – बहुत ज्यादा कीमती
सँजोना – सँभाल कर रखना
सुरमा – योद्धा / बहादुर
ड्यूटी – कर्तव्य / काम

लेखक कहता है कि हरिहर काका काफी समय तक पुलिस को अपना हाल या वृतांत बताते रहे। उनके प्रयोग में लाए गए एक-एक शब्द में साधुओं के प्रति नफ़रत और घिन का एहसास हो रहा था। हरिहर काका ने अपनी पूरी जिंदगी में कभी भी किसी के ख़िलाफ़ इतना सब कुछ नहीं बोला था जितना उन्होंने देव-स्थान के महंत, पुजारी और साधुओं के बारे में कह दिया था।

यह सब बीत जाने के बाद हरिहर काका फिर से अपने भाइयों के परिवार के साथ रहने लग गए थे। परन्तु इस बार हरिहर काका को बरामदे में नहीं बल्कि घर के अंदर रखा गया था, वह भी किसी बहुत ही कीमती चीज़ की तरह सँभाल कर और सभी से छुपाकर। हरिहर काका की सुरक्षा के लिए रिश्ते-नाते में जितने भी योद्धा और बहादुर लोग थे सभी को बुलाया गया था। हथियारों का भी पूरा प्रबंध किया गया था। चौबीसों घंटे पहरे दिए जाने लगे थे। यहाँ तक कि अगर हरिहर काका को किसी काम के कारण गाँव में जाना पड़ता तो हथियारों के साथ चार-पाँच लोग हमेशा ही उनके साथ रहने लगे। रात को भी हरिहर काका को चारों और से सुरक्षा दी जाती। हरिहर काका के भाइयों ने अपने काम बाँट लिए थे। जब आधे लोग सो रहे होते थे तब बाकि के आधे लोग हरिहर काका की सुरक्षा में तैनात रहते थे।

इधर ठाकुरबारी का दृश्य भी बदल गया था। एक से एक खूँखार लोग ठाकुरबारी में आ गए थे। उन्हें देख कर ही डर लगता था। गाँव के बच्चों ने तो ठाकुरबारी की और जाना ही बंद कर दिया। हरिहर काका को लेकर गाँव प्रारम्भ से ही दो वर्गों में बाँट गया था इस नई घटना को लेकर दोनों तरफ से प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की जाने लगी थी।

खूँखार – अत्यधिक क्रूर / निर्दयी
प्रतिक्रिया – प्रतिकार / बदला
व्यक्त – स्पष्ट / साफ़

लेखक कहता है कि इतना सब कुछ हो जाने के बाद देव-स्थान का दृश्य ही बदल गया था। वहाँ पर पुजारी और महंत के स्थान पर बहुत सारे एक से बढ़कर एक अत्यधिक क्रूर और निर्दयी लोग आ गए थे। उन्हें देखने मात्र से ही किसी को भी डर लग सकता था। उनके डर से गाँव के बच्चों ने तो देव-स्थान जाना ही छोड़ दिया था। हरिहर काका के विषय को लेकर पहले ही गाँव के लोग दो भागों में बाँट गए थे, अब हरिहर काका के अपहरण और उनको छुड़ाने की घटना के बारे में बातें होने लगी थी। लोग अपनी-अपनी राय देने लगे थे।

और अब हरिहर काका एक सीधे-सादे और भोले किसान की अपेक्षा चतुर और ज्ञानी हो चले थे। वह महसूस करने लगे थे कि उनके भाई अचानक उनको जो आदर-सम्मान और सुरक्षा प्रदान करने लगे हैं, उसकी वजह उन लोगों के साथ उनका सगे भाई का सम्बन्ध नहीं, बल्कि उनकी जायदाद है, अन्यथा वे उनको पूछते तक नहीं। इस गाँव में जायदादहीन भाई को कौन पूछता है? हरिहर काका को अब सब नज़र आने लगा था! महंत की चिकनी-चुपड़ी बातों के भीतर की सच्चाई भी अब वह जान गए थे। ठाकुरजी के नाम पर वह अपना और अपने जैसे साधुओं का पेट पालता है। उसे धर्म और परमार्थ से कोई मतलब नहीं। निजी स्वार्थ के लिए साधू होने और पूजा-पाठ करने का ढोंग रचाया है।

अपेक्षा – तुलना
जायदादहीन – धन-दौलत के बिना
चिकनी-चुपड़ी बातें – खुशामद भरी

लेखक कहता है कि हरिहर काका के साथ जो कुछ भी हुआ था उससे हरिहर काका एक सीधे-सादे और भोले किसान की तुलना में चालाक और बुद्धिमान हो गए थे। उन्हें अब सब कुछ समझ में आने लगा था कि उनके भाइयों का अचानक से उनके प्रति जो व्यवहार परिवर्तन हो गया था, उनके लिए जो आदर-सम्मान और सुरक्षा वे प्रदान कर रहे थे, वह उनका कोई सगे भाइयों का प्यार नहीं था बल्कि वे सब कुछ उनकी धन-दौलत के कारण कर रहे हैं, नहीं तो वे हरिहर काका को पूछते तक नहीं। लेखक कहता है कि उसके गाँव में धन-दौलत के बिना कोई अपने भाई को पूछता भी नहीं है। हरिहर काका सब कुछ बहुत अच्छी तरह से समझ गए थे। महंत की खुशामद भरी बातों के अंदर छुपी सच्चाई को भी वह जान गए थे। हरिहर काका जान गए थे कि महंत भगवान के नाम पर अपना और अपने साथ काम करने वाले साधु-संतों का पेट पालता है। उसे धर्म और परमार्थ से कोई मतलब नहीं है बल्कि वह तो अपने स्वार्थ के लिए साधु होने और भगवान की पूजा-अर्चना करने का नाटक करता है।

साधु के बाने में महंत, पुजारी और उनके अन्य सहयोगी लोभी-लालची और कुकर्मी हैं। छल, बल, कल, किसी भी तरह धन अर्जित कर बिना परिश्रम किए आराम से रहना चाहते हैं। अपने घृणित इरादों को छिपाने के लिए ठाकुरबारी को इन्होने माध्यम बनाया है। एक ऐसा माध्यम जिस पर अविश्वास न किया जा सके। इसीलिए हरिहर काका ने मन ही मन तय कर लिया कि अब महंत को वे अपने पास भटकने तक नहीं देंगे। साथ ही अपनी ज़िन्दगी में अपनी जायदाद भाइयों को भी नहीं लिखेंगे, अन्यथा फिर वह दूध की मक्खी हो जाएँगे। लोग निकाल कर फैंक देंगे। कोई उन्हें पूछेगा तक नहीं। बुढ़ापे का दुख बिताए नहीं बीतेगा!

बाने – वेश में
कुकर्मी – बुरे काम करने वाले
छल, बल, कल – युक्ति / बुद्धि
अर्जित -इकठ्ठा
घृणित – बुरा
माध्यम – सहारा
दूध की मक्खी – तुच्छ समझना / बेकार समझना

लेखक कहता है कि हरिहर काका यह अच्छी तरह से समझ गए थे कि महंत, पुजारी और उनके अन्य सहयोगी साधु नहीं हैं बल्कि वे तो साधु के वेश में बहुत ही लालची और बुरे काम करने वाले लोग हैं। वह अपनी योजनाओं और बुद्धि के सहारे बहुत सारा धन इकठ्ठा करना चाहते हैं ताकि वे बिना मेहनत के ही आराम से अपना जीवन व्यतीत कर सकें। अपने इस तरह के बुरे कामों को छुपाने के लिए उन्होंने देव-स्थान को ही सहारा बना लिया था। क्योंकि देव-स्थान एक ऐसा स्थान होता है जिस पर सभी आँखें बंद कर के विश्वास करते हैं। इसीलिए हरिहर काका ने अपने मन-ही-मन में यह ठान लिया था कि अब वे महंत को अपने आस-पास भी नहीं आने देंगे और उसकी किसी भी बात पर ध्यान नहीं देंगे। इसके साथ ही हरिहर काका ने यह भी तय कर लिया था कि वे अपने जीते-जी अपनी धन-दौलत अपने भाइयों को भी नहीं देंगे क्योंकि वे जानते थे कि अगर उन्होंने ऐसा कुछ किया तो सब उनको बेकार समझ कर कहीं फैंक देंगे। उनका कोई ध्यान नहीं रखेगा। उनके लिए बुढ़ापा बहुत ही ज्यादा कष्टों वाला हो जाएगा।

लेकिन हरिहर काका सोच कुछ और रहे थे और वातावरण कुछ दूसरा ही तैयार हो रहा था। ठाकुरबारी से जिस दिन उन्हें वापिस लाया गया था, उसी दिन से उनके भाई और रिश्ते-नाते के लोग समझने लगे थे कि विधिवत अपनी जायदाद वे अपने भतीजों के नाम लिख दें। वह जब तक ऐसा नहीं करेंगे तब तक महंत की गिद्ध-दृष्टि उन पर लगी रहेगी। सिर पर मँडरा रहे तूफ़ान से मुक्ति पाने के लिए उनके समक्ष अब यही एकमात्र रास्ता है….।

सुबह, दोपहर, शाम, रात गए तक यही चर्चा। लेकिन हरिहर काका साफ़ नकार जाते। कहते-“मेरे बाद तो मेरी जायदाद इस परिवार को स्वतः मिल जायगी इसलिए लिखने का कोई अर्थ नहीं। महंत ने अँगूठे के जो जबरन निशान लिए हैं, उसके खिलाफ़ मुकदमा हमने किया ही है….।

गिद्ध-दृष्टि – तेज़ नज़र
मँडरा – घूमते
समक्ष – सामने
नकार – मना करना
स्वतः – अपने आप

लेखक कहता है कि हरिहर काका जो सोच रहे थे हालात बिलकुल उसके उलटे हो रहे थे। जब से हरिहर काका देव-स्थान से वापिस घर आए थे, उसी दिन से ही हरिहर काका के भाई और उनके दूसरे नाते-रिश्तेदार सभी यही सोच रहे थे कि हरिहर काका को क़ानूनी तरीके से उनकी जायदाद को उनके भतीजों के नाम कर देना चाहिए। क्योंकि जब तक हरिहर काका ऐसा नहीं करेंगे तब तक महंत की तेज़ नज़र उन पर टिकी रहेगी। सभी चाहते थे कि हरिहर काका उनके ऊपर घूमते हुए खतरे को उनकी जायदाद उनके भतीजों के नाम करके हटा दें क्योंकि उनके पास यही एक रास्ता बच गया है, जिससे वे अपनी जान बचा सकते हैं।

सुबह, दोपहर, शाम यहाँ तक की रात में भी इसी के बारे में बात होती थी। लेकिन हरिहर काका इस बात को मानने से बिलकुल ही मना कर देते थे और कहते थे कि उनके मर जाने के बाद तो उनकी जायदाद खुद ही उनके परिवार को मिल जाएगी तो लिखने से या ना लिखने से क्या फर्क पड़ेगा। महंत ने जो जबरदस्ती उनके अँगूठे के निशान लिए हैं उसके लिए तो उन्होंने मुकदमा किया हुआ है, तो घबराने की कोई बात नहीं।

भाई जब समझाते-समझाते हार गए तब उन्होंने डाँटना और दबाव देना शुरू किया। लेकिन काका इस रास्ते भी राज़ी नहीं हुए। स्पष्ट कह दिया कि अपनी जिंदगी में वह नहीं लिखेंगे। बस एक रात उनके भाइयों ने वही रूप धारण कर लिया, जो रूप महंत और उनके सहयोगियों ने धारण किया था। हरिहर काका को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उनके वही अपने सगे भाई, जो उनकी सेवा और सुरक्षा में तैयार रहते थे, उन्हें अपना अभिन्न समझते थे, जो उनकी नींद ही सोते और जागते थे, हथियार लेकर उनके सामने खड़े थे। कह रहे थे-“सीधे मन से कागजों पर जहाँ-जहाँ जरुरत है, अँगूठे के निशान बनाते चलो अन्यथा मार कर यहीं घर के अंदर गाड़ देंगे। गाँव के लोगों को कोई सूचना तक नहीं मिलने पाएगी।”

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लेखक कहता है कि जब हरिहर काका के भाई हरिहर काका को समझाते-समझाते थक गए, तो उन्होंने हरिहर काका को डाँटना और उन पर दवाब डालना शुरू कर दिया। लेकिन हरिहर काका इस तरह भी नहीं मानें। उन्होंने स्पष्ट और साफ़-साफ़ कह दिया था कि वे अपने जीते-जी ऐसा नहीं करेंगे। लेखक कहता है कि एक रात हरिहर काका के भाइयों ने भी उसी तरह का व्यवहार करना शुरू कर दिया जैसा महंत और उनके सहयोगियों ने किया था। हरिहर काका को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उनके वही सगे भाई जो उनकी सेवा और सुरक्षा के लिए दिन-रात तैयार रहते थे, उन्हें कभी अपने से अलग नहीं मानते थे, उनके साथ ही जागते और सोते थे, वही भाई आज हरिहर काका के सामने हथियार ले कर खड़े थे और उन्हें धमकाते हुए कह रहे थे कि ख़ुशी-ख़ुशी कागज़ पर जहाँ-जहाँ जरुरत है, वहाँ-वहाँ अँगूठे के निशान लगते जाओ, नहीं तो वे उन्हें मार कर वहीँ घर के अंदर ही गाड़ देंगे और गाँव के लोगो को इस बारे में कोई सूचना भी नहीं मिलेगी।

अगर पहले वाली बात होती तो हरिहर काका डर जाते। अज्ञान की स्थिति में ही मनुष्य मृत्यु से डरते हैं। ज्ञान होने के बाद तो आदमी आवश्यकता पड़ने पर मृत्यु को वरन करने के लिए तैयार हो जाता है। हरिहर काका ने सोच लिया कि ये सब एक ही बार उन्हें मार दें, वह ठीक होगा; लेकिन अपनी जमीन लिख कर रमेसर की विधवा की तरह शेष जिंदगी वे घुट-घुट कर मरें, यह ठीक नहीं होगा। रमेसर की विधवा को बहला-फुसलाकर उसके हिस्से की ज़मीन रमेसर के भाइयों ने लिखवा ली। शुरू में तो उसका खूब आदर-मान किया, लेकिन बुढ़ापे में उसे दोनों जून खाना देते उन्हें अखरने लगा। अंत उसकी वह दुर्गति हुई कि गाँव के लोग देखकर सिहर जाते। हरिहर काका को लगता है कि अगर रमेसर की विधवा ने अपनी जमीन नहीं लिखी होती तो अंत समय तक लोग उसके पाँव पखारते होते।

वरन – सामना
अखरने – बुरा लगना
दुर्गति – बुरी हालत
पखारना – धोना

लेखक कहता है कि जब हरिहर काका के भाई हरिहर काका को धमका रहे थे तो वे बिलकुल नहीं डरे, अगर वे हरिहर काका के अपहरण से पहले उन्हें डराते तो शायद वे डर जाते। क्योंकि जब मनुष्य को ज्ञान नहीं होता तभी वह मृत्यु से डरता है। परन्तु जब मनुष्य को ज्ञान हो जाता है तब वह जरूरत पड़ने पर मृत्यु का सामना करने के लिए भी तैयार हो जाता है। हरिहर काका ने सोच लिया था कि उनके भाई उन्हें एक बार ही मार दें तो सही है, लेकिन वे जमीन उनके नाम लिख कर रमेसर की विधवा की तरह अपनी पूरी जिंदगी घुट-घुट कर नहीं मरना चाहते, यह उन्हें ठीक नहीं लग रहा था। रमेसर की विधवा को अपनी बातों में लाकर रमेसर के भाइयों ने उसकी जमीन अपने नाम लिखवा दी थी। पहले-पहले तो रमेसर की विधवा का बहुत आदर-सम्मान होता था, परन्तु बुढ़ापे में रमेसर के परिवार वालों को उसे दो वक्त का खाना देना भी बुरा लगने लगा था। अंत में तो बेचारी की हालत इतनी ख़राब हुई कि गाँव के लोग भी उस पर तरस करने लगे थे। हरिहर काका अपनी इस तरह की हालत से अच्छा एक बार ही मर जाना सही समझते थे। उन्हें लगता था कि अगर रमेसर की विधवा अपनी जमीन रमेसर के परिवार को नहीं लिखती तो अंत तक सभी उसके पाँव धोते अर्थात उसकी सेवा करते।

हरिहर काका गुस्से में खड़े हो गए और गरजते हुए कहा,”मैं अकेला हूँ… तुम सब इतने हो! ठीक है, मुझे मार दो.. मैं मर जाऊँगा, लेकिन जीते-जी एक धूर जमीन भी तुम्हें नहीं लिखूँगा…..तुम सब ठाकुरबारी के महंत-पुजारी से तनिक भी कम नहीं…!”

“देखते हैं, कैसे नहीं लिखोगे? लिखना तो तुम्हें है ही, चाहे हँस के लिखो या रो के….।”

हरिहर काका के साथ उनके भाइयों की हाथापाई शुरू हो गई। हरिहर काका अब उस घर से निकलकर बाहर गाँव में भाग जाना चाहते थे, लेकिन उनके भाइयों ने उन्हें मजबूती से पकड़ लिया था। प्रतिकार करने पर अब वे प्रहार भी करने लगे थे।


धूर – टुकड़ा

तनिक – थोड़े भी
हाथापाई – मारपीट
प्रतिकार – विरोध
प्रहार – हमला

जब हरिहर काका के भाई हरिहर काका को धमका रहे थे, तब हरिहर काका गुस्से में खड़े होकर बोले कि वे अकेले ही हैं और उनके भाई इतने सारे हैं। अगर वे उन्हें मारना चाहते हैं तो मार दें। हरिहर काका ने साफ़ कह दिया कि वे मर जायँगे परन्तु जीते-जी वे अपनी जमीन का एक टुकड़ा भी उनके नाम नहीं लिखेंगे, क्योंकि अब हरिहर काका को अपने भाई, देव-स्थान के महंत और पुजारी से थोड़े भी काम नहीं लग रहे थे। हरिहर काका के भाई हरिहर काका को धमका रहे थे कि उन्हें अपनी जमीन भाइयों के नाम लिखनी ही पड़ेगी फिर चाहे वे हँस कर लिखे या रो कर।

हरिहर काका के साथ अब उनके भाइयों की मारपीट शुरू हो गई। हरिहर काका अब उस घर में नहीं रहना चाहते थे, वे उस घर से बाहर गाँव में भागना चाहते थे परन्तु उनके भाइयों ने उन्हें बहुत मजबूती से पकड़ कर रखा था। अगर हरिहर काका उनका विरोध करते तो वे हरिहर काका पर हमला भी करने लग गए थे।

अकेले हरिहर कई लोगो से जूझ सकने में असमर्थ थे, फलस्वरूप उन्होंने अपनी रक्षा के लिए खूब ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। अब भाइयों को चेत आया कि मुँह तो उन्हें पहले ही बंद कर देना चाहिए था। उन्होंने तत्क्षण उन्हें पटक उनके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया। लेकिन ऐसा करने से पहले ही काका की आवाज़ गाँव में पहुँच गई थी। टोला-पड़ोस के लोग दालान में जुटने लगे थे। ठाकुरबारी के पक्षधरों के माध्यम से तत्काल यह खबर महंत जी तक भी चली गई थी। लेकिन वहाँ उपस्थित हरिहर काका के परिवार और रिश्ते-नाते के लोग, गाँव के लोगों को समझा देते कि अपने परिवार का निजी मामला है, इससे दूसरों को क्या मतलब? लेकिन महंत जी ने वह तत्परता और फुरती दिखाई जो काका के भाइयों ने भी नहीं दिखाई थी। वह पुलिस की जीप के साथ आ धमके।

चेत – ध्यान
तत्क्षण – उसी पल
तत्काल – उसी समय
तत्परता – दक्षता / निपूर्णता
फुरती – तेज़ी

लेखक कहता है कि जब हरिहर काका अपने भाइयों का मुकाबला नहीं कर पा रहे थे, तो उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर अपनी मदद के लिए गाँव वालों को आवाज लगाना शुरू कर दिया। तब उनके भाइयों को ध्यान आया कि उन्होंने तो हरिहर काका का मुँह बंद ही नहीं किया जो उन्हें सबसे पहले करना चाहिए था। उन्होंने उसी पल हरिहर काका को जमीन पर पटका और उनके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया। लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी, हरिहर काका की आवाजें बाहर गाँव में पहुँच गई थी। आस-पड़ोस के लोग हरिहर काका के बरामदे में इकठ्ठे होने लग गए थे। देव-स्थान के समर्थकों ने उसी समय वह बात महंत जी के कानों तक पहुँचा दी। लेकिन वहाँ उपस्थित हरिहर काका के परिवार और रिश्ते-नाते के लोग जब तक गाँव वालों को समझाते की यह सब उनके परिवार का आपसी मामला है, वे सभी इससे दूर रहें, तब तक महंत जी बड़ी ही दक्षता और तेज़ी से वहाँ पुलिस की जीप के साथ वहाँ आ गए। वे वहाँ इतनी जल्दी पहुंचे थे जितनी जल्दी हरिहर काका के भाई, हरिहर काका के अपहरण के दौरान भी नहीं पहुंचे थे।

पुलिस आने के बाद निजी मामले का सवाल ख़त्म हो गया। घर-तलाशी शुरू हुई। फिर हरिहर काका को उससे भी बदतर हालत में बरामद किया गया जिस हालत में ठाकुरबारी से उन्हें बरामद किया गया था।

बंधनमुक्त होने और पुलिस की सुरक्षा पाने के बाद उन्होंने बताया कि उनके भाइयों ने उनके साथ बहुत ज़ुल्म-अत्याचार किया है, कि जबरन अनेक कागजों पर उनके अँगूठे के निशान लिए हैं, कि उन्हें खूब मारा-पीटा है, कि उनकी कोई भी दुर्गति बाकी नहीं छोड़ी है, कि अगर और थोड़ी देर तक पुलिस नहीं आती तो वह उन्हें जान से मार देते….।

हरिहर काका के पीठ, माथे और पाँवों पर कई जगह ज़ख्म के निशान उभर आए थे। वह बहुत घबराए हुए-से लग रहे थे। काँप रहे थे। अचानक गिर कर बेहोश हो गए। मुँह पर पानी छींटकर उन्हें होश में लाया गया। भाई और भतीजे तो पुलिस आते ही चंपत हो गए थे। पुलिस की पकड़ में रिश्ते के दो व्यक्ति आए। रिश्ते के शेष लोग भी फ़रार हो गए थे….।

बदतर – अत्यधिक बुरा
बरामद – हासिल करना
फ़रार – भाग जाना

लेखक कहता है कि हरिहर काका के परिवार वाले लोगो को ये कह कर भगा रहे थे कि यह उनके घर का आपसी मामला है, परन्तु जब महंत पुलिस को ले कर आया तो वह कोई आपसी मामला नहीं रह गया था। पुलिस ने पुरे घर की अच्छे से तलाशी लेना शुरू कर दिया। फिर घर के अंदर से हरिहर काका को इतनी बुरी हालत में हासिल किया गया जितनी बुरी हालत उनकी देव-स्थान में भी नहीं हुई थी।

जब हरिहर काका को बंधन से खोला गया और उन्हें लगा कि अब वे पुलिस के साथ सुरक्षित हैं, तब उन्होंने बोलना शुरू किया कि उनके भाइयों ने उनके साथ बहुत ही ज्यादा बुरा व्यवहार किया है, जबरदस्ती बहुत से कागजों पर उनके अँगूठे के निशान ले लिए है, उन्हें बहुत ज्यादा मारा-पीटा है, अब ऐसा कोई भी बुरा व्यवहार बाकी नहीं रहा है जो उनके साथ न हुआ हो, हरिहर काका कहते कि अगर पुलिस समय पर नहीं आती तो शायद उनके भाई उन्हें मार ही डालते।

लेखक कहता है कि हरिहर काका की पीठ, माथे और पाँवों पर कई जगह ज़ख्म के निशान आसानी से देखे जा सकते थे। हरिहर काका बहुत ही घबराए हुए लग रहे थे। वे काँप रहे थे और बोलते-बोलते अचानक वे बेहोश हो गए। उनके मुँह पर पानी की छींटे डालकर उन्हें होश में लाया गया। पुलिस के आते ही हरिहर काका के भाई और भतीजे सभी भाग गए थे। पुलिस ने हरिहर काका के दो रिश्तेदारों को पकड़ा था। बाकी के रिश्तेदार भी भाग गए थे।

हरिहर काका के साथ घटी घटनाओं में यह अब तक की सबसे अंतिम घटना है। इस घटना के बाद काका अपने परिवार से एकदम अलग रहने लगे हैं। उनकी सुरक्षा के लिए राइफलधारी पुलिस के चार जवान मिले हैं। हालाँकि इसके लिए उनके भाइयों और महंत की ओर से काफ़ी प्रयास किए गए हैं। असल में भाइयों को चिंता थी कि हरिहर काका अकेले रहने लगेंगे, तब ठाकुरबारी के महंत अपने लोगों के साथ आकर पुनः उन्हें ले भागेंगे। और यही चिंता महंत जी को भी थी कि हरिहर को अकेला और असुरक्षित पा उनके भाई पुनः उन्हें धर दबोचेंगे। इसीलिए जब हरिहर काका ने अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस की माँग की तब नेपथ्य में रहकर ही उनके भाइयों और महंत जी ने पैरवी लगा और पैसे खर्च कर उन्हें पूरी सहायता पहुँचाई। यह उनकी सहायता का ही परिणाम है कि एक व्यक्ति की सुरक्षा के लिए गाँव में पुलिस के चार जवान तैनात कर दिए गए हैं।

पुनः – फिर से
धर दबोचना – पकड़ लेना
नेपथ्य – रंग-मंच के पीछे की जगह
पैरवी – खुशामद / अनुगमन

लेखक कहता है कि हरिहर काका के साथ अब तक जितनी भी घटनाऐं घटी ये घटना उनमें से अब तक की सबसे अंतिम घटना थी। इस घटना के बाद हरिहर काका अपने परिवार से एकदम अलग रहने लगे थे। उन्हें उनकी सुरक्षा के लिए चार राइफलधारी पुलिस के जवान मिले थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि इसके लिए उनके भाइयों और महंत की ओर से काफ़ी प्रयास किए गए थे। असल में भाइयों को चिंता थी कि हरिहर काका अकेले रहने लगेंगे, तो देव-स्थान के महंत-पुजारी फिर से हरिहर काका को बहला-फुसला कर ले जायँगे और जमीन देव-स्थान के नाम करवा लेंगे। और यही चिंता महंत जी को भी थी कि हरिहर काका को अकेला और असुरक्षित पा, उनके भाई फिर से उन्हें पकड़ कर मारेंगे और जमीन को अपने नाम करवा लेंगे। इसीलिए जब हरिहर काका ने अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस की माँग की तब सामने ना आकर हरिहर काका के भाई और महंत दोनों ने पीछे ही रह कर बहुत खुशामद और पैसा खर्च कर के हरिहर काका की सुरक्षा के लिए सहायता की थी। यह उनकी सहायता का ही परिणाम था कि एक व्यक्ति की सुरक्षा के लिए गाँव में पुलिस के चार जवान तैनात कर दिए गए थे।

जहाँ तक मैं समझता हूँ, फ़िलहाल हरिहर काका पुलिस की सुरक्षा में रह जरूर रहे हैं, लेकिन वास्तविक सुरक्षा ठाकुरबारी और अपने भाइयों की ओर से ही मिल रही है। ठाकुरबारी के साधु-संत और काका के भाई इस बात के प्रति पूरी तरह सतर्क हैं, कि उनमें से कोई या गाँव का कोई अन्य हरिहर काका के साथ ज़ोर-जबरदस्ती न करने पाए। साथ ही अपना सदभाव और मधुर व्यवहार प्रकट कर पुनः उनका ध्यान अपनी और खींच लेने के लिए दोनों दाल प्रयत्नशील हैं।

वास्तविक – असल में
सतर्क – सावधान
सदभाव – अच्छा व्यवहार
प्रयत्नशील – प्रयास में लगे रहना

लेखक कहता है कि उसे लगता है हरिहर काका भले ही पुलिस की सुरक्षा में रह रहे हों, परन्तु असल में जो सुरक्षा हरिहर काका को मिल रही है वह देव-स्थान और उनके भाइयों की ही मिल रही है। देव-स्थान के साधु-संत और हरिहर काका के भाई इस बात का बहुत अच्छे से ध्यान रख रहे हैं कि उनमें से कोई या गाँव का भी, कोई भी व्यक्ति हरिहर काका को कोई भी नुक्सान ना पहुँचा पाए। इसके साथ ही दोनों पक्ष, हरिहर काका के भाई और देव-स्थान के साधु-संत अपना बनावटी व्यवहार और अच्छा होने का ढोंग हरिहर काका के सामने लगातार करके उन्हें अपनी-अपनी ओर लेने का पूरा प्रयास कर रहे थे।

गाँव में एक नेता जी हैं, वह न तो कोई नौकरी करते हैं और न खेती-गृहस्थी, फिर भी बारहों महीने मौज़ उड़ाते रहते हैं। राजनीति की जादुई छड़ी उनके पास है। उनका ध्यान हरिहर काका की ओर जाता है। वह तात्काल गाँव के कुछ वशिष्ट लोगों के साथ उनके पास पहुँचते हैं और यह प्रस्ताव रखते हैं कि उनकी जमीन में ‘हरिहर उच्च विद्यालय’ नाम से एक हाई स्कूल खोला जाए। इससे उनका नाम अमर हो जाएगा। उनकी जमीन का सही उपयोग होगा और गाँव के विकास के लिए एक स्कूल मिल जाएगा। लेकिन हरिहर काका के ऊपर तो अब कोई भी दूसरा रंग चढ़ने वाला नहीं था। नेता जी भी निराश हो कर लौट आते हैं।

वशिष्ट – ख़ास
प्रस्ताव – योजना

लेखक कहता है कि उसके गाँव में एक नेता जी थे, जो न तो कोई नौकरी करते थे और न ही उनकी कोई खेती-गृहस्थी थी, उसके बाद भी वे साल के बारहों महीने मौज करते थे। इसका कारण था कि उनके पास राजनीति की जादुई छड़ी थी। नेता जी का ध्यान हरिहर काका की ओर गया। वे बिना समय गवाए कुछ ख़ास लोगो को अपने साथ ले कर हरिहर काका के पास पहुँच गए और उन्हें एक योजना बताई कि वे अपनी जमीन पर ‘हरिहर उच्च विद्यालय’ नाम से एक हाई स्कूल खुलवा दें। इससे उनका नाम अमर हो जाएगा, सदियों तक सभी उनको स्कूल के नाम से याद रखेंगे। इससे उनकी जमीन का सही उपयोग भी हो जाएगा और गाँव के विकास के लिए एक स्कूल भी मिल जाएगा। लेकिन हरिहर काका के ऊपर तो अब कोई भी दूसरा रंग चढ़ने वाला नहीं था। नेता जी को भी निराश हो कर लौट जाना पड़ा।

इन दिनों गाँव की चर्चाओं के केन्द्र हैं हरिहर काका। आँगन, खेत, खलियान, अलाव, बगीचे, बरगद हर जगह उनकी ही चर्चा। उनकी घटना की तरह विचारणीय और चर्चनीय कोई दूसरी घटना नहीं। गाँव में आए दिन छोटी-बड़ी घटनाएँ घटती रहती हैं, लेकिन काका के प्रसंग के सामने उनका को अस्तित्व नहीं। गाँव में जहाँ कहीं और जिन लोगों के बीच हरिहर काका की चर्चा छिड़ती है तो फिर उसका कोई अंत नहीं। लोग तरह-तरह की सम्भावनाएँ व्यक्त करते हैं-“राम जाने क्या होगा? दोनों ओर के लोगों ने अँगूठे के निशान ले लिए हैं। लेकिन हरिहर ने अपना ब्यान दर्ज कराया है कि वे दोनों लोगों में से किसी को भी अपना उत्तराधिकारी नहीं मानते हैं। दोनों ओर के लोगों ने जबरन उनके अँगूठे के निशान लिए हैं। इस स्थिति में उनके बाद उनकी जायदाद का हकदार कौन होगा?”

विचारणीय – विचार करने योग्य
चर्चनीय – चर्चा के योग्य
सम्भावना – हो सकने का भाव

लेखक कहता है कि अब गाँव में हरिहर काका के ऊपर ही सारी बातें होने लगी थी। आँगन, खेत, खलियान, अलाव, बगीचे, बरगद – हर जगह उनकी ही बातें होती थी। उनकी घटना की तरह कोई और घटना नहीं थी जिस पर विचार और बातें की जा सकें। गाँव में हर दिन कुछ-न-कुछ घटता ही रहता था, लेकिन हरिहर काका की घटना के सामने कोई भी घटना टिक नहीं पाती थी, लोग बस हरिहर काका की घटना के बारे में ही बात करते नज़र आते थे। गाँव में जहाँ कहीं भी लोगों के बीच हरिहर काका के बारे में बात शुरू होती थी, तो फिर उसका कोई अंत नहीं होता था। लोग तरह-तरह की हो सकने वाली बातों पर चर्चा करते रहते थे जैसे – राम जाने क्या होगा। दोनों ओर के लोगों ने अँगूठे के निशान ले लिए हैं। लेकिन हरिहर काका ने अपना ब्यान दर्ज कराया है कि वे दोनों लोगों में से किसी को भी अपना उत्तराधिकारी नहीं मानते हैं। वे दोनों को ही अपनी जमीन नहीं देना चाहते। दोनों ओर के लोगों ने जबरदस्ती उनके अँगूठे के निशान लिए हैं। अब इस तरह की स्थिति में उनके बाद उनकी जायदाद का हकदार कौन होगा। इस तरह की बातें हमेशा ही सुनने को मिलती थी।

लोगों के बीच बहस छिड़ जाती है। उत्तराधिकारी के कानून पर जो जितना जानता है, उससे दस गुना अधिक उगल देता है। फिर भी कोई समाधान नहीं निकलता। रहस्य ख़त्म नहीं होता, आशंकाएँ बनी ही रहती हैं। लेकिन लोग आशंकाओं को नजरअंदाज कर अपनी पक्षधारता शुरू कर देते हैं कि उत्तराधिकार ठाकुरबारी को मिलता तो ठीक रहता। दूसरी ओर के लोग कहते कि हरिहर के भाइयों को मिलता तो ज्यादा अच्छा रहता।

ठाकुरबारी के साधु-संत और काका के भाइयों ने कब क्या कहा, यह खबर बिजली की तरह एक ही बार समूचे गाँव में फैल जाती है। खबर झूठी है कि सच्ची, इस पर कोई ध्यान नहीं देता। जिसे खबर हाथ लगती है, वह नमक-मिर्च मिला उसे चटका कर आगे बड़ा देता है।

उगल – बोलना
समाधान – हल
आशंका – संदेह / शक
समूचे – पुरे

लेखक कहता है कि हरिहर काका के विषय में बात करते-करते लोगों के बीच बहस छिड़ जाती थी। उत्तराधिकारी के कानून पर जो जितना जानता था, उससे दस गुना ज्यादा ही बोलता था। उसके बाद भी किसी के पास कोई हल नहीं निकलता था। बात कभी ख़त्म नहीं होती थी, लोगो का संदेह वैसा ही बना रहता था। लेकिन लोग अपने संदेह को एक ओर रख कर अपना-अपना पक्ष लेना शुरू कर देते थे। कोई कहता की उत्तराधिकार ठाकुरबारी को मिलेगा तो सभी का भला होगा। कोई कहता उत्तराधिकार हरिहर काका के भाइयों को मिलना चाहिए क्योंकि यह उनका हक़ है।

देव-स्थान वालों ने कब क्या कहा, हरिहर काका के भाइयों ने कब क्या कहा, यह खबर बिजली की तरह एक ही बार में पुरे गाँव में फैल जाती थी। खबर कितनी झूठी है-कितनी सच्ची है इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता था। जिसको जो भी बात पाता चलती थी वह बिना सोचे समझे बात को बड़ा-चढ़ा कर आगे पहुँचा देता था।

एक खबर आती है कि महंत जी और हरिहर काका के भाई इस बात के लिए अफ़सोस कर रहे हैं कि अँगूठे के निशान लेने के बाद उन्होंने हरिहर को ख़त्म क्यों नहीं कर दिया। बात ही आगे नहीं बढ़ती।

एक दूसरी खबर आती है कि हरिहर मरेंगे तो उन्हें अग्नि प्रदान करने के लिए ठाकुरबारी के साधु-संतो और काका के भाइयों के बीच काफ़ी लड़ाई होगी। दोनों ओर से अग्नि प्रदान करने का निश्चय हो चुका है। इस सन्दर्भ में उनकी लाश हस्तगत करने के लिए खून की नदी बहेगी।

एक तीसरी खबर आती है कि हरिहर काका की मृत्यु के बाद उनकी जमीन पर कब्ज़ा करने के लिए उनके भाई अभी से तैयारी कर रहे हैं। इलाके के मशहूर डाकू बुटन सिंह से उन लोगों ने बातचीत पक्की कर ली है। हरिहर के पंद्रह बीघे खेत में से पाँच बीघे बुटन लेगा और दखल करा देगा। इससे पहले भी इस तरह के दो-तीन मामले बुटन ने निपटाए हैं। पुरे इलाके में उसके नाम की तूती बोलती है।

एक चौथी खबर आती है की महंत जी ने निर्णय ले लिया है, हरिहर की मृत्यु के बाद देश के कोने-कोने से साधुओं और नागाओं को वह बुलाएँगे।

अफ़सोस – दुःख
हस्तगत – अपने हाथों में

लेखक कहता है कि हरिहर काका से जुड़ी बहुत सी ख़बरें गाँव में फैल रही थी। एक खबर थी कि महंत जी और हरिहर काका के भाई इस बात के लिए दुःख मना रहे हैं कि उन्होंने अगर हरिहर काका के अँगूठे के निशान लेने के बाद उन्हें ख़त्म कर दिया होता तो बात इतने आगे नहीं बढ़ती।

दूसरी खबर यह आ रही थी कि जब हरिहर काका मरेंगे तो उनके अंतिम संस्कार को ले कर भी ठाकुरबारी के साधु-संतो और काका के भाइयों के बीच काफ़ी लड़ाई होगी। दोनों ओर के लोगों ने अंतिम संस्कार अपनी-अपनी ओर से करने का फैसला कर लिया है। इस बारे में कि लाश किसके पास रहेगी और अंतिम संस्कार कौन करेगा इसमें बहुत खून-खराबा हो सकता है।

एक तीसरी खबर यह भी आ रही थी कि हरिहर काका के भाई अभी से ही हरिहर काका की जमीन को हड़पने की पूरी तैयारियाँ कर ली है। उन्होंने इलाके के मशहूर डाकू बुटन सिंह को मना लिया है और उससे बात भी कर रखी है। हरिहर काका के पंद्रह बीघे खेत में से पाँच बीघे खेत बुटन लेगा और मामले को संभाल लेगा। इससे पहले भी इस तरह के दो-तीन मामले बुटन ने निपटाए हैं। पुरे इलाके में बुटन सिंह के नाम का खौफ था।

एक चौथी खबर यह भी फैल रही थी कि महंत जी ने यह फैसला कर लिया है कि जब हरिहर काका की मौत होगी तो वह देश के कोने-कोने से साधुओं और नागाओं को बुलायँगे ताकि हरिहर काका की आत्मा को शांति मिले।

रहस्यात्मक और भयावनी ख़बरों से गाँव का आकाश आच्छादित हो गया है। दिन-प्रतिदिन आतंक का मौहोल गहराता जा रहा है। सबके मन में यह बात है कि हरिहर कोई अमृत पीकर तो आए हैं नहीं। एक न एक दिन उन्हें मरना ही है। फिर एक भयंकर तूफ़ान की चपेट में यह गाँव आ जायगा। उस वक्त क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। यह कोई छोटी लड़ाई नहीं, एक बड़ी लड़ाई है। जाने-अनजाने पूरा गाँव इसकी चपेट में आएगा ही…। इसीलिए लोगों के अंदर भय भी है और प्रतीक्षा भी। एक ऐसी प्रतीक्षा जिसे झुठलाकर भी उसके आगमन को टाला नहीं जा सकता।

और हरिहर काका वह तो बिलकुल मौन हो अपनी जिंदगी के शेष दिन काट रहे हैं। एक नौकर रख दिया है लिया है वही उन्हें बनाता-खिलाता है। उनके हिस्से की जमीन में जितनी फसल होती है उससे अगर वह चाहते तो मौज की जिंदगी बिता सकते थे। लेकिन वह तो गूँगेपन का शिकार हो गए हैं। कोई बात कहो, कुछ पूछो, कोई जवाब नहीं। खुली आँखों से बराबर आकाश को निहारा करते हैं। सारे गाँव के लोग उनके बारे में बहुत कुछ कहते-सुनते हैं, लेखिन उनके पास अब कहने के लिए कोई बात नहीं।
पुलिस के जवान हरिहर काका के खर्चे पर ही खूब मौज-मस्ती से रह रहे हैं। जिसका धन वह रहे उपास, खाने वाले करें विलास। अब तक जो नहीं खाया था, दोनों जून उसका भोग लगा रहे हैं।

रहस्यात्मक – राज से भरी हुई
भयावनी – डरावनी
आच्छादित – छाया हुआ

harihar kaka

लेखक कहता है कि ऐसा लग रहा था मानो राज़ से भरी हुई और डरावनी बातें गाँव के पुरे आसमान में फैली हुई हैं। जैसे-जैसे दिन बड़ रहे थे, वैसे-वैसे डर का माहौल बन रहा था। सभी लोग सिर्फ यही सोच रहे थे कि हरिहर काका ने अमृत तो पिया हुआ है नहीं तो मरना तो उनको एक दिन है ही। और जब वे मरेंगे तो पुरे गाँव में तूफ़ान आ जाएगा क्योंकि महंत और हरिहर काका के परिवार के बीच जमीन को ले कर लड़ाई हो जायगी। सभी जानते थे कि उसका असर पुरे गाँव पर भी पड़ेगा। उस समय सही में क्या होने वाला है कोई सही से नहीं बता सकता था। लोगों का कहना था कि यह कोई छोटी लड़ाई नहीं है बहुत बड़ी लड़ाई है। इसीलिए गाँव के लोगो के अंदर डर तो था ही लेकिन वे उस समय का इंतज़ार भी कर रहे थे। एक ऐसे समय का इंतज़ार जिसको आना ही था उसे रोका नहीं जा सकता था।

लेखक कहता है कि हरिहर काका इन सब चीजों से दूर चुप-चाप अपनी बाकी की जिंदगी काट रहे थे। हरिहर काका ने एक नौकर रख लिया था वही उन्हें खाना बना कर खिलाता था। उनके हिस्से की जमीन में जितनी फसल होती थी उससे अगर हरिहर काका चाहते तो मौज की जिंदगी बिता सकते थे। लेकिन वह तो गूँगेपन का शिकार हो गए थे। कोई बात कहो, कुछ पूछो, वे किसी का कोई जवाब नहीं देते थे। खुली आँखों से बराबर आकाश को देखते रहते थे। सारे गाँव के लोग उनके बारे में बहुत कुछ बातें करते थे, लेकिन उनके पास अब कहने के लिए कोई बात नहीं बची थी।

पुलिस के जवान हरिहर काका के खर्चे पर ही खूब मौज-मस्ती से रह रहे थे। जिसका धन वह रहे उपास, खाने वाले करें विलास अर्थात हरिहर काका के पास धन था लेकिन उनके लिए अब उसका कोई महत्त्व नहीं था और पुलिस वाले बिना किसी कारण से ही हरिहर काका के धन से मौज कर रहे थे। अब तक जो नहीं खाया था, दोनों वक्त उसका भोग लगा रहे थे।

मिथिलेश्वर का जीवन परिचय

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मिथिलेश्वर का जन्म 31 दिसम्बर 1950 को बिहार के भोजपुर जिले के बैसाडीह नामक गाँव में हुआ। इनके पिता स्व० प्रो० वंशरोपन लाल थे।

इन्होने हिंदी में एम०ए० और पी-एच०डी० करने के उपरांत व्यवसाय के रूप में अध्यापन कार्य को चुना। दिसंबर 1981 से जून 1984 तक राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में रहे और फिर यूजीसी के टीचर फेलोशिप अवार्ड के तहत एच०डी० जैन कॉलेज, आरा आ गये। बाद में वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय आरा (बिहार) के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में वरिष्ठ उपाचार्य (रीडर) रहे।

मिथिलेश्वर के पिता (प्रो० वंशरोपन लाल) भी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे; परन्तु उनकी असाध्य बीमारी ने मिथिलेश्वर के जीवन में आरंभ से ही कठिन संघर्ष के बीज बो दिये थे। भाइयों की शिक्षा-दीक्षा में होने वाले खर्च के अतिरिक्त अनेक बहनों की शादी में होने वाले खर्च ने मिथिलेश्वर को काफी परेशान किया। परिस्थितिवश स्वयं के वयस्क होते ही शादी की विवशता और फिर कई पुत्रियों का पिता हो जाना उनके संघर्षमय जीवन को और अधिक कठिन बनाने में योगदान ही देता रहा। इसके अतिरिक्त माँ की बीमारी और आरा शहर में नया घर बनाने की आवश्यकता ने मिथिलेश्वर को परेशान तो बहुत किया परंतु उन्होंने हार नहीं मानी। मिथिलेश्वर के व्यक्तित्व निर्धारण में उनकी अनवरत संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा की अहम भूमिका है।

पाठ-1 हरिहर काका

मिथिलेश्वर

लेखक परिचय

मिथिलेश्वर का जन्म 31 दिसम्बर 1950 को बिहार के भोजपुर जिले के बैसाडीह नामक गाँव में हुआ। इनके पिता स्व० प्रो० वंशरोपन लाल थे। इन्होने हिंदी में एम०ए० और पी-एच०डी० करने के उपरांत व्यवसाय के रूप में अध्यापन कार्य को चुना। मिथिलेश्वर के व्यक्तित्व निर्धारण में उनकी अनवरत संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा की अहम भूमिका है।

पाठ- प्रवेश

प्रस्तुत पाठ में भी हरिहर काका नाम का एक व्यक्ति है, जिसकी अपनी देह से कोई संतान नहीं है परन्तु उसके पास पंद्रह बीघे जमीन है और वही जमीन उसकी जान की आफत बन जाती है अंत में उसी जमीन के कारण उसे सुरक्षा भी मिलती है। लेखक इस पाठ के जरिए समाज में हो रहे नकारात्मक बदलाव से हमें अवगत करवाना चाहता है कि आज का मनुष्य कितना स्वार्थी मनोवृति का हो गया है। मनुष्य की स्वार्थी मनोवृति ने रिश्तो का महत्व ही खत्म कर दिया।

शब्दार्थ-

  • सार्थक– उद्देश्य वाला
  • आसक्ति- लगाव
  • सयाना- समझदार, बुद्धिमान
  • सार्थक– उपयोगी, अर्थवाला
  • यंत्रणाओं यातनाओ, कलेश
  • मझदार- बीच में विलीन
  • आकर्थक- बेकार
  • विकल्प- दूसरा उपाय
  • जाग्रत– सतर्क
  • दवनी- धन निकलने की प्रक्रिया
  • मशगूल– व्यस्त
  • तक्षण– उसी पल
  • विमुख- उदासीन, हताश
  • महटिया– टालना
  • घनिष्ठ– गहरा
  • ठाकुरबारी– देवस्थान
  • मनौती– मन्नत
  • परंपरा– प्रथा / प्रणाली
  • सञ्चालन– नियंत्रण / चलाना नियुक्ति – तैनाती / लगाया गया
  • आच्छादित– ढका हुआ
  • कलेवर– शरीर / देह / ऊपरी ढाँचा
  • अधिकांश– ज्यादातर
  • समिति– संस्था

पाठ की समीक्षा

आज समाज में मानवीय मूल्य तथा पारिवारिक मूल्य धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं।  ज़्यादातर व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए रिश्ते-नाते निभाते हैं। अब रिश्तों से ज्यादा रिश्तेदार की कामयाबी और स्वार्थसिद्धि की अहमियत है।रिश्ते ही उसे अपने-पराए में अंतर करने की पहचान करवाते हैं। रिश्तों के द्वारा व्यक्ति की समाज में विशेष निर्धारित भूमिका होती है। रिश्ते ही सुख-दुख में काम आते हैं। यह बात है कि  आज के इस बदलते दौर में रिश्तों पर स्वार्थ की भावना हावी होती जा रही है। रिश्तों में प्यार व बंधुत्व समाप्त हो गया है। इस कहानी में भी यदि पुलिस न पहुँचती तो परिवार वाले  काका की हत्या कर देते। इंसानियत तथा रिश्तों का खून तब स्पष्ट नज़र आता है जब महंत तथ परिवार वालों को काका के लिए अफ़सोस नहीं बल्कि उनकी हत्या न कर पाने का अफ़सोस है। ठीक इसी प्रकार आज रिश्तों से ज्यादा धन-दौलत को अहमियत दी जा रही है।