राम-लक्ष्मण परशुराम संवाद

पाठ 2: राम -लक्ष्मण -परशुराम संवाद

तुलसीदास

कवि परिचय

इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में सन 1532 में हुआ था। तुलसी का बचपन संघर्षपूर्ण था। जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही माता पिता से उनका बिछोह हो गया। कहा जाता है की गुरुकृपा से उन्हें रामभक्ति का मार्ग मिला। वे मानव मल्यों के उपासक कवि थे। रामभक्ति परम्परा में तुलसी अतुलनीय हैं।

प्रमुख कार्य रचनाएँ रामचरितमानस, कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्णगीतावली, विनयपत्रिका

शब्दार्थ

  • भंजनिहारा-भंग करने वाला
  • रिसाइ- क्रोध करना
  • रिपु – शत्रु
  • बिलगाउ-अलग होना
  • अवमाने-अपमान करना
  • लरिकाई- बचपन में
  • परसु – फरसा
  • कोही -क्रोधी
  • महिदेव–ब्राह्मण
  • बिलोक-देखकर
  • अर्भक-बच्चा
  • महाभट – महान योद्धा
  • मही- धरती
  • कुठारु-कुल्हाड़ा
  • कुम्हड़बतिया – बहुत कमजोर
  • तर्जनी- अंगूठे के पास की अंगुली
  • कुलिस- कठोर
  • सरोष –क्रोध सहित
  • कौसिक–विश्वामित्र
  • भानुबंस-सूर्यवंश
  • निरंकुश–जिस पर किसी का दबाब ना हो।
  • असंकू-शंका सहित
  • कालकवलु–मृत
  • अबुधु –नासमझ
  • हटकह -मना करने पर
  • अछोभा – शांत
  • बधजोगु- मारने योग्य
  • अकरुण – जिसमे करुणा ना हो
  • गाधिसूनु – गाधि के पुत्र यानी विश्वामित्र
  • अयमय -लोहे का बना हुआ
  • नेवारे -मना करना
  • ऊखमय- गन्ने से बना हुआ
  • कृसानु –अग्नि

पद-1

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥…………………………………………………………..

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धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥

भावार्थ

 इन पंक्तियों के माध्यम से श्री राम परशुराम से कहते हैं,हे नाथ! जिसने भी इस धनुष को तोड़ा है, वह आपका कोई दास ही होगा ।कहिए, क्या आज्ञा है? इस पर परशुराम क्रोधित हो उठे और उसने कहा कि सेवक वही होता है जो सेवक जैसा कार्य करता है , जिसने भी इस धनुष को तोड़ा है उसने मुझे युद्ध के लिए ललकारा है-

परशुराम को क्रोधित देखकर लक्ष्मण व्यंग पूर्वक कहते हैं कि हे नाथ!बचपन में तो हमने ऐसे कई धनुषों को तोड़ा है ।इस धनुष में ऐसा क्या है, जिससे आप इतने क्रोधित हो उठे?लक्ष्मण की बात सुनकर परशुराम और भी क्रोधित होते हैं और कहते हैं कि तुम्हारी मौत तुम्हें पुकार रही है,इसलिए तुम अहंकारवश ऐसी बातें बोल रहे हो । सारे धनुष एक समान नहीं होते। यह कोई साधारण धनुष नहीं है ।

परशुराम कहते हैं कि तुम मुझे एक साधारण मुनि समझ रहे हो और अब तक मैं तुम्हें एक बालक समझकर माफ़ कर रहा था।

पद-2

लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥…………………………………………………………………

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गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥

भावार्थ

परशुराम को क्रोधित देखकर लक्ष्मण हंसते हुए कहते हैं कि हमें तो सारे धनुष एक ही समान लगते हैं। इसके टूटने से ऐसी क्या आफत आ गई?

वैसे इस धनुष के टूटने में श्रीराम का कोई दोष नहीं है,उन्होंने तो मात्र इसे छुआ ही था। इस बीच श्री राम  लक्ष्मण को चुप रहने का इशारा करते हैं। परशुराम और भी क्रोधित होकर बोलते हैं कि तुम्हें मेरे व्यक्तित्व का पता नहीं है, मैं कोई साधारण मुनि नहीं हूं। वे अपने फरसे को दिखाते हुए कहते हैं, यह वही फरसा है, जिससे मैंने सहस्त्रों क्षत्रियों का संहार किया है, जिसकी गर्जना से गर्भ में पल रहे बच्चे का भी नाश हो जाता है। यह जग जाहिर है।

पद-3

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।…………………………………………………………………….

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सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा।।

परशुराम की डिंगे सुनकर लक्ष्मण हंसते हुए कहते हैं - आप तो अपने आप को एक वीर योद्धा समझते हैं और अपने फूंक से पहाड़ को उड़ाना चाहते हैं। हम यहां कोई कुम्हड़ा का बतिया नहीं हैं, जो आपकी उंगली दिखाने से मुरझा जायेंगे।

आपके हाथ में कुल्हाड़ा और कंधे पर तीर -धनुष देखकर हम आपको एक वीर योद्धा समझ बैठे थे और अभिमानवश कुछ बोल दिये। आपको भृगु मुनि का पुत्र जानकर हम अपने क्रोध की अग्नि को जलने नहीं दिए। वैसे भी हमारे कुल की मर्यादा है  कि हम ब्राम्हण, देवता, भक्त और गाय पर अपनी वीरता नहीं आजमाते । आप ब्राह्मण हैं, इसलिए आप का वध करके मैं पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता। आप मेरा वध कर भी दें, फिर भी मुझे आपके सामने झुकना ही पड़ेगा।आगे लक्ष्मण कहते हैं कि आपके वचन ही किसी व्रज की भाँति कठोर हैं, तो फिर आप को इस कुल्हाड़े और धनुष की क्या ज़रूरत है?

पद-4

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥…………………………………………………………….

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विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥

भावार्थ-  लक्ष्मण की बात सुनकर परशुराम बहुत ही क्रोधित होकर विश्वामित्र से बोले हे विश्वामित्र! यह बालक क्षण भर में काल के मुंह में समा जाएगा। यह बालक बहुत ही कुबुद्धि, उदंड, कुटिल, मूर्ख और निडर है। अगर इसे बचाना चाहते हो, तो इसे मेरे प्रताप के बारे में बता कर बचा लो। यह बालक सूर्यवंशी रूपी चंद्रमा में कलंक की तरह है।

इस बात पर लक्ष्मण ने कहा, हे मुनि! आपके पराक्रम को आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आप अपने ही मुंह से अपने पराक्रम को कितने प्रकार से वर्णन कर चुके हैं।आप वीरता का व्रत धारण करने वाले धैर्यवान हैं। इसीलिए गाली देते हुए आप शोभायमान नहीं दिखते हैं।

जो शूरवीर होते हैं, वे व्यर्थ में अपनी झूठी प्रशंसा नहीं करते, बल्कि युद्ध भूमि में अपनी वीरता सिद्ध करते हैं।

पद-5

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागी बोलावा।।

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अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहूँ न बूझ अबूझ॥

भावार्थ

आप तो ऐसे बार-बार मेरे लिए यमराज को बुला रहे हैं लक्ष्मण के इस कटु वचन को सुनकर परशुराम अपना फरसा निकालते हुए कहते हैं कि यह बालक मरने योग्य ही है, इसलिए हे मुनिवर! (विश्वामित्र) मुझे दोष नहीं देना।

परशुराम को क्रोधित देखकर विश्वामित्र कहते हैं कि साधु के लिए बच्चों की बातों पर क्रोध करना शोभा नहीं देता। वे क्षमा के पात्र होते हैं। परशुराम कहते हैं कि मैं दयाहीन साधु हूं। मैं सिर्फ आपके प्रेम और सद्भाव के कारण इस बालक को जीवित छोड़ रहा हूं वरना मैं इसका वध अपने फरसे से कब का कर चुका होता।

परशुराम की बात सुनकर विश्वामित्र मन ही मन मुस्कुराते हैं और कहते हैं कि परशुराम इन दोनों को कोई साधारण क्षत्रिय समझ रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि ये बालक शूरवीर और पराक्रमी क्षत्रिय हैं।

पद-6

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥……………………………………………………………………….

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बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥

भावार्थ

लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं,हे मुनिवर !आपके शील स्वभाव को सारा संसार जानता है। लगता है कि गुरु -दक्षिणा अभी आपका बाकी है। आप अपने माता पिता के कर्ज को कब का उतार चुके हैं। आप गुरु- दक्षिणा से वंचित होने के लिए बार-बार मुझे अपने फरसे को दिखा कर भयभीत कर रहे हैं। शायद आपको युद्ध में किसी पराक्रमी से सामना नहीं हुआ है।

लक्ष्मण के कटु वाणी को सुनकर परशुराम अति क्रोधित हो जाते हैं और अपने फरसे को निकालकर आक्रमण करने की मुद्रा में आ जाते हैं। यह बात सुनकर दरबार में उपस्थित लोग अनुचित-अनुचित कह कर पुकारने लगते हैं और श्री राम अपनी आँखों के इशारे से लक्ष्मण जी को चुप होने का इशारा करते हैं।

इस प्रकार लक्षमण द्वारा कहा गया प्रत्येक वचन आग में घी की आहुति के सामान था और परशुराम जी को अत्यंत क्रोधित होते देखकर श्री राम ने अपने शीतल वचनों से उनकी क्रोधाग्नि को शांत किया।

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