नौबतखाने में इबादत

पाठ-16

नौबतखाने में इबादत

नौबतखाने में इबादत पाठ का सार

प्रस्तुत लेख यतींद्र मिश्र द्वारा रचित व्यक्तिचित्रलेखा हैं।नौबतखाने में इबादतमें लेखक ने प्रसिद्ध वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के व्यक्तिगत परिचय देने के लिए। साथ ही उनकी रुचियां, उनके अंतर्मन की बनावट, संगीत साधना एवं लग्न का मार्मिक एवं सजीव चित्रण किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि संगीत एक साधना है। इसका अपना विधि-विधान और शास्त्र है। इस शास्त्र परिचय के साथ ही अभ्यास भी आवश्यक है। यहां बिस्मिल्लाह खां की लग्न एवं धैर्य के माध्यम से बताया गया है कि संगीत के अभ्यास के लिए पूर्ण तन्यमता, धैर्य एवं मंथन के अलावा गुरु शिष्य परंपरा का निर्वाह भी जरूरी है। यहां दो संप्रदायों के एक होने की भी प्रेरणा दी गई है।

अमिताद्दीन उर्फ ​​बिस्मिल्लाह खां का जन्म इम्धाओं बिहार के पाटीवार में एक संगीत प्रेमी के यहाँ हुआ था। उनके बड़े भाई सियाम्सुद्दीन तीन साल बड़े हैं। उनके दादा उस्ताज सालालार हुलैन खां डुमरांव के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम पी गम्बर बख्श खाँ और माता का नाम मिदतान था। पांच या छह साल बाद उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और दादा काशी में स्थानांतरित हो गए। वह अपने पीछे अपने चाचा सादिक हुसैन और अलीबख्श और अपने परपोते को छोड़ गया। उन्होंने बाला नाई मंदिर में वीणा बजाकर अपनी दिनचर्या की शुरुआत की। वह विभिन्न राज्य अदालतों में खेले।

ननिहाल में।4 साल की उम्र से ही बिस्मिल्लाह खाँ ने बाला जी के मंदिर में टियाज़ कटना क्ुक कर दिया। उन्होंने वहां जाने काए ऐसा रास्ता चुना जहाँ उन्हें रयूलन और बतूलन बाई की गीत सुनाई देती जिससे उन्हें खुशी मिलती। अपने साक्षात्कारों में भी इन्होनें स्वीकार किया की बचपन में इनलोगों ने इनका संगीत के प्रति प्रेम पैदा कटने में भूमिका निभायी। भले ही वैदिक इतिहास में शहनाई का जिक्र ना मिलता हो परन्तु मंगल कार्यों में इसका उपयोग प्रतिष्ठित करता है अर्थात यह मंगल ध्वनि का सम्पूरक है। बिक्मिल्लाह खाँ ने अस्सी वर्ष के हो जाने के वाबजूद हमेशा पाँचो वक्त वाली नमाज में शहनाईई के सच्चे सुर को पाने की प्रार्थना में बिताया। मुहर के दस्लों दिन बिस्मिल्लाह खाँ अपने पूरे खानदान के म्राथ ना तो शहनाई बनाते थे और ना ही किसी कार्यक्रम में भाग लेते। आठवीं तारीख को वे शहनाई बजाते और दालमंडी से फातमान की आठ किलोमीटरट की दुरी तक भींगी आँखों से नोहा बनाकर निकलते हुए सबकी आँखों को भिंगो देते।

अपने खाली समय में उस्ताद अब्बाजन को उनके पसंदीदा कलाकार सुलोचना गिताबली पर उनके काम के लिए याद किया जाता है।देखी फिल्मों को याद करते थे। वे अपनी बचपन की घटनाओं को याद करते की कैसे वे छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुएसुनाता तथा बाद में उनकी 'मीठी शह॒नाई' को ढूंढने के लिए एक-एक कर शहनाई को फेंक्ते और कभी मामा की शहनाईपर पत्थर पटककर दाद देते। बचपन के समय वे फिल्मों के बड़े शौकीन थे, उस समय थर्ड क्लास का टिकट छः पैसे कामिलता था जिसे पूरा करने के लिए वो दो पैसे मामा से, दो पैसे मौसी से और दो पैसे नाना से लेते थे फिर बाद में घंटों लाइनमैं लगकठ ठिकठ खरीदते थे। बाद में ते अपनी पसंदीदा अभिनेत्री झुलोचना की फिल्मों को देखने के लिए ते बालाजी मंदिर पद शहनाई बजाकर कमाई करते। वे सुलोचना की कोई फिल्म ना छोड़ते तथा कुलसूुम की देसी घी वाली दूकान पर कचौड़ी खाना ना भूलते।

काशी के संगीत आयोजन में वे अवश्य भाग लेते। हनुमान जयंती के अवसर पर सनत्मोचा मंदिर में यह समारोह कई वर्षों से आयोजित किया जाता है जिसमे शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन-वादन की सभा होती है। बिस्मिल्लाह खाँ जब काशी के बाहर भी रहते तबभी वो विश्वनाथ और बालाजी मंदिर की तरफ मुँह करके बैठते और अपनी शहनाई भी उस तरफ घुमा दिया कटते। गंगा, काशी और शहनाई उनका जीवन थे। काशी का स्थान सदा से ही विशिष्ट रहा है, यह संस्कृति की पाठशाला है।

बिस्मिल्लाह खाँ के शहनाईई के धुनों की दुनिया दीवानी हो जाती थी। सन 2000 के बाद पक्का महाल से मलाई-बर्फ वालों के जाने से, देसी घी तथा कचौड़ी-जलेबी में पहले जैसा स्वाद ना होने के कारण उन्हें इनकी कमी खलती। वे नए गायकों और वादकों में घटती आस्था और टियाज़ों का महत्व के प्रति चिंतित थे। बिस्मिल्लाह खान हमेशा दो समुदायों के बीच एकता और भाईचारे को बढ़ावा देता है। नब्बे वर्ष की उम्र में 2 अगस्त 2006 को उन्हने दुनिया से विदा ली | वे भारतरत्न, अनेकों विश्वविद्यालय की मानद उपाधियाँ संगीत जाठक अकादमी पुरस्कार तथा पड्ढविभ्ूषण जैसे पुटस्कारों से जाने नहीं जाएँगे बल्कि अपने अजेय संगीतयात्रा के नायक के कप में पहचाने जाएँगे।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • अज़ादारी - दुःख मनाना
  • इयोढ़ीदहलीज
  • सजदा - माथा टेकना
  • नौबतखाना - प्रवेश द्वाट के ऊपर मंगल ध्वनि बजाने का स्थान
  • रियाज़- अभ्यास
  • मार्फ़त- द्वारा
  • श्रृंगी - सींग का बना वाद्ययंत्र
  • मुरछंग- एक प्रकार का लोक वाद्ययंत्र
  • नेमत- ईश्वर की देन, सुख, धन, दौलत
  • इबादतउपासना
  • उहापोहउलझन
  • तिलिस्म- जादू
  • बदस्तूर - तरीके से
  • गमक- महक
  • दाद शाबाशी
  • अदबकायदा
  • अलहमदुलिल्लाह - तमाम तारीफ़ ईश्वर के लिए
  • जिजीविषा - जीने की ड्रच्छा
  • शिरकतशामिल
  • टोजनामचादिनचर्या
  • पोलीखाली
  • बंदिशधुन
  • परिवेशमाहौल
  • साहबजादेबेटे
  • मुरादड्च्छा
  • निषेधमनाही
  • ग़मज़दा - दुःख से पूर्ण
  • माहौल- वातावरण
  • बालसुलभ- बच्चों जैसी
  • पुश्तोंपीढियों
  • कलाधर - कला को धारण करने वाला
  • विशालाक्षी - बड़ी आँखों वाली
  • बेताले - बिजा ताल के
  • तहमदलंगी
  • परवरदिगारईश्वर
  • दादरा - एक प्रकार का चलता गाना।

यतींद्र मिश्र का जीवन परिचय

साहित्य और कलाओं के संवर्धन में विशेष सहयोग प्रदान करने वाले श्री यतींद्र मिश्र का जन्म सन् 1977 में उत्तर प्रदेश के अयोध्या शहर में हुआ था। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ से एम.. की उपाधि प्राप्त की। वे सन् 1999 से एक सांस्कृतिक न्यास विमला देवी फाउंडेशन का भी संचालन कर रहे हैं जिसमें साहित्य और कलाओं के संवर्धन और अनुपालन पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उनको भारत भूषण अग्रवाल कविता सम्मान, हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान आदि अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। आजकल स्वतंत्र लेखन के साथसाथ सहित नामक अर्धवार्षिक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं।

प्रमुख रचनाएँ  अब तक यतींद्र मिश्र के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- संगीत और ललित कलाओं को समाज के साथ जोड़ा है। उन्होंने समाज के अनेक भावुक प्रसंगों को बड़ी सहजता एवं स्वाभाविक रूप से शब्दों में पिरोया है। उनकी रचनाओं के माध्यम से समाज के विविध रूपों के बहुत ही निकला से दर्शन होते हैं।

भाषा शैली यतींद्र मिश्र की भाषा सरल, सहज, प्रवाहमय , प्रसंगानुकूल है। उनकी रचनाओं में संवेदना एवं भावुकता का अद्भुत संगम दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने अपनी रचनाओं को प्रभावशाली बनाने हेतु लोक प्रचलित शब्दावली के साथ-साथ सूक्तिपरक वाक्यों का भी प्रयोग किया है।

नौबतखाने में इबादत

पाठ  16: नौबतखाने में इबादत

यतींद्रनाथ मिश्र- 1977

लेखक परिचय

यतींद मिश्र का जन्म सन् 1977 में अयोध्या (उत्तर प्रदेश) में हुआ। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से हिंदी में एम.ए. किया। वे आजकल स्वतंत्र लेखन के साथ अर्द्धवार्षिक सहित पत्रिका का संपादन कर रहे हैं। सन् 1999 में साहित्य और कलाओं के संवर्द्धन और अनुशीलन के लिए एक सांस्कृतिक न्यास ‘विमला देवी फाउंडेशन’ का संचालन भी कर रहे हैं।

यतींद्र मिश्र के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं- यदा-कदा, अयोध्या तथा अन्य कविताएँ, ड्योढ़ी पर आलाप। इसके अलावा शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी जीवन और संगीत साधना पर एक पुस्तक गिरिजा लिखी। रीतिकाल के अंतिम प्रतिनिधि कवि द्विजदेव की ग्रंथावली (2000) का सह-संपादन किया। कुँवर नारायण पर केंद्रित दो पुस्तकों के अलावा स्पिक मैके के लिए विरासत-2001 के कार्यक्रम के लिए रूपंकर कलाओं पर केंद्रित थाती का संपादन भी किया। युवा रचनाकार यतींद्र मिश्र को भारत भूषण अग्रवाल कविता सम्मान, हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान आदि कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। कविता, संगीत व अन्य ललित कलाओं के साथ-साथ समाज और संस्कृति के विविध क्षेत्रों में भी उनकी गहरी रुचि है।

पाठ प्रवेश

 नौबतखाने में इबादत प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पर रोचक शैली में लिखा गया व्यक्ति-चित्र है। यतींद्र मिश्र ने बिस्मिल्ला खाँ का परिचय तो दिया ही है, साथ ही उनकी रुचियों, उनके अंतर्मन की बुनावट, संगीत की साधना और लगन को संवेदनशील भाषा में व्यक्त किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया गया है कि संगीत एक आराधना है। इसका विधि-विधान है। इसका शास्त्र है, इस शास्त्र से परिचय आवश्यक है, सिर्फ़ परिचय ही नहीं उसका अभ्यास ज़रूरी है और अभ्यास के लिए गुरु-शिष्य परंपरा ज़रूरी है, पूर्ण तन्मयता ज़रूरी है, धैर्य जरूरी है, मंथन जरूरी है। वह लगन और धैर्य बिस्मिल्ला खाँ में है। तभी 80 वर्ष की उम्र में भी उनकी साधना चलती रही है। यतींद्र मिश्र संगीत की शास्त्रीय परंपरा के गहरे जानकार हैं, इस पाठ में इसकी कई अनुगूंजें हैं जो पाठ को बार-बार पढ़ने के लिए आमंत्रित करती हैं। भाषा सहज, प्रवाहमयी तथा प्रसंगों और संदर्भों से भरी हुई है।

शब्दार्थ

  • ड्योढ़ी-दहलीज
  • नौबतखाना- प्रवेश द्वार के ऊपर मंगल-ध्वनि बजाने का स्थान
  • रियाज- अभ्यास
  • मार्फत-द्वारा
  • मुरछंग- एक प्रकार का लोक वाद्ययंत्र
  • नेमत-ईश्वर की देन
  • दाद -शाबाशी
  • गमक-सुगंध
  • अदब-कायदा
  • तालीम -शिक्षा
  • शिरकत-शामिल होना

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