सूरदास के पद
- Books Name
- Yash Tyagi Coaching Hindi Course A Book
- Publication
- ACERISE INDIA
- Course
- CBSE Class 10
- Subject
- Hindi
पाठ-1
पद
सूरदास के पद का भावार्थ
(1)
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।
सूरदास के पद का भावार्थ :- इन छंदों में गोपियाँ ऊधव से अपनी व्यथा कह रही हैं। वे ऊधव पर कटाक्ष कर रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ऊधव तो कृष्ण के निकट रहते हुए भी उनके प्रेम में नहीं बँधे हैं। गोपियाँ कहती हैं कि ऊधव बड़े ही भाग्यशाली हैं क्योंकि उन्हें कृष्ण से जरा भी मोह नहीं है। ऊधव के मन में किसी भी प्रकार का बंधन या अनुराग नहीं है बल्कि वे तो कृष्ण के प्रेम रस से जैसे अछूते हैं। वे उस कमल के पत्ते की तरह हैं जो जल के भीतर रहकर भी गीला नहीं होता है। जैसे तेल से चुपड़े हुए गागर पर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहरती है, ऊधव पर कृष्ण के प्रेम का कोई असर नहीं हुआ है। ऊधव तो प्रेम की नदी के पास होकर भी उसमें डुबकी नहीं लगाते हैं और उनका मन पराग को देखकर भी मोहित नहीं होता है। गोपियाँ कहती हैं कि वे तो अबला और भोली हैं। वे तो कृष्ण के प्रेम में इस तरह से लिपट गईं हैं जैसे गुड़ में चींटियाँ लिपट जाती हैं।
(2)
मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।
सूरदास के पद का भावार्थ :- इस छंद में गोपियाँ अपने मन की व्यथा का वर्णन ऊधव से कर रहीं हैं। वे कहती हैं कि वे अपने मन का दर्द व्यक्त करना चाहती हैं लेकिन किसी के सामने कह नहीं पातीं, बल्कि उसे मन में ही दबाने की कोशिश करती हैं। पहले तो कृष्ण के आने के इंतजार में उन्होंने अपना दर्द सहा था लेकिन अब कृष्ण के स्थान पर जब ऊधव आए हैं तो वे तो अपने मन की व्यथा में किसी योगिनी की तरह जल रहीं हैं। वे तो जहाँ और जब चाहती हैं, कृष्ण के वियोग में उनकी आँखों से प्रबल अश्रुधारा बहने लगती है। गोपियाँ कहती हैं कि जब कृष्ण ने प्रेम की मर्यादा का पालन ही नहीं किया तो फिर गोपियों क्यों धीरज धरें।
(3)
हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौ लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।
सूरदास के पद का भावार्थ :- गोपियाँ कहती हैं कि उनके लिए कृष्ण तो हारिल चिड़िया की लकड़ी के समान हो गये हैं। जैसे हारिल चिड़िया किसी लकड़ी को सदैव पकड़े ही रहता है उसी तरह उन्होंने नंद के नंदन को अपने हृदय से लगाकर पकड़ा हुआ है। वे जागते और सोते हुए, सपने में भी दिन-रात केवल कान्हा कान्हा करती रहती हैं। जब भी वे कोई अन्य बात सुनती हैं तो वह बात उन्हें किसी कड़वी ककड़ी की तरह लगती है। कृष्ण तो उनकी सुध लेने कभी नहीं आए बल्कि उन्हें प्रेम का रोग लगा के चले गये। वे कहती हैं कि उद्धव अपने उपदेश उन्हें दें जिनका मन कभी स्थिर नहीं रहता है। गोपियों का मन तो कृष्ण के प्रेम में हमेशा से अचल है।
(4)
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।
सूरदास के पद का भावार्थ :- गोपियाँ कहती हैं कि कृष्ण तो किसी राजनीतिज्ञ की तरह हो गये हैं। स्वयं न आकर ऊधव को भेज दिया है ताकि वहाँ बैठे-बैठे ही गोपियों का सारा हाल जान जाएँ। एक तो वे पहले से ही चतुर थे और अब तो लगता है कि गुरु ग्रंथ पढ़ लिया है। कृष्ण ने बहुत अधिक बुद्धि लगाकर गोपियों के लिए प्रेम का संदेश भेजा है। इससे गोपियों का मन और भी फिर गया है और वह डोलने लगा है। गोपियों को लगता है कि अब उन्हें कृष्ण से अपना मन फेर लेना चाहिए, क्योंकि कृष्ण अब उनसे मिलना ही नहीं चाहते हैं। गोपियाँ कहती हैं, कि कृष्ण उनपर अन्याय कर रहे हैं। जबकि कृष्ण को तो राजधर्म पता होना चाहिए जो ये कहता है कि प्रजा को कभी भी सताना नहीं चाहिए।
कठिन शब्दो के अर्थ
- बड़भागी – भाग्यवान
- अपरस – अछूता
- तगा- धागा
- पुर॒हन पात - कमल का पत्ता
- माहँ- में
- पाऊँ – पैर
- बोरयौ – डुबोया
- परागी - मुग्ध होना
- अधार- आधार
- आवन- आगमन
- बिरहिनि - वियोग में जीने वाली।
- हुतीं- थीं
- जीतहिं तैं - जहाँ से
- उत- उधर
- मरजादा – मयदा
- न लहीं- नहीं रही
- जक टी - रटती रहती हैं
- सु- वह
- ब्याधि- टोग
- करी – भोगा
- तिनहिं- उनको
- मन चकरी - जिनका मन स्थिर नही रहता।
- मधुकर – भौंरा
- हुते- थे
- पठाए – भैजा
- आगे के - पहले के
- पर हित - दूसरों के कल्याण के लिए
- डोलत धाए - घूमते-फिरते थे
- पाहहैं - पा लेंगी।
सूरदास का जीवन परिचय
सूरदास हिंदी साहित्य में भक्ति-काल की सगुण भक्ति-शाखा के महान कवि हैं। महाकवि सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता नामक गाँव में हुआ। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद हैं। वे आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। श्री वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1583 ईस्वी में हुई।
उन्होंने अपने जीवन काल में कई ग्रन्थ लिखे, जिनमें सूरसागर, साहित्य लहरी, सूर सारावली आदि शामिल हैं। उनका लिखा सूरसागर ग्रन्थ सबसे ज़्यादा लोकप्रिय माना जाता है। सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से दर्शाया है। उनके अनुसार अटल भक्ति ही मोक्ष-प्राप्ति का एक मात्र साधन है और उन्होंने भक्ति को ज्ञान से भी बढ़ कर माना है। उन्होंने अपने काव्यों में भक्ति-भावना, प्रेम, वियोग, श्रृंगार इत्यादि को बड़ी ही सजगता से चित्रित किया है।
सूरदास के पद
पाठ 1: सूरदास के पद
सूरदास
कवि परिचय
इनका जन्म सन 1478 में माना जाता है। एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र में हुआ था जबकि दूसरी मान्यता के अनुसार इनका जन्म स्थान दिल्ली के पास ही माना जाता है। महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य सूरदास अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। सुर‘वात्सल्य’और ‘श्रृंगार’ के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। इनकी मृत्यु 1583 में पारसौली में हुई।
प्रमुख कार्य
ग्रन्थ – सूरसागर, साहित्य लहरी और सूर सारावली।
शब्दार्थ
- बड़भागी-भाग्यवान
- अपरस-अछूता
- तगा-धागा
- पुरइन पात- कमल का पत्ता
- माहँ-में
- पाऊँ-पैर
- बोरयौ-डुबोया
- परागी-मुग्ध होना
- अधार-आधार
- आवन–आगमन
- बिरहिनि-वियोग में जीने वाली।
- हुतीं-थीं
- जीतहिं तैं -जहाँ से
- उत–उधर
- मरजादा-मर्यादा
- न लही-नहीं रही
- जक री-रटती रहती हैं
- सु-वह
- ब्याधि –रोग
- करी–भोगा
- तिनहिं–उनको
- मन चकरी-जिनका मन स्थिर नहीं रहता।
- मधुकर-भौंरा
- हुते-थे
- पठाए–भेजा
- आगे के-पहले के
- पर हित-दूसरों के कल्याण के लिए
- डोलत धाए-घूमते-फिरते थे
- पाइहैं–पा लेंगी
पद-1
उधौ,तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं,नाहिन मन अनुरागी |
पुरइनि पात रहत जल भीतर,ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि,बूँद न ताकौं लागी ।
प्रीति-नदी में पाँव न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।
भावार्थ
गोपियां उद्धव के द्वारा उप गए संदेश को सुनकर व्यंग्य करती है और कहती हैं, हे उद्धव ! तुम बड़े भाग्यशाली हो, जो तुम श्री कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम से वंचित हो। तुम उस कमल के पत्ते के समान हो, जो जल में रहकर भी जल के एक बूंद से अछूता होता है। तुम उस तेल के गागर के समान हो, जिस पर पानी का एक बूंद भी नहीं चिपकता। तुम प्रेम के अथाह सागर के पास रहकर भी उसमें डुबकी नहीं लगा सके। हम गोपियां बहुत ही मूर्ख हैं, जो उनके प्रेम में इस प्रकार चिपक गईं, जैसे गुड में चीटियां चिपक जाती हैं।
पद-2
मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ,नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की,तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि सुनि,बिरहिनि बिरह दही |
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।
भावार्थ
गोपियां उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव अब हमारे मन की बात मन में ही रह गए हमें श्री कृष्ण से ही अपने मन की बात कहनी थी, परंतु वह तुम्हारे हाथों संदेश भिजवा कर हमें और भी दुखी कर दिए। उनसे मिलने की इंतजार में हम हर तरह की विरह वेदना को सह रहे थे परंतु उन्होंने हमारे दुख को और भी बढ़ा दिया।
हे उद्धव, अब हम धीरज क्यों धरे? कैसे धरे? हमारी आशा का एकमात्र तिनका भी डूब गया। प्रेम की मर्यादा है कि प्रेम के बदले प्रेम दिया जाए, परंतु कृष्ण ने हमारे साथ छल किया है। उन्होंने मर्यादा का का उल्लंघन किया है।
पद- 3
हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद नंदन उर,यह दृढ़ करि पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि,कान्ह-कान्ह जकरी।।
सुनत जोग लागत है ऐसौ,ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए,देखी सुनी न करी ।
यह तौ‘सूर’तिनहिं लै सौपौं,जिनके मन चकरी ।l
भावार्थ
गोपियां कहती हैं कि कृष्ण हमारे लिए हारिल की लकड़ी के समान है,जिस प्रकार से हारिल चिड़िया एक लकड़ी को अपने जीवन का आधार मानती है, उसी प्रकार कृष्ण हमारे जीवन का आधार है।हमने तो सिर्फ नंद बाबा के पुत्र श्री कृष्ण को ही अपना माना है। उद्धव के द्वारा दिए गए योग का संदेश गोपियों को कड़वी ककड़ी के समान लगता है। गोपियां कहती है कि हे उद्धव,आप ये योग का संदेश उन्हें जा कर दें, जिनका मन चंचल है। हमने तो अपने मन में श्रीकृष्ण को सदा के लिए बसा लिया है।
पद-4
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के,समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं हीं,अब गुरु ग्रंथ पढाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी,जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के,पर हित डोलत धाए।
अब अपने मन फेर पाइहैं,चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन,जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै‘ सूर’,जो प्रजा न जाहिं सताए ।।
भावार्थ
गोपियां कहते हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है। वे पहले से ही बहुत चलाक थे ।अब वह बड़े- बड़े ग्रंथ पढ़कर और भी ज्ञानी हो गए हैं, तभी तो उन्होंने हमारे मन की बात जान कर भी उद्धव से योग का संदेश भिजवाया है। इसमें उद्धव कोई दोष नहीं है।गोपियां उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव! आप जाकर श्री कृष्ण से यह कहें कि मथुरा जाते वक्त वे हमारा मन भी अपने साथ ले गए थे, उसे वापस कर दें। वे अत्याचारियों को दंडित करने के लिए मथुरा गए हैं, परंतु वे खुद अत्याचार कर रहे हैं। यह राज धर्म नहीं है।