पाठ-15

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन पाठ का सार

इस पाठ में लेखक ने स्त्री शिक्षा के महत्व को प्रसारित करते हुए उन विचारों का खंडन किया है। लेखक को इस बात का दुःख है आज भी ऐसे पढ़े-लिखे लोग समाज में हैं जो स्त्रियों का पढ़ना गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं। विद्वानों द्वारा दिए गए तर्क इस तरह के होते हैं, संस्कृत के नाटकों में पढ़ी-लिखी या कुलीन स्त्रियों को गँवारों की भाषा का प्रयोग करते दिखाया गया है। शकुंतला का उदहारण एक गँवार के रूप में दिया गया है जिसने दुष्यंत को कठोर शब्द कहे। जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक वो गँवारों की भाषा थी। इन सब बातों का खंडन करते हुए लेखक कहते हैं की क्या कोई सुशिक्षित नारी प्राकृत भाषा नही बोल सकती। बुद्ध से लेकर महावीर तक ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में ही दिए हैं तो क्या वो गँवार थे। लेखक कहते हैं की हिंदी, बांग्ला भाषाएँ आजकल की प्राकृत हैं। जिस तरह हम इस ज़माने में हिंदी, बांग्ला भाषाएँ पढ़कर शिक्षित हो सकते हैं उसी तरह उस ज़माने में यह अधिकार प्राकृत को हासिल था। फिर भी प्राकृत बोलना अनपढ़ होने का सबूत है यह बात नही मानी जा सकती।  जिस समय नाट्य-शास्त्रियों ने नाट्य सम्बन्धी नियम बनाए थे उस समय सर्वसाधारण की भाषा संस्कृत नही थी। इसलिए उन्होंने उनकी भाषा संस्कृत और अन्य लोगों और स्त्रियों की भाषा प्राकृत कर दिया। लेखक तर्क देते हुए कहते हैं कि शास्त्रों में बड़े-बड़े विद्वानों की चर्चा मिलती है किन्तु उनके सिखने सम्बन्धी पुस्तक या पांडुलिपि नही मिलतीं उसी प्रकार प्राचीन समय में नारी विद्यालय की जानकारी नही मिलती तो इसका अर्थ यह तो नही लगा सकते की सारी स्त्रियाँ गँवार थीं। लेखक प्राचीन काल की अनेकानेक शिक्षित स्त्रियाँ जैसे शीला, विज्जा के उदारहण देते हुए उनके शिक्षित होने की बात को प्रामणित करते हैं। वे कहते हैं की जब प्राचीन काल में स्त्रियों को नाच-गान, फूल चुनने, हार बनाने की आजादी थी तब यह मत कैसे दिया जा सकता है की उन्हें शिक्षा नही दी जाती थी। लेखक कहते हैं मान लीजिये प्राचीन समय में एक भी स्त्री शिक्षित नही थीं, सब अनपढ़ थीं उन्हें पढ़ाने की आवश्यकता ना समझी गयी होगी परन्तु वर्तमान समय को देखते हुए उन्हें अवश्य शिक्षित करना चाहिए।  लेखक पिछड़े विचारधारावाले विद्वानों से कहते हैं की अब उन्हें अपने पुरानी मान्यताओं में बदलाव लाना चाहिए। जो लोग स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए पुराणों के हवाले माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध के उत्तरार्ध का तिरेपनवां अध्याय पढ़ना चाहिए जिसमे रुक्मिणी हरण की कथा है। उसमे रुक्मिणी ने एक लम्बा -चौड़ा पत्र लिखकर श्रीकृष्ण को भेजा था जो प्राकृत में नहीं था। वे सीता, शकुंतला आदि के प्रसंगो का उदहारण देते हैं जो उन्होंने अपने पतियों से कहे थे। लेखक कहते हैं अनर्थ कभी नही पढ़ना चाहिए। शिक्षा बहुत व्यापक शब्द है, पढ़ना उसी के अंतर्गत आता है। आज की माँग है की हम इन पिछड़े मानसिकता की बातों से निकलकर सबको शिक्षित करने का प्रयास करें। प्राचीन मान्यताओं को आधार बनाकर स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करना अनर्थ है।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • धर्मतत्व- धर्म का सार
  • दलीलेंतर्क
  • सुमार्गगामी - अच्छी राह पर चलने वाले
  • कुत्क - अनुचित तक
  • प्राकृत - प्राचीन काल की भाषा
  • कुमार्गगामी - बुरी राह पर चलने वाले
  • वेदांतवादिनी - वेदान्त दर्शन पर बोलने वाली
  • दर्शक ग्रन्थ - जानकारी देने वाली पुस्तकें
  • प्रगल्प्रतिभावान
  • न््यायशीलता - न्याय के अनुसाट आचरण करना
  • विज- समझदार
  • खंडन- किसी बात को तर्कपूर्ण ढंण से गलत कहना
  • नामोल्लेख - नाम का उल्लेख करना
  • ब्रह्मवादी - वेद पढ़ने-पढ़ाने वाला
  • कालकूट- विष
  • पियूषसुधा
  • अल्पज - थोड़ा जानने वाला
  • नीतिज - नीति जाने वाला
  • अपकारअहित
  • व्यभिचारदुराचार
  • ग्रह ग्रस्त - पाप ग्रह से प्रभावित
  • परित्यक्त - छोड़ा हुआ
  • कलंकारोपण - दौष मढ़ना
  • दुर्वाक्य - निंदा करने वाला वाक्य
  • बात व्यथित - बातों से दुखी होने वाले
  • गँवारअसभ्य
  • तथापि- फिर भी
  • बलिहारीन्योछावर
  • धमविलम्बी - धर्म पर निर्भर
  • गई बीती बदतर
  • संशोधनसुधार
  • मिथ्या- झूठ
  • सोलह आनेपूर्णतः
  • संद्वीपान्तर - एक से दूसरे व्वीप जाना
  • छक्के छुडाना - हटा देना

महावीर प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय

हिंदी के योग निर्माता, भाषा के संस्कारकर्ता एवं उत्कृष्ट निबंधकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म 1864 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के दौलतपुर नामक गांव में हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक होने के कारण शिक्षाक्रम सुचारु रुप से नहीं चल सका। अपने स्वध्याय से ही उन्होंने संस्कृत, हिंदी, बंगाली, मराठी, फारसी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। वे तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएं भेजने लगे। उन्होंने रेलवे के तार विभाग में नौकरी की। बाद में नौकरी छोड़कर पूरी तरह साहित्य सेवा में जुट गए। सरस्वती पत्रिका के संपादक का कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा से हिंदी साहित्य को नियंत्रित करके निखारा और उसकी अभूतपूर्व श्री वृधि की। सन् 1931 में काशी नगरी प्रचारिणी सभा ने इनको आचार्य की तथा हिंदी साहित्य सम्मेलन ने वाचस्पति की उपाधि से विभूषित किया। सन् 1938 में हिंदी का यह है यशस्वी आचार्य परलोक वासी हो गया।

प्रमुख रचनाएं महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की रचना संपदा विशाल है। उन्होंने 50 से भी अधिक ग्रंथ कथा सैकड़ों निबंध लिखे हैं।

उनकी प्रमुख रचनाएं हैं  ‘रसज्ञरंजन ’ , ‘नाट्यशास्त्र’ , ‘हिंदी नवरत्न ’, ‘अद्भुत आलाप ’ , ‘साहित्य सीकरी ’ , ‘नेषध चरित्रचर्चा ’ , ‘कालिदास की निरंकुशता ’ , ‘संपत्तिशास्त्र ’ , ‘हिंदी भाषा की उत्पत्तिआदि।काव्य मंजूषा’, उनका कविता संग्रह है।

पाठ -15 स्त्री- शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

लेखक- महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864-1938)

लेखक परिचय

महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1864 में ग्राम दौलतपुर, जिला रायबरेली (उ.प्र.) में हुआ। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण स्कूली शिक्षा पूरी कर उन्होंने रेलवे में नौकरी कर ली। बाद में उस नौकरी से इस्तीफा देकर सन् 1903 में प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती का संपादन शुरू किया और सन् 1920 तक उसके संपादन से जुड़े रहे। सन् 1938 में उनका देहांत हो गया।

महावीरप्रसाद द्विवेदी केवल एक व्यक्ति नहीं थे वे एक संस्था थे जिससे परिचित होना हिंदी साहित्य के गौरवशाली अध्याय से परिचित होना है। वे हिंदी के पहले व्यवस्थित संपादक, भाषावैज्ञानिक, इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, वैज्ञानिक चिंतन एवं लेखन के स्थापक, समालोचक और अनुवादक थे। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- रसज्ञ रंजन, महावीरप्रम साहित्य सीकर, साहित्य-संदर्भ, अद्भुत आलाप (निबंध संग्रह)। संपत्तिशास्त्र उनकी अर्थशास्त्र से संबंधित पुस्तक है। महिला मोद महिला उपयोगी पुस्तक है तो आध्यात्मिकी दर्शन की द्विवेदी काव्य माला में उनकी कविताएँ हैं। उनका संपूर्ण साहित्य महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली के पंद्रह खंडों में प्रकाशित है।

पाठ -प्रवेश

आज हमारे समाज में लड़कियाँ शिक्षा पाने एवं कार्यक्षेत्र में क्षमता दर्शाने में लड़कों से बिलकुल भी पीछे नहीं हैं किंतु यहाँ तक पहुँचने के लिए अनेक स्त्री-पुरुषों ने लंबा संघर्ष किया। नवजागरण काल के चिंतकों ने मात्र स्त्री-शिक्षा ही नहीं बल्कि समाज में जनतांत्रिक एवं वैज्ञानिक चेतना के संपूर्ण विकास के लिए अलख जगाया। द्विवेदी जी का यह लेख उन सभी पुरातनपंथी विचारों से लोहा लेता है जो स्त्री-शिक्षा को व्यर्थ अथवा समाज के विघटन का कारण मानते थे। इस लेख की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें परंपरा को ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारा गया है, बल्कि विवेक से फैसला लेकर ग्रहण करने योग्य को लेने की बात की गई है और परंपरा का जो हिस्सा सड़-गल चुका है, उसे रूढ़ि मानकर छोड़ देने की। यह विवेकपूर्ण दृष्टि संपूर्ण नवजागरण काल की विशेषता है। आज इस निबंध का अनेक दृष्टियों से ऐतिहासिक महत्त्व है।

यह लेख पहली बार सितंबर 1914 की सरस्वती में पढ़े लिखों का पांडित्य शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। बाद में द्विवेदी जी ने इसे महिला मोद पुस्तक में शामिल करते समय इसका शीर्षक स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन रख दिया था। इस निबंध की भाषा और वर्तनी को हमने संशोधित करने का प्रयास नहीं किया है।

शब्दार्थ

  • विद्यमान -उपस्थित
  • कुमार्गगामी-बुरी राह पर चलने वाले
  • दलीलें-तर्क
  • उपेक्षा-तिरस्कार
  • न्यायशीलता-न्याय के अनुसार आचरण करना
  • अल्पज्ञ-थोड़ा जानने वाला