आत्मकथ्य

पाठ-4

आत्मकथ्य

आत्मकथा कविता का भावार्थ

जयशंकर प्रसाद से हिंदी पत्रिका हंस के एक विशेष अंक के लिए आत्मकथा लिखने को कहा गया था। लेकिन वे अपनी आत्मकथा लिखना नहीं चाहते थे। इस कविता में उन्होंने उन कारणों का वर्णन किया है जिसके कारण वे अपनी आत्मकथा नहीं लिखना चाहते थे।

(1)

मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत नीलिमा में असंख्य जीवन इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य मलिन उपहास
तब भी कहते हो कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे यह गागर रीती।

आत्मकथा कविता का भावार्थ:- भँवरे गुनगुनाकर पता नहीं अपनी कौन सी कहानी कहने की कोशिश करते हैं। शायद उन्हें नहीं पता है कि जीवन तो नश्वर है जो आज है और कल समाप्त हो जाएगा। पेड़ों से मुरझाकर गिर रही पत्तियाँ शायद जीवन की नश्वरता का प्रतीक हैं। मनुष्य जीवन भी ऐसा ही है; क्षणिक।

इसलिए इस जीवन की कहानी सुनाने से क्या लाभ। यह संसार अनंत है जिसमे कितने ही जीवन के इतिहास भरे पड़े हैं। इनमें से अधिकतर एक दूसरे पर घोर कटाक्ष करते ही रहते हैं। इसके बावजूद पता नहीं तुम मेरी कमजोरियों के बारे में क्यों सुनना चाहते हो। मेरा जीवन तो एक खाली गागर की तरह है जिसके बारे में सुनकर तुम्हें शायद ही आनंद आयेगा।

(2)

किंतु कहीं ऐसा हो कि तुम ही खाली करने वाले
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों को दिखलाऊँ मैं।

आत्मकथा कविता का भावार्थ:- मेरे जीवन की कमियों को सुनकर ऐसा हो कि तुम ये समझने लगो कि तुम्हारे जीवन में सबकुछ अच्छा ही हुआ और मेरा जीवन हमेशा एक कोरे कागज की तरह था। कवि का कहना है कि वे इस दुविधा में भी हैं कि दूसरे की कमियों को दिखाकर उनकी हँसी उड़ाएँ या फिर अपनी कमियों को जगजाहिर कर दें।

(3)

उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।
अरे खिल-खिलाकर हँसते होने वाली उन बातों की।
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।
आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।

आत्मकथा कविता का भावार्थ:- कवि का कहना है कि उन्होंने कितने स्वप्न देखे थे, कितनी ही महात्वाकांक्षाएँ पाली थीं। लेकिन सारे सपने जल्दी ही टूट गये। ऐसा लगा कि मुँह तक आने से पहले ही निवाला गिर गया था। उन्होंने जितना कुछ पाने की हसरत पाल रखी थी, उन्हें उतना कभी नहीं मिला। इसलिए उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं कि जीवन की सफलताओं या उपलब्धियों की उज्ज्वल गाथाएँ बता सकें।

(4)

जिसके अरुण कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।
अनुरागिनि उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।

आत्मकथा कविता का भावार्थ:- कभी कोई ऐसा भी था जिसके चेहरे को देखकर कवि को प्रेरणा मिलती थी। लेकिन अब उसकी यादें ही बची हुई हैं। अब मैं तो मैं एक थका हुआ राही हूँ जिसका सहारा केवल वो पुरानी यादें हैं।

(5)

सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?

क्या यह अच्छा नहीं क़ि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।

आत्मकथा कविता का भावार्थ:- इसलिए किसी को भी इसका कोई हक नहीं है कि मुझे कुरेद कर मेरे जख्मों को देखे। मेरा जीवन इतना भी सार्थक नहीं कि मैं इसके बारे में बड़ी-बड़ी कहानियाँ सुनाता फिरूँ। इससे अच्छा तो यही होगा कि मैं मौन रहकर दूसरे के बारे में सुनता रहूँ। कवि का कहना है कि उनकी मौन व्यथा थकी हुई है और शायद अभी उचित समय नहीं आया है कि वे अपनी आत्मकथा लिख सकें।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • मधुप- मन रुपी भौंरा
  • अनंत नीलिमा - अंतहीज विस्तार
  • व्यंग्य मलिन- खराब ढंग से निंदा करना
  • गागर-रीती - खाली घड़ा
  • प्रतंचना धोखा
  • मुसकक्‍्या  कर - मुस्कुरा कर
  • अरुण-कोपल- लाल गाल
  • अनुरागिनी उषा - प्रेम भरी भौर
  • स्मृति पाथेय - स्मृति छुपी सम्बल
  • पन््थारास्ता
  • कंथाअंतर्मन

 जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय

बहुमुखी प्रतिभा के धनी जयशंकर प्रसाद जी का जन्म वाराणसी में सन 1889 में हुआ। ये काशी के प्रसिद्ध क्वींस कॉलेज में पढ़ने गए। परन्तु विकट परिस्थितियों के कारण इन्हें आठवीं कक्षा में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिंदी, फ़ारसी इत्यादि का अध्ययन किया। इन्हें छायावाद का प्रवर्तक माना जाता है। जीवन की विषम परिस्थितियों में भी इन्होंनें साहित्य की रचना की। इन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध एवं कविता आदि सभी की रचना की। इनकी कामायनी छायावाद की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इसके लिए इन्हें मंगलप्रसाद पुरस्कार दिया गया।

देश के गौरव का गान तथा देशवासियों को राष्ट्रीय गरिमा का ज्ञान कराना इनके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता रही है। इनके काव्य में राष्ट्रीय स्वाभिमान का भाव भरा हुआ था। इनकी रचनाओं में श्रृंगार एवं करुणा रस का सुन्दर प्रयोग मिलता है। इनकी मृत्यु सन 1937 में हुई।

आत्मकथ्य

पाठ 4: आत्मकथ्य

जयशंकर प्रसाद

कवि परिचय

इनका जन्म सन 1889 में वाराणसी में हुआ था। काशी के प्रसिद्ध क्वींस कॉलेज में वे पढ़ने गए परन्तु स्थितियां अनुकूल ना होने के कारण आँठवी से आगे नही पढ़ पाए। बाद में घर पर ही संस्कृत, हिंदी, फारसी का अध्ययन किया। छायावादी काव्य प्रवृति के प्रमुख कवियों में ये एक थे। इनकी मृत्यु सन 1937 में हुई।

प्रमुख कार्य

काव्य-कृतियाँ – चित्राधार, कानन कुसुम, झरना, आंसू, लहर, और कामायनी नाटक – अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी उपन्यास कंकाल, तितली और इरावती ।

कहानी संग्रह – आकाशदीप, आंधी और इंद्रजाल

शब्दार्थ

  • मधुप – मन रूपी भौंरा
  • अनंत नीलिमा – अंतहीन विस्तार
  • व्यंग्य मलिन -खराब ढंग से निंदा करना
  • गागर – रीती खाली घड़ा
  • प्रवंचना – धोखा
  • मुसक्या कर -मुस्कुरा कर
  • अरुण-कोपल – लाल गाल
  • अनुरागिनी उषा – प्रेम भरी भोर
  • स्मृति पाथेय – स्मृति रूपी सम्बल
  • पन्था- रास्ता
  • कंथा – अंतर्मन

पाठ प्रवेश

इस कविता में कवि ने अपने अपनी आत्मकथा न लिखने के कारणों को बताया है। कवि कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का मन रूपी भौंरा प्रेम गीत गाता हुआ अपनी कहानी सुना रहा है। झरते पत्तियों की ओर इशारा करते हुए कवि कहते हैं कि आज असंख्य पत्तियाँ मुरझाकर गिर रही हैं यानी उनकी जीवन लीला समाप्त हो रही है।

कविता का संक्षिप्त परिचय

प्रेमचंद के संपादन में हंस (पत्रिका) का एक आत्मकथा विशेषांक निकलना तय हुआ था। प्रसाद जी के मित्रों ने आग्रह किया कि वे भी आत्मकथा लिखें। प्रसाद जी इससे सहमत न थे। इसी असहमति के तर्क से पैदा हुई कविता है-आत्मकथ्य। यह कविता पहली बार 1932 में हंस के आत्मकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। छायावादी शैली में लिखी गई इस कविता में जयशंकर प्रसाद ने जीवन के यथार्थ एवं अभाव पक्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। छायावादी सूक्ष्मता के अनुरूप ही अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए जयशंकर प्रसाद ने ललित, सुंदर एवं नवीन शब्दों और बिंबों का प्रयोग किया है। इन्हीं शब्दों एवं बिंबों के सहारे उन्होंने बताया है कि उनके जीवन की कथा एक सामान्य व्यक्ति के जीवन की कथा है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं। है जिसे महान और रोचक मानकर लोग वाह-वाह करेंगे। कुल मिलाकर इस कविता में एक तरफ़ कवि द्वारा यथार्थ की स्वीकृति है तो दूसरी तरफ़ एक महान कवि की विनम्रता भी।

कविता

मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

मुरझाकर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत – नीलिमा में असंख्य जीवन - - इतिहास

यह लो करते ही रहते हैं अपना व्यंगय – मलिन उपहास

तब भी कहते हो – कह डालूं दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे यह गागर रीती।

भावार्थ- कवि कहता है कि गुंजन करते भँवरे और डालों से मुरझाकर गिरती पत्तियाँ जीवन की करुण कहानी सुना रहे हैं। उसका अपना जीवन भी व्यथाओं की कथा है। इस अनंत नीले आकाश के तले नित्य प्रति असंख्य जीवन इतिहास (आत्मकथाएँ) लिखे जा रहे है। इन्हें लिखने वालों ने अपने आपको ही व्यंग्य तथा उपहास का पात्र बनाया है। कवि मित्रों से पूछता हैं कि क्या यह सब देखकर भी वे चाहते हैं कि वह अपनी दुर्बलताओं से युक्त आत्मकथा लिखें। इस खाली गगरी जैसी महत्वहीन आत्मकथा को पढ़कर उन्हें क्या सुख मिलेगा।

कविता

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले –

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उङाऊँ मैं।

भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।

उज्जवल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिल-खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की।

भावार्थ- कवि अपने मित्रों से कहता है- कहीं ऐसा न हो कि मेरे रस शून्य, खाली गागर जैसे जीवन के बारे में पढ़कर तुम स्वयं को ही अपराधी समझने लगो। तुम्हें ऐसा लगे कि तुमने ही मेरे जीवन से रस चुराकर अपनी सुख की गगरी को भरा है।

कवि कहता है कि वह अपनी भूलों और ठगे जाने के विषय में बताकर अपनी सरलता की हँसी उङाना नहीं चाहता। मैं अपने प्रिय के साथ बिताए जीवन के मधुर क्षणों की कहानी किस बल पर सुनाऊँ। वे खिल-खिलाकर हँसते हुए की गई बातें अब एक असफल प्रेमकथा बन चुकी है। उन भूली हुई मधुर स्मृतियों को जगाकर मैं अपने मन को व्यथित करना नहीं चाहता।

कविता

आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।

जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।

अनुरागिनी उषा लेती थी, निज सुहाग मधुमाया में।

उसकी स्मृति पाथेय बनी है, थके पथिक की पंथा की।

सीवन को उधेङ कर देखोगे क्यों मेरी कथा की ?

भावार्थ- कवि कहता है- मैंने जीवन में जो सुख के सपने देखे वे कभी साकार नहीं हुए। सुख मेरी बाँहों में आते-आते मुझे तरसाकर भाग गए। मेरा अपने प्रिय को पाने का सपना अधूरा ही रह गया।मेरी प्रिया के गालों पर छाई लालिमा इतनी सुंदर और मस्ती भरी थी कि लगता था प्रेममयी उषा भी अपनी माँग में सौभाग्य सिंदूर भरने के लिए उसी से लालिमा लिया करती थी।आज मैं एक थके हुए यात्री के समान हूँ। प्रिय की स्मृतियाँ मेरी इस जीवन यात्रा में पथ भोजन के समान है। उन्हीं के सहारे मैं जीवन बिताने का बल जुटा पा रहा हूँ। मैं नही चाहता कि कोई मेरी इन यादों की गुदड़ी को उधेड़कर मेरे व्यथित हृदय में झाँके । मित्रों! आत्मकथा लिखकर मेरी वेदनामय स्मृतियों को क्यों जगाना चाहते हो ?

कविता

छोटे से जीवन की कैसे बङी कथाएँ आज कहूँ ?

क्या, यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ ?

सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा ?

अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा ।

भावार्थ- कवि का कहना है कि उनका जीवन एक साधारण सीधे-सादे व्यक्ति की कहानी है। इस छोटे से जीवन को बढ़ा-चढ़ाकर लिखना उसके लिए संभव नहीं है। इस पाखण्ड के बजाय तो उसका मौन रहना और दूसरों की यश-गाथाएँ सुनते रहना कहीं अच्छा है।

वह अपने मित्रों से कहता है कि वे उस जैसे भोले-भोले निष्कपट, दुर्बल हृदय, सदा छले जाते रहे व्यक्ति की आत्मकथा सुनकर क्या करेंगे ? उनको इसमें कोई उल्लेखनीय विशेषता या प्रेरणापद बात नहीं मिलेगी। इसके अतिरिक्त यह आत्मकथा लिखने का उचित समय भी नहीं है। मुझे निरंतर पीड़ित करने वाली व्यथाएँ थककर शांत हो चुकी है। मैं नहीं चाहता कि आत्मकथा लिखकर मैं उन कटु व्यथित करने वाली स्मृतियों को फिर से जगा दूँ।

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