आत्मकथ्य

पाठ-4

आत्मकथ्य

आत्मकथा कविता का भावार्थ

जयशंकर प्रसाद से हिंदी पत्रिका हंस के एक विशेष अंक के लिए आत्मकथा लिखने को कहा गया था। लेकिन वे अपनी आत्मकथा लिखना नहीं चाहते थे। इस कविता में उन्होंने उन कारणों का वर्णन किया है जिसके कारण वे अपनी आत्मकथा नहीं लिखना चाहते थे।

(1)

मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत नीलिमा में असंख्य जीवन इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य मलिन उपहास
तब भी कहते हो कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे यह गागर रीती।

आत्मकथा कविता का भावार्थ:- भँवरे गुनगुनाकर पता नहीं अपनी कौन सी कहानी कहने की कोशिश करते हैं। शायद उन्हें नहीं पता है कि जीवन तो नश्वर है जो आज है और कल समाप्त हो जाएगा। पेड़ों से मुरझाकर गिर रही पत्तियाँ शायद जीवन की नश्वरता का प्रतीक हैं। मनुष्य जीवन भी ऐसा ही है; क्षणिक।

इसलिए इस जीवन की कहानी सुनाने से क्या लाभ। यह संसार अनंत है जिसमे कितने ही जीवन के इतिहास भरे पड़े हैं। इनमें से अधिकतर एक दूसरे पर घोर कटाक्ष करते ही रहते हैं। इसके बावजूद पता नहीं तुम मेरी कमजोरियों के बारे में क्यों सुनना चाहते हो। मेरा जीवन तो एक खाली गागर की तरह है जिसके बारे में सुनकर तुम्हें शायद ही आनंद आयेगा।

(2)

किंतु कहीं ऐसा हो कि तुम ही खाली करने वाले
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों को दिखलाऊँ मैं।

आत्मकथा कविता का भावार्थ:- मेरे जीवन की कमियों को सुनकर ऐसा हो कि तुम ये समझने लगो कि तुम्हारे जीवन में सबकुछ अच्छा ही हुआ और मेरा जीवन हमेशा एक कोरे कागज की तरह था। कवि का कहना है कि वे इस दुविधा में भी हैं कि दूसरे की कमियों को दिखाकर उनकी हँसी उड़ाएँ या फिर अपनी कमियों को जगजाहिर कर दें।

(3)

उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।
अरे खिल-खिलाकर हँसते होने वाली उन बातों की।
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।
आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।

आत्मकथा कविता का भावार्थ:- कवि का कहना है कि उन्होंने कितने स्वप्न देखे थे, कितनी ही महात्वाकांक्षाएँ पाली थीं। लेकिन सारे सपने जल्दी ही टूट गये। ऐसा लगा कि मुँह तक आने से पहले ही निवाला गिर गया था। उन्होंने जितना कुछ पाने की हसरत पाल रखी थी, उन्हें उतना कभी नहीं मिला। इसलिए उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं कि जीवन की सफलताओं या उपलब्धियों की उज्ज्वल गाथाएँ बता सकें।

(4)

जिसके अरुण कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।
अनुरागिनि उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।

आत्मकथा कविता का भावार्थ:- कभी कोई ऐसा भी था जिसके चेहरे को देखकर कवि को प्रेरणा मिलती थी। लेकिन अब उसकी यादें ही बची हुई हैं। अब मैं तो मैं एक थका हुआ राही हूँ जिसका सहारा केवल वो पुरानी यादें हैं।

(5)

सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?

क्या यह अच्छा नहीं क़ि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।

आत्मकथा कविता का भावार्थ:- इसलिए किसी को भी इसका कोई हक नहीं है कि मुझे कुरेद कर मेरे जख्मों को देखे। मेरा जीवन इतना भी सार्थक नहीं कि मैं इसके बारे में बड़ी-बड़ी कहानियाँ सुनाता फिरूँ। इससे अच्छा तो यही होगा कि मैं मौन रहकर दूसरे के बारे में सुनता रहूँ। कवि का कहना है कि उनकी मौन व्यथा थकी हुई है और शायद अभी उचित समय नहीं आया है कि वे अपनी आत्मकथा लिख सकें।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • मधुप- मन रुपी भौंरा
  • अनंत नीलिमा - अंतहीज विस्तार
  • व्यंग्य मलिन- खराब ढंग से निंदा करना
  • गागर-रीती - खाली घड़ा
  • प्रतंचना धोखा
  • मुसकक्‍्या  कर - मुस्कुरा कर
  • अरुण-कोपल- लाल गाल
  • अनुरागिनी उषा - प्रेम भरी भौर
  • स्मृति पाथेय - स्मृति छुपी सम्बल
  • पन््थारास्ता
  • कंथाअंतर्मन

 जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय

बहुमुखी प्रतिभा के धनी जयशंकर प्रसाद जी का जन्म वाराणसी में सन 1889 में हुआ। ये काशी के प्रसिद्ध क्वींस कॉलेज में पढ़ने गए। परन्तु विकट परिस्थितियों के कारण इन्हें आठवीं कक्षा में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिंदी, फ़ारसी इत्यादि का अध्ययन किया। इन्हें छायावाद का प्रवर्तक माना जाता है। जीवन की विषम परिस्थितियों में भी इन्होंनें साहित्य की रचना की। इन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध एवं कविता आदि सभी की रचना की। इनकी कामायनी छायावाद की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इसके लिए इन्हें मंगलप्रसाद पुरस्कार दिया गया।

देश के गौरव का गान तथा देशवासियों को राष्ट्रीय गरिमा का ज्ञान कराना इनके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता रही है। इनके काव्य में राष्ट्रीय स्वाभिमान का भाव भरा हुआ था। इनकी रचनाओं में श्रृंगार एवं करुणा रस का सुन्दर प्रयोग मिलता है। इनकी मृत्यु सन 1937 में हुई।

आत्मकथ्य

पाठ 4: आत्मकथ्य

जयशंकर प्रसाद

कवि परिचय

इनका जन्म सन 1889 में वाराणसी में हुआ था। काशी के प्रसिद्ध क्वींस कॉलेज में वे पढ़ने गए परन्तु स्थितियां अनुकूल ना होने के कारण आँठवी से आगे नही पढ़ पाए। बाद में घर पर ही संस्कृत, हिंदी, फारसी का अध्ययन किया। छायावादी काव्य प्रवृति के प्रमुख कवियों में ये एक थे। इनकी मृत्यु सन 1937 में हुई।

प्रमुख कार्य

काव्य-कृतियाँ – चित्राधार, कानन कुसुम, झरना, आंसू, लहर, और कामायनी नाटक – अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी उपन्यास कंकाल, तितली और इरावती ।

कहानी संग्रह – आकाशदीप, आंधी और इंद्रजाल

शब्दार्थ

  • मधुप – मन रूपी भौंरा
  • अनंत नीलिमा – अंतहीन विस्तार
  • व्यंग्य मलिन -खराब ढंग से निंदा करना
  • गागर – रीती खाली घड़ा
  • प्रवंचना – धोखा
  • मुसक्या कर -मुस्कुरा कर
  • अरुण-कोपल – लाल गाल
  • अनुरागिनी उषा – प्रेम भरी भोर
  • स्मृति पाथेय – स्मृति रूपी सम्बल
  • पन्था- रास्ता
  • कंथा – अंतर्मन

पाठ प्रवेश

इस कविता में कवि ने अपने अपनी आत्मकथा न लिखने के कारणों को बताया है। कवि कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का मन रूपी भौंरा प्रेम गीत गाता हुआ अपनी कहानी सुना रहा है। झरते पत्तियों की ओर इशारा करते हुए कवि कहते हैं कि आज असंख्य पत्तियाँ मुरझाकर गिर रही हैं यानी उनकी जीवन लीला समाप्त हो रही है।

कविता का संक्षिप्त परिचय

प्रेमचंद के संपादन में हंस (पत्रिका) का एक आत्मकथा विशेषांक निकलना तय हुआ था। प्रसाद जी के मित्रों ने आग्रह किया कि वे भी आत्मकथा लिखें। प्रसाद जी इससे सहमत न थे। इसी असहमति के तर्क से पैदा हुई कविता है-आत्मकथ्य। यह कविता पहली बार 1932 में हंस के आत्मकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। छायावादी शैली में लिखी गई इस कविता में जयशंकर प्रसाद ने जीवन के यथार्थ एवं अभाव पक्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। छायावादी सूक्ष्मता के अनुरूप ही अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए जयशंकर प्रसाद ने ललित, सुंदर एवं नवीन शब्दों और बिंबों का प्रयोग किया है। इन्हीं शब्दों एवं बिंबों के सहारे उन्होंने बताया है कि उनके जीवन की कथा एक सामान्य व्यक्ति के जीवन की कथा है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं। है जिसे महान और रोचक मानकर लोग वाह-वाह करेंगे। कुल मिलाकर इस कविता में एक तरफ़ कवि द्वारा यथार्थ की स्वीकृति है तो दूसरी तरफ़ एक महान कवि की विनम्रता भी।

कविता

मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

मुरझाकर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत – नीलिमा में असंख्य जीवन - - इतिहास

यह लो करते ही रहते हैं अपना व्यंगय – मलिन उपहास

तब भी कहते हो – कह डालूं दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे यह गागर रीती।

भावार्थ- कवि कहता है कि गुंजन करते भँवरे और डालों से मुरझाकर गिरती पत्तियाँ जीवन की करुण कहानी सुना रहे हैं। उसका अपना जीवन भी व्यथाओं की कथा है। इस अनंत नीले आकाश के तले नित्य प्रति असंख्य जीवन इतिहास (आत्मकथाएँ) लिखे जा रहे है। इन्हें लिखने वालों ने अपने आपको ही व्यंग्य तथा उपहास का पात्र बनाया है। कवि मित्रों से पूछता हैं कि क्या यह सब देखकर भी वे चाहते हैं कि वह अपनी दुर्बलताओं से युक्त आत्मकथा लिखें। इस खाली गगरी जैसी महत्वहीन आत्मकथा को पढ़कर उन्हें क्या सुख मिलेगा।

कविता

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले –

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उङाऊँ मैं।

भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।

उज्जवल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिल-खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की।

भावार्थ- कवि अपने मित्रों से कहता है- कहीं ऐसा न हो कि मेरे रस शून्य, खाली गागर जैसे जीवन के बारे में पढ़कर तुम स्वयं को ही अपराधी समझने लगो। तुम्हें ऐसा लगे कि तुमने ही मेरे जीवन से रस चुराकर अपनी सुख की गगरी को भरा है।

कवि कहता है कि वह अपनी भूलों और ठगे जाने के विषय में बताकर अपनी सरलता की हँसी उङाना नहीं चाहता। मैं अपने प्रिय के साथ बिताए जीवन के मधुर क्षणों की कहानी किस बल पर सुनाऊँ। वे खिल-खिलाकर हँसते हुए की गई बातें अब एक असफल प्रेमकथा बन चुकी है। उन भूली हुई मधुर स्मृतियों को जगाकर मैं अपने मन को व्यथित करना नहीं चाहता।

कविता

आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।

जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।

अनुरागिनी उषा लेती थी, निज सुहाग मधुमाया में।

उसकी स्मृति पाथेय बनी है, थके पथिक की पंथा की।

सीवन को उधेङ कर देखोगे क्यों मेरी कथा की ?

भावार्थ- कवि कहता है- मैंने जीवन में जो सुख के सपने देखे वे कभी साकार नहीं हुए। सुख मेरी बाँहों में आते-आते मुझे तरसाकर भाग गए। मेरा अपने प्रिय को पाने का सपना अधूरा ही रह गया।मेरी प्रिया के गालों पर छाई लालिमा इतनी सुंदर और मस्ती भरी थी कि लगता था प्रेममयी उषा भी अपनी माँग में सौभाग्य सिंदूर भरने के लिए उसी से लालिमा लिया करती थी।आज मैं एक थके हुए यात्री के समान हूँ। प्रिय की स्मृतियाँ मेरी इस जीवन यात्रा में पथ भोजन के समान है। उन्हीं के सहारे मैं जीवन बिताने का बल जुटा पा रहा हूँ। मैं नही चाहता कि कोई मेरी इन यादों की गुदड़ी को उधेड़कर मेरे व्यथित हृदय में झाँके । मित्रों! आत्मकथा लिखकर मेरी वेदनामय स्मृतियों को क्यों जगाना चाहते हो ?

कविता

छोटे से जीवन की कैसे बङी कथाएँ आज कहूँ ?

क्या, यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ ?

सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा ?

अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा ।

भावार्थ- कवि का कहना है कि उनका जीवन एक साधारण सीधे-सादे व्यक्ति की कहानी है। इस छोटे से जीवन को बढ़ा-चढ़ाकर लिखना उसके लिए संभव नहीं है। इस पाखण्ड के बजाय तो उसका मौन रहना और दूसरों की यश-गाथाएँ सुनते रहना कहीं अच्छा है।

वह अपने मित्रों से कहता है कि वे उस जैसे भोले-भोले निष्कपट, दुर्बल हृदय, सदा छले जाते रहे व्यक्ति की आत्मकथा सुनकर क्या करेंगे ? उनको इसमें कोई उल्लेखनीय विशेषता या प्रेरणापद बात नहीं मिलेगी। इसके अतिरिक्त यह आत्मकथा लिखने का उचित समय भी नहीं है। मुझे निरंतर पीड़ित करने वाली व्यथाएँ थककर शांत हो चुकी है। मैं नहीं चाहता कि आत्मकथा लिखकर मैं उन कटु व्यथित करने वाली स्मृतियों को फिर से जगा दूँ।

उत्साह, अट नहीं रही है

पाठ-5

उत्साह एवं अट नहीं रही है

(1) उत्साह

(1)

बादल, गरजो!
घेर घेर घोर गगन, धाराधर !
ललित ललित, काले घुंघराले,
बाल कल्पना के से पाले,
विद्युत छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले!
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो
बादल गरजो!

कविता का भावार्थ :- इस कविता में कवि ने बादल के बारे में लिखा है। कवि बादलों से गरजने का आह्वान करता है। कवि का कहना है कि बादलों की रचना में एक नवीनता है। काले-काले घुंघराले बादलों का अनगढ़ रूप ऐसे लगता है जैसे उनमें किसी बालक की कल्पना समाई हुई हो। उन्हीं बादलों से कवि कहता है कि वे पूरे आसमान को घेर कर घोर ढ़ंग से गर्जना करें। बादल के हृदय में किसी कवि की तरह असीम ऊर्जा भरी हुई है। इसलिए कवि बादलों से कहता है कि वे किसी नई कविता की रचना कर दें और उस रचना से सबको भर दें।

(2)

विकल विकल, उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन !
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो
बादल, गरजो

कविता का भावार्थ:- इन पंक्तियों में कवि ने तपती गर्मी से बेहाल लोगों के बारे में लिखा है। सभी लोग तपती गर्मी से बेहाल हैं और उनका मन कहीं नहीं लग रहा है। ऐसे में कई दिशाओं से बादल घिर आए हैं। कवि उन बादलों से कहता है कि तपती धरती को अपने जल से शीतल कर दें।

(2) अट नहीं रही है

(1)

अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।

कविता का भावार्थ:- इस कविता में कवि ने वसंत ऋतु की सुंदरता का बखान किया है। वसंत ऋतु का आगमन हिंदी के फागुन महीने में होता है। ऐसे में फागुन की आभा इतनी अधिक है कि वह कहीं समा नहीं पा रही है।

(2)

कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।

कविता का भावार्थ:- वसंत जब साँस लेता है तो उसकी खुशबू से हर घर भर उठता है। कभी ऐसा लगता है कि बसंत आसमान में उड़ने के लिए अपने पंख फड़फड़ाता है। कवि उस सौंदर्य से अपनी आँखें हटाना चाहता है लेकिन उसकी आँखें हट नहीं रही हैं।

(3)

पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में
मंद गंध पुष्प माल,
पाट-पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है।

कविता का भावार्थ:- पेड़ों पर नए पत्ते निकल आए हैं, जो कई रंगों के हैं। कहीं-कहीं पर कुछ पेड़ों के गले में लगता है कि भीनी-भीनी खुशबू देने वाले फूलों की माला लटकी हुई है। हर तरफ सुंदरता बिखरी पड़ी है और वह इतनी अधिक है कि धरा पर समा नहीं रही है।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • धराधर बादल
  • उन्मन- अनमनापन
  • निदाघ गर्मी
  • सकल- सब
  • आभा- चमक
  • वज् कठोर
  • अनंत - जिसका अंत ना हो
  • शीतल- ठंडा
  • छबि- सौंदर्य
  • उर- हृदय
  • विकल बैचैन
  • अट- समाना
  • पाठट-पाद - जगह-जगह
  • शोभा श्री - सौंदर्य से भरपूर
  • पट - समा नही रही

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जीवन परिचय

दुखों संघर्षों से भरा जीवन जीने वाले विस्तृत सरोकारों के कवि सूर्यकांत त्रिपाठीनिरालाका जीवन काल सन 1899-1961 तक रहा। उनकी रचनओं में क्रांति, विद्रोह और प्रेम की उपस्थिति देखने को मिलती है। उनका जन्मस्थान कवियों की जन्मभूमि यानि बंगाल में हुआ। साहित्य के क्षेत्र में उनका नाम अनामिका, परिमल, गीतिका आदि कविताओं और निराला रचनावली के नाम से प्रकाशित उनके संपूर्ण साहित्य से हुआ, जिसके आठ खंड हैं। स्वामी परमहंस एवं विवेकानंद जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों से प्रेरणा लेने वाले और उनके बताए पथ पर चलने वाले निराला जी ने भी स्वंत्रता-संघर्ष में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

उत्साह, अट नहीं रही है

पाठ 5: उत्साह, अट नहीं रही है

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कवि-परिचय

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल के महिषादल में सन् 1899 में हुआ। वे मूलतः गढ़ाकोला (जिला उन्नाव), उत्तर प्रदेश के निवासी थे। निराला की औपचारिक शिक्षा नौवीं तक महिषादल में ही हुई। उन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी का ज्ञान अर्जित किया। वे संगीत और दर्शनशास्त्र के भी गहरे अध्येता थे। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद की विचारधारा ने उन पर विशेष प्रभाव डाला।

निराला का पारिवारिक जीवन दुखों और संघर्षों से भरा था। आत्मीय जनों के असामयिक निधन ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया। साहित्यिक मोर्चे पर भी उन्होंने अनवरत संघर्ष किया। सन् 1961 में उनका देहांत हो गया।

उनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ हैं- अनामिका, परिमल, गीतिका, कुकुरमुत्ता और नए पत्ते। उपन्यास, कहानी, आलोचना और निबंध लेखन में भी उनकी ख्याति अविस्मरणीय है। निराला रचनावली के आठ खंडों में उनका संपूर्ण साहित्य प्रकाशित है।

पाठ प्रवेश

उत्साह एक आह्वान गीत है जो बादल को संबोधित है। बादल निराला का प्रिय विषय है। कविता में बादल एक तरफ़ पीड़ित-प्यासे जन की आकांक्षा है, तो दूसरी तरफ़ वही बादल नयी कल्पना और नए अंकुर के लिए विध्वंस, विषय, और क्रांति चेतना को संभव करने वाला भी। कवि जीवन को व्यापक और समग्र दृष्टि से देखता है। कविता में ललित कल्पना और क्रांति-चेतना दोनों हैं। सामाजिक क्रांति या बदलाव में साहित्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, निराला इसे ‘नवजीवन’ औ ‘नूतन कविता’ के संदर्भों में देखते हैं।

अट नहीं रही है कविता फागुन की मादकता को प्रकट करती है। कवि फागुन की सर्वव्यापक सुंदरता को अनेक संदर्भों में देखता है। जब मन प्रसन्न हो तो हर तरफ फागुन का ही सौंदर्य और उल्लास दिखाई पड़ता है। सुंदर शब्दों के चयन एवं प ने कविता को भी फागुन की ही तरह सुंदर एवं ललित बना दिया है।

उत्साह

बादल, गरजो!

घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ!

ललित ललित, काले घुंघराले,

बाल कल्पना के से पाले,

विद्युत छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले!

वज्र छिपा, नूतन कविता फिर भर दो!

बादल गरजो!

भावार्थ - कवि बादलों से गरजने का आह्वान करता है। कवि का कहना है कि बादलों की रचना में एक नवीनता है। काले-काले घुंघराले बादलों का अनगढ़ रूप ऐसे लगता है, जैसे उनमें किसी बालक की कल्पना समाई हुई हो। उन्हीं बादलों से कवि कहता है कि वे पूरे आसमान को घेर कर घोर ढंग से गर्जना करें। बादल के हृदय में किसी कवि की तरह असीम ऊर्जा भरी हुई है। इसलिए कवि बादलों से कहता है कि वे किसी नई कविता की रचना कर दें और उस रचना से सबको भर दें।

विकल विकल, उन्मन थे उन्मन

विश्व के निदाघ के सकल जन,

आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!

तप्त धरा, जल से फिर शीतल कर दो बादल, गरजो!

भावार्थ : इन पंक्तियों में कवि ने तपती गर्मी से बेहाल लोगों के बारे में लिखा है। सभी लोग तपती गर्मी से बेहाल हैं और उनका मन कहीं नहीं लग रहा है। ऐसे में कई दिशाओं से बादल घिर आए हैं। कवि उन बादलों से कहता है कि तपती धरती को अपने जल से शीतल कर दें।

अट नहीं रही है

अट नहीं रही है

आभा फागुन की

तन सट नहीं रही है।

 भावार्थ  -  इस कविता में कवि ने वसंत ऋतु की सुंदरता का बखान किया है। वसंत ऋतु का आगमन हिंदी के फागुन महीने में होता है। ऐसे में फागुन की आभा इतनी अधिक है कि वह कहीं समा नहीं पा रही है ।

कहीं साँस लेते हो,

घर-घर भर देते हो,

उड़ने को नभ में तुम

पर-पर कर देते हो,

आँख हटाता हूँ तो

हट नहीं रही है।

भावार्थ  - वसंत जब साँस लेता है तो उसकी खुशबू से हर घर भर उठता है। कभी ऐसा लगता है कि बसंत आसमान में उड़ने के लिए अपने पंख फड़फड़ाता है। कवि उस सौंदर्य से अपनी आँखें हटाना चाहता है लेकिन उसकी आँखें हट नहीं रही है।

पत्तों से लदी डाल

कहीं हरी, कहीं लाल,

कहीं पड़ी है उर में

मंद गंध पुष्प माल,

पाट-पाट शोभा श्री

पट नहीं रही है।

भावार्थ  - पेड़ों पर नए पत्ते निकल आए हैं, जो कई रंगों के हैं। कहीं -कहीं पर कुछ पेड़ों के गले में लगता है कि भीनी-भीनी खुशबू देने वाले फूलों की माला लटकी हुई है। हर तरफ सुंदरता बिखरी पड़ी है और वह इतनी अधिक है कि धरा पर समा नहीं रही है।

यह दन्तुरित मुस्कान, फसल

पाठ-6

यह दंतुरित मुसकान

यह दंतुरित मुसकान कविता का भावार्थ

(1) यह दंतुरित मुसकान

तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात….
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राणपिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण

कविता का भावार्थ:- इस कविता में कवि एक ऐसे बच्चे की सुंदरता का बखान करता है जिसके अभी एक-दो दाँत ही निकले हैं; अर्थात बच्चा : से आठ महीने का है। जब ऐसा बच्चा अपनी मुसकान बिखेरता है तो इससे मुर्दे में भी जान जाती है। बच्चे के गाल धू से सने हुए ऐसे लग रहे हैं जैसे तालाब को छोड़कर कमल का फूल उस झोंपड़ी में खिल गया हो। कवि को लगता है कि बच्चे के स्पर्श को पाकर ही सख्त पत्थर भी पिघलकर पानी बन गया है।

छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?

तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?

कविता का भावार्थ:- कवि को ऐसा लगता है कि उस बच्चे के निश्छल चेहरे में वह जादू है कि उसको छू लेने से बाँस या बबूल से भी शेफालिका के फूल झरने लगते हैं। बच्चा कवि को पहचान नहीं पा रहा है और उसे अपलक देख रहा है। कवि उस बच्चे से कहता है कि यदि वह बच्चा इस तरह अपलक देखते-देखते थक गया हो तो उसकी सुविधा के लिए कवि उससे आँखें फेर लेगा।

क्या हुआ यदि हो सके परिचित पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ माध्यम बनी होती आज
मैं सकता देख
मैं पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान

धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क

कविता का भावार्थ:- कवि को इस बात का जरा भी अफसोस नहीं है कि बच्चे से पहली बार में उसकी जान पहचान नहीं हो पाई है। लेकिन वह इस बात के लिए उस बच्चे और उसकी माँ का शुक्रिया अदा करना चाहता है कि उनके कारण ही कवि को भी उस बच्चे के सौंदर्य का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। कवि तो उस बच्चे के लिए एक अजनबी है, परदेसी है इसलिए वह खूब समझता है कि उससे उस बच्चे की कोई जान पहचान नहीं है।

उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान!

कविता का भावार्थ:- बच्चा अपनी माँ की उँगली चूस रहा है तो ऐसा लगता है कि उसकी माँ उसे अमृत का पान करा रही है। इस बीच वह बच्चा कनखियों से कवि को देखता है। जब दोनों की आँखें आमने सामने होती हैं तो कवि को उस बच्चे की सुंदर मुसकान की सुंदरता के दर्शन हो जाते हैं।

(2) फसल

एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढ़ेर सारी नदियों के पानी का जादू :
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक की नहीं,
दो की नहीं,
हजार-हजार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:

कविता का भावार्थ:- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल किसी एक व्यक्ति के परिश्रम या फिर केवल जल या मिट्टी से नहीं उगती है। इसके लिए बहुत अनुकूल वातावरण की जरूरत होती है।  इसी के बारे में आगे लिखते हुए कवि ने कहा है कि एक नहीं दो नहीं, लाखों-लाखों नदी के पानी के मिलने से यह फसल पैदा होती है। किसी एक नदी में केवल एक ही प्रकार के गुण होते हैं, लेकिन जब कई तरह की नदियां आपस में मिलती हैं, तो उनमें सारे गुण जाते हैं, जो बीजों को अंकुरित होने में सहायता करते हैं और फसल खिल उठती है। ठीक इसी प्रकार, केवल एक या दो नहीं, बल्कि हज़ारों-लाखों लोगों की मेहनत और पसीने से यह धरती उपजाऊ बनती है और उसमे बोए गए बीज अंकुरित होते हैं। खेतों में केवल एक खेत की मिट्टी नहीं बल्कि कई खेतों की मिट्टी मिलती है, तब जाकर वह उपजाऊ बनते हैं।

फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!

कविता का भावार्थ:- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि हमसे यह प्रश्न करता है कि यह फसल क्या है? अर्थात यह कहाँ से और कैसे पैदा होता है? इसके बाद कवि खुद इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि फसल और कुछ नहीं बल्कि नदियों के पानी का जादू है। किसानों के हाथों के स्पर्श की महिमा है। यह मिट्टियों का ऐसा गुण है, जो उसे सोने से भी ज्यादा मूल्यवान बना देती है। यह सूरज की किरणों एवं हवा का उपकार है। जिनके कारण यह फसल पैदा होती है।

अपनी इन पंक्तियों में कवि ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि फसल कैसे पैदा होती है? हम इसी अनाज के कारण ज़िन्दा हैं, तो हमें यह ज़रूर पता होना चाहिए कि आखिर इन फ़सलों को पैदा करने में नदी, आकाश, हवा, पानी, मिट्टी एवं किसान के परिश्रम की जरूरत पड़ती है। जिससे हमें उनके महत्व का ज्ञान हो।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • दंतुरित - बच्चों के नए दांत
  • धरूलि धूसर - धूल मिटटी से सने अंग
  • गात शरीर
  • जलजात- कमल का फूल
  • परस स्पर्श
  • पाषाण पत्थर
  • शेफालिका - एक विशेष फूल
  • अनिमेष- अपलक
  • परिचित - जिससे जान-पहचान ना हो
  • माध्यम- साधन
  • चिर प्रवासी - बहुत दिनों तक कहीं रहने वाला
  • इतर- अन्य
  • संपर्क सम्बन्ध
  • मधुपर्क पंचामृत
  • कनखी - तिरछी निगाह से देखना
  • छविमान- सुन्दर
  • आँखे चार होना - परस्पर देखना
  • कोठि-कोटि करोड़ों
  • महिमा महत्ता
  • ऊुपांतर - बदला हुआ रूप
  • सिमटा हुआ संकोच - सिमटठकर मंद हो गया
  • थिरकन नाच

नागार्जुन का जीवन परिचय

नागार्जुन का जन्म 1911 ई० की ज्येष्ठ पूर्णिमा को बिहार के सतलखा में हुआ था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। बाद में नामकरण के बाद इनका नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया। छह वर्ष की आयु में ही इनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता इन्हे कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ, एक गाँव से दूसरे गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गयी और बड़े होकर यह घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया।

इन्होंने अपनी विधिवत संस्कृत की पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की। वहीं इन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा और फिर बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ। उन दिनों राजनीति में सुभाष चंद्र बोस इन्हें प्रिय थे। इन्होंने बनारस से निकल कर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए, लंका के विख्यातविद्यालंकार परिवेणमें जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ नागार्जुन राजनीतिक आंदोलनों में भी प्रत्यक्षतः भाग लेते रहे। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर इन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और मार खाने के अतिरिक्त जेल की सजा भी भुगती। चंपारण के किसान आंदोलन में भी इन्होंने भाग लिया। वस्तुतः वे रचनात्मक के साथ-साथ सक्रिय प्रतिरोध में विश्वास रखते थे।

कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य सभी क्षेत्र में इन्होंने अपनी कलम चलाई। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिक कवि हैं। इन्हें कई सारे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जैसे – भारत भारती सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, राजेन्द्र शिखर सम्मान एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार।

यह दन्तुरित मुस्कान, फसल

पाठ 6: यह दन्तुरित मुस्कान, फसल

नागार्जुन

कवि परिचय

नागार्जुन का जन्म बिहार के दरभंगा जिले के सतलखा गाँव में सन् 1911 में हुआ। उनका मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। आरंभिक शिक्षा संस्कृत पाठशाला में हुई, फिर अध्ययन के लिए वे बनारस और कलकत्ता (कोलकाता) गए। 1936 में वे श्रीलंका गए, और वहीं बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। दो साल प्रवास के बाद 1938 में स्वदेश लौट आए। घुमक्कड़ी और अक्खड़ स्वभाव के धनी नागार्जुन ने अनेक बार संपूर्ण भारत की यात्रा की। सन् 1998 में उनका देहांत हो गया।

नागार्जुन की प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं-युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, हज़ार-हज़ार बाँहों वाली, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, मैं मिलटरी का बूढ़ा घोड़ा।

पाठ -प्रवेश

यह दंतुरित मुसकान कविता में छोटे बच्चे की मनोहारी मुसकान देखकर कवि के मन में जो भाव उमड़ते हैं उन्हें कविता में अनेक बिंबों के माध्यम से प्रकट किया गया है। कवि का मानना है कि इस सुंदरता में ही जीवन का संदेश है। इस सुंदरता की व्याप्ति ऐसी है कि कठोर से कठोर मन भी पिघल जाए। इस दंतुरित मुसकान की मोहकता तब और बढ़ जाती है जब उसके साथ नज़रों का बाँकपन जुड़ जाता है।

फसल शब्द सुनते ही खेतों में लहलहाती फसल आँखों के सामने आ जाती है। परंतु फसल है क्या और उसे पैदा करने में किन-किन तत्वों का योगदान होता है, इसे बताया है नागार्जुन ने अपनी कविता फसल में। कविता यह भी रेखांकित करती है कि प्रकृति और मनुष्य के सहयोग से ही सृजन संभव है। बोलचाल की भाषा की गति और लय कविता को प्रभावशाली बनाती है।

कहना न होगा कि यह कविता हमें उपभोक्ता-संस्कृति के दौर में कृषि-संस्कृति के निकट ले जाती है।

शब्दार्थ-

  • दंतुरित- बच्चों के नए नए दांत
  • धूलि -धूसर गात-धूल मिट्टी से सने अंग -प्रत्यंग
  • जलजात- कमल का फूल
  • अनिमेष- बिना पलक झपकाए लगातार देखना
  • इतर- दूसरा
  • कनखी- तिरछी निगाह से देखना
  • छविमान- सुंदर

कविता (भाग -1)

तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान

मृतक में भी डाल देगी जान

धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात.....

छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात

परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,

पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण

भावार्थ- कवि को यह दृश्य देखकर ऐसा लगता है, मानो किसी तालाब से चलकर कमल का फूल उनकी झोंपड़ी में खिला हुआ है। कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अगर यह बालक किसी पत्थर को छू ले, तो वह भी पिघलकर छू जल बन जाए और बहने लगे। अगर वो किसी पेड़ को छू ले, फिर चाहे वो बांस हो या फिर बबूल, उससे शेफालिका के फूल ही झरेंगे।

छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल

तुम मुझे पाए नहीं पहचान ?

बाँस था कि बबूल ?

देखते ही रहोगे अनिमेष!

थक गए हो?

आँख लूँ मैं फेर ?

भावार्थ-कवि को ऐसा लगता है कि उस बच्चे के निश्छल चेहरे में वह जादू है कि उसको छू लेने से बाँस या बबूल से भी शेफालिका के फूल झरने लगते हैं। बच्चा कवि को पहचान नहीं पा रहा है और उसे अपलक देख रहा है। कवि उस बच्चे से कहता है कि यदि वह बच्चा इस तरह अपलक देखते-देखते थक गया हो, तो उसकी सुविधा के लिए कवि उससे आंख फेर लेता है।

क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार ?

यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज

मैं न पाता जान

धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य !

चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!

इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क?

भावार्थ-कवि को इस बात का जरा भी अफसोस नहीं है कि बच्चे से पहली बार में उसकी जान पहचान नहीं हो पाई है। लेकिन वह इस बात के लिए उस बच्चे और उसकी माँ का अदा करना चाहता है कि उनके कारण ही कवि को भी उस बच्चे के सौंदर्य का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। कवि तो उस बच्चे के लिए एक अजनबी है, परदेसी है इसलिए वह खूब समझता है कि उससे उस बच्चे की कोई जान पहचान नहीं है।

उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क

देखते तुम इधर कनखी मार

और होतीं जब कि आँखें चार

तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान

मुझे लगती बड़ी ही छविमान!

भावार्थ- बच्चा अपनी माँ की उँगली चूस रहा है तो ऐसा लगता है कि उसकी माँ उसे अमृत का पान करा रही है। इस बीच वह बच्चा कनखियों से कवि को देखता है। जब दोनों की आँखें आमने सामने होती हैं तो कवि को उस बच्चे की सुंदर मुसकान की सुंदरता के दर्शन हो जाते हैं।

छाया मत छूना

पाठ-7

छाया मत छूना

छाया मत छूना कविता का भावार्थ

छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।
भूली सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।

छाया मत छूना कविता का भावार्थ :- इस कविता में कवि ने बताया है कि हमें अपने भूतकाल को पकड़ कर नहीं रखना चाहिए, चाहे उसकी यादें कितनी भी सुहानी क्यों हो। जीवन में ऐसी कितनी सुहानी यादें रह जाती हैं। आँखों के सामने भूतकाल के कितने ही मोहक चित्र तैरने लगते हैं। प्रेयसी के साथ रात बिताने के बाद केवल उसके तन की सुगंध ही शेष रह जाती है। कोई भी सुहानी चाँदनी रात बस बालों में लगे बेले के फूलों की याद दिला सकती है। जीवन का हर क्षण किसी भूली सी छुअन की तरह रह जाता है। कुछ भी स्थाई नहीं रहता है। इसलिए हमें अपने भूतकाल को कभी भी पकड़ कर नहीं रखना चाहिए।

यश है या वैभव है, मान है सरमाया;
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
प्रभुता का शरण बिंब केवल मृगतृष्णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।
जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन
छाया मत छूनामन, होगा दुख दूना।

छाया मत छूना कविता का भावार्थ :- यश या वैभव या पीछे की जमापूँजी; कुछ भी बाकी नहीं रहता है। आप जितना ही दौड़ेंगे उतना ज्यादा भूलभुलैया में खो जाएँगे; क्योंकि भूतकाल में बहुत कुछ घटित हो चुका होता है। अपने भूतकाल की कीर्तियों पर किसी बड़प्पन का अहसास किसी मृगमरीचिका की तरह है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर चाँद के पीछे एक काली रात छिपी होती है। इसलिए भूतकाल को भूलकर हमें अपने वर्तमान की ओर ध्यान देना चाहिए।

दुविधा हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं,
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
दुख है चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?
जो मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण,
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।

छाया मत छूना कविता का भावार्थ :- कई बार ऐसा होता है कि हिम्मत होने के बावजूद आदमी दुविधा में पड़ जाता है और उसे सही रास्ता नहीं दिखता। कई बार आपका शरीर तो स्वस्थ रहता है लेकिन मन के अंदर हजारों दुख भरे होते हैं। कई लोग छोटी या बड़ी बातों पर दुखी हो जाते हैं। जैसे कि सर्दियों की रात में चाँद नहीं दिखने पर। यह उसी तरह है जैसे कि पास तो हो गए लेकिन 90% मार्क नहीं आए। कई बार लोग उचित समय पर कुछ प्राप्त कर पाने की वजह से दुखी रहते हैं। लेकिन जो मिले उसे भूल जाना ही बेहतर होता है। भूतकाल को छोड़कर हमें अपने वर्तमान पर ध्यान देना चाहिए और एक सुनहरे भविष्य के लिए ठोस कदम उठाना चाहिए।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • दूना दुगना
  • सुरंग - रंग-बिरंगी
  • सुधियाँयादें
  • मनभावनी - मन को लुभाने वाली
  • यामिनी - तारों भरी चांदनी रात
  • कुंतल- लम्बे केश
  • यश प्रश्षिद्धि
  • सरमाया पूँजी
  • भरमाया- भ्रम में डाला
  • प्रभुता का शरण बिम्ब - बड़प्पन का अहसास
  • मृगतृष्णा - कड़ी धूप में टेतीले मैदानों में जल के होने का छलावा
  • चन्द्रिका चांदनी
  • कृष्णा काली
  • यथार्थ- सत्य
  • दुविधा हत - दुविधा में फँ सा हुआ
  • पंथ- राह
  • टस-बसंत - रस से भरपूर मतवाली वसंत कऋतू।
  • वरण- अपनाना

गिरिजाकुमार माथुर का जीवन परिचय

गिरिजा कुमार माथुर का जन्म ग्वालियर जिले के अशोक नगर कस्बे में 22 अगस्त सन 1918 में हुआ था। वे एक कवि, नाटककार और समालोचक के रूप में जाने जाते हैं।  गिरिजाकुमार की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। उनके पिता ने घर में ही उन्हें अंग्रेजी, इतिहास, भूगोल आदि पढाया। स्थानीय कॉलेज से इण्टरमीडिएट करने के बाद वे 1936 में स्नातक उपाधि के लिए ग्वालियर चले गये। 1938 में उन्होंने बी.. किया, 1941 में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.. किया तथा वकालत की परीक्षा भी पास की। सन 1940 में उनका विवाह दिल्ली में कवयित्री शकुन्त माथुर से हुआ। शुरुआत में उन्होंने वकालत की, परन्तु बाद में उन्होंने आकाशवाणी एवं दूरदर्शन में नौकरी की।

काव्यगत विशेषताएँ :- गिरिजाकुमार की काव्यात्मक शुरुआत 1934 में ब्रजभाषा के परम्परागत कवित्त-सवैया लेखन से हुई। उनकी रचना का प्रारम्भ द्वितीय विश्वयुद्ध की घटनाओं से उत्पन्न प्रतिक्रियाओं से युक्त है तथा भारत में चल रहे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन से प्रभावित है। कविता के अतिरिक्त वे एकांकी नाटक, आलोचना, गीति-काव्य तथा शास्त्रीय विषयों पर भी लिखते रहे हैं। भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद की साहित्यिक पत्रिकागगनांचलका संपादन करने के अलावा उन्होंने कहानी, नाटक तथा आलोचनाएँ भी लिखी हैं। उनका ही लिखा एक भावान्तर गीतहम होंगे कामयाबसमूह गान के रूप में अत्यंत लोकप्रिय है।

छाया मत छूना

पाठ 7: छाया मत छूना

गिरिजाकुमार माथुर

कवि परिचय

गिरिजा कुमार का जन्म सन् 1918 में गुना, मध्य प्रदेश में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा झाँसी, उत्तर प्रदेश में ग्रहण करने के बाद उन्होंने एम.ए. अंग्रेज़ी व एल.एल.बी. की उपाधि लखनऊ से अर्जित की। शुरू में कुछ समय तक वकालत की। बाद में आकाशवाणी और दूरदर्शन में कार्यरत हुए। उनका निधन सन् 1994 में हुआ।

गिरिजाकुमार माथुर की प्रमुख रचनाएँ हैं- नाश और निर्माण, धूप धान, शिलापंख चमकीले, भीतरी नवी के धान, की यात्रा (काव्य-संग्रह); जन्म कैद (नाटक); नयी कविता : सीमाएँ और संभावनाएँ (आलोचना) ।

पाठ -प्रवेश

छाया मत छूना कविता के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि जीवन में सुख और दुख दोनों की उपस्थिति है। विगत के सुख को यादकर वर्तमान के दुख को और गहरा करना तर्कसंगत नहीं है। कवि के शब्दों में इससे दुख दूना होता है। विगत की सुखद काल्पनिकता से चिपके रहकर वर्तमान से पलायन की अपेक्षा,कठिन यथार्थ से रू-ब-रू होना ही जीवन की प्राथमिकता होनी चाहिए।

कविता अतीत की स्मृतियों का भूल वर्तमान का सामना कर भविष्य का वरण करने का संदेश देती है। वह यह बताती है कि जीवन के सत्य को छोड़कर उसकी छायाओं से भ्रमित रहना जीवन की कठोर वास्तविकता से दूर रहना है।

शब्दार्थ

  • छाया -भ्रम, दुविधा
  • सुरंग -रंग- बिरंगी
  • छवियों का चित्रगंध -चित्र की स्मृति के साथ उसके आसपास की गंध का अनुभव
  • यामिनी- तारों भरी चांदनी रात
  • कुंतल-लंबे केश
  • प्रभुता का शरण-बिंब- बड़प्पन का अहसास
  • दुविधाहत साहस- साहस होते हुए भी दुविधाग्रस्त रहना

कविता

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना

जीवन में है सुरंग- सुधियां सुहावनी

छवियों के चित्र- गंध फैली ममभावनी;

तन- सुगंध शेष रही,बीत गई यामिनी,

कुंतल के फूलों की याद बनी चांदनी।

भूली -सी एक छुअन बनता हर जीवित- क्षण

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने पुराने मीठे पलों को याद कर रहा है। ये सारी यादें उनके सामने रंग-बिरंगी छवियों की तरह प्रकट हो रही हैं, जिनके साथ उनकी सुगंध भी है। कवि को अपने प्रिय के तन की सुगंध भी महसूस होती है। यह चांदनी रात का चंद्रमा कवि को अपने प्रिय के बालों में लगे फूल की याद दिला रहा है। इस प्रकार हर जीवित क्षण जो हम जी रहे हैं, वह पुरानी यादों रूपी छवि में बदलता जाता है। जिसे याद करके हमें केवल दुःख ही प्राप्त हो सकता है, इसलिए कवि कहते हैं छाया मत छूना, होगा दुःख दूना

यश है या न वैभव है, मान है न सरमाया;

जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया ।

प्रभुता का शरण बिंब केवल मृगतृष्णा है,

हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।

जो है यथार्थ कठिन, उसका तू कर  पूजन

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना

भावार्थ:- इन पंक्तियों में कवि हमें यह सन्देश देना चाहते हैं कि इस संसार में धन, ख्याति, मान, सम्मान इत्यादि के पीछे भागना व्यर्थ है। यह सब एक भ्रम की तरह हैं।

कवि का मानना यह है कि हम अपने जीवन काल में – धन, यश, ख्याति इन सब के पीछे भागते रहते हैं और खुद को बड़ा और मशहूर समझते हैं। लेकिन जैसे हर चांदनी रात के बाद एक काली रात आती है, उसी तरह सुख के बाद दुःख भी आता है। कवि ने इन सारी भावनाओं को छाया बताया है।

दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,

क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?

जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण,

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना

भावार्थ:-  कवि के अनुसार, हमारा शरीर कितना भी सुखी हो, परन्तु हमारी आत्मा के दुखों की कोई सीमा नहीं है। हम तो किसी भी छोटी-सी बात पर खुद को दुखी कर के बैठ जाते हैं। फिर चाहे वो शरद ऋतू के आने पर चाँद का ना खिलना हो या फिर वसंत ऋतू के चले जाने पर फूलों का खिलना हो। हम इन सब चीजों के विलाप में खुद को दुखी कर बैठते हैं।

इसलिए कवि ने हमें यह संदेश दिया है कि जो चीज़ हमें ना मिले या फिर जो चीज़ हमारे बस में न हो, उसके लिए खुद को दुखी करके चुपचाप बैठे रहना, कोई समाधान नहीं हैं, बल्कि हमें यथार्थ की कठिन परिस्थितियों का डट कर सामना करना चाहिए एवं एक उज्जवल भविष्य की कल्पना करनी चाहिए।

कन्यादान

पाठ-8

कन्यादान

कन्यादान कविता का भावार्थ

कितना प्रामाणिक था उसका दुख
लड़की को दान में देते वक्त
जैसे वही उसकी अंतिम पूँजी हो

कन्यादान कविता का भावार्थ :- इस कविता में उस दृश्य का वर्णन है जब एक माँ अपनी बेटी का कन्यादान कर रही है। बेटियाँ ब्याह के बाद पराई हो जाती हैं। जिस बेटी को कोई भी माता पिता बड़े जतन से पाल पोसकर बड़ी करते हैं, वह शादी के बाद दूसरे घर की सदस्य हो जाती है। इसके बाद बेटी अपने माँ बाप के लिए एक मेहमान बन जाती है। इसलिए लड़की के लिए कन्यादान शब्द का प्रयोग किया जाता है। जाहिर है कि जिस संतान को किसी माँ ने इतने जतन से पाल पोस कर बड़ा किया हो, उसे किसी अन्य को सौंपने में गहरी पीड़ा होती है। बच्चे को पालने में माँ को कहीं अधिक दर्द का सामना करना पड़ता है, इसलिए उसे दान करते वक्त लगता है कि वह अपनी आखिरी जमा पूँजी किसी और को सौंप रही हो।

लड़की अभी सयानी नहीं थी
अभी इतनी भोली सरल थी
कि उसे सुख का आभास तो होता था
लेकिन दुख बाँचना नहीं आता था
पाठिका थी वह धुँधले प्रकाश की
कुछ तुकों और कुछ लयबद्ध पंक्तियों की

कन्यादान कविता का भावार्थ :- लड़की अभी सयानी नहीं हुई थी; इसका मतलब है कि हालाँकि वह बड़ी हो गई थी लेकिन उसमें अभी भी दुनियादारी की पूरी समझ नहीं थी। वह इतनी भोली थी कि खुशियाँ मनाने तो उसे आता था लेकिन यह नहीं पता था कि दुख का सामना कैसे किया जाए। उसके लिए बाहरी दुनिया किसी धुँधले तसवीर की तरह थी या फिर किसी गीत के टुकड़े की तरह थी। ऐसा अक्सर होता है कि जब तक कोई अपने माता पिता के घर को छोड़कर कहीं और नहीं रहना शुरु कर देता है तब तक उसका समुचित विकास नहीं हो पाता है।

माँ ने कहा पानी में झाँककर
अपने चेहरे पर मत रीझना
आग रोटियाँ सेंकने के लिए है
जलने के लिए नहीं
वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह
बंधन हैं स्त्री जीवन के

माँ ने कहा लड़की होना
पर लड़की जैसी दिखाई मत देना।

कन्यादान कविता का भावार्थ :- जाते-जाते माँ अपनी बेटी को कई नसीहतें दे रही है। माँ कहती हैं कि कभी भी अपनी सुंदरता पर इतराना नहीं चाहिए क्योंकि असली सुंदरता तो मन की सुंदरता होती है। वह कहती हैं कि आग का काम तो चूल्हा जलाकर घरों को जोड़ने का है ना कि अपने आप को और अन्य लोगों को दुख में जलाने का। माँ कहती है कि अच्छे वस्त्र और महँगे आभूषण बंधन की तरह होते हैं इसलिए उनके चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। आखिर में माँ कहती है कि लड़की जैसी दिखाई मत देना। इसके कई मतलब हो सकते हैं। एक मतलब हो सकता है कि माँ उसे अब एक जिम्मेदार औरत की भूमिका में देखना चाहती है और चाहती है कि वह अपना लड़कपन छोड़ दे। दूसरा मतलब हो सकता है कि उसे हर संभव यह कोशिश करनी होगी कि लोगों की बुरी नजर से बचे। हमारे समाज में लड़कियों की कमजोर स्थिति के कारण उनपर यौन अत्याचार का खतरा हमेशा बना रहता है। ऐसे में कई माँएं अपनी लड़कियों को ये नसीहत देती हैं कि वे अपने यौवन को जितना हो सके दूसरों से छुपाकर रखें।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • प्रामाणिक - प्रमाणों से सिद्ध
  • सयानी बड़ी
  • आभास अहसास
  • बाँचना पढ़ना
  • लयबद्ध - सुर-ताल
  • टीझना - मन ह्ली मन प्रसन् होजा
  • आभूषण गहजा
  • शाब्दिक - शब्दों का
  • अम धोखा

ऋतुराज का जीवन परिचय

कवि ऋतुराज का जन्म राजस्थान के भरतपुर जिले में सन 1940 में हुआ। उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से अंग्रेजी में एम. . की उपाधि ग्रहण की। उन्होंने लगभग चालीस वर्षों तक अंग्रेजी-अध्ययन किया। ऋतुराज के अब तक के प्रकाशित काव्य-संग्रहों मेंपुल पानी में’, ‘एक मरणधर्मा और अन्य’, ‘सूरत निरततथालीला अरविंदप्रमुख हैं। इन्हें कई सारे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें सोमदत्त, परिमल सम्मान, मीरा पुरस्कार, पहल सम्मान तथा बिहारी पुरस्कार शामिल है। उन्होंने अपनी कविताओं में यथार्थ से जुड़े सामाजिक शोषण एवं विडंबनाओं को स्थान दिया। इसी वजह से उनकी काव्य-भाषा लोक जीवन से जुड़ी हुई प्रतीत होती है।

कन्यादान

पाठ  8: कन्यादान

ऋतुराज

कवि- परिचय

ऋतुराज का जन्म सन् 1940 में भरतपुर में हुआ। राजस्थान • विश्वविद्यालय, जयपुर से उन्होंने अंग्रेजी में एम.ए. किया। चालीस वर्षों तक अंग्रेजी साहित्य के अध्यापन के बाद अब सेवानिवृत्ति लेकर वे जयपुर में रहते हैं। उनके अब तक आठ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें एक मरणधर्मा और अन्य, पुल पर पानी, सुरत निरत और लीला मुखारविंद प्रमुख हैं। उन्हें सोमदत्त, परिमल सम्मान, मीरा पुरस्कार, पहल सम्मान तथा बिहारी पुरस्कार मिल चुके हैं।

मुख्यधारा से अलग समाज के हाशिए के लोगों की चिंताओं को ऋतुराज ने अपने लेखन का विषय बनाया है। उनकी कविताओं में दैनिक जीवन के अनुभव का यथार्थ है और वे अपने आसपास रोजमर्रा में घटित होने वाले सामाजिक शोषण और विडंबनाओं पर निगाह डालते हैं। यही कारण है। कि उनकी भाषा अपने परिवेश और लोक जीवन से जुड़ी हुई है।

पाठ-प्रवेश

कन्यादान कविता में माँ बेटी को स्त्री के परंपरागत ‘आदर्श’ रूप से हटकर सीख दे रही है। कवि का मानना है कि समाज-व्यवस्था द्वारा स्त्रियों के लिए आचरण संबंधी जो प्रतिमान गढ़ लिए जाते हैं, वे आदर्श के मुलम्मे में बंधन होते हैं। ‘कोमलता’ के गौरव में ‘कमजोरी’ का उपहास छिपा रहता है। लड़की जैसा न दिखाई देने में इसी आदर्शीकरण का प्रतिकार है। बेटी माँ के सबसे निकट और उसके सुख-दुख की साथी होती है। इसी कारण उसे अंतिम पूँजी कहा गया है। कविता में कोरी भावुकता नहीं बल्कि माँ के संचित अनुभवों की पीड़ा की प्रामाणिक अभिव्यक्ति है। इस छोटी-सी कविता में स्त्री जीवन के प्रति ऋतुराज जी की गहरी संवेदनशीलता अभिव्यक्त हुई है।

कविता

कितना प्रामाणिक था उसका दुख

लड़की को दान में देते वक्त

जैसे वही उसकी अंतिम पूँजी हो

लड़की अभी सयानी नहीं थी

अभी इतनी भोली सरल थी

कि उसे सुख का आभास तो होता था

लेकिन दुख बाँचना नहीं आता था

पाठिका थी वह धुँधले प्रकाश की

कुछ तुकों और कुछ लयबद्ध पंक्तियों की

माँ ने कहा पानी में झाँककर

अपने चेहरे पर मत रीझना

आग रोटियाँ सेंकने के लिए है

जलने के लिए नहीं

वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह

बंधन हैं स्त्री जीवन के

माँ ने कहा लड़की होना पर लड़की जैसी दिखाई मत देना।।

शब्दार्थ

  • पूंजी- संपत्ति
  • धुंधला-धूमिल
  • रीझना-मुग्ध होना
  • आभूषण-गहना
  • सरल-आसान

संगतकार

पाठ-9

संगतकार

संगतकार कविता का भावार्थ

मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार

संगतकार कविता का भावार्थ :- जब भी कहीं संगीत का आयोजन होता है तो मुख्य गायक के साथ संगत करने वाला अक्सर देखा जाता है। ज्यादातर लोग संगतकार पर ध्यान नहीं देते हैं और वह पृष्ठभूमि का हिस्सा मात्र बनकर रह जाता है। वह हमारे लिए एक गुमनाम चेहरा हो सकता है। हम उसके बारे में तरह-तरह की अटकलें लगा सकते हैं। लेकिन मुख्य गायक की प्रसिद्धि के आलोक में हममे से बहुत कम ही लोग उस अनजाने संगतकार की महत्वपूर्ण भूमिका पर विचार कर पाते हैं।

मुख्य गायक की गरज में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीने काल से

गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुअ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थायी को सँभाले रहता है
जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था।

संगतकार कविता का भावार्थ :- सदियों से यह परंपरा रही है कि मुख्य गायक के सुर में संगतकार अपना सुर मिलाता आया है। मुख्य गायक की भारी आवाज के पीछे संगतकार की आवाज दब सी जाती है। लेकिन संगतकार हर क्षण अपनी भूमिका को पूरी इमानदारी से निभाता है। जब गायक अंतरे की जटिल तानों और आलापों में खो जाता है और सुर से कहीं भटक जाता है तो ऐसे समय में संगतकार स्थायी को सँभाले रहता है। उसकी भूमिका इसी तरह की होती है जैसे कि वह आगे चलने वाले पथिक का छूटा हुआ सामान बटोरकर कर अपने साथ लाता है। साथ ही वह मुख्य गायक को उसके बीते दिनों की याद भी दिलाता है जब मुख्य गायक नौसिखिया हुआ करता था।

तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढ़ाँढ़स बँधाता
कहीं से चला आता है संगीतकार का स्वर

कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग

संगतकार कविता का भावार्थ :- जब तारसप्तक पर जाने के दौरान गायक का गला बैठने लगता है और उसकी हिम्मत जवाब देने लगती है तभी संगतकार अपने स्वर से उसे सहारा देता है। कभी-कभी संगतकार इसलिए भी गाता है ताकि मुख्य गायक को ये लगे कि वह अकेला ही चला जा रहा है। कभी-कभी वह इसलिए भी गाता है ताकि मुख्य गायक को बता सके कि किसी राग को दोबारा गाया जा सकता है।

और उसकी आवाज में जो एक हिचक साफ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

संगतकार कविता का भावार्थ :- इन सारी प्रक्रिया के दौरान संगतकार की आवाज हमेशा दबी हुई होती है। ज्यादातर लोग इसे उसकी कमजोरी मान लेते होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है। वह तो गायक की आवाज को प्रखर बनाने के लिए त्याग करता है और जानबूझकर अपनी आवाज को दबा लेता है।

यह कविता संगतकार के बारे में है लेकिन यह हर उस व्यक्ति की तरफ इशारा करती है जो किसी सहारे की भूमिका में होता है। दुनिया के लगभग हर क्षेत्र में किसी एक व्यक्ति की सफलता के पीछे कई लोगों का योगदान होता है। हम और आप उस एक खिलाड़ी या अभिनेता या नेता के बारे में जानते हैं जो सफलता के शिखर पर होता है। लेकिन हम उन लोगों के बारे में नहीं जानते जो उस खिलाड़ी या अभिनेता या नेता की सफलता के लिए नेपथ्य में रहकर अथक परिश्रम करता है।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • संगतकार - मुख्य गायक के साथ गायन करने वाला या वाद्य बजाने वाला कलाकार।
  • गरज- उँची गंभीर आवाज़
  • अंतरा- स्थायी या टेक को को छोड़कर गीत का चरण
  • जटिल कठिन
  • तान- संगीत में स्वर का विस्तार
  • सरणम - संगीत के सात स्वर
  • अनहद - योग अथवा साधन की आनन्दायक स्थिति
  • स्थायी - गीत का वह चरण जो बार-बार गाय जाता है, टेक
  • नौसिखिया - जिसने अभी सीखना आरम्भ किया हो।
  • तारसप्तक - काफी उँची आवाज़
  • राख जैसा गिरता हुआ - बुझ्ता हुआ स्वर
  • ढॉड्स बँधाना- तसलली देना

मंगलेश डबराल का जीवन परिचय

मंगलेश डबराल समकालीन हिन्दी कवियों में सबसे चर्चित नाम है। इनका जन्म 16 मई 1948 को टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड के काफलपानी गाँव में हुआ था।  इनकी शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई। मंगलेश डबराल के पाँच काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज भी एक जगह है और नये युग में शत्रु।

इनकी रचनाओं के लिए इन्हें कई पुरस्कारों, जैसे साहित्य अकादमीकुमार विकल स्मृति पुरस्कार एवं दिल्ली हिन्दी अकादमी के साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया गया है। कविता के अतिरिक्त वे साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के विषयों पर भी लेखन करते हैं। उनका सौंदर्य-बोध सूक्ष्म है और भाषा पारदर्शी है।

संगतकार

पाठ 9: संगतकार

मंगलेश डबराल

कवि परिचय

मंगलेश डबराल का जन्म सन् 1948 में टिहरी गढ़वाल (उत्तरांचल) के काफलपानी गाँव में हुआ और शिक्षा-दीक्षा हुई देहरादून में। दिल्ली आकर हिंदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद वे भोपाल में भारत भवन से प्रकाशित होने वाले पूर्वग्रह में सहायक संपादक हुए। इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की।

सन् 1983 में जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक का पद सँभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद आजकल वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हैं।

मंगलेश डबराल के चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं- पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं और आवाज़ भी एक जगह है। साहित्य अकादेमी पुरस्कार, पहल सम्मान से सम्मानित मंगलेश की ख्याति अनुवादक के रूप में भी है।

पाठ-प्रवेश

संगतकार कविता गायन में मुख्य गायक का साथ देनेवाले संगतकार की भूमिका के महत्व पर विचार करती है। दृश्य माध्यम की प्रस्तुतियों जैसे-नाटक, फ़िल्म, संगीत, नृत्य के बारे में तो यह सही है ही; हम समाज और इतिहास में भी ऐसे अनेक प्रसंगों को देख सकते हैं जहाँ नायक की सफलता में अनेक लोगों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कविता हममें यह संवेदनशीलता विकसित करती है कि उनमें से प्रत्येक का अपना-अपना महत्त्व है और उनका सामने न आना उनकी कमजोरी नहीं मानवीयता है। संगीत की सूक्ष्म समझ और कविता की दृश्यात्मकता इस कविता को ऐसी गति देती है मानो हम इसे अपने सामने घटित होता देख रहे हो।

काव्यांश-1

मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती

वह आवाज सुंदर कमजोर काँपती हुई थी वह मुख्य गायक का छोटा भाई है

या उसका शिष्य

या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार

मुख्य गायक की गरज में

वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से

भावार्थ - कवि अपनी इन पंक्तियों में कहता है कि जब मुख्य गायक अपने चट्टान जैसे भारी स्वर में गाता है, तब संगतकार हमेशा उसका साथ देता है। संगतकार की आवाज बहुत ही कमजोर, कापंती हुई प्रतीत हो रही है। लेकिन फिर भी वह बहुत ही मधुर थी, जो मुख्य गायक की आवाज के साथ मिलकर उसकी प्रभावशीलता को और बढ़ा देती है। कवि को ऐसा लगता है कि यह संगतकार गायक का कोई बहुत ही करीब का रिश्तेदार या जान-पहचान वाला है, या फिर ये उसका कोई शिष्य है, जो कि उससे गायकी सीख रहा है। इस प्रकार, वह बिना किसी की नजर में आए, निरंतर अपना कार्य करता रहता है

काव्यांश-2

गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में

खो चुका होता है

या अपने ही सरगम को लाँघकर

चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में

तब संगतकार ही स्थायी को सँभाले रहता है

जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान

जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन जब वह नौसिखिया था।

भावार्थ - इन पंक्तियों में कवि ने यह बताने का प्रयास किया है कि जब कोई महान संगीतकार अपने गाने की लय में डूब जाता है, तो उसे गाने के सुर-ताल की भनक नहीं पड़ती और वह कभी कभी अपने गाने में कहीं भटक-सा जाता है। आगे सुर कैसे पकड़ना है, यह उसे सम नहीं आता और वह उलझ-सा जाता है।

काव्यांश-3

तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला

प्रेरणा साथ छोड़ती हुई, उत्साह अस्त होता हुआ

आवाज से राख जैसा कुछ गिरता हुआ तभी मुख्य गायक को ढाँढस बँधाता

कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर

कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ

यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है

और यह कि फिर से गाया जा सकता है

भावार्थ - उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जब कभी मुख्य गायक ऊंचे स्वर में गाता है तो उसका गला बैठने लगता है। उससे सुर सँभलते नहीं हैं। तब गायक को ऐसा लगने लगता है जैसे कि अब उससे आगे गाया नहीं जाएगा। उसके भीतर निराशा छाने लगती है। उसका मनोबल खत्म होने लगता है। उसकी आवाज कांपने लगती हैं जिससे उसके मन की निराशा व हताशा प्रकट होने लगती है।

उस समय मुख्य गायक को हौसला बढ़ाने वाला व उसके अंदर उत्साह जगाने वाला संगतकार का मधुर स्वर सुनाई देता हैं। उस सुंदर आवाज को सुनकर मुख्य गायक फिर नए जोश से गाने लगता है

कवि आगे कहते हैं कि कभी- कभी संगतकार मुख्य गायक को यह बताने के लिए भी उसके स्वर में अपना स्वर मिलाता है कि वह अकेला नहीं है। कोई है जो उसका साथ हर वक्त देता है। और यह भी बताने के लिए कि जो राग या गाना एक बार गाया जा चुका है। उसे फिर से दोबारा गाया जा सकता है।

काव्यांश-4

गाया जा चुका राग

और उसकी आवाज में जो एक हिचक साफ सुनाई देती है

या अपने स्वर को ऊंचा न उठाने की जो कोशिश है

उसे विफलता नहीं

उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

भावार्थ - उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जब भी संगतकार मुख्य गायक के स्वर में अपना स्वर मिलता है यानि उसके साथ गाना गाता है तो उसकी आवाज में एक हिचक साफ सुनाई देती है। और उसकी हमेशा यही कोशिश रहती है कि उसकी आवाज मुख्य गायक की आवाज से धीमी रहे।

लेकिन हमें इसे संगतकार की कमजोरी या असफलता नही माननी चाहिए क्योंकि वह मुख्य गायक के प्रति अपना  सम्मान प्रकट करने के लिए ऐसा करता है। यानि अपना स्वर ऊँचा कर वह मुख्य गायक के सम्मान को ठेस नही पहुंचाना चाहता है। यह उसका मानवीय गुण हैं।

नेता जी का चश्मा

पाठ-11

नेताजी का चश्मा

नेताजी का चश्मा पाठ का सार

हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन कंपनी के काम से एक छोटे से कस्बे से गुजरना पड़ता था। कस्बा बहुत बड़ा नहीं था। लेकिन कस्बे में एक छोटी सी बाजार ,एक लड़कों का स्कूल , एक लड़कियों का स्कूल , एक सीमेंट का छोटा सा कारखाना , दो ओपन सिनेमा घर और एक नगरपालिका थी।

नगरपालिका कस्बे में हमेशा कुछ कुछ काम करती रहती थी। जैसे कभी सड़कों को पक्का करना , कभी शौचालय बनाना , कभी कबूतरों की छतरी बनाना। और कभी-कभी तो वह कस्बे में कवि सम्मेलन भी करा देती थी।

एक बार इसी नगरपालिका के एक उत्साही प्रशासनिक अधिकारी ने शहर के मुख्य बाजार के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की एक संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। नेताजी का चश्मा ”  कहानी की शुरुआत बस यहीं से होती है।

नगरपालिका के पास इतना बजट नहीं था कि वह किसी अच्छे मूर्तिकार से नेताजी की मूर्ति बनवाते। इसीलिए उन्होंने कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर मोतीलाल जी से मूर्ति बनवाने का निर्णय लिया। जिन्होंने नेताजी की मूर्ति को महीने भर में ही बनाकर नगरपालिका को सौंप दिया। 

मूर्ति थी तो सिर्फ दो फुट ऊंची ,  लेकिन नेताजी फौजी वर्दी में वाकई बहुत सुंदर लग रहे थे। उनको देखते ही दिल्ली चलो या तुम मुझे खून दो , मैं तुम्हें आजादी दूंगा जैसे जोश भरे नारे याद आने लगे। बस मूर्ति में एक ही कमी थी। नेताजी की आँखों में चश्मा नही था शायद मूर्तिकार चश्मा बनाना ही भूल गया था। इसीलिए नेताजी को एक सचमुच का , चौड़े फ्रेम वाला चश्मा पहना दिया गया।

हालदार साहब जब पहली बार इस कस्बे से गुजरे और चौराहे पर पान खाने को रुके , तो उन्होंने पहली बार मूर्ति पर चढ़े सचमुच के चश्मे को देखा और मुस्कुरा कर बोले वह भाई ! यह आइडिया अभी ठीक है। मूर्ति पत्थर की लेकिन चश्मा रियल का 

कुछ दिन बाद जब हालदार साहब दोबारा उधर से गुजरे तो उन्होंने मूर्ति को गौर से देखा। इस बार मूर्ति पर मोटे फ्रेम वाले चौकोर चश्मे की जगह तार का गोल फ्रेम वाला चश्मा था। कुछ दिनों बाद जब हालदार साहब तीसरी बार वहां से गुजरे , तो मूर्ति पर फिर एक नया चश्मा था। अब तो हालदार साहब को आदत पड़ गई थी। हर बार कस्बे से गुजरते समय चौराहे पर रुकना , पान खाना और मूर्ति को ध्यान से देखना।

एक बार उन्होंने उत्सुकता बस पान वाले से पूछ लिया क्यों भाई ! क्या बात है ? तुम्हारे नेताजी का चश्मा हर बार कैसे बदल जाता है पान वाले ने मुंह में पान डाला और बोला यह काम कैप्टन का है , जो हर बार मूर्ति का चश्मा बदल देता है

काफी देर बात करने के बाद हालदार साहब की समझ में बात आने लगी कि एक चश्मे वाला है। जिसका नाम कैप्टन है और उसे नेताजी की मूर्ति बैगर चश्मे के अच्छी नहीं लगती है। इसीलिए वह अपनी छोटी सी दुकान में उपलब्ध गिने-चुने चश्मों में से एक चश्मा नेता जी की मूर्ति पर फिट कर देता है। जैसे ही कोई ग्राहक आता है और वह मूर्ति पर फिट फ्रेम के जैसे चश्मा मांगता है तो वह मूर्ति से चश्मे को निकाल कर ग्राहक को दे देता है और नया चश्मा मूर्ति पर लगा देता है।

जब हालदार साहब ने पानवाले से पूछा कि नेताजी का ओरिजिनल चश्मा कहां है ? पान वाले ने जवाब दिया मास्टर चश्मा बनाना ही भूल गया हालदार साहब मन ही मन चश्मे वाले की देशभक्ति के समक्ष नतमस्तक हो गए। उन्होंने पानवाले से पूछा क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है। या आजाद हिंद फौज का पूर्व सिपाही पान वाले ने उत्तर दिया नहीं साहब , वह लंगड़ा क्या जाएगा फौज में , पागल है पागल। वह देखो वह रहा है

हालदार साहब को पानवाले की यह बात बिल्कुल अच्छी नहीं लगी। लेकिन उन्होंने जब कैप्टन को पहली बार देखा तो वह आश्चर्यचकित हो गए। एक बेहद बूढा मरियल सा , लंगड़ा आदमी , सिर पर गांधी टोपी और आंखों पर काला चश्मा लगाए था। जिसके एक हाथ में एक छोटी सी संदूकची और दूसरे हाथ में एक बांस का डंडा जिसमें बहुत से चश्मे टंगे हुए थे।

उसे देखकर हालदार साहब पूछना चाहते थे कि इसे कैप्टन क्यों कहते हैं लोग।  इसका वास्तविक नाम क्या है लेकिन पानवाले ने इस बारे में बात करने से इनकार कर दिया। इसके बाद लगभग 2 साल तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में उस चौराहे से गुजरते और नेता जी की मूर्ति पर बदलते चश्मों को देखते रहते।  कभी गोल , चौकोर , कभी लाल , कभी काला , कभी धूप चश्मा तो कभी कोई और चश्मा नेताजी की आंखों पर दिखाई देता।

लेकिन एक बार जब हालदार साहब कस्बे से गुजरे तो मूर्ति की आंखों में कोई चश्मा नहीं था। उन्होंने पान वाले से पूछा क्यों भाई ! क्या बात है। आज तुम्हारे नेताजी की आंखों पर चश्मा नहीं है पान वाला बहुत उदास होकर बोला साहब ! कैप्टन मर गया

यह सुनकर उन्हें बहुत दुख हुआ। उसके 15 दिन बाद हालदार साहब फिर उसी कस्बे से गुजरे। वो यही सोच रहे थे कि आज भी मूर्ति पर कोई चश्मा नहीं होगा। इसलिए वो मूर्ति की तरफ नहीं देखेंगे परंतु अपनी आदत के अनुसार उनकी नजर अचानक नेताजी की मूर्ति पर पड़ी।

वो बड़े आश्चर्यचकित हो मूर्ति के आगे जाकर खड़े हो गए। उन्होंने देखा कि मूर्ति की आंखों पर एक सरकंडे का बना छोटा सा चश्मा रखा हुआ था , जैसा अक्सर बच्चे बनाते हैं। यह देख कर हालदार साहब भावुक हो गए और उनकी आंखें भर आई। 

कठिन शब्दों के अर्थ

  • कस्बा- छोटा शहर
  • लागत खर्च
  • उहापोंह - क्या करें, क्या जा करें की स्थिति
  • शासनाविधि - शासन की अविधि
  • कमसिन- कम उम्र का
  • सराहनीय - प्रशंसा के योग्य
  • लक्षित करनादेखना
  • कौतुक आश्चर्य
  • दुर्दमनीय- जिसको दबाना मुश्किल हो
  • गिराकग्राहक
  • किदर- किधर
  • उदर- उधर
  • आहत घायल
  • दरकार आवश्यकता
  • द्रवित - अभिभूत होना
  • अवाक- चुप
  • प्रफुल्लता खुशी
  • हृदयस्थली - विशेष महत्त रखने वाला स्थान

स्वयं प्रकाश का जीवन परिचय

इस पाठ के कवि स्वयं प्रकाश जी हैं। स्वयं प्रकाश जी का जन्म सन 1947 मैं इंदौर (मध्यप्रदेश) में हुआ। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने वाले स्वयं प्रकाश का और नौकरी का बड़ा हिस्सा राजस्थान में बीता। फ़िलहाल स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद वे भोपाल में रहते हैं और वसुधा पत्रिका के संपादन से जुड़े हैं।

आठवें दशक में उभरे स्वयं प्रकाश आज समकालीन कहानी के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनके तेरह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें सूरज कब निकलेगा, आएँगे अच्छे दिन भी, आदमी जात का आदमी और संधान उल्लेखनीय हैं। उनके बीच में विनय और ईंधन उपन्यास चर्चित रहे हैं। उन्हें पहल सम्मान, बनमाली पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि पुरस्कारों से पुरस्कृत किया जा चुका है।

मध्यवर्गीय जीवन के कुशल चितेरे स्वयं प्रकाश की कहानियों में वर्ग-शोषण के विरुद्ध चेतना है तो हमारे सामाजिक जीवन में जाति, संप्रदाय और लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव के खिलाफ़ प्रतिकार का स्वर भी है। रोचक किस्सागोई शैली में लिखी गईं उनकी कहानियाँ हिंदी की वाचिक परंपरा को समृद्ध करती हैं।

नेता जी का चश्मा

पाठ 10: नेताजी का चश्मा

स्वयं प्रकाश

लेखक परिचय

स्वयंप्रकाश का जन्म सन् 1947 में इंदौर (मध्यप्रदेश) स्वयं में हुआ। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने वाले स्वयं प्रकाश का बचपन और नौकरी का बड़ा हिस्सा राजस्थान में बीता। फिलहाल स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद वे भोपाल में रहते हैं और वसुधा पत्रिका के संपादन से जुड़े हैं।

आठवें दशक में उभरे स्वयं प्रकाश आज समकालीन कहानी के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनके तेरह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें सूरज कब निकलेगा, आएँगे अच्छे दिन भी, आदमी जात का आदमी और संधान उल्लेखनीय हैं। उनके बीच में विनय और ईंधन उपन्यास चर्चित रहे हैं। उन्हें पहल सम्मान, बनमाली पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादेमी पुरस्कार आदि पुरस्कारों से जा चुका है। पुरस्कृत किया जा चुका है।

पाठ प्रवेश

चारों ओर सीमाओं से घिरे भूभाग का नाम ही देश नहीं होता। देश बनता है उसमें रहने वाले सभी नागरिकों, नदियों, पहाड़ों, पेड़-पौधों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों से और इन सबसे प्रेम करने तथा इनकी समृद्धि के लिए प्रयास करने का नाम देशभक्ति है। नेताजी का चश्मा कहानी कैप्टन चश्मे वाले के माध्यम से देश के करोड़ों नागरिकों के योगदान को रेखांकित करती है जो इस देश के निर्माण में अपने-अपने तरीके से सहयोग करते हैं। कहानी यह कहती हैं कि बड़े ही नहीं बच्चे भी इसमें शामिल हैं।

सारांश

प्रस्तुत कहानी द्वारा समाज में देश प्रेम की भावना को जागृत किया गया है। पाठ का नायक ‘कैप्टन’ साधारण व्यक्ति होने के बावजूद भी एक देशभक्त नागरिक है। वह कभी नेताजी को बिना चश्मे के नहीं रहने देता है। इस कहानी द्वारा लेखक चाहता है कि देशवासी लोगों की कुर्बानियों को न भूलें और उन्हें उचित सम्मान दें।

बालगोबिन भगत

पाठ-11

बालगोबिन भगत

बालगोबिन भगत पाठ का सार

इस पाठ के लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी जी हैं। बालगोबिन भगत कहानी की शुरुवात कुछ इस तरह होती हैं। .

बालगोबिन भगत लगभग साठ वर्ष के एक मँझोले कद (मध्यम कद) के गोरे चिट्टे आदमी थे। उनके सारे बाल सफेद हो चुके थे। वे बहुत कम कपड़े पहनते थे। कमर में सिर्फ एक लंगोटी और सिर में कबीरपंथियों के जैसी कनफटी टोपी।

बस जाड़ों में एक काली कमली ऊपर से औढ लेते थे उनके मस्तक पर हमेशा एक रामानंदी चंदन का टीका लगा रहता था और गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल सी माला पड़ी रहती थी। 

वो खेती-बाड़ी करते थे। उनके पास एक साफ-सुथरा मकान भी था जिसमें वह अपने बेटे और बहू के साथ रहते थे। लेकिन वो आचार , विचार , व्यवहार स्वभाव से साधु थे। वो संत कबीर को अपना आदर्श मानते थे। कबीर के उपदेशों को उन्होंने पूरी तरह से अपने जीवन में उतार लिया था। वो कबीर को साहब कहते थे और उन्हीं के गीतों को गाया करते थे।

वो कभी झूठ नहीं बोलते थे सबसे खरा व्यवहार रखते थे। दो टूक बात कहने में संकोच नहीं करते थे लेकिन किसी से खामखाह झगड़ा मोल भी नहीं लेते थे। किसी की चीज को कभी नहीं छूते थे और ना ही बिना पूछे व्यवहार में लाते

उनके खेतों में जो कुछ भी अनाज पैदा होता , पहले वो उसे अपने सिर पर लाद कर चार कोस दूर कबीरपंथी मठ पर ले जाकर वहाँ भेंट स्वरूप दे देते थे। उसके बाद कबीरपंथी मठ से उन्हें प्रसाद स्वरूप जो भी अनाज वापस मिलता , उसे घर लाते और उसी से अपना गुजर-बसर करते थे।

वो कबीर के पदों को इतने मधुर स्वर में गाते थे कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता था। कबीर के सीधे साधे पद भी उनके कंठ से निकलकर सजीव हो उठते थे।

आषाढ़ के माह में जब रिमझिम बारिश होती थी। पूरा गांव धान की रोपाई के लिए खेतों पर रहता था। कोई हल चला रहा होता , तो कहीं कोई धान के पौधों की रोपाई कर रहा होता था। बच्चे धान के पानी भरे खेतों में उछल कूद कर रहे होते थे और औरतें कलेवा  (सुबह का नाश्ता ) लेकर मेंड़ पर बैठी रहती थी। बड़ा ही मनमोहक दृश्य होता था। 

जब आसमान बादलों से घिरा रहता था और ठंडी ठंडी हवाएं चल रही होती थी। ऐसे में भगत के गीतों के मधुर स्वर कान में पड़ते थे जो कबीर के पदों को बड़े ही मनमोहक अंदाज में गाते हुए अपने खेतों में पूरी तरह से कीचड़ में सने हुए धान की रोपाई करते थे।

उनका मधुर गान सुनकर ऐसा लगता था मानो उनके गले से निकल कर संगीत के कुछ मधुर स्वर ऊपर स्वर्ग की तरफ जा रहे हैं तो कुछ मधुर स्वर पृथ्वी में खड़े लोगों के कान की तरफ रहे हैं।

खेलते हुए बच्चे भी उनके गानों में झूम उठते थे। औरतें गुनगुनाने लगती थी। हल चलाने वाले लोगों के पैर भी अब ताल से उठने लगते थे। और रोपनी करने वालों की अंगुलियां एक अजीब क्रम से चलने लगती थी। सच में बालगोबिन भगत के संगीत में जादू था जादू।

भादों की काली अंधेरी रातें में जब सारा संसार सोया रहता था। तब बाल गोविंद भगत का संगीत जाग रहा होता था। कार्तिक माह के आते ही बाल गोविंद भगत की प्रभातियाँ शुरू हो जाती थी , जो फागुन तक चलती थी।

इन दिनों वे सवेरे उठ कर गांव से दो मील दूर नदी में जाकर स्नान करते। स्नान से लौट कर गांव के बाहर ही पोखरे के ऊंचे भिंडे पर , अपनी खँजड़ी ले जाकर बैठते और गाना गाने लगते। और गर्मियों में तो वो अपने घर के आंगन में ही आसन जमा कर बैठते और अपनी मंडली के साथ गाना गाते थे।

बाल गोविंद भगत की संगीत साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया जिस दिन उनके इकलौते बेटे की मृत्यु हो गई। उन्होंने बड़े प्यार से अपने बेटे की शादी की। घर में एक सुंदर सुशील बहू आई , जिसने भगत को दुनियादारी और घर गृहस्थी के झंझट से मुक्त कर दिया।

इकलौते बेटे की मृत्यु  के बाद उन्होंने अपने मृत बेटे की देह को आंगन में एक चटाई पर लेटा कर उसे एक सफेद कपड़े से ढँक दिया और उसके ऊपर कुछ फूल और तुलसीदल बिखरा दिए। और सिर के सामने एक दीपक जला दिया। फिर उसके सामने ही जमीन पर आसन लगा गीत गाते रहे , वह भी पूरी तल्लीनता के साथ।

उनकी बहू अपने पति की मृत्यु पर काफी दुखी थी इसीलिए खूब रो रही थी। लेकिन बालगोबिन भगत पूरी तल्लीनता के साथ गाना गाए जा रहे थे और अपनी बहू को भी रोने के बजाय उत्सव मनाने को कह रहे थे। वो कह रहे थे कि बिरहिनी आत्मा आज परमात्मा से जा मिली है। और यह सब आनंद की बात है। इसीलिए रोने के बजाय उत्सव मनाना चाहिए। 

बेटे की चिता को आग भी उन्होंने अपनी बहू से ही लगवाई और श्राद्ध की अवधि पूरी होते ही बहू के भाई को बुलाकर बहू को उसके साथ भेज दिया और साथ में यह भी आदेश दिया कि बहू की दूसरी शादी कर देना। बहू भगत को छोड़ कर जाना नहीं चाहती थी। क्योंकि वह जानती थी कि बेटे की मृत्यु के बाद वही उनका एकमात्र सहारा है। वह उनकी सेवा करना चाहती थी। लेकिन भगत अपने निर्णय पर अटल रहे और उन्होंने अपनी बहू को भाई के साथ जाने के लिए विवश कर दिया।

बालगोबिन भगत की मृत्यु उन्हीं के अनुरूप हुई। वो हर वर्ष अपने गांव से लगभग 30 कोस दूर गंगा स्नान करने पैदल ही जाते थे। घर से खाना खाकर जाते और फिर घर लौट कर ही खाना खाते।  घर पहुंचने तक उपवास में ही रहते थे रास्ते भर गाते बजाते रहते और प्यास लगती तो पानी पी लेते हैं।

अब बुढ़ापा उन पर हावी था। इस बार जब वो गंगा स्नान से लौटे तो , उनकी तबीयत कुछ ठीक नहीं थी। किंतु वह अपने नेम व्रत को कहां छोड़ने वाले थे। घर लौट कर उन्होंने अपनी वही पुरानी दिनचर्या जारी रखी। लोगों ने उन्हें आराम करने को कहा लेकिन वो सबको हंस कर टाल देते थे।

उस दिन भी उन्होंने संध्या में गीत गाया था लेकिन सुबह के वक्त लोगों ने उनका गीत नहीं सुना। जाकर देखा तो पता चला कि बालगोविंद भगत नहीं रहे , सिर्फ उनका पुंजर पड़ा है। 

कठिन शब्दों के अर्थ

  • मँझोला ना बहुत बड़ा ना बहुत छोटा
  • कमली जटाजूट- कम्बल
  • खामखाह अनावश्यक
  • रोपनी धान की रोपाई
  • कलेवा सवेरे का जलपान
  • पुरवाई- पूर्व की ओर से बहने वाली हवा
  • मेड़ खेत के किनारे मिटटी के ढेर से बनी उँची
  • लम्बी-खेत को घेरती आड़
  • अधरतिया आधी रात
  • झिल्ली- झींगुर
  • दादुर- मेढक
  • खँझरी ढपली के ढंग का किन्तु आकार में उससे
  • छोटा -वाद्यंत्र
  • निस्तब्धता सन्नाटा
  • पोखर- तालाब
  • टेरना- सुटीला अलापना
  • आवृत ढका हुआ
  • श्रमबिंदु परिश्रम के कारण आई पसीने की बून्द
  • संझा- संध्या के समय किया जाने वाला भजन
  • करताल एक प्रकार का वाद्य
  • सुभग सुन्दर
  • कुश एक प्रकार की नुकीली घास
  • बोदा काम बुद्धि वाला
  • सम्बल सहारा

रामवृक्ष बेनीपुरी का जीवन परिचय

इस पाठ के लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म सन 1899 में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गांव में हुआ था। बचपन में ही उनके माता पिता का निधन हो गया जिस कारण उनका बचपन अभावों, कठिनाइयों और संघर्षों में बीता।

दसवीं तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सन् 1920 में भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गए। इस दौरान वो कई बार भी जेल गए। उनकी मृत्यु सन 1968 में हुई।

रामवृक्ष बेनीपुरी की रचनाएं महज 15 वर्ष की अवस्था में ही अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी। वो बेहद प्रतिभाशाली पत्रकार भी थे।उनकी रचनाओं में स्वाधीनता की चेतना, मनुष्यता की चिंता और इतिहास का युगानुरूप व्याख्या है। विशिष्ट शैलीकर होने के कारण उन्हें “कलम का जादूगर भी कहा जाता है। 

उन्होंने अनेक दैनिक , साप्ताहिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया  जिनमें तरुण भारत , किसान मित्र , बालक , युवक , योगी , जनता , जनवाणी और नई धारा प्रमुख हैं।

बालगोबिन भगत

पाठ 11: बालगोविन भगत

रामवृक्ष बेनीपुरी

लेखक परिचय

रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में सन् 1899 में हुआ। माता-पिता का निधन बचपन में ही हो जाने के कारण जीवन के आरंभिक वर्ष अभावों-कठिनाइयों और संघर्षों में बीते। दसवीं तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सन् 1920 में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गए। कई बार जेल भी गए। उनका देहावसान सन् 1968 में हुआ।

15 वर्ष की अवस्था में बेनीपुरी जी की रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं। वे बेहद प्रतिभाशाली पत्रकार थे। उन्होंने अनेक दैनिक, साप्ताहिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, जिनमें तरुण भारत, किसान मित्र, बालक, में, योगी, जनता, जनवाणी और नयी धारा उल्लेखनीय हैं।

पाठ- प्रवेश 

बालगोबिन भगत रेखाचित्र के माध्यम से लेखक ने एक ऐसे विलक्षण चरित्र का उद्घाटन किया है जो मनुष्यता, लोक संस्कृति और सामूहिक चेतना का प्रतीक है। वेशभूषा या बाह्य अनुष्ठानों से कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास का आधार जीवन के मानवीय सरोकार होते हैं। बालगोबिन भगत इसी आधार पर लेखक को संन्यासी लगत हैं। यह पाठ सामाजिक रूढ़ियों पर भी प्रहार करता है। इस रेखाचित्र की एक विशेषता यह है कि बालगोबिन भगत के माध्यम से ग्रामीण जीवन की सजीव झाँकी देखने क मिलती है।

शब्दार्थ

  • मंझोला- ना बहुत बड़ा ना बहुत छोटा
  • कमली- कंबल
  • पतोहू- पुत्रवधू
  • रोपनी- धान की रोपाई
  • कलेवा- सुबह का जलपान
  • पुरवाई- पूरब की ओर से बहने वाली हवा
  • आधरतिया-आधी रात
  • खंजड़ी- डफली के ढंग का परंतु आकार में उससे छोटा एक वाद्य यंत्र
  • निस्तब्धता- सन्नाटा
  • लोही- प्रातःकाल की लालिमा
  • कुहासा -कोहरा
  • कुश -एक प्रकार की नुकीली घास
  • बोदा- कम बुद्धि वाला
  • संबल- सहारा

लखनवी अन्दाज

पाठ-12

लखनवी अंदाज़

लखनवी अंदाज पाठ का सार 

लखनवी अंदाज कहानी की शुरुआत कुछ इस तरह होती है। लेखक को अपने घर से थोड़ी दूर कहीं  जाना था। लेखक ने भीड़ से बचने , एकांत में किसी नई कहानी के बारे में सोचने ट्रेन की खिड़की से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों को निहारने के लिए लोकल ट्रेन (मुफस्सिल) के सेकंड क्लास का कुछ महंगा टिकट खरीद लिया।

जब वो स्टेशन पहुंचे तो गाड़ी छूटने ही वाली थी। इसीलिए वो सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर उसमें चढ़ गए लेकिन जिस डिब्बे को वो खाली समझकर चढ़े थे , वहां पहले से ही एक लखनवी नवाब बहुत आराम से पालथी मारकर बैठे हुए थे और उनके सामने दो ताजे खीरे एक तौलिए के ऊपर रखे हुए थे।

लेखक को देख नवाब साहब बिल्कुल भी खुश नही हुए क्योंकि उन्हें अपना एकांत भंग होता हुआ दिखाई दिया। उन्होंने लेखक से बात करने में भी कोई उत्साह या रूचि नहीं दिखाई लेखक उनके सामने वाली सीट में बैठ गए।

लेखक खाली बैठे थे और कल्पनायें करने की उनकी पुरानी आदत थी। इसलिए वो उनके आने से नवाब साहब को होने वाली असुविधा का अनुमान लगाने लगे। वो सोच रहे थे शायद नवाब साहब ने अकेले सुकून से यात्रा करने की इच्छा से सेकंड क्लास का टिकट ले लिया होगा

लेकिन अब उनको यह देखकर बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा है कि शहर का कोई सफेदपोश व्यक्ति उन्हें सेकंड क्लास में सफर करते देखें। उन्होंने अकेले सफर में वक्त अच्छे से कट जाए यही सोचकर दो खीरे खरीदे होंगे। परंतु अब किसी सफेदपोश आदमी के सामने खीरा कैसे खाएं।

नवाब साहब गाड़ी की खिड़की से लगातार बाहर देख रहे थे और लेखक कनखियों से नवाब साहब की ओर देख रहे थे। 

अचानक नवाब साहब ने लेखक से खीरा खाने के लिए पूछा लेकिन लेखक ने नवाब साहब को शुक्रिया कहते हुए मना कर दिया। उसके बाद नवाब साहब ने बहुत ही तरीके से खीरों को धोया और उसे छोटे-छोटे टुकड़ों (फाँक) में काटा। फिर उसमें जीरा लगा नमक , मिर्च लगा कर उनको तौलिये में करीने से सजाया।

इसके बाद नवाब साहब ने एक और बार लेखक से खीरे खाने के बारे में पूछा। क्योंकि लेखक पहले ही खीरा खाने से मना कर चुके थे इसीलिए उन्होंने अपना आत्म सम्मान बनाए रखने के लिए इस बार पेट खराब होने का बहाना बनाकर खीरा खाने से मना कर दिया।

लेखक के मना करने के बाद नवाब साहब ने नमक मिर्ची लगे उन खीरे के टुकड़ों को देखा। फिर खिड़की के बाहर देख कर एक गहरी सांस ली। उसके बाद नवाब साहब खीरे की एक फाँक (टुकड़े) को उठाकर होठों तक ले गए , फाँक को सूंघा। स्वाद के आनंद में नवाब साहब की पलकें मूँद गई  मुंह में भर आए पानी का घूंट गले में उतर गया।उसके बाद नवाब साहब ने खीरे के उस टुकड़े को खिड़की से बाहर फेंक दिया।

इसी प्रकार नवाब साहब खीरे के हर टुकड़े को होठों के पास ले जाते , फिर उसको सूंघते और उसके बाद उसे खिड़की से बाहर फेंक देते। खीरे के सारे टुकड़ों को बाहर फेंकने के बाद उन्होंने आराम से तौलिए से हाथ और होंठों को पोछा। और फिर बड़े गर्व से लेखक की तरफ देखा। जैसे लेखक को कहना चाह रहे हो कि यही है खानदानी रईसों का तरीका

नवाब साहब खीरे की तैयारी और इस्तेमाल से थक कर लेट गए। लेखक ने सोचा कि क्या सिर्फ खीरे को सूंघकर ही पेट भरा जा सकता है तभी नवाब साहब ने एक जोरदार डकार ली और बोले खीरा लजीज होता है पर पेट पर बोझ डाल देता है 

यह सुनकर लेखक के ज्ञान चक्षु खुल गए। उन्होंने सोचा कि जब खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से ही पेट भर कर डकार सकती है , तो बिना किसी विचार , घटना , कथावस्तु और पात्रों के , सिर्फ लेखक की इच्छा मात्र से नई कहानी भी तो लिखी जा सकती है। 

कठिन शब्दो के अर्थ

  • मुफ़स्सिल - केंद्र में स्थित जगर के ड्र्व-गिर्द स्थान
  • उतावलीजल्दबाजी
  • प्रतिकूलविपटीत
  • सफ़ेदपोश - भद्र व्यक्ति
  • अपदार्थ वस्तु - तुच्छ वस्तु
  • गवारा ना होना- मन के अनुकूल ना होना
  • लथेड़ लेना - लपेठ लेजा
  • एहतियातसावधानी
  • करीने से - ढंग से
  • सुर्खीलाली
  • भाव-भंगिमा- मन के विचार को प्रकट करने वाली शारीरिक क्रिया
  • स्फुरन- फड़कना
  • प्लावित होना - पानी भर जाना
  • पनियातीर॒सीली
  • तलबइच्छा
  • मेंदा- पेट
  • सतृष्ण - इच्छा सहित
  • तसलीम - सम्मान में
  • सिर ख़म करना - सिट झुकाना
  • तहजीबशिष्टता
  • जफासतस्वच्छता
  • जर्फीसबढ़िया
  • एब्सट्रैक्ट सूक्ष्म
  • सकील- आसानी से ना पचने वाला
  • जामुराद- बेकार चीज़
  • जानचक्षु- जान र्पी नेत्र

यशपाल का जीवन परिचय

लखनवी अंदाज कहानी के लेखक यशपाल हैं। 

यशपाल का जन्म सन 1903 में पंजाब के फिरोजपुर छावनी में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा कांगड़ा में हुई। उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज से बी. किया। यही उनका परिचय भगत सिंह और सुखदेव से हुआ। इसके बाद वो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वो कई बार जेल भी गए। उनकी मृत्यु 1976  में हुई। 

यशपाल की रचनायें 

यशपाल की रचनाओं में आम आदमी के सरोकारों की उपस्थिति साफ दिखती है। वो यथार्थवादी शैली के विशिष्ट रचनाकार थे। सामाजिक विषमता , राजनीतिक पाखंड और रूढ़िवादियों के खिलाफ उनकी रचनाएं मुखर हैं।

कहानी संग्रह – ज्ञानदान , तर्क का तूफान , पिंजरे की उड़ान , वा दुलिया , फूलों का कुर्ता।

उपन्यास  – झूठा सच (यह भारत विभाजन की त्रासदी का मार्मिक दस्तावेज है)

लखनवी अन्दाज

पाठ-12: लखनवी अंदाज

यशपाल

लेखक परिचय

यशपाल का जन्म सन् 1903 में पंजाब के फीरोजपुर छावनी में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा काँगड़ा में ग्रहण करने के लाहौर के नेशनल कॉलेज से उन्होंने बी.ए. किया। वहाँ उनका परिचय भगत सिंह और सुखदेव से हुआ। स्वाधीनता सम की क्रांतिकारी धारा से जुड़ाव के कारण वे जेल भी उनका मृत्यु सन् 1976 में हुई।

यशपाल की रचनाओं में आम आदमी के सरोकारों की संस्थिति है। वे यथार्थवादी शैली के विशिष्ट रचनाकार हैं। सामाजिक विषमता, राजनैतिक पाखंड और रूढ़ियों ई खिलाफ़ उनकी रचनाएँ मुखर हैं। उनके कहानी संग्रहों में ज्ञानदान, तर्क का तूफ़ान, पिंजरे की उड़ान, वा दुलिया, फूलो का त उल्लेखनीय हैं। उनका झूठा सच उपन्यास भारत भाजन की त्रासदी का मार्मिक दस्तावेज़ है। अमिता, दिव्या, र्टी कामरेड, दादा कामरेड, मेरी तेरी उसकी बात, के अन्य प्रमुख उपन्यास हैं। भाषा की स्वाभाविकता और नोवता उनकी रचनागत विशेषता है।

पाठ प्रवेश

यूँ तो यशपाल ने लखनवी अंदाज व्यंग्य यह साबित करने के लिए लिखा था कि बिना कथ्य के कहानी नहीं लिखी जा सकती परंतु एक स्वतंत्र रचना के रूप में इस रचना को पढ़ा जा सकता है। यशपाल उस पतनशील सामंती वर्ग पर कटाक्ष करते हैं। जो वास्तविकता से बेखबर एक बनावटी जीवन शैली का आदी है। कहना न होगा कि आज के समय में भी ऐसी परजीवी संस्कृति को देखा जा सकता है।

शब्दार्थ

  • मुफस्सिल - केंद्र नगर के इर्द -गिर्द के स्थान
  • सफेदपोश -भद्र व्यक्ति
  • किफायत -मितव्यता
  • आदाब अर्ज -अभिवादन का एक ढंग
  • गुमान- भ्रम
  • एहतियात-सावधानी
  • बुरक देना-छिड़क देना
  • स्फुरण- फड़कना
  • प्लावित- पानी भर जाना
  • मेदा-अमाशय
  • तसलीम-सम्मान में
  • तहज़ीब-शिष्टता
  • नफासत-स्वच्छता
  • नजाकत- कोमलता

मानवीय करुणा की दिव्य चमक

पाठ-13

मानवीय करुणा की दिव्या चमक

मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ का सार

मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ के लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं। जिन्होंने बेल्जियम (यूरोप) में जन्मे फादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व जीवन का बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है। फादर एक ईसाई संन्यासी थे लेकिन वो आम सन्यासियों जैसे नहीं थे। 

भारत को अपना देश अपने को भारतीय कहने वाले फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में हुआ था , जो गिरजों , पादरियों , धर्मगुरूओं और संतों की भूमि कही जाती है। लेकिन उन्होंने अपनी कर्मभूमि भारत को बनाया।

फादर कामिल बुल्के ने अपना बचपन और युवावस्था के प्रारंभिक वर्ष रैम्सचैपल में बताए थे।फादर बुल्के के पिता व्यवसायी थे। जबकि एक भाई पादरी था और एक भाई परिवार के साथ रहकर काम करता था। उनकी एक जिद्दी बहन भी थी , जिसकी शादी काफी देर से हुई थी।

फादर कामिल बुल्के ने इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ कर विधिवत संन्यास धारण किया। उन्होंने संन्यास धारण करते वक्त भारत जाने की शर्त रखी थी , जो मान ली गई।दरअसल फादर भारत भारतीय संस्कृति से बहुत अधिक प्रभावित थे  इसीलिए उन्होंने पादरी बनते वक्त यह शर्त रखी थी।

फादर बुल्के संन्यास धारण करने के बाद भारत गए। फिर यही के हो कर रह गए। वो भारत को ही अपना देश मानते थे। 

फादर बुल्के अपनी मां को बहुत प्यार करते थे। वह अक्सर उनको याद करते थे। उनकी मां उन्हें पत्र लिखती रहती थी , जिसके बारे में वह अपने दोस्त डॉ . रघुवंश को बताते थे। भारत में आकर उन्होंने जिसेट संघ में दो साल तक पादरियों के बीच रहकर धर्माचार की पढाई की।

और फिर 9 -10 वर्ष दार्जिलिंग में रहकर पढाई की। उसके बाद उन्होंने कोलकाता से बी. और इलाहाबाद से हिंदी में एम. की डिग्री हासिल की ।और इसी के साथ ही उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सन 1950 में रामकथा : उत्पत्ति और विकास विषय में शोध भी किया।फादर बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ब्लू बर्ड का हिंदी में नील पंछी के नाम से अनुवाद किया। 

बाद में उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज , रांची में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया। यही उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेजी -हिंदी शब्दकोश भी तैयार किया और बाइबिल का भी हिंदी में अनुवाद किया। उनका हिंदी के प्रति अथाह प्रेम इसी बात से झलकता है। 

जहरबाद बीमारी के कारण उनका 73 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया। फादर बुल्के भारत में लगभग 47 वर्षों तक रहे।  इस बीच वो सिर्फ तीन या चार बार ही अपनी मातृभूमि बेल्जियम गए। 

संन्यासी धर्म के विपरीत फादर बुल्के का लेखक से बहुत आत्मीय संबंध था। फादर लेखक के पारिवारिक सदस्य के जैसे ही थे। लेखक का परिचय फादर बुल्के से इलाहाबाद में हुआ , जो जीवन पर्यंत रहा। लेखक फादर के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे।

लेखक के अनुसार फादर वात्सल्य प्यार की साक्षात मूर्ति थे। वह हमेशा लोगों को अपने आशीर्वाद से भर देते थे। उनके दिल में हर किसी के लिए प्रेम , अपनापन दया भाव था। वह लोगों के दुख में शामिल होते और उन्हें अपने मधुर वचनों से सांत्वना देते थे। वो जिससे एक बार रिश्ता बनाते थे , उसे जीवन पर्यंत निभाते थे।

फादर की दिली तमन्ना हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। वह अक्सर हिंदी भाषियों की हिंदी के प्रति उपेक्षा देखकर दुखी हो जाते थे। फादर बुल्के की मृत्यु दिल्ली में जहरबाद से पीड़ित होकर हुई। लेखक उस वक्त भी दिल्ली में ही रहते थे। लेकिन उनको फादर की बीमारी का पता समय से चल पाया , जिस कारण वह मृत्यु से पहले फादर बुल्के के दर्शन नहीं कर सके।इस बात का लेखक को गहरा अफ़सोस था  

18 अगस्त 1982 की सुबह 10 बजे कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटी सी नीली गाड़ी में से कुछ पादरियों , रघुवंशीजी के बेटे  , राजेश्वर सिंह द्वारा उतारा गया ।फिर उस ताबूत को पेड़ों की घनी छाँव वाली सड़क से कब्र तक ले जाया गया। उसके बाद फादर बुल्के के मृत शरीर को कब्र में उतार दिया।

रांची के फादर पास्कल तोयना ने मसीही विधि से उनका अंतिम संस्कार किया और  सबने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।उनके अंतिम संस्कार के वक्त वहां हजारों लोग इकट्ठे थे , जिन्होंने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि दी। इसके अलावा वहाँ जैनेन्द्र कुमार , विजेंद्र स्नातक , अजीत कुमार , डॉ निर्मला जैन , मसीही समुदाय के लोग , पादरीगण , डॉक्टर सत्यप्रकाश और डॉक्टर रघुवंश भी उपस्थित थे। 

लेखक कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने जीवन भर दूसरों को वात्सल्य प्रेम का अमृत पिलाया।और  जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। उसकी मृत्यु जहरबाद से हुई। यह फादर के प्रति ऊपर वाले का घोर अन्याय हैं।

लेखक ने फादर की तुलना एक ऐसे छायादार वृक्ष से की है जिसके फल फूल सभी मीठी मीठी सुगंध से भरे रहते हैं। और जो अपनी शरण में आने वाले सभी लोगों को अपनी छाया से शीतलता प्रदान करता हैं।

ठीक उसी तरह फादर बुल्के भी हम सबके साथ रहते हुए , हम जैसे होकर भी , हम सब से बहुत अलग थे। प्राणी मात्र के लिए उनका प्रेम वात्सल्य उनके व्यक्तित्व को मानवीय करुणा की दिव्य चमक से प्रकाशमान करता था।

 लेखक के लिए उनकी स्मृति किसी यज्ञ की पवित्र अग्नि की आँच की तरह है जिसकी तपन वो हमेशा महसूस करते रहेंगे। 

कठिन शब्दो के अर्थ

  • जहरबाद- गैंग्रीन, एक तरह का जहरीला और कष्टसाध्य फोड़ा
  • देहरीदहलीज
  • निर्लिप्त- आसक्ति रहित, जो लिप्त ना हो
  • आवेश- जोश
  • ठपांतर - किसी वास्तु का बदला हुआ रूप
  • अकाठ्य- जो कट ना सके
  • विरल- काम मिलने वाली
  • करील- झाडी के रुप में उगने वाला एक कँटीला और बिना पत्ते का पौधा
  • गौरीक वसन - साधुओं द्वारा धारण किया जाने वाला गैरुआ वस्त्र
  • शद्धानत - प्रेम और भक्तियुक्त पूज्य भाव
  • टगों- नसों
  • अस्तित्वस्वरूप
  • चोगा- लम्बा ढीला-ढाला आगे से खुला मर्दाना पहनावा
  • साक्षी- गवाह
  • गोष्ठियाँसभाएँ
  • वात्सल्य - ममता का भाव
  • देह- शरीर
  • उपैक्षा- ध्यान देना
  • अपनत्वअपनाना
  • सँकरी- कम चौड़ी, पतली
  • संकल्प- ड़रादा

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जीवन परिचय

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म 1927 में बस्ती जिले ( उत्तर प्रदेश ) में हुआ था। उनकी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। वो अध्यापक , आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर , दिनमान में उपसंपादक और पराग के संपादक रहे। 

सर्वेश्वर की पहचान मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं के लेखक के रूप में की जाती है।  मध्यम वर्गीय जीवन की महत्वाकांक्षाओं , सपने , शोषण , हताशा और कुंठा का चित्रण उनके साहित्य में बखूबी मिलता है। सर्वेश्वर जी स्तंभकार थे। वो चरचे और चरखे  नाम से दिनमान में एक स्तंभ लिखते थे। वो सच कहने का साहस रखते थे। उनकी अभिव्यक्ति सहजता और स्वाभाविक होती थी। 

सर्वेश्वर बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। वह कवि , कहानीकार , उपन्यासकार , निबंधकार और नाटककार थे। सन् 1983 में उनका आकस्मिक निधन हो गया।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की प्रमुख रचनाएँ निम्न हैं। 

काठ की घंटियां  , कुआनो नदी , जंगल का दर्द , पागल कुत्तों का मसीहा , भौं भौं खौं खौं , बतूता का जूता। 

मानवीय करुणा की दिव्य चमक

पाठ 13: मानवीय करुणा की दिव्य चमक

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (1927-1983)

लेखक परिचय

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म सन् 1927 में जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनकी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। वे अध्यापक, आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर विनमान में उपसंपादक और पराग के संपादक रहे। सन् 1983 में उनका आकस्मिक निधन हो गया।

सर्वेश्वर बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। वे कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, निबंधकार और नाटककार थे। सर्वेश्वर को प्रमुख कृतियाँ हैं-काठ की घंटियाँ, कुआनो नदी, जंगल का दर्द, खूँटियों पर टँगे लोग (कविता-संग्रह); पागल कुत्तों का मसीहा, सोया हुआ जल (उपन्यास); लड़ाई (कहानी-संग्रह); बकरी (नाटक); भौं भौं खौं खौं, बतूता का जूता, लाख की नाक (बाल साहित्य)। चरचे और चरखे उनके लेखों का संग्रह है। खूँटियों पर टँगे लोग पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला।

पाठ -प्रवेश

संस्मरण स्मृतियों से बनता है और स्मृतियों की विश्वसनीयता उसे महत्त्वपूर्ण बनाती है। फ़ादर कामिल बुल्के पर लिखा सर्वेश्वर का यह संस्मरण इस कसौटी पर खरा उतरता है। अपने को भारतीय कहने वाले फ़ादर बुल्के जन्मे तो बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में जो गिरजॉ, पादरियों, धर्मगुरुओं और संतों की भूमि कही जाती हैं परंतु उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाया भारत को। फ़ादर बुल्के एक संन्यासी थे परंतु पारंपरिक अर्थ में नहीं। सर्वेश्वर का फ़ादर बुल्के से अंतरंग संबंध था जिसकी झलक हमें इस संस्मरण में मिलती है। लेखक का मानना है कि जब तक रामकथा है, इस विदेशी भारतीय साधु को याद किया जाएगा तथा उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों के अगाध प्रेम का उदाहरण माना जाता है।

शब्दार्थ

  • आस्था-विश्वास
  • देहरी-दहलीज
  • आतुर-अधीर
  • निर्लिप्त- आसक्ति रहित
  • आवेश- जोश
  • लबालब- भरा हुआ
  • धर्माचार- धर्म का पालन या आचरण
  • रूपांतर- किसी वस्तु का बदला हुआ रूप
  • अकाट्य- जो कटे ना सके
  • विरल- कम मिलने वाली
  • ताबूत- शव या मुर्दा ले जाने वाला संदूक या बक्सा
  • करील- झाड़ी के रूप में उगने वाला एक कंटीला और बिना पत्ते का पौधा गैरिक वसन- साधनों द्वारा धारण किए जाने वाले गेरुए वस्त्र
  • श्रद्धानत- प्रेम और भक्ति युक्त पूज्य भाव

यह एक कहानी भी

पाठ-14

एक कहानी यह भी

एक कहानी यह भी चमक पाठ का सार

एक कहानी यह भीपाठ की लेखिका मन्नू भंडारी जी हैं। मन्नू भंडारी जी ने इस कहानी के जरिए अपने मातापिता के व्यक्तित्व उनकी कमियोंखूबियों को उजागर किया है। इसी के साथ ही उन्होनें स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी सक्रिय भागीदारी का भी उल्लेख इस पाठ के जरिए किया है।

पाठ की शुरुआत करते हुए लेखिका कहती हैं कि मेरा जन्म तो मध्य प्रदेश के भानपुरा गांव में हुआ था। लेकिन मेरे बचपन युवा अवस्था का शुरुवाती समय अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के एक दो मंजिले मकान में बीता। जिसके ऊपरी मंजिल में उनके पिताजी रहते थे। जिनका अधिकतर समय पुस्तकों , अखबारों और पत्रिकाओं को पढ़ने में ही बीतता था। नीचे की मंजिल में लेखिका अपने भाई बहनों अपनी अनपढ़ मां के साथ रहती थी।

यहां पर लेखिका अपनी मां को व्यक्तित्वहीन कहती हैं क्योंकि उनकी मां सुबह से देर रात तक घर के कामकाज घर के सदस्यों की इच्छाओं को पूरा करने में ही अपना अधिकतर समय बिताती थी। उनकी अपनी कोई व्यक्तिगत जिंदगी इच्छाएं नहीं थी।

लेखिका कहती हैं कि उनके पिता अजमेर आने से पहले इंदौर में रहा करते थे। जहां उनकी अच्छी सामाजिक प्रतिष्ठा मान सम्मान था। वो कांग्रेस पार्टी और समाज सेवा से भी जुड़े थे। वो शिक्षा को बहुत अधिक महत्व देते थे। इसीलिए 8 10 बच्चों को अपने घर में रखकर पढ़ाया करते थे जो आगे चलकर ऊंचे- ऊंचे पदों पर आसीन  हुए।

अपने खुशहाली के दिनों में वो काफी दरियादिल हुआ करते थे। हालाँकि लेखिका ने यह सब अपनी आँखों से नहीं देखा , सिर्फ इसके बारे में सुना था। लेकिन एक बहुत बड़े आर्थिक नुकसान के कारण उन्हें इंदौर छोड़कर अजमेर में बसना पड़ा।

अजमेर आकर लेखिका के पिता ने अपने अकेले के बलबूते हौसले से अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश (विषयवार) के अधूरे काम को पूरा किया। यह अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। इस शब्दकोश से उन्हें खूब नाम और शोहरत मिली लेकिन पैसा नहीं मिला जिस कारण उनकी आर्थिक स्थिति खराब होती चली गई। 

पैसे की तंगी , अधूरी महत्वाकांक्षायें , नवाबी आदतें , मान सम्मान प्रसिद्धि के छिन जाने के डर ने उन्हें चिड़चिड़ा क्रोधी बना दिया। वो अक्सर अपना क्रोध मां पर उतारते थे अपने लोगों के विश्वासघात के कारण अब वो किसी पर भी सहज रूप से विश्वास नहीं कर पाते थे। हर किसी को शक की नजर से देखते थे।

लेखिका बताती हैं कि उनके पिता की कमियों और खूबियों ने उनके व्यक्तित्व पर भी खासा असर डाला। उनके व्यवहार के कारण ही लेखिका के अंदर हीन भावना ने जन्म लिया। जिससे आज तक वो उबर नही पायी हैं।

लेखिका का रंग काला था और वो बचपन में काफी कमजोर थी। लेकिन उनके पिता को गोरा रंग बहुत पसंद था। संयोग से उनसे लगभग 2 वर्ष बड़ी उनकी अपनी बड़ी बहन सुशीला खूब गोरी , स्वस्थ हंसमुख स्वभाव की थी। उनके पिता अक्सर उनकी तुलना सुशीला से करते थे जिस कारण उनके अंदर धीरे-धीरे हीन भावना जन्म लेने लगी।

लेखिका कहती हैं कि इतनी शौहरत , नाम , मान सम्मान पाने के बाद भी , आज तक मैं उस हीन भावना से उबर नहीं पाई हूं। मुझे आज भी अपनी मेहनत से कमाई सफलता , नाम और प्रसिद्ध पर विश्वास ही नही होता हैं। मुझे लगता हैं जैसे यह सब मुझे यूँ ही तुक्के से मिला है।

अपनों के विश्वासघात ने लेखिका के पिता को शक्की स्वभाव का बना दिया वो हर किसी को शक की नजर से देखते थे और लेखिका का उनसे हमेशा किसी ने किसी बात पर टकराव चलता रहता था। लेकिन फिर भी लेखिका के पिता के व्यवहार ने उनके पूरे जीवन पर गहरा प्रभाव डाला।

लेखिका की अनपढ़ माताजी उनके पिता के बिल्कुल विपरीत स्वभाव की महिला थी। उन्होंने अपनी माताजी के धैर्य सहनशक्ति की तुलना धरती से की है। उनकी माताजी उनके पिता की हर गलत बात को भी आसानी से सहन कर जाती थी। यही नही वो अपने बच्चों की उचित अनुचित फरमाइशों को अपना फर्ज समझ कर सहज भाव से पूरा करती थी।

उनकी माताजी ने अपने जीवन में कभी किसी से कुछ नहीं मांगा। बस सबको दिया ही दिया। लेखिका उनके भाई बहनों को अपनी मां से प्रेम कम , सहानुभूति ज्यादा थी।

यहां पर लेखिका कहती हैं कि इतना सब कुछ करने के बावजूद भी मेरी मां कभी भी मेरी आदर्श नहीं बन पाई क्योंकि उनका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं था। उनकी अपनी कोई निजी राय नहीं थी। उनकी अपनी कोई व्यक्तिगत जिंदगी नहीं थी। वो हमेशा दूसरों के लिए ही जीती थी।

इसके बाद लेखिका बताती हैं कि पांच भाई-बहनों में वह सबसे छोटी थी। जब वो महज 7 वर्ष की थी तब उनकी सबसे बड़ी बहन की शादी हो गई जिसकी उन्हें बस धुंधली सी याद है। उन्होंने अपना बचपन अपनी बड़ी बहन सुशीला पास पड़ोस की सहेलियों के साथ तरह तरह के खेल खेलते हुए बिताया।

लेकिन उनके खेलने घूमने का दायरा सिर्फ उनके घर आंगन मोहल्ले तक ही सीमित था। यहां पर लेखिका यह भी बताती हैं कि उनकी कम से कम एक दर्जन कहानियों के पात्र भी इसी मोहल्ले के हैं जहां उन्होंने अपनी किशोरावस्था से युवावस्था में कदम रखा।

16 वर्ष मैट्रिक पास होने के बाद सन 1944 में उनकी बड़ी बहन सुशीला की शादी कोलकाता हो गई और उनके दोनों बड़े भाई भी आगे की पढ़ाई के लिए बाहर चले गए। इसके बाद लेखिका घर में अकेली रह गई। तब पहली बार लेखिका के पिता का ध्यान लेखिका पर गया।

लेखिका के पिता चाहते थे कि लेखिका घर रसोई के काम काज से दूर रहकर सिर्फ पढ़ाई पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित करें। उस समय उनके घर आए दिन राजनीतिक पार्टियां होती रहती थी। लेखिका जब घर आए मेहमानों को चाय नाश्ता देने जाती तो उनके पिता उन राजनीतिक पार्टियों की बहस सुनने के लिए उन्हें भी वही बैठा लेते थे।

वो चाहते थे कि लेखिका उनके साथ बैठकर उनकी बहस को सुने , ताकि देश में क्या हो रहा है इस बारे में उन्हें भी पता चल सके। हालाँकि सन 1942 में जब वो दसवीं क्लास में पढ़ती थी। तब तक उन्हें इन सब चीजों की कोई ख़ास समझ नहीं थी।

लेकिन सन 1945 में जैसे ही उन्होंने दसवीं पास कर सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल में फर्स्ट ईयर में प्रवेश लिया तो वहां उनका परिचय हिंदी की प्राध्यापिका (Teacher) शीला अग्रवाल से हुआ जिन्होंने लेखिका का परिचय साहित्य की दुनिया से कराया।

शीला अग्रवाल ने उन्हें कई बड़े बड़े लेखकों की किताबें पढ़ने को दी। इसके बाद लेखिका ने कई प्रसिद्ध लेखकों की किताबों को पढ़ना और समझना आरंभ किया।

लेखिका कहती है कि शीला अग्रवाल ने सिर्फ उनके साहित्य का दायरा बढ़ाया बल्कि देश के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाने को भी प्रेरित किया। शीला अग्रवाल की बातों का उन पर ऐसा असर हुआ कि सन 1946 47 में जब पूरा देश स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहा था। तब लेखिका भी पूरे जोश उत्साह के साथ उस आंदोलन में कूद पड़ी।

लेखिका के पिता यह तो चाहते थे कि देश दुनिया में क्या हो रहा है। इस सब के बारे में लेखिका जानें। लेकिन वो सड़कों पर नारे लगाती फिरें  , लड़कों के साथ गली -गली , शहर शहर घूमकर हड़तालें करवाएं यह सब अपने आप को आधुनिक कहने वाले उनके पिता को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं था। जिस कारण उनके और उनके पिता के बीच अक्सर टकराव चलता रहता था।

लेखिका कहती हैं कि यश , मान सम्मान , प्रतिष्ठा उनके पिता की दुर्बलता (कमजोरी) थी। उनके पिता के जीवन का बस एक ही सिद्धांत था कि आदमी को इस दुनिया में कुछ विशिष्ट बनकर जीना चाहिए। कुछ ऐसे काम करने चाहिए जिससे समाज में उसका नाम , सम्मान और प्रतिष्ठा हो। और पिता की इसी दुर्बलता ने उनको दो बार पिता के क्रोध से बचा लिया।

पहली घटना का जिक्र करते हुए लेखिका कहती हैं कि एक बार उनके कॉलेज के प्रिंसिपल ने उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने हेतु उनके पिता को पत्र भेजकर कॉलेज में बुलाया।  पत्र पढ़ते ही पिता को क्रोध आना स्वाभाविक था इसीलिए वो अपना गुस्सा माँ पर निकाल कर कॉलेज पहुंच गए। 

लेकिन जब वो वापस घर पहुंचे तो काफी खुश थे। लेखिका को इस सब पर विश्वास ही नहीं हुआ।  दरअसल लेखिका उस समय तक कॉलेज की सभी लड़कियों की लीडर बन चुकी थी उनका कॉलेज में खूब रौब चलता था।

सभी लड़कियां उनके एक इशारे पर क्लास छोड़कर मैदान में जाती थी और नारेबाजी करने लगती थी। जिससे कॉलेज की प्रिंसिपल काफी परेशान हो गई थी। इसीलिए उन्होंने लेखिका के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का मन बनाया। लेकिन लेखिका के पिता उनकी इस प्रसिद्धि से काफी प्रसन्न थे। 

एक और घटना याद करते हुए लेखिका कहती हैं कि आजाद हिंद फौज के मुकदमे के वक्त सभी कॉलेज , स्कूल , दुकानों के लिए हड़ताल का आवाहन था। जो लोग हड़ताल में शामिल नहीं हो रहे थे। स्कूल के छात्र-  छात्राओं का एक समूह जाकर उनसे जबरदस्ती हड़ताल करवा रहा था।

उसी शाम , अजमेर के सभी विद्यार्थी चौपड़ यानि मुख्य बाजार के चौराहे पर इकट्ठा हुए। और फिर भाषण बाजी शुरू हुई। इसी बीच लेखिका के पिता के एक दकियानूसी (पुरानी विचार धारा के लोग) मित्र ने लेखिका के खिलाफ उनके कान भर दिये।

हड़ताल वगैरह से फुरसत पाकर जब लेखिका रात को घर पहुंची तो उनके पिता के साथ उनके धनिष्ठ मित्र शहर के बहुत ही प्रतिष्ठित सम्मानित व्यक्ति डॉ अंबालाल जी बैठे थे। जैसे ही उनकी नजर लेखिका पर पड़ी तो , उन्होंने बहुत ही गर्मजोशी से उनका स्वागत किया और उनके द्वारा चौपड़ में दिए भाषण की खुले हृदय से प्रशंशा की  जिसे सुनकर उनके पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो गया।

और अंत में लेखिका कहती हैं कि सन 1947 के मई महीने में शीला अग्रवाल को कॉलेज वालों ने लड़कियों को भड़काने और कॉलेज का अनुशासन बिगड़ने के आरोप में कॉलेज छोड़ने का नोटिस थमा दिया था। और किसी अप्रिय धटना से बचने के लिए जुलाई में थर्ड ईयर की कक्षाएं बंद कर लेखिका समेत दो तीन छात्राओं का कॉलेज में प्रवेश भी बंद करा दिया।

लेकिन लेखिका कहाँ मानने वाली थी। उन्होंने अपने साथियों के साथ कॉलेज के बाहर इतना हंगामा किया कि कॉलेज वालों को आखिरकार अगस्त में दुबारा थर्ड ईयर की कक्षाएं चलानी पड़ी। और शीला अग्रवाल को वापस कॉलेज में लेना पड़ा।

लेखिका कहती हैं कि दोनों खुशियों (यानि शीला अग्रवाल के केस में अपनी जीत की खुशी , दूसरा  देश को आजादी मिलने की खुशी ) एक साथ मिली और देश की आजादी तो शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी यानि 15 अगस्त 1947  

कठिन शब्दो के अर्थ

  • अहंवादीअहंकारी
  • आक्रांत संकटग्रस्त
  • भग्नावशेषखंडहर
  • वर्चस्वदबदबा
  • विस्फारितफैलाकर
  • महाभोज - मनन््जू भंडारी का चर्चित उपन्यास
  • निहायतबिल्कुल
  • विवश्तामज़बूरी
  • आसन्न अतीत - थोड़ा पहले ही बिता भूतकाल
  • यशलिप्सा- सम्मान की चाह
  • अचेतनबेहोश
  • शक्कीवह॒मी
  • बैपढ़ीअनपढ़
  • ओहदापद
  • हाशियाकिनारा
  • यातनाकष्ट
  • लेखकीय - लेखन से सम्बंधित
  • गुंथीपिरोरई
  • भन्ना-भन््ना - बार बार क्रोधित होना
  • प्रवाह गति
  • प्राप्यप्राप्त
  • दायरासीमा
  • वजूदअस्तित्व
  • जमाठट़ेबैठकें
  • शगल- शौक
  • अहमियतमहत्व
  • बाकायदाविधिवत
  • दकियानूसीपिछड़े
  • अंतर्विटोधद्वंदव
  • टोब- दबदबा
  • भभकना - अत्यधिक क्रोधित होना
  • ध्षुरी अक्ष
  • छवि- सुंदरता
  • चिटर- सदा
  • प्रबल- बलवती
  • लू उतारना - चुगली करना
  • धू-धू - शर्मसार होना
  • मत मारी जाना - अक्ल काम ना करना
  • गुबार निकालना - मन की भड़ास निकालना
  • चपेट में आना - चंगुल में आना
  • आँख मूंदना - मृत्यु को प्राप्त होना
  • जड्ढें जमाना - अपना प्रभाव जमाना
  • भष्टी में झॉकना - अस्तित्व मिटा देना
  • अंतरंगआत्मिक
  • आह्वानपुकार

मन्नू भंडारी का जीवन परिचय

मन्नू भंडारी का जन्म 3 अप्रैल 1931 को मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले के भानपुरा गांव में हुआ था। मन्नू भंडारी के बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था। लेकिन उन्होंने लेखन कला को मन्नू भंडारी के नाम से जारी रखा। उन्होंने एम. तक शिक्षा ग्रहण की। और मन्नू भंडारी ने कई वर्षो तक दिल्ली के मिरांडा हाउस में अध्यापिका का कार्य किया। उनको लेखन में प्रसिद्धि आपका बंटी नामक उपन्यास से मिली। मन्नू भंडारी के जीवन साथी का नाम राजेंद्र यादव था। 

मन्नू भंडारी की कृतियाँ  - मन्नू भंडारी अपने दौर की एक विख्यात उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, थी। जो निम्नलिखित इस प्रकार हैंउपन्यास-आपका बंटी, महाभोज, एक इंच मुस्कान. कहानी-मै हार गई, तीन निगाहो की एक तस्वीर, यही सच हैं - ( 1974 में रजनीगंधा मूवी भी बनी थी ), रानी माँ का चबूतरा, गीत का चुंबन,त्रिशंकु, एक प्लेट सैलाव, आँखों देखा झूठ नाटक-बिना दीवारों के घर, रजनी दर्पण आत्मकथा-यह कहानी भी एक भी (2007 )

यह एक कहानी भी

पाठ 14: एक कहानी यह भी

मन्नू भंडारी -1931

लेखिका परिचय

मन्नू भंडारी का जन्म सन् 1931 में गाँव भानपुरा, जिला मन मंदसौर (मध्य प्रदेश) में हुआ परंतु उनकी इंटर तक की शिक्षा-दीक्षा हुई राजस्थान के अजमेर शहर में। बाद में उन्होंने हिंदी में एम.ए. किया। दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलिज में अध्यापन कार्य से अवकाश प्राप्ति के बाद आजकल दिल्ली में ही रहकर स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कथा साहित्य की प्रमुख हस्ताक्षर मन्नू भंडारी की प्रमुख रचनाएँ हैं- एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, यही सच है, त्रिशंकु (कहानी-संग्रह); आपका बंटी, महाभोज (उपन्यास)। इसके अलावा उन्होंने फ़िल्म एवं टेलीविज़न धारावाहिकों के लिए पटकथाएँ भी लिखी हैं। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए हिंदी अकादमी के शिखर सम्मान सहित उन्हें अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं जिनमें भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के पुरस्कार शामिल हैं।

पाठ प्रवेश

एक कहानी यह भी के संदर्भ में सबसे पहले तो हम यह जान लें कि मन्नू भंडारी ने पारिभाषिक अर्थ में कोई सिलसिलेवार आत्मकथा नहीं लिखी है। अपने आत्मकथ्य में उन्होंने उन व्यक्तियों और घटनाओं के बारे में लिखा है जो उनके लेखकीय जीवन से जुड़े हुए हैं। संकलित अंश में मन्नू जी के किशोर जीवन से जुड़ी घटनाओं के साथ उनके पिताजी और उनकी कॉलिज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का व्यक्तित्व विशेष तौर पर उभरकर आया है, जिन्होंने आगे चलकर उनके लेखकीय व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेखिका ने यहाँ बहुत ही खूबसूरती से साधारण लड़की के असाधारण बनने के प्रारंभिक पड़ावों को प्रकट किया है। सन् ’46-’47 की आजादी की आँधी ने मन्नू जी को भी अछूता नहीं छोड़ा। छोटे शहर की युवा होती लड़की ने आजादी की लड़ाई में जिस तरह भागीदारी की उसमें उसका उत्साह, ओज, संगठन-क्षमता और विरोध करने का तरीका देखते ही बनता है

शब्दार्थ

  • अहवादी-घमंडी
  • भग्नावशेष-खंडहर
  • विस्फारित-और अधिक फैलना
  • आक्रांत-कष्टग्रस्त
  • निषिद्ध-जिस पर रोक लगाई गई हो
  • वर्चस्वदबदबा

स्त्री शिक्षा विरोधी कुतर्काें का खंडन

पाठ-15

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन पाठ का सार

इस पाठ में लेखक ने स्त्री शिक्षा के महत्व को प्रसारित करते हुए उन विचारों का खंडन किया है। लेखक को इस बात का दुःख है आज भी ऐसे पढ़े-लिखे लोग समाज में हैं जो स्त्रियों का पढ़ना गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं। विद्वानों द्वारा दिए गए तर्क इस तरह के होते हैं, संस्कृत के नाटकों में पढ़ी-लिखी या कुलीन स्त्रियों को गँवारों की भाषा का प्रयोग करते दिखाया गया है। शकुंतला का उदहारण एक गँवार के रूप में दिया गया है जिसने दुष्यंत को कठोर शब्द कहे। जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक वो गँवारों की भाषा थी। इन सब बातों का खंडन करते हुए लेखक कहते हैं की क्या कोई सुशिक्षित नारी प्राकृत भाषा नही बोल सकती। बुद्ध से लेकर महावीर तक ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में ही दिए हैं तो क्या वो गँवार थे। लेखक कहते हैं की हिंदी, बांग्ला भाषाएँ आजकल की प्राकृत हैं। जिस तरह हम इस ज़माने में हिंदी, बांग्ला भाषाएँ पढ़कर शिक्षित हो सकते हैं उसी तरह उस ज़माने में यह अधिकार प्राकृत को हासिल था। फिर भी प्राकृत बोलना अनपढ़ होने का सबूत है यह बात नही मानी जा सकती।  जिस समय नाट्य-शास्त्रियों ने नाट्य सम्बन्धी नियम बनाए थे उस समय सर्वसाधारण की भाषा संस्कृत नही थी। इसलिए उन्होंने उनकी भाषा संस्कृत और अन्य लोगों और स्त्रियों की भाषा प्राकृत कर दिया। लेखक तर्क देते हुए कहते हैं कि शास्त्रों में बड़े-बड़े विद्वानों की चर्चा मिलती है किन्तु उनके सिखने सम्बन्धी पुस्तक या पांडुलिपि नही मिलतीं उसी प्रकार प्राचीन समय में नारी विद्यालय की जानकारी नही मिलती तो इसका अर्थ यह तो नही लगा सकते की सारी स्त्रियाँ गँवार थीं। लेखक प्राचीन काल की अनेकानेक शिक्षित स्त्रियाँ जैसे शीला, विज्जा के उदारहण देते हुए उनके शिक्षित होने की बात को प्रामणित करते हैं। वे कहते हैं की जब प्राचीन काल में स्त्रियों को नाच-गान, फूल चुनने, हार बनाने की आजादी थी तब यह मत कैसे दिया जा सकता है की उन्हें शिक्षा नही दी जाती थी। लेखक कहते हैं मान लीजिये प्राचीन समय में एक भी स्त्री शिक्षित नही थीं, सब अनपढ़ थीं उन्हें पढ़ाने की आवश्यकता ना समझी गयी होगी परन्तु वर्तमान समय को देखते हुए उन्हें अवश्य शिक्षित करना चाहिए।  लेखक पिछड़े विचारधारावाले विद्वानों से कहते हैं की अब उन्हें अपने पुरानी मान्यताओं में बदलाव लाना चाहिए। जो लोग स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए पुराणों के हवाले माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध के उत्तरार्ध का तिरेपनवां अध्याय पढ़ना चाहिए जिसमे रुक्मिणी हरण की कथा है। उसमे रुक्मिणी ने एक लम्बा -चौड़ा पत्र लिखकर श्रीकृष्ण को भेजा था जो प्राकृत में नहीं था। वे सीता, शकुंतला आदि के प्रसंगो का उदहारण देते हैं जो उन्होंने अपने पतियों से कहे थे। लेखक कहते हैं अनर्थ कभी नही पढ़ना चाहिए। शिक्षा बहुत व्यापक शब्द है, पढ़ना उसी के अंतर्गत आता है। आज की माँग है की हम इन पिछड़े मानसिकता की बातों से निकलकर सबको शिक्षित करने का प्रयास करें। प्राचीन मान्यताओं को आधार बनाकर स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करना अनर्थ है।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • धर्मतत्व- धर्म का सार
  • दलीलेंतर्क
  • सुमार्गगामी - अच्छी राह पर चलने वाले
  • कुत्क - अनुचित तक
  • प्राकृत - प्राचीन काल की भाषा
  • कुमार्गगामी - बुरी राह पर चलने वाले
  • वेदांतवादिनी - वेदान्त दर्शन पर बोलने वाली
  • दर्शक ग्रन्थ - जानकारी देने वाली पुस्तकें
  • प्रगल्प्रतिभावान
  • न््यायशीलता - न्याय के अनुसाट आचरण करना
  • विज- समझदार
  • खंडन- किसी बात को तर्कपूर्ण ढंण से गलत कहना
  • नामोल्लेख - नाम का उल्लेख करना
  • ब्रह्मवादी - वेद पढ़ने-पढ़ाने वाला
  • कालकूट- विष
  • पियूषसुधा
  • अल्पज - थोड़ा जानने वाला
  • नीतिज - नीति जाने वाला
  • अपकारअहित
  • व्यभिचारदुराचार
  • ग्रह ग्रस्त - पाप ग्रह से प्रभावित
  • परित्यक्त - छोड़ा हुआ
  • कलंकारोपण - दौष मढ़ना
  • दुर्वाक्य - निंदा करने वाला वाक्य
  • बात व्यथित - बातों से दुखी होने वाले
  • गँवारअसभ्य
  • तथापि- फिर भी
  • बलिहारीन्योछावर
  • धमविलम्बी - धर्म पर निर्भर
  • गई बीती बदतर
  • संशोधनसुधार
  • मिथ्या- झूठ
  • सोलह आनेपूर्णतः
  • संद्वीपान्तर - एक से दूसरे व्वीप जाना
  • छक्के छुडाना - हटा देना

महावीर प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय

हिंदी के योग निर्माता, भाषा के संस्कारकर्ता एवं उत्कृष्ट निबंधकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म 1864 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के दौलतपुर नामक गांव में हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक होने के कारण शिक्षाक्रम सुचारु रुप से नहीं चल सका। अपने स्वध्याय से ही उन्होंने संस्कृत, हिंदी, बंगाली, मराठी, फारसी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। वे तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएं भेजने लगे। उन्होंने रेलवे के तार विभाग में नौकरी की। बाद में नौकरी छोड़कर पूरी तरह साहित्य सेवा में जुट गए। सरस्वती पत्रिका के संपादक का कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा से हिंदी साहित्य को नियंत्रित करके निखारा और उसकी अभूतपूर्व श्री वृधि की। सन् 1931 में काशी नगरी प्रचारिणी सभा ने इनको आचार्य की तथा हिंदी साहित्य सम्मेलन ने वाचस्पति की उपाधि से विभूषित किया। सन् 1938 में हिंदी का यह है यशस्वी आचार्य परलोक वासी हो गया।

प्रमुख रचनाएं महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की रचना संपदा विशाल है। उन्होंने 50 से भी अधिक ग्रंथ कथा सैकड़ों निबंध लिखे हैं।

उनकी प्रमुख रचनाएं हैं  ‘रसज्ञरंजन ’ , ‘नाट्यशास्त्र’ , ‘हिंदी नवरत्न ’, ‘अद्भुत आलाप ’ , ‘साहित्य सीकरी ’ , ‘नेषध चरित्रचर्चा ’ , ‘कालिदास की निरंकुशता ’ , ‘संपत्तिशास्त्र ’ , ‘हिंदी भाषा की उत्पत्तिआदि।काव्य मंजूषा’, उनका कविता संग्रह है।

स्त्री शिक्षा विरोधी कुतर्काें का खंडन

पाठ -15 स्त्री- शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

लेखक- महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864-1938)

लेखक परिचय

महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1864 में ग्राम दौलतपुर, जिला रायबरेली (उ.प्र.) में हुआ। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण स्कूली शिक्षा पूरी कर उन्होंने रेलवे में नौकरी कर ली। बाद में उस नौकरी से इस्तीफा देकर सन् 1903 में प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती का संपादन शुरू किया और सन् 1920 तक उसके संपादन से जुड़े रहे। सन् 1938 में उनका देहांत हो गया।

महावीरप्रसाद द्विवेदी केवल एक व्यक्ति नहीं थे वे एक संस्था थे जिससे परिचित होना हिंदी साहित्य के गौरवशाली अध्याय से परिचित होना है। वे हिंदी के पहले व्यवस्थित संपादक, भाषावैज्ञानिक, इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, वैज्ञानिक चिंतन एवं लेखन के स्थापक, समालोचक और अनुवादक थे। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- रसज्ञ रंजन, महावीरप्रम साहित्य सीकर, साहित्य-संदर्भ, अद्भुत आलाप (निबंध संग्रह)। संपत्तिशास्त्र उनकी अर्थशास्त्र से संबंधित पुस्तक है। महिला मोद महिला उपयोगी पुस्तक है तो आध्यात्मिकी दर्शन की द्विवेदी काव्य माला में उनकी कविताएँ हैं। उनका संपूर्ण साहित्य महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली के पंद्रह खंडों में प्रकाशित है।

पाठ -प्रवेश

आज हमारे समाज में लड़कियाँ शिक्षा पाने एवं कार्यक्षेत्र में क्षमता दर्शाने में लड़कों से बिलकुल भी पीछे नहीं हैं किंतु यहाँ तक पहुँचने के लिए अनेक स्त्री-पुरुषों ने लंबा संघर्ष किया। नवजागरण काल के चिंतकों ने मात्र स्त्री-शिक्षा ही नहीं बल्कि समाज में जनतांत्रिक एवं वैज्ञानिक चेतना के संपूर्ण विकास के लिए अलख जगाया। द्विवेदी जी का यह लेख उन सभी पुरातनपंथी विचारों से लोहा लेता है जो स्त्री-शिक्षा को व्यर्थ अथवा समाज के विघटन का कारण मानते थे। इस लेख की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें परंपरा को ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारा गया है, बल्कि विवेक से फैसला लेकर ग्रहण करने योग्य को लेने की बात की गई है और परंपरा का जो हिस्सा सड़-गल चुका है, उसे रूढ़ि मानकर छोड़ देने की। यह विवेकपूर्ण दृष्टि संपूर्ण नवजागरण काल की विशेषता है। आज इस निबंध का अनेक दृष्टियों से ऐतिहासिक महत्त्व है।

यह लेख पहली बार सितंबर 1914 की सरस्वती में पढ़े लिखों का पांडित्य शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। बाद में द्विवेदी जी ने इसे महिला मोद पुस्तक में शामिल करते समय इसका शीर्षक स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन रख दिया था। इस निबंध की भाषा और वर्तनी को हमने संशोधित करने का प्रयास नहीं किया है।

शब्दार्थ

  • विद्यमान -उपस्थित
  • कुमार्गगामी-बुरी राह पर चलने वाले
  • दलीलें-तर्क
  • उपेक्षा-तिरस्कार
  • न्यायशीलता-न्याय के अनुसार आचरण करना
  • अल्पज्ञ-थोड़ा जानने वाला

नौबतखाने में इबादत

पाठ-16

नौबतखाने में इबादत

नौबतखाने में इबादत पाठ का सार

प्रस्तुत लेख यतींद्र मिश्र द्वारा रचित व्यक्तिचित्रलेखा हैं।नौबतखाने में इबादतमें लेखक ने प्रसिद्ध वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के व्यक्तिगत परिचय देने के लिए। साथ ही उनकी रुचियां, उनके अंतर्मन की बनावट, संगीत साधना एवं लग्न का मार्मिक एवं सजीव चित्रण किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि संगीत एक साधना है। इसका अपना विधि-विधान और शास्त्र है। इस शास्त्र परिचय के साथ ही अभ्यास भी आवश्यक है। यहां बिस्मिल्लाह खां की लग्न एवं धैर्य के माध्यम से बताया गया है कि संगीत के अभ्यास के लिए पूर्ण तन्यमता, धैर्य एवं मंथन के अलावा गुरु शिष्य परंपरा का निर्वाह भी जरूरी है। यहां दो संप्रदायों के एक होने की भी प्रेरणा दी गई है।

अमिताद्दीन उर्फ ​​बिस्मिल्लाह खां का जन्म इम्धाओं बिहार के पाटीवार में एक संगीत प्रेमी के यहाँ हुआ था। उनके बड़े भाई सियाम्सुद्दीन तीन साल बड़े हैं। उनके दादा उस्ताज सालालार हुलैन खां डुमरांव के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम पी गम्बर बख्श खाँ और माता का नाम मिदतान था। पांच या छह साल बाद उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और दादा काशी में स्थानांतरित हो गए। वह अपने पीछे अपने चाचा सादिक हुसैन और अलीबख्श और अपने परपोते को छोड़ गया। उन्होंने बाला नाई मंदिर में वीणा बजाकर अपनी दिनचर्या की शुरुआत की। वह विभिन्न राज्य अदालतों में खेले।

ननिहाल में।4 साल की उम्र से ही बिस्मिल्लाह खाँ ने बाला जी के मंदिर में टियाज़ कटना क्ुक कर दिया। उन्होंने वहां जाने काए ऐसा रास्ता चुना जहाँ उन्हें रयूलन और बतूलन बाई की गीत सुनाई देती जिससे उन्हें खुशी मिलती। अपने साक्षात्कारों में भी इन्होनें स्वीकार किया की बचपन में इनलोगों ने इनका संगीत के प्रति प्रेम पैदा कटने में भूमिका निभायी। भले ही वैदिक इतिहास में शहनाई का जिक्र ना मिलता हो परन्तु मंगल कार्यों में इसका उपयोग प्रतिष्ठित करता है अर्थात यह मंगल ध्वनि का सम्पूरक है। बिक्मिल्लाह खाँ ने अस्सी वर्ष के हो जाने के वाबजूद हमेशा पाँचो वक्त वाली नमाज में शहनाईई के सच्चे सुर को पाने की प्रार्थना में बिताया। मुहर के दस्लों दिन बिस्मिल्लाह खाँ अपने पूरे खानदान के म्राथ ना तो शहनाई बनाते थे और ना ही किसी कार्यक्रम में भाग लेते। आठवीं तारीख को वे शहनाई बजाते और दालमंडी से फातमान की आठ किलोमीटरट की दुरी तक भींगी आँखों से नोहा बनाकर निकलते हुए सबकी आँखों को भिंगो देते।

अपने खाली समय में उस्ताद अब्बाजन को उनके पसंदीदा कलाकार सुलोचना गिताबली पर उनके काम के लिए याद किया जाता है।देखी फिल्मों को याद करते थे। वे अपनी बचपन की घटनाओं को याद करते की कैसे वे छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुएसुनाता तथा बाद में उनकी 'मीठी शह॒नाई' को ढूंढने के लिए एक-एक कर शहनाई को फेंक्ते और कभी मामा की शहनाईपर पत्थर पटककर दाद देते। बचपन के समय वे फिल्मों के बड़े शौकीन थे, उस समय थर्ड क्लास का टिकट छः पैसे कामिलता था जिसे पूरा करने के लिए वो दो पैसे मामा से, दो पैसे मौसी से और दो पैसे नाना से लेते थे फिर बाद में घंटों लाइनमैं लगकठ ठिकठ खरीदते थे। बाद में ते अपनी पसंदीदा अभिनेत्री झुलोचना की फिल्मों को देखने के लिए ते बालाजी मंदिर पद शहनाई बजाकर कमाई करते। वे सुलोचना की कोई फिल्म ना छोड़ते तथा कुलसूुम की देसी घी वाली दूकान पर कचौड़ी खाना ना भूलते।

काशी के संगीत आयोजन में वे अवश्य भाग लेते। हनुमान जयंती के अवसर पर सनत्मोचा मंदिर में यह समारोह कई वर्षों से आयोजित किया जाता है जिसमे शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन-वादन की सभा होती है। बिस्मिल्लाह खाँ जब काशी के बाहर भी रहते तबभी वो विश्वनाथ और बालाजी मंदिर की तरफ मुँह करके बैठते और अपनी शहनाई भी उस तरफ घुमा दिया कटते। गंगा, काशी और शहनाई उनका जीवन थे। काशी का स्थान सदा से ही विशिष्ट रहा है, यह संस्कृति की पाठशाला है।

बिस्मिल्लाह खाँ के शहनाईई के धुनों की दुनिया दीवानी हो जाती थी। सन 2000 के बाद पक्का महाल से मलाई-बर्फ वालों के जाने से, देसी घी तथा कचौड़ी-जलेबी में पहले जैसा स्वाद ना होने के कारण उन्हें इनकी कमी खलती। वे नए गायकों और वादकों में घटती आस्था और टियाज़ों का महत्व के प्रति चिंतित थे। बिस्मिल्लाह खान हमेशा दो समुदायों के बीच एकता और भाईचारे को बढ़ावा देता है। नब्बे वर्ष की उम्र में 2 अगस्त 2006 को उन्हने दुनिया से विदा ली | वे भारतरत्न, अनेकों विश्वविद्यालय की मानद उपाधियाँ संगीत जाठक अकादमी पुरस्कार तथा पड्ढविभ्ूषण जैसे पुटस्कारों से जाने नहीं जाएँगे बल्कि अपने अजेय संगीतयात्रा के नायक के कप में पहचाने जाएँगे।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • अज़ादारी - दुःख मनाना
  • इयोढ़ीदहलीज
  • सजदा - माथा टेकना
  • नौबतखाना - प्रवेश द्वाट के ऊपर मंगल ध्वनि बजाने का स्थान
  • रियाज़- अभ्यास
  • मार्फ़त- द्वारा
  • श्रृंगी - सींग का बना वाद्ययंत्र
  • मुरछंग- एक प्रकार का लोक वाद्ययंत्र
  • नेमत- ईश्वर की देन, सुख, धन, दौलत
  • इबादतउपासना
  • उहापोहउलझन
  • तिलिस्म- जादू
  • बदस्तूर - तरीके से
  • गमक- महक
  • दाद शाबाशी
  • अदबकायदा
  • अलहमदुलिल्लाह - तमाम तारीफ़ ईश्वर के लिए
  • जिजीविषा - जीने की ड्रच्छा
  • शिरकतशामिल
  • टोजनामचादिनचर्या
  • पोलीखाली
  • बंदिशधुन
  • परिवेशमाहौल
  • साहबजादेबेटे
  • मुरादड्च्छा
  • निषेधमनाही
  • ग़मज़दा - दुःख से पूर्ण
  • माहौल- वातावरण
  • बालसुलभ- बच्चों जैसी
  • पुश्तोंपीढियों
  • कलाधर - कला को धारण करने वाला
  • विशालाक्षी - बड़ी आँखों वाली
  • बेताले - बिजा ताल के
  • तहमदलंगी
  • परवरदिगारईश्वर
  • दादरा - एक प्रकार का चलता गाना।

यतींद्र मिश्र का जीवन परिचय

साहित्य और कलाओं के संवर्धन में विशेष सहयोग प्रदान करने वाले श्री यतींद्र मिश्र का जन्म सन् 1977 में उत्तर प्रदेश के अयोध्या शहर में हुआ था। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ से एम.. की उपाधि प्राप्त की। वे सन् 1999 से एक सांस्कृतिक न्यास विमला देवी फाउंडेशन का भी संचालन कर रहे हैं जिसमें साहित्य और कलाओं के संवर्धन और अनुपालन पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उनको भारत भूषण अग्रवाल कविता सम्मान, हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान आदि अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। आजकल स्वतंत्र लेखन के साथसाथ सहित नामक अर्धवार्षिक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं।

प्रमुख रचनाएँ  अब तक यतींद्र मिश्र के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- संगीत और ललित कलाओं को समाज के साथ जोड़ा है। उन्होंने समाज के अनेक भावुक प्रसंगों को बड़ी सहजता एवं स्वाभाविक रूप से शब्दों में पिरोया है। उनकी रचनाओं के माध्यम से समाज के विविध रूपों के बहुत ही निकला से दर्शन होते हैं।

भाषा शैली यतींद्र मिश्र की भाषा सरल, सहज, प्रवाहमय , प्रसंगानुकूल है। उनकी रचनाओं में संवेदना एवं भावुकता का अद्भुत संगम दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने अपनी रचनाओं को प्रभावशाली बनाने हेतु लोक प्रचलित शब्दावली के साथ-साथ सूक्तिपरक वाक्यों का भी प्रयोग किया है।

नौबतखाने में इबादत

पाठ  16: नौबतखाने में इबादत

यतींद्रनाथ मिश्र- 1977

लेखक परिचय

यतींद मिश्र का जन्म सन् 1977 में अयोध्या (उत्तर प्रदेश) में हुआ। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से हिंदी में एम.ए. किया। वे आजकल स्वतंत्र लेखन के साथ अर्द्धवार्षिक सहित पत्रिका का संपादन कर रहे हैं। सन् 1999 में साहित्य और कलाओं के संवर्द्धन और अनुशीलन के लिए एक सांस्कृतिक न्यास ‘विमला देवी फाउंडेशन’ का संचालन भी कर रहे हैं।

यतींद्र मिश्र के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं- यदा-कदा, अयोध्या तथा अन्य कविताएँ, ड्योढ़ी पर आलाप। इसके अलावा शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी जीवन और संगीत साधना पर एक पुस्तक गिरिजा लिखी। रीतिकाल के अंतिम प्रतिनिधि कवि द्विजदेव की ग्रंथावली (2000) का सह-संपादन किया। कुँवर नारायण पर केंद्रित दो पुस्तकों के अलावा स्पिक मैके के लिए विरासत-2001 के कार्यक्रम के लिए रूपंकर कलाओं पर केंद्रित थाती का संपादन भी किया। युवा रचनाकार यतींद्र मिश्र को भारत भूषण अग्रवाल कविता सम्मान, हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान आदि कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। कविता, संगीत व अन्य ललित कलाओं के साथ-साथ समाज और संस्कृति के विविध क्षेत्रों में भी उनकी गहरी रुचि है।

पाठ प्रवेश

 नौबतखाने में इबादत प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पर रोचक शैली में लिखा गया व्यक्ति-चित्र है। यतींद्र मिश्र ने बिस्मिल्ला खाँ का परिचय तो दिया ही है, साथ ही उनकी रुचियों, उनके अंतर्मन की बुनावट, संगीत की साधना और लगन को संवेदनशील भाषा में व्यक्त किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया गया है कि संगीत एक आराधना है। इसका विधि-विधान है। इसका शास्त्र है, इस शास्त्र से परिचय आवश्यक है, सिर्फ़ परिचय ही नहीं उसका अभ्यास ज़रूरी है और अभ्यास के लिए गुरु-शिष्य परंपरा ज़रूरी है, पूर्ण तन्मयता ज़रूरी है, धैर्य जरूरी है, मंथन जरूरी है। वह लगन और धैर्य बिस्मिल्ला खाँ में है। तभी 80 वर्ष की उम्र में भी उनकी साधना चलती रही है। यतींद्र मिश्र संगीत की शास्त्रीय परंपरा के गहरे जानकार हैं, इस पाठ में इसकी कई अनुगूंजें हैं जो पाठ को बार-बार पढ़ने के लिए आमंत्रित करती हैं। भाषा सहज, प्रवाहमयी तथा प्रसंगों और संदर्भों से भरी हुई है।

शब्दार्थ

  • ड्योढ़ी-दहलीज
  • नौबतखाना- प्रवेश द्वार के ऊपर मंगल-ध्वनि बजाने का स्थान
  • रियाज- अभ्यास
  • मार्फत-द्वारा
  • मुरछंग- एक प्रकार का लोक वाद्ययंत्र
  • नेमत-ईश्वर की देन
  • दाद -शाबाशी
  • गमक-सुगंध
  • अदब-कायदा
  • तालीम -शिक्षा
  • शिरकत-शामिल होना

संस्कृति

पाठ-17

संस्कृति

संस्कृति पाठ का सार

लेखक का कहना है कि सभ्यता और संस्कृति दो ऐसे शब्द हैं जिनका प्रयोग अधिक होता है लेकिन समझ में कम आता है। विशेषण जोड़ने से उन्हें समझना मुश्किल हो जाता है। कभी दोनों को एक ही माना जाता है तो कभी अलग। आखिरकार वे वही हैं या अलग हैं। आग की सुई और धागे के आविष्कार को लेखक ने समझाने की कोशिश की है। वह उनके आविष्कर्ता की बात कहकर व्यक्ति विशेष की योग्यता, प्रवृत्ति और प्रेरणा को व्यक्ति विशेष की संस्कृति कहता है जिसके बल पर आविष्कार किया गया।

लेखक संस्कृति और सभ्यता के बीच अंतर स्थापित करने के लिए आग और सुई के धागे की खोज से जुड़े शुरुआती प्रयासों और बाद की प्रगति के उदाहरण देते हैं। संस्कृति एक पीसी में लोहे के टुकड़े से एक छेद बनाने और दो अलग-अलग टुकड़ों को एक तार से जोड़ने के विचार को बुलाती है। इन खोजों के आधार पर इस क्षेत्र में आगे के विकास को संस्कृति कहा जाता है। एक व्यक्ति जो एक नए और परिभाषित सत्य की तलाश करता है जो उसके कारण के आधार पर अगली पीढ़ी को दिया जाता है और वह है जो इस सत्य के आधार पर संस्कृति विकसित करता है। भौतिकी का अध्ययन करने वाला कोई भी छात्र जानता है कि गुरुत्वाकर्षण के नियम की खोज न्यूटन ने की थी। इसलिए उनका नाम संस्कृत होने के बावजूद वे और भी बहुत कुछ नहीं सीख सके। आज के छात्र भी इसे जानते हैं लेकिन आप इसे अधिक सभ्य कह सकते हैं लेकिन संस्कृत नहीं।

लेखक के अनुसार भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए सुई के धागे और आग का आविष्कार संस्कृत के अस्तित्व या रूपांतरण का आधार नहीं था बल्कि मानव उत्पत्ति या गठन के कारण एक हमेशा मौजूद सहज भावना बन गई। इस अंतर्दृष्टि का प्रेरक अंश भी हमें ऋषि से प्राप्त हुआ। एक बीमार बच्चे को मुंह में लिए रात भर गोद में लेटी रही एक मां इस सनसनी से स्तब्ध रह गई। 2500 साल पहले बुद्ध की तपस्या ने मानव इच्छाओं को संतुष्ट करने के तरीके की तलाश में घर छोड़ दिया और कार्ल मार्क्स ने एक सुखी कामकाजी जीवन का सपना देखते हुए एक दयनीय जीवन व्यतीत किया। लेनिन्का ने उसे दो रोटियाँ दीं। दूसरों के लिए कठिन पोषण इन भावनाओं से संस्कृत में संक्रमण का एक उदाहरण है। लेखकों का कहना है कि परिवहन से लेकर इंटरब्रीडिंग पैटर्न तक की संस्कृतियों के परिणामस्वरूप खाने और पीने सभ्यता के उदाहरण हैं।

लोगों के लाभ के लिए काम नहीं करने वाली संस्कृति का नाम स्पष्ट नहीं है। इसे संस्कृति नहीं कहा जा सकता। अर्थात अज्ञान उत्पन्न होता है। संस्कृति मानव मामलों में परिवर्तन की निरंतरता का नाम है। यह पहचान और अंतर की उपलब्धि है। सबसे लाभदायक हिस्सा हमेशा उच्च और अप्रत्याशित हिस्सा होता है।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • आध्यात्मिक - परमात्मा या आत्मा से सम्बन्ध रखने वाला
  • साक्षात- आँखों के सामने
  • अनायास - आसानी से
  • तृष्णा- लोभ
  • परिष्कृत - सजाया हुआ
  • कदाचित- कभी
  • जिठल्ला- बेकार
  • मिनिषियोंविद्वानों
  • शीतोष्ण - ठंडा और गरम
  • वशीभूत- वश में होना
  • अवश्यंभावी - अवश्य होने वाला
  • पेट की ज्वालाभूख
  • स्थूल- मोटा
  • तथ्य- सत्य
  • पुरस्कर्ता- पुरस्कार देने वाला
  • जानेप्सा- जान प्राप्तकरने की लालसा
  • सर्वस्व - स्वयं को सब कुछ
  • गमना गमन - आना-जाना
  • प्रजाबुद्धि
  • दलबंदी - दल की बंदी
  • अविभाज्य - जो बाँठा ना जा सके

भदंत आनंद कौसल्यायन का जीवन परिचय

 

इनका जन्म सन 1905 में पंजाब के अम्बाला जिले के सोहाना गाँव में हुआ। इनके बचपन का नाम हटनाम दास था| इन्होने लाहौर के नेशनल कॉलिज से बी.. किया। ये बौद्ध भिक्षु थे और इन्होने देश-विदेश की काफी यात्राएँ की तथा बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। वे गांधीजी के साथ लम्बे अरसे तक वर्धा में रहे। सन 988 में ड़नका निधन हो गया।

प्रमुख कार्य- पुस्तक - भिक्षु के पत्र, जो भूल ना सका, आह! ऐसी दरिद्रता, बहानेबाजी, यदि बाबा ना होते, टेल का टिकठ, कहाँ क्या देखा।

संस्कृति

पाठ  18: संस्कृति

भदंत आनंद कौसल्यायन

लेखक परिचय

भदंत आनंद कौसल्यायन का जन्म सन् 1905 में पंजाब के अंबाला जिले के सोहाना गाँव में हुआ। उनके बचपन का नाम हरनाम दास था। उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलिज से बी.ए. किया। अनन्य हिंदी सेवी कौसल्यायन जी बौद्ध भिक्षु थे और उन्होंने देश-विदेश की काफ़ी यात्राएँ की तथा बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। वे गांधी जी के साथ लंबे अर्से तक वर्धा में रहे। सन् 1988 में उनका निधन हो गया।

भदंत आनंद कौसल्यायन की 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। जिनमें भिक्षु के पत्र, जो भूल ना सका, आह ! ऐसी दरिद्रता, बहानेबाजी, यदि बाबा ना होते, रेल का टिकट, कहाँ क्या देखा आदि प्रमुख हैं। बौद्धधर्म-दर्शन संबंधित उनके मौलिक और अनूदित अनेक ग्रंथ हैं जिनमें जातक कथाओं का अनुवाद विशेष उल्लेखनीय है।

पाठ-प्रवेश

संस्कृति निबंध हमें सभ्यता और संस्कृति से जुड़े अनेक जटिल प्रश्नों से टकराने की प्रेरणा देता है। इस निबंध में भदंत आनंद कौसल्यायन जी ने अनेक उदाहरण देकर यह बताने का प्रयास किया है कि सभ्यता और संस्कृति किसे कहते हैं, दोनों एक ही वस्तु हैं अथवा अलग-अलग। वे सभ्यता को संस्कृति का परिणाम मानते हुए कहते हैं कि मानव संस्कृति अविभाज्य वस्तु है। उन्हें संस्कृति का बँटवारा करने वाले लोगों पर आश्चर्य होता है और दुख भी। उनकी दृष्टि में जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी नहीं है, वह न सभ्यता है और न संस्कृति।

शब्दार्थ

  • आध्यात्मिक -परमात्मा या आत्मा से संबंध रखने वाला
  • साक्षात -आंखों के सामने,प्रत्यक्ष
  • आविष्कर्ता-आविष्कार करने वाला
  • परिष्कृत -किसका परिष्कार किया गया हो
  • शीतोष्ण -ठंडा और गर्म
  • वशीभूत -वश में होना
  • तृष्णा -प्यास,लोभ
  • अवश्यंभावी -जिसका होना निश्चित हो
  • अविभाज्य-जो बांटा ना जा सके

सूरदास के पद

पाठ-1

पद

सूरदास के पद का भावार्थ

(1)
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ बोरयौ, दृष्टि रूप परागी।
सूरदासअबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।

सूरदास के पद का भावार्थ :-  इन छंदों में गोपियाँ ऊधव से अपनी व्यथा कह रही हैं। वे ऊधव पर कटाक्ष कर रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ऊधव तो कृष्ण के निकट रहते हुए भी उनके प्रेम में नहीं बँधे हैं। गोपियाँ कहती हैं कि ऊधव बड़े ही भाग्यशाली हैं क्योंकि उन्हें कृष्ण से जरा भी मोह नहीं है। ऊधव के मन में किसी भी प्रकार का बंधन या अनुराग नहीं है बल्कि वे तो कृष्ण के प्रेम रस से जैसे अछूते हैं। वे उस कमल के पत्ते की तरह हैं जो जल के भीतर रहकर भी गीला नहीं होता है। जैसे तेल से चुपड़े हुए गागर पर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहरती है, ऊधव पर कृष्ण के प्रेम का कोई असर नहीं हुआ है। ऊधव तो प्रेम की नदी के पास होकर भी उसमें डुबकी नहीं लगाते हैं और उनका मन पराग को देखकर भी मोहित नहीं होता है। गोपियाँ कहती हैं कि वे तो अबला और भोली हैं। वे तो कृष्ण के प्रेम में इस तरह से लिपट गईं हैं जैसे गुड़ में चींटियाँ लिपट जाती हैं।

(2)
मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
सूरदासअब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा लही।

सूरदास के पद का भावार्थ :- इस छंद में गोपियाँ अपने मन की व्यथा का वर्णन ऊधव से कर रहीं हैं। वे कहती हैं कि वे अपने मन का दर्द व्यक्त करना चाहती हैं लेकिन किसी के सामने कह नहीं पातीं, बल्कि उसे मन में ही दबाने की कोशिश करती हैं। पहले तो कृष्ण के आने के इंतजार में उन्होंने अपना दर्द सहा था लेकिन अब कृष्ण के स्थान पर जब ऊधव आए हैं तो वे तो अपने मन की व्यथा में किसी योगिनी की तरह जल रहीं हैं। वे तो जहाँ और जब चाहती हैं, कृष्ण के वियोग में उनकी आँखों से प्रबल अश्रुधारा बहने लगती है। गोपियाँ कहती हैं कि जब कृष्ण ने प्रेम की मर्यादा का पालन ही नहीं किया तो फिर गोपियों क्यों धीरज धरें।

(3)
हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौ लै आए, देखी सुनी करी।
यह तौसूरतिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।

सूरदास के पद का भावार्थ :- गोपियाँ कहती हैं कि उनके लिए कृष्ण तो हारिल चिड़िया की लकड़ी के समान हो गये हैं। जैसे हारिल चिड़िया किसी लकड़ी को सदैव पकड़े ही रहता है उसी तरह उन्होंने नंद के नंदन को अपने हृदय से लगाकर पकड़ा हुआ है। वे जागते और सोते हुए, सपने में भी दिन-रात केवल कान्हा कान्हा करती रहती हैं। जब भी वे कोई अन्य बात सुनती हैं तो वह बात उन्हें किसी कड़वी ककड़ी की तरह लगती है। कृष्ण तो उनकी सुध लेने कभी नहीं आए बल्कि उन्हें प्रेम का रोग लगा के चले गये। वे कहती हैं कि उद्धव अपने उपदेश उन्हें दें जिनका मन कभी स्थिर नहीं रहता है। गोपियों का मन तो कृष्ण के प्रेम में हमेशा से अचल है।

(4)
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै सूर, जो प्रजा जाहिं सताए।

सूरदास के पद का भावार्थ :-  गोपियाँ कहती हैं कि कृष्ण तो किसी राजनीतिज्ञ की तरह हो गये हैं। स्वयं आकर ऊधव को भेज दिया है ताकि वहाँ बैठे-बैठे ही गोपियों का सारा हाल जान जाएँ। एक तो वे पहले से ही चतुर थे और अब तो लगता है कि गुरु ग्रंथ पढ़ लिया है। कृष्ण ने बहुत अधिक बुद्धि लगाकर गोपियों के लिए प्रेम का संदेश भेजा है। इससे गोपियों का मन और भी फिर गया है और वह डोलने लगा है। गोपियों को लगता है कि अब उन्हें कृष्ण से अपना मन फेर लेना चाहिए, क्योंकि कृष्ण अब उनसे मिलना ही नहीं चाहते हैं। गोपियाँ कहती हैं, कि कृष्ण उनपर अन्याय कर रहे हैं। जबकि कृष्ण को तो राजधर्म पता होना चाहिए जो ये कहता है कि प्रजा को कभी भी सताना नहीं चाहिए।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • बड़भागीभाग्यवान
  • अपरसअछूता
  • तगा- धागा
  • पुर॒हन पात - कमल का पत्ता
  • माहँ- में
  • पाऊँ पैर
  • बोरयौ डुबोया
  • परागी - मुग्ध होना
  • अधार- आधार
  • आवन- आगमन
  • बिरहिनि - वियोग में जीने वाली।
  • हुतीं- थीं
  • जीतहिं तैं - जहाँ से
  • उत- उधर
  • मरजादा मयदा
  • लहीं- नहीं रही
  • जक टी - रटती रहती हैं
  • सु- वह
  • ब्याधि- टोग
  • करी भोगा
  • तिनहिं- उनको
  • मन चकरी - जिनका मन स्थिर नही रहता।
  • मधुकर भौंरा
  • हुते- थे
  • पठाएभैजा
  • आगे के - पहले के
  • पर हित - दूसरों के कल्याण के लिए
  • डोलत धाए - घूमते-फिरते थे
  • पाहहैं - पा लेंगी।

सूरदास का जीवन परिचय     

सूरदास हिंदी साहित्य में भक्ति-काल की सगुण भक्ति-शाखा के महान कवि हैं। महाकवि सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता नामक गाँव में हुआ। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद हैं। वे आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। श्री वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1583 ईस्वी में हुई।

उन्होंने अपने जीवन काल में कई ग्रन्थ लिखे, जिनमें सूरसागर, साहित्य लहरी, सूर सारावली आदि शामिल हैं। उनका लिखा सूरसागर ग्रन्थ सबसे ज़्यादा लोकप्रिय माना जाता है। सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से दर्शाया है। उनके अनुसार अटल भक्ति ही मोक्ष-प्राप्ति का एक मात्र साधन है और उन्होंने भक्ति को ज्ञान से भी बढ़ कर माना है। उन्होंने अपने काव्यों में भक्ति-भावना, प्रेम, वियोग, श्रृंगार इत्यादि को बड़ी ही सजगता से चित्रित किया है।

सूरदास के पद

पाठ 1: सूरदास के पद

सूरदास

कवि परिचय

इनका जन्म सन 1478 में माना जाता है। एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र में हुआ था जबकि दूसरी मान्यता के अनुसार इनका जन्म स्थान दिल्ली के पास ही माना जाता है। महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य सूरदास अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। सुर‘वात्सल्य’और ‘श्रृंगार’ के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। इनकी मृत्यु 1583 में पारसौली में हुई।

प्रमुख कार्य

ग्रन्थ – सूरसागर, साहित्य लहरी और सूर सारावली।

शब्दार्थ

  • बड़भागी-भाग्यवान
  • अपरस-अछूता
  • तगा-धागा
  • पुरइन पात- कमल का पत्ता
  • माहँ-में
  • पाऊँ-पैर
  • बोरयौ-डुबोया
  • परागी-मुग्ध होना
  • अधार-आधार
  • आवन–आगमन
  • बिरहिनि-वियोग में जीने वाली।
  • हुतीं-थीं
  • जीतहिं तैं -जहाँ से
  • उत–उधर
  • मरजादा-मर्यादा
  • न लही-नहीं रही
  • जक री-रटती रहती हैं
  • सु-वह
  • ब्याधि –रोग
  • करी–भोगा
  • तिनहिं–उनको
  • मन चकरी-जिनका मन स्थिर नहीं रहता।
  • मधुकर-भौंरा
  • हुते-थे
  • पठाए–भेजा
  • आगे के-पहले के
  • पर हित-दूसरों के कल्याण के लिए
  • डोलत धाए-घूमते-फिरते थे
  • पाइहैं–पा लेंगी

पद-1

उधौ,तुम हौ अति बड़भागी।

अपरस रहत सनेह तगा तैं,नाहिन मन अनुरागी |

पुरइनि पात रहत जल भीतर,ता रस देह न दागी।

ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि,बूँद न ताकौं लागी ।

प्रीति-नदी में पाँव न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।

‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।

भावार्थ

गोपियां उद्धव के द्वारा उप गए संदेश को सुनकर व्यंग्य करती है और कहती  हैं, हे उद्धव ! तुम बड़े भाग्यशाली हो, जो तुम श्री कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम से वंचित हो। तुम उस कमल के पत्ते के समान हो, जो जल में रहकर भी जल के एक बूंद से अछूता होता है। तुम उस तेल के गागर के समान हो, जिस पर पानी का एक बूंद भी नहीं चिपकता। तुम प्रेम के अथाह सागर के पास रहकर भी उसमें डुबकी नहीं लगा सके। हम गोपियां बहुत ही मूर्ख हैं, जो उनके प्रेम में इस प्रकार चिपक गईं, जैसे गुड में चीटियां चिपक जाती हैं।

पद-2

मन की मन ही माँझ रही।

कहिए जाइ कौन पै ऊधौ,नाहीं परत कही।

अवधि अधार आस आवन की,तन मन बिथा सही।

अब इन जोग सँदेसनि सुनि सुनि,बिरहिनि बिरह दही |

चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।

‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।

भावार्थ

गोपियां उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव अब हमारे मन की बात मन में ही रह गए हमें श्री कृष्ण से ही अपने मन की बात कहनी थी, परंतु वह तुम्हारे हाथों संदेश भिजवा कर हमें और भी दुखी कर दिए। उनसे मिलने की इंतजार में हम हर तरह की विरह वेदना को सह रहे थे परंतु उन्होंने हमारे दुख को और भी बढ़ा दिया।

हे उद्धव, अब हम धीरज क्यों धरे? कैसे धरे? हमारी आशा का एकमात्र तिनका भी डूब गया। प्रेम की मर्यादा है कि प्रेम के बदले प्रेम दिया जाए, परंतु कृष्ण ने हमारे साथ छल किया है। उन्होंने मर्यादा का का उल्लंघन किया है।

पद- 3

हमारैं हरि हारिल की लकरी।

मन क्रम बचन नंद नंदन उर,यह दृढ़ करि पकरी ।

जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि,कान्ह-कान्ह जकरी।।

सुनत जोग लागत है ऐसौ,ज्यौं करुई ककरी।

सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए,देखी सुनी न करी ।

यह तौ‘सूर’तिनहिं लै सौपौं,जिनके मन चकरी ।l

भावार्थ

गोपियां कहती हैं कि कृष्ण हमारे लिए हारिल की लकड़ी के समान है,जिस प्रकार से हारिल चिड़िया एक लकड़ी को अपने जीवन का आधार मानती है, उसी प्रकार कृष्ण हमारे जीवन का आधार है।हमने तो सिर्फ नंद बाबा के पुत्र श्री कृष्ण को ही अपना माना है। उद्धव के द्वारा दिए गए योग का संदेश गोपियों को कड़वी ककड़ी के समान लगता है। गोपियां कहती है कि हे उद्धव,आप ये योग का संदेश उन्हें जा कर दें, जिनका मन चंचल है। हमने तो अपने मन में श्रीकृष्ण को सदा के लिए बसा लिया है।

पद-4

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।

समुझी बात कहत मधुकर के,समाचार सब पाए।

इक अति चतुर हुते पहिलैं हीं,अब गुरु ग्रंथ पढाए।

बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी,जोग-सँदेस पठाए।

ऊधौ भले लोग आगे के,पर हित डोलत धाए।

अब अपने मन फेर पाइहैं,चलत जु हुते चुराए।

ते क्यौं अनीति करैं आपुन,जे और अनीति छुड़ाए।

राज धरम तौ यहै‘ सूर’,जो प्रजा न जाहिं सताए ।।

भावार्थ

गोपियां कहते हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है। वे पहले से ही बहुत चलाक थे ।अब वह बड़े- बड़े ग्रंथ पढ़कर और भी ज्ञानी हो गए हैं, तभी तो उन्होंने हमारे मन की बात जान कर भी उद्धव से योग का संदेश भिजवाया है। इसमें उद्धव कोई दोष नहीं है।गोपियां उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव! आप जाकर श्री कृष्ण से यह कहें कि मथुरा जाते वक्त वे हमारा मन भी अपने साथ ले गए थे, उसे वापस कर दें। वे अत्याचारियों को दंडित करने के लिए मथुरा गए हैं, परंतु वे खुद अत्याचार कर रहे हैं। यह राज धर्म नहीं है।

राम-लक्ष्मण परशुराम संवाद

पाठ-2

राम-लक्ष्मण परशुराम संवाद

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ

ये चौपाइयाँ और दोहे रामचरितमानस के बालकांड से ली गईं हैं। यह प्रसंग सीता स्वयंवर में राम द्वारा शिव के धनुष के तोड़े जाने के ठीक बाद का है। शिव के धनुष के टूटने से इतना जबरदस्त धमाका हुआ कि उसे दूर कहीं बैठे परशुराम ने सुना। परशुराम भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे इसलिए उन्हें बहुत गुस्सा आया और वे तुरंत ही राजा जनक के दरबार में जा पहुँचे। क्रोधित परशुराम उस धनुष तोड़ने वाले अपराधी को दंड देने की मंशा से आये थे। यह प्रसंग वहाँ पर परशुराम और लक्ष्मण के बीच हुए संवाद के बारे में है।

(1)

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- परशुराम को क्रोधित देखकर लक्ष्मण कहते हैं कि हे नाथ जिसने शिव का धनुष तोड़ा होगा वह आपका ही कोई सेवक होगा। इसलिए आप किसलिए आये हैं यह मुझे बताइए। इस पर क्रोधित होकर परशुराम कहते हैं कि सेवक तो वो होता है जो सेवा करे, इस धनुष तोड़ने वाले ने तो मेरे दुश्मन जैसा काम किया है और मुझे युद्ध करने के लिए ललकारा है।

(2)

सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥
बहु धनुही तोरी लरिकाईं। कबहुँ असि रिस किन्हि गोसाईँ॥
येही धनु पर ममता केहि हेतू। सुनी रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥

रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि सँभार्।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- वे फिर कहते हैं कि हे राम जिसने भी इस शिवधनुष को तोड़ा है वह वैसे ही मेरा दुश्मन है जैसे कि सहस्रबाहु हुआ करता था। अच्छा होगा कि वह व्यक्ति इस सभा में से अलग होकर खड़ा हो जाए नहीं तो यहाँ बैठे सारे राजा मेरे हाथों मारे जाएँगे। यह सुनकर लक्ष्मण मुसकराने लगे और परशुराम का मजाक उड़ाते हुए बोले कि मैंने तो बचपन में खेल खेल में ऐसे बहुत से धनुष तोड़े थे लेकिन तब तो किसी भी ऋषि मुनि को इसपर गुस्सा नहीं आया था। इसपर परशुराम जवाब देते हैं कि अरे राजकुमार तुम अपना मुँह संभाल कर क्यों नहीं बोलते, लगता है तुम्हारे ऊपर काल सवार है। वह धनुष कोई मामूली धनुष नहीं था बल्कि वह शिव का धनुष था जिसके बारे में सारा संसार जानता था।

(3)

लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- लक्ष्मण ने कहा कि आप मुझसे मजाक कर रहे हैं, मुझे तो सभी धनुष एक समान लगते हैं। एक दो धनुष के टूटने से कौन सा नफा नुकसान हो जायेगा। उनको ऐसा कहते देख राम उन्हें तिरछी आँखों से निहार रहे हैं। लक्ष्मण ने आगे कहा कि यह धनुष तो श्रीराम के छूने भर से टूट गया था। आप बिना मतलब ही गुस्सा हो रहे हैं।

(4)

बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ मोरा॥
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्म्चारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- इसपर परशुराम अपने फरसे की ओर देखते हुए कहते हैं कि शायद तुम मेरे स्वभाव के बारे में नहीं जानते हो। मैं अबतक बालक समझ कर तुम्हारा वध नहीं कर रहा हूँ। तुम मुझे किसी आम ऋषि की तरह निर्बल समझने की भूल कर रहे हो। मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और सारा संसार मुझे क्षत्रिय कुल के विनाशक के रूप में जानता है। मैंने अपने भुजबल से इस पृथ्वी को कई बार क्षत्रियों से विहीन कर दिया था और मुझे भगवान शिव का वरदान प्राप्त है। मैंने सहस्रबाहु को बुरी तरह से मारा था। मेरे फरसे को गौर से देख लो। तुम तो अपने व्यवहार से उस गति को पहुँच जाओगे जिससे तुम्हारे माता पिता को असहनीय पीड़ा होगी। मेरे फरसे की गर्जना सुनकर ही गर्भवती स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है।

(5)

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- इसपर लक्ष्मण हँसकर और थोड़े प्यार से कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि आप एक महान योद्धा हैं। लेकिन मुझे बार बार आप ऐसे कुल्हाड़ी दिखा रहे हैं जैसे कि आप किसी पहाड़ को फूँक मारकर उड़ा देना चाहते हैं। मैं कोई कुम्हड़े की बतिया नहीं हूँ जो तर्जनी अंगुली दिखाने से ही कुम्हला जाती है।

(6)

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर सुराई॥
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ :- मैंने तो कोई भी बात ऐसी नहीं कही जिसमें अभिमान दिखता हो। फिर भी आप बिना बात के ही कुल्हाड़ी की तरह अपनी जुबान चला रहे हैं। आपके जनेऊ को देखकर लगता है कि आप एक ब्राह्मण हैं इसलिए मैंने अपने गुस्से पर काबू किया हुआ है। हमारे कुल की परंपरा है कि हम देवता, पृथ्वी, हरिजन और गाय पर वार नहीं करते हैं। इनके वध करके हम व्यर्थ ही पाप के भागी नहीं बनना चाहते हैं। आपके वचन ही इतने कड़वे हैं कि आपने व्यर्थ ही धनुष बान और कुल्हाड़ी को उठाया हुआ है। इसपर विश्वामित्र कहते हैं कि हे मुनिवर यदि इस बालक ने कुछ अनाप शनाप बोल दिया है तो कृपया कर के इसे क्षमा कर दीजिए।

(7)

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥
भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुसु अबुधु असंकू॥
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौ चाहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ:- ऐसा सुनकर परशुराम ने विश्वामित्र से कहा कि यह बालक मंदबुद्धि लगता है और काल के वश में होकर अपने ही कुल का नाश करने वाला है। इसकी स्थिति उसी तरह से है जैसे सूर्यवंशी होने पर भी चंद्रमा में कलंक है। यह निपट बालक निरंकुश है, अबोध है और इसे भविष्य का भान तक नहीं है। यह तो क्षण भर में काल के गाल में समा जायेगा, फिर आप मुझे दोष मत दीजिएगा।

(8)

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
नहि संतोषु पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत पावहु सोभा॥

सूर समर करनी करहिं कहि जनावहिं आपु।
विधमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ:- इसपर लक्ष्मण ने कहा कि हे मुनि आप तो अपने यश का गान करते अघा नहीं रहे हैं। आप तो अपनी बड़ाई करने में माहिर हैं। यदि फिर भी संतोष नहीं हुआ हो तो फिर से कुछ कहिए। मैं अपनी झल्लाहट को पूरी तरह नियंत्रित करने की कोशिश करूँगा। वीरों को अधैर्य शोभा नहीं देता और उनके मुँह से अपशब्द अच्छे नहीं लगते। जो वीर होते हैं वे व्यर्थ में अपनी बड़ाई नहीं करते बल्कि अपनी करनी से अपनी वीरता को सिद्ध करते हैं। वे तो कायर होते हैं जो युद्ध में शत्रु के सामने जाने पर अपना झूठा गुणगान करते हैं।

(9)

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥
अब जनि दै दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनिहार भा साँचा॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ:- लक्ष्मण के कटु वचन को सुनकर परशुराम को इतना गुस्सा गया कि उन्होंने अपना फरसा हाथ में ले लिया और उसे लहराते हुए बोले कि तुम तो बार बार मुझे गुस्सा दिलाकर मृत्यु को निमंत्रण दे रहे हो। यह कड़वे वचन बोलने वाला बालक वध के ही योग्य है इसलिए अब मुझे कोई दोष नहीं देना। अब तक तो बालक समझकर मैं छोड़ रहा था लेकिन लगता है कि अब इसकी मृत्यु निकट ही है।

(10)

कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही॥
उतर देत छोड़ौं बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे॥
येहि काटि कुठार कठोरे। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे॥

गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ ऊखमय अजहुँ बूझ अबूझ॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ:- परशुराम को क्रोधित होते हुए देखकर विश्वामित्र ने कहा कि हे मुनिवर साधु लोग तो बालक के गुण दोष की गिनती नहीं करते हैं इसलिए इसके अपराध को क्षमा कर दीजिए। परशुराम ने जवाब दिया कि यदि सामने अपराधी हो तो खर और कुल्हाड़ी में जरा सी भी करुणा नहीं होती है। लेकिन हे विश्वामित्र मैं केवल आपके शील के कारण इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ। नहीं तो अभी मैं इसी कुल्हाड़ी से इसका काम तमाम कर देता और मुझे बिना किसी परिश्रम के ही अपने गुरु के कर्ज को चुकाने का मौका मिल जाता। ऐसा सुनकर विश्वामित्र मन ही मन हँसे और सोच रहे थे कि इन मुनि को सबकुछ मजाक लगता है। यह बालक फौलाद का बना हुआ और ये किसी अबोध की तरह इसे गन्ने का बना हुआ समझ रहे हैं।

(11)

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भये नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें॥
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ:- लक्ष्मण ने कहा कि हे मुनि आपके पराक्रम के बारे में कौन नहीं जानता। आपने अपने माता पिता के ऋण को तो माता की हत्या करके चुकाया था और अब आप अपने गुरु के ऋण की बात कर रहे हैं। इतने दिन का ब्याज जो बढ़ा है (गुरु के ऋण का) वो भी आप मेरे ही मत्थे डालना चाहते हैं। बेहतर होगा कि आप कोई व्यावहारिक बात करें तो मैं थैली खोलकर आपके मूलधन और ब्याज दोनों की पूर्ति कर दूँगा।

(12)

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही॥
मिले कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े॥
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे॥

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ:- लक्ष्मण के ऐसे कठोर वचन सुनकर परशुराम कुल्हाड़ी उठाकर लक्ष्मण की तरफ आक्रमण की मुद्रा में दौड़े। उन्हें ऐसा करते देखकर वहाँ बैठे लोग हाय हाय करने लगे। इसपर लक्ष्मण ने कहा कि आप तो बिना वजह ही मुझे फरसा दिखा रहे हैं। मैं आपको ब्राह्मण समझकर छोड़ रहा हूँ। आप तो उनकी तरह हैं जो अपने घर में शेर होते हैं। लगता है कि आजतक आपका पाला किसी सच्चे योद्धा से नहीं हुआ है। ऐसा देखकर राम ने लक्ष्मण को बड़े स्नेह से देखा और उन्हें शाँत होने का इशारा किया। जब राम ने देखा कि लक्ष्मण के व्यंग्य से परशुराम का गुस्सा अत्यधिक बढ़ चुका था तो उन्होंने उस आग को शाँत करने के लिए जल जैसी ठंडी वाणी निकाली।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • भंजनिहारा - भंग करने वाला
  • रिसाड़- क्रोध करना
  • रिपु- शत्रु
  • बिलगाउ- अलग होना
  • अवमाने- अपमान करना
  • लरिकाई- बचपन में
  • परसु- फरसा
  • कोही क्रोधी
  • महिदेव- ब्राह्मण
  • बिलोक- देखकर
  • अर्भक बच्चा
  • महाभट- महान योद्धा
  • मही धरती
  • कुठारू कुल्हाड़ा
  • कुम्हडबतिया - बहुत कमजोर
  • तर्जनी - अंगूठे के पास की अंगुली
  • कुलिस कठोर
  • सरोष - क्रोध सहित
  • कौसिक विश्वामित्र
  • भानुबंस सूर्यवंश
  • निरंकुश - जिस पर किसी का दबाब ना हो।
  • असंकू - शंका सहित
  • घालुक- नाश करने वाला
  • कालकवलु- मृत
  • अबुधु जासमझ
  • हुटकह - मना करने पर
  • अछोभा शांत
  • बधजोगु - मारने योग्य
  • अकरुण- जिसमे करुणा ना हो
  • गाधिसूनु - गाधि के पुत्र यानी विध्वामित्र
  • अयमय - लोहे का बना हुआ
  • नेवारे- मना करना
  • ऊखमय - गन्ने से बना हुआ
  • कृसानु- अग्नि

तुलसीदास का जीवन परिचय

गोस्वामी तुलसीदास के जन्म एवं स्थान के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। परन्तु अधिकांश विद्वान इनका जन्म 1532 में सोरों में मानते हैं। इनके पिता एवं माता का नाम आत्मा राम दुबे एवं हुलसी था। इनका बचपन काफी कष्टपूर्ण था। बचपन में ही ये अपने माता-पिता से बिछड़ गए थे। इनके गुरु नरहरि दास थे। इनका विवाह रत्नावली से हुआ, जिन्होंने इनका जीवन राम-भक्ति की ओर मोड़ने का सफल प्रयास किया।

इनके ग्रन्थ रामचरित मानस में इन्होंने समस्त पारिवारिक संबंधों, राजनीति, धर्म, सामाजिक व्यवस्था का बड़ा ही सुन्दर उल्लेख किया। रामचरित मानस के अतिरिक्त इनके अन्य ग्रन्थ विनय पत्रिका, दोहावली, कवितावली, गीतावली इत्यादि हैं।

तुलसी दास जी की काव्य भाषा अवधी है। अवधी के अतिरिक्त ब्रज भाषा का प्रयोग भी इनके साहित्य में प्रचुरता में मिलता है। ये प्रभु श्री राम के परम उपासक थे। सन 1623 में इन्होंने काशी में देह त्याग किया।

राम-लक्ष्मण परशुराम संवाद

पाठ 2: राम -लक्ष्मण -परशुराम संवाद

तुलसीदास

कवि परिचय

इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में सन 1532 में हुआ था। तुलसी का बचपन संघर्षपूर्ण था। जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही माता पिता से उनका बिछोह हो गया। कहा जाता है की गुरुकृपा से उन्हें रामभक्ति का मार्ग मिला। वे मानव मल्यों के उपासक कवि थे। रामभक्ति परम्परा में तुलसी अतुलनीय हैं।

प्रमुख कार्य रचनाएँ रामचरितमानस, कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्णगीतावली, विनयपत्रिका

शब्दार्थ

  • भंजनिहारा-भंग करने वाला
  • रिसाइ- क्रोध करना
  • रिपु – शत्रु
  • बिलगाउ-अलग होना
  • अवमाने-अपमान करना
  • लरिकाई- बचपन में
  • परसु – फरसा
  • कोही -क्रोधी
  • महिदेव–ब्राह्मण
  • बिलोक-देखकर
  • अर्भक-बच्चा
  • महाभट – महान योद्धा
  • मही- धरती
  • कुठारु-कुल्हाड़ा
  • कुम्हड़बतिया – बहुत कमजोर
  • तर्जनी- अंगूठे के पास की अंगुली
  • कुलिस- कठोर
  • सरोष –क्रोध सहित
  • कौसिक–विश्वामित्र
  • भानुबंस-सूर्यवंश
  • निरंकुश–जिस पर किसी का दबाब ना हो।
  • असंकू-शंका सहित
  • कालकवलु–मृत
  • अबुधु –नासमझ
  • हटकह -मना करने पर
  • अछोभा – शांत
  • बधजोगु- मारने योग्य
  • अकरुण – जिसमे करुणा ना हो
  • गाधिसूनु – गाधि के पुत्र यानी विश्वामित्र
  • अयमय -लोहे का बना हुआ
  • नेवारे -मना करना
  • ऊखमय- गन्ने से बना हुआ
  • कृसानु –अग्नि

पद-1

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥…………………………………………………………..

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धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥

भावार्थ

 इन पंक्तियों के माध्यम से श्री राम परशुराम से कहते हैं,हे नाथ! जिसने भी इस धनुष को तोड़ा है, वह आपका कोई दास ही होगा ।कहिए, क्या आज्ञा है? इस पर परशुराम क्रोधित हो उठे और उसने कहा कि सेवक वही होता है जो सेवक जैसा कार्य करता है , जिसने भी इस धनुष को तोड़ा है उसने मुझे युद्ध के लिए ललकारा है-

परशुराम को क्रोधित देखकर लक्ष्मण व्यंग पूर्वक कहते हैं कि हे नाथ!बचपन में तो हमने ऐसे कई धनुषों को तोड़ा है ।इस धनुष में ऐसा क्या है, जिससे आप इतने क्रोधित हो उठे?लक्ष्मण की बात सुनकर परशुराम और भी क्रोधित होते हैं और कहते हैं कि तुम्हारी मौत तुम्हें पुकार रही है,इसलिए तुम अहंकारवश ऐसी बातें बोल रहे हो । सारे धनुष एक समान नहीं होते। यह कोई साधारण धनुष नहीं है ।

परशुराम कहते हैं कि तुम मुझे एक साधारण मुनि समझ रहे हो और अब तक मैं तुम्हें एक बालक समझकर माफ़ कर रहा था।

पद-2

लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥…………………………………………………………………

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गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥

भावार्थ

परशुराम को क्रोधित देखकर लक्ष्मण हंसते हुए कहते हैं कि हमें तो सारे धनुष एक ही समान लगते हैं। इसके टूटने से ऐसी क्या आफत आ गई?

वैसे इस धनुष के टूटने में श्रीराम का कोई दोष नहीं है,उन्होंने तो मात्र इसे छुआ ही था। इस बीच श्री राम  लक्ष्मण को चुप रहने का इशारा करते हैं। परशुराम और भी क्रोधित होकर बोलते हैं कि तुम्हें मेरे व्यक्तित्व का पता नहीं है, मैं कोई साधारण मुनि नहीं हूं। वे अपने फरसे को दिखाते हुए कहते हैं, यह वही फरसा है, जिससे मैंने सहस्त्रों क्षत्रियों का संहार किया है, जिसकी गर्जना से गर्भ में पल रहे बच्चे का भी नाश हो जाता है। यह जग जाहिर है।

पद-3

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।…………………………………………………………………….

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सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा।।

परशुराम की डिंगे सुनकर लक्ष्मण हंसते हुए कहते हैं - आप तो अपने आप को एक वीर योद्धा समझते हैं और अपने फूंक से पहाड़ को उड़ाना चाहते हैं। हम यहां कोई कुम्हड़ा का बतिया नहीं हैं, जो आपकी उंगली दिखाने से मुरझा जायेंगे।

आपके हाथ में कुल्हाड़ा और कंधे पर तीर -धनुष देखकर हम आपको एक वीर योद्धा समझ बैठे थे और अभिमानवश कुछ बोल दिये। आपको भृगु मुनि का पुत्र जानकर हम अपने क्रोध की अग्नि को जलने नहीं दिए। वैसे भी हमारे कुल की मर्यादा है  कि हम ब्राम्हण, देवता, भक्त और गाय पर अपनी वीरता नहीं आजमाते । आप ब्राह्मण हैं, इसलिए आप का वध करके मैं पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता। आप मेरा वध कर भी दें, फिर भी मुझे आपके सामने झुकना ही पड़ेगा।आगे लक्ष्मण कहते हैं कि आपके वचन ही किसी व्रज की भाँति कठोर हैं, तो फिर आप को इस कुल्हाड़े और धनुष की क्या ज़रूरत है?

पद-4

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥…………………………………………………………….

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विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥

भावार्थ-  लक्ष्मण की बात सुनकर परशुराम बहुत ही क्रोधित होकर विश्वामित्र से बोले हे विश्वामित्र! यह बालक क्षण भर में काल के मुंह में समा जाएगा। यह बालक बहुत ही कुबुद्धि, उदंड, कुटिल, मूर्ख और निडर है। अगर इसे बचाना चाहते हो, तो इसे मेरे प्रताप के बारे में बता कर बचा लो। यह बालक सूर्यवंशी रूपी चंद्रमा में कलंक की तरह है।

इस बात पर लक्ष्मण ने कहा, हे मुनि! आपके पराक्रम को आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आप अपने ही मुंह से अपने पराक्रम को कितने प्रकार से वर्णन कर चुके हैं।आप वीरता का व्रत धारण करने वाले धैर्यवान हैं। इसीलिए गाली देते हुए आप शोभायमान नहीं दिखते हैं।

जो शूरवीर होते हैं, वे व्यर्थ में अपनी झूठी प्रशंसा नहीं करते, बल्कि युद्ध भूमि में अपनी वीरता सिद्ध करते हैं।

पद-5

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागी बोलावा।।

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अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहूँ न बूझ अबूझ॥

भावार्थ

आप तो ऐसे बार-बार मेरे लिए यमराज को बुला रहे हैं लक्ष्मण के इस कटु वचन को सुनकर परशुराम अपना फरसा निकालते हुए कहते हैं कि यह बालक मरने योग्य ही है, इसलिए हे मुनिवर! (विश्वामित्र) मुझे दोष नहीं देना।

परशुराम को क्रोधित देखकर विश्वामित्र कहते हैं कि साधु के लिए बच्चों की बातों पर क्रोध करना शोभा नहीं देता। वे क्षमा के पात्र होते हैं। परशुराम कहते हैं कि मैं दयाहीन साधु हूं। मैं सिर्फ आपके प्रेम और सद्भाव के कारण इस बालक को जीवित छोड़ रहा हूं वरना मैं इसका वध अपने फरसे से कब का कर चुका होता।

परशुराम की बात सुनकर विश्वामित्र मन ही मन मुस्कुराते हैं और कहते हैं कि परशुराम इन दोनों को कोई साधारण क्षत्रिय समझ रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि ये बालक शूरवीर और पराक्रमी क्षत्रिय हैं।

पद-6

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥……………………………………………………………………….

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बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥

भावार्थ

लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं,हे मुनिवर !आपके शील स्वभाव को सारा संसार जानता है। लगता है कि गुरु -दक्षिणा अभी आपका बाकी है। आप अपने माता पिता के कर्ज को कब का उतार चुके हैं। आप गुरु- दक्षिणा से वंचित होने के लिए बार-बार मुझे अपने फरसे को दिखा कर भयभीत कर रहे हैं। शायद आपको युद्ध में किसी पराक्रमी से सामना नहीं हुआ है।

लक्ष्मण के कटु वाणी को सुनकर परशुराम अति क्रोधित हो जाते हैं और अपने फरसे को निकालकर आक्रमण करने की मुद्रा में आ जाते हैं। यह बात सुनकर दरबार में उपस्थित लोग अनुचित-अनुचित कह कर पुकारने लगते हैं और श्री राम अपनी आँखों के इशारे से लक्ष्मण जी को चुप होने का इशारा करते हैं।

इस प्रकार लक्षमण द्वारा कहा गया प्रत्येक वचन आग में घी की आहुति के सामान था और परशुराम जी को अत्यंत क्रोधित होते देखकर श्री राम ने अपने शीतल वचनों से उनकी क्रोधाग्नि को शांत किया।

सवैया, कवित्त

पाठ-3

सवैया एवं कवित्त

सवैया एवं कवित्त संवाद भावार्थ

(1) सवैया

पाँयनि नूपुर मंजु बजै, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई।
साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये  हुलसै बनमाल सुहाई।
माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई।
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रजदूलहदेवसहाई॥

सवैया संवाद भावार्थ:- इस सवैये में कृष्ण के राजसी रूप का वर्णन किया गया है। कवि का कहना है कि कृष्ण के पैरों के पायल मधुर धुन सुना रहे हैं। कृष्ण ने कमर में करघनी पहन रखी है जिसकी धुन भी मधुर लग रही है। उनके साँवले शरीर पर पीला वस्त्र लिपटा हुआ है और उनके गले में फूलों की माला बड़ी सुंदर लग रही है। उनके सिर पर मुकुट सजा हुआ है जिसके नीचे उनकी चंचल आँखें सुशोभित हो रही हैं। उनका मुँह चाँद जैसा लग रहा है जिससे मंद मंद मुसकान की चाँदनी बिखर रही है। श्रीकृष्ण का रूप ऐसे निखर रहा है जैसे कि किसी मंदिर का दीपक जगमगा रहा हो।

(1) कवित्त

डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,
सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैंदेव’,
कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै।।
पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन,
कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥

कवित्त संवाद भावार्थ:- इस कवित्त में बसंत ऋतु की सुंदरता का वर्णन किया गया है। उसे कवि एक नन्हे से बालक के रूप में देख रहे हैं। बसंत के लिए किसी पेड़ की डाल का पालना बना हुआ है और उस पालने पर नई पत्तियों का बिस्तर लगा हुआ है। बसंत ने फूलों से बने हुए कपड़े पहने हैं जिससे उसकी शोभा और बढ़ जाती है। पवन के झोंके उसे झूला झुला रहे हैं। मोर और तोते उसके साथ बातें कर रहे हैं। कोयल भी उसके साथ बातें करके उसका मन बहला रही है। ये सभी बीच-बीच में तालियाँ भी बजा रहे हैं। फूलों से पराग की खुशबू ऐसे रही जैसे की घर की बूढ़ी औरतें राई और नमक से बच्चे का नजर उतार रही हों। बसंत तो कामदेव के सुपुत्र हैं जिन्हें सुबह सुबह गुलाब की कलियाँ चुटकी बजाकर जगाती हैं।

(2) कवित्त

फटिक सिलानि सौं सुधारयौ सुधा मंदिर,
उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।
बाहर ते भीतर लौं भीति दिखैएदेव’,
दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद।
तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति,
मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद।
आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै,
प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद॥        

कवित्त संवाद भावार्थ:- इस कवित्त में चाँदनी रात की सुंदरता का बखान किया गया है। चाँदनी का तेज ऐसे बिखर रहा है जैसे किसी स्फटिक के प्रकाश से धरती जगमगा रही हो। चारों ओर सफेद रोशनी ऐसे लगती है जैसे की दही का समंदर बह रहा हो। इस प्रकाश में दूर दूर तक सब कुछ साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा लगता है कि पूरे फर्श पर दूध का झाग फैल गया है। उस फेन में तारे ऐसे लगते हैं जैसे कि तरुणाई की अवस्था वाली लड़कियाँ खड़ी हों। ऐसा लगता है कि मोतियों को चमक मिल गई है या जैसे बेले के फूल को रस मिल गया है। पूरा आसमान किसी दर्पण की तरह लग रहा है जिसमें चारों तरफ रोशनी फैली हुई है। इन सब के बीच पूरनमासी का चाँद ऐसे लग रहा है जैसे उस दर्पण में राधा का प्रतिबिंब दिख रहा हो।

कठिन शब्दो के अर्थ

  • पाँयनी - पैटों में
  • जूपुर- पायल
  • मंजु- सुंदर
  • कटि- कमर
  • किंकिनि- करधनी, पैरों में पहनने वाला आभ्रूषण।
  • ध्ुनि ध्वनि
  • मधुराई सुन्दरता
  • साँवरे साँवले
  • अंग- शरीर
  • लसै सुभोषित
  • पट वस्त्र
  • पीत- पीला
  • हिये- हृदय पर
  • हुलसै - प्रसन्नता से विभोर
  • किरीट- मुकुट
  • मुखचंद - मुख रुपी चन्द्रमा
  • जुन्हाई- चाँदनी
  • द्रुम पैड़
  • सुमन झिंगुला - फूलों का झबला।
  • केंकी मोर
  • कीर- तोता
  • हलवे-हुलसावे - बातों की मिठास
  • उतारी करे राई नोन -जिस बची को नजर लगी हो उसके सिर के चारों ओट राय नमक घुमाकर आग में जलाने का टोठका।
  • कंजकली - कमल की कली
  • चटकारी चुटकी
  • फठिक (स्फटिक) - प्राकृतिक क्रिस्टल
  • सिलानी - शीला पर
  • उदधि- समुद्र
  • उमगे- उमड़ना
  • अमंद- जो कम ना हो
  • भीति- दीवार
  • मल्लिका- बेल की जाती का एक सफैद फूल
  • मकरंद- फूलों का ट॒स
  • आरती आइना

देव का जीवन परिचय

हिंदी की ब्रजभाषा काव्य के अंतर्गत देव को महाकवि का गौरव प्राप्त है। उनका पूरा नाम देवदत्त था। उनका जन्म इटावा (.प्र.) में हुआ था। यद्यपि ये प्रतिभा में बिहारी, भूषण, मतिराम आदि समकालीन कवियों से कम नहीं, वरन् कुछ बढ़कर ही सिद्ध होते हैं, फिर भी इनका किसी विशिष्ट राजदरबार से संबंध होने के कारण इनकी वैसी ख्याति और प्रसिद्धि नहीं हुई। इनके काव्य ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। उनमें से रसविलास, भावविलास, भवानी विलास और काव्यरसायन प्रमुख रचनाएँ मानी जाती हैं।

देव रीतिकालीन कवि हैं। रीतिकाल का सम्बन्ध दरबारों आश्रयदाताओं से बहुत ज्यादा था, जिस कारण उनकी कविताओं में दरबारी राजसीय संस्कृति का प्रमुखता से वर्णन है। देव ने इसके अलावा प्राकृतिक सौंदर्य को भी अपनी कविताओं में प्रमुखता से शामिल किया। शब्दों की आवृत्ति का प्रयोग कर उन्होंने सुन्दर ध्वनि-चित्र भी प्रस्तुत किये हैं। अपनी रचनाओं में वे अलंकारों का भरपूर प्रयोग करते थे।

सवैया, कवित्त

पाठ 3: कवित्त एवं सवैये

देव (1663-1767)

कवि परिचय

देव का जन्म इटावा (उ.प्र.) में सन् 1673 में हुआ था। “ उनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। देव के अनेक आश्रयदाताओं में औरंगजेब के पुत्र आजमशाह भी थे परंतु देव को सबसे अधिक संतोष और सम्मान उनकी कविता के गुणग्राही आश्रयदाता भोगीलाल से प्राप्त हुआ। उन्होंने उनकी कविता पर रीझकर लाखों की संपत्ति दान की। उनके काव्य ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। उनमें से रसविलास, भावविलास, काव्यरसायन, भवानीविलास आदि देव के प्रमुख ग्रंथ माने ( जाते हैं। उनकी मृत्यु सन् 1767 में हुई।

देव रीतिकाल के प्रमुख कवि हैं। रीतिकालीन कविता का संबंध दरबारों, आश्रयदाताओं से था इस कारण उसमें दरबारी संस्कृति का चित्रण अधिक हुआ है। देव भी इससे अछूते नहीं थे किंतु वे इस प्रभाव से जब-जब भी मुक्त हुए, उन्होंने प्रेम और सौंदर्य के सहज चित्र खींचे। आलंकारिकता और शृंगारिकता उनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं। शब्दों की आवृत्ति के जरिए नया सौंदर्य पैदा करके उन्होंने सुंदर ध्वनि चित्र प्रस्तुत किए हैं।

पाठ –प्रवेश

यहाँ संकलित कवित्त-सवैयों में एक ओर जहाँ रूप-सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण देखने को मिलता है, वहीं दूसरी ओर प्रेम और प्रकृति के प्रति कवि के भावों की अंतरंग अभिव्यक्ति भी। पहले सवैये में कृष्ण के राजसी रूप सौंदर्य का वर्णन है जिसमें उस युग का सामंती वैभव झलकता है। दूसरे कवित्त में बसंत को बालक रूप में दिखाकर प्रकृति के साथ एक रागात्मक संबंध की अभिव्यक्ति हुई है। तीसरे कवित्त में पूर्णिमा की रात में चाँद-तारों से भरे आकाश की आभा का वर्णन है। चाँदनी रात की कांति को दर्शाने के लिए देव दूध में फेन जैसे पारदर्शी बिंब काम में लेते हैं, जो उनकी काव्य-कुशलता का परिचायक है।

कठिन शब्दों के अर्थ

  • पाँयनी – पैरों में
  • नूपुर – पायल
  • मंजु- सुंदर
  • कटि- कमर
  • किंकिनि- करधनी, पैरों में पहनने वाला आभूषण
  • धुनि -ध्वनि
  • मधुराई- सुन्दरता
  • साँवरे – सॉवले
  • अंग- शरीर
  • लसै- सुभोषित
  • पट -वस्त्र
  • पीत – पीला
  • हिये -हृदय पर
  • हुलसै- प्रसन्नता से विभोर
  • किरीट – मुकुट
  • मुखचंद – मुख रूपी चन्द्रमा
  • जुन्हाई – चाँदनी
  • द्रुम -पेड़
  • सुमन झिंगुला- फूलों का झबला।
  • केकी- मोर
  • कीर -तोता
  • हलवे-हुलसावे बातों की मिठास
  • उतारो करे राई नोन- जिस बच्ची को नजर लगी हो . उसके सिर के चारों ओर राय नमक- घुमाकर आग में जलाने का टोटका |
  • कंजकली -कमल की कली
  • चटकारी – चुटककल
  • फटिक (स्फटिक) – प्राकृतिक क्रिस्टल सिलानी शीला पर
  • उदधि – समुद्र
  • उमगे – उमड़ना
  • अमंद – जो कम ना हो
  • भीति- दीवार
  • मल्लिका- बेल की जाती का एक सफेद फूल
  • मकरंद – फूलों का रस
  • आरसी- आइना

सवैया

पाँयनि नूपुर मंजु बजैं,कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई।

साँवरे अंग लसै पट पीत,हियै हुलसै बनमाल सुहाई।

माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हंसी मुखचंद जुन्हाई।

जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रजदूलह ‘देव’ सहाई।।

व्याख्या - प्रस्तुत सवैया में कवि देव ने श्रीकृष्ण के राजसी रूप का चित्रण किया है। कृष्ण के पैरों की पायल मधुर ध्वनि पैदा कर रही है। उनकी कमर में बंधी करधनी किनकिना रही है। श्रीकृष्ण के साँवले शरीर पर पीले वस्त्र सुसोभित हो रहे हैं। उनके ह्रदय पर वनमाला सुशोभित हो रही है।उनके सिर पर मुकुट है तथा उनकी बड़ी- बड़ी आंखें चंचलता से पूर्ण है। उनका मुख चंद्रमा के समान पूर्ण है। कवि कहते हैं कि कृष्ण संसार रूपी मंदिर में सुन्दर दीपक के समान प्रकाशमान है । अतः में कृष्ण समस्त संसार को प्रकाशित कर रहे हैं।

कवित्त  

डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के, सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी है। पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैं ‘देव’, कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै।। पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन, कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै। मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि, प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दे ॥

व्याख्या - प्रस्तुत कवित्त में कवि देव ने वसंत ऋतू का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है।उन्होंने वसंत की कल्पना कामदेव के नवशिशु के रूप में की है। पेड़ की डाली बालक का झुला है। वृक्षों के नए पत्ते पलने पर पलने वाले बच्चे के लिए बिछा हुआ है। हवा स्वयं आकर बच्चे को झुला रही है। मोर और तोता मधुर स्वर मे गाकर बालक का मन बहला रहे हैं। कोयल बालक को हिलाती और तालियाँ बजाती है। कवि कहते हैं कि कमल के फूलों की कलियाँ मानो अपने सिर पर पराग रूपी पल्ला की हुई है, ताकि बच्चे पर किसी की नज़र न लगे। इस वातावरण में कामदेव का बालक वसंत इस प्रकार बना हुआ है कि मानो वह प्रातःकाल गुलाब रूपी चुटकी बजा बजाकर जगा रही है।

कवित्त

फटिक सिलानि सौं सुधारयौ सुधा मंदिर, उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।

बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए ‘देव’, दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद।  तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति,

मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद ।

आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगे,

प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद ॥

व्याख्या प्रस्तुत कवित्त में कवि देव ने शरदकालीन पूर्णिमा की रात का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है । चांदनी रात का चंद्रमा बहुत ही उज्ज्वल आका और शोभामान हो रहा है। आकाश स्फटिक पत्थर से बने मंदिर के समान लग रहा है, उसकी सुन्दरता सफ़ेद दही के समान उमड़ रही है। मंदिर के आँगन में दूध के झाग के समान, चंद्रमा की किरणों के समान विशाल फर्श बना हुआ है। आकाश में फैले मंदिर शीशे के समान पारदर्शी लग रहा है ।चंद्रमा अपनी चांदनी बिखेरता , कृष्ण की प्रेमिका राधा के प्रतिबिम्ब के समान प्यारा लग रहा है ।

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