पाठ-13

मानवीय करुणा की दिव्या चमक

मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ का सार

मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ के लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं। जिन्होंने बेल्जियम (यूरोप) में जन्मे फादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व जीवन का बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है। फादर एक ईसाई संन्यासी थे लेकिन वो आम सन्यासियों जैसे नहीं थे। 

भारत को अपना देश अपने को भारतीय कहने वाले फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में हुआ था , जो गिरजों , पादरियों , धर्मगुरूओं और संतों की भूमि कही जाती है। लेकिन उन्होंने अपनी कर्मभूमि भारत को बनाया।

फादर कामिल बुल्के ने अपना बचपन और युवावस्था के प्रारंभिक वर्ष रैम्सचैपल में बताए थे।फादर बुल्के के पिता व्यवसायी थे। जबकि एक भाई पादरी था और एक भाई परिवार के साथ रहकर काम करता था। उनकी एक जिद्दी बहन भी थी , जिसकी शादी काफी देर से हुई थी।

फादर कामिल बुल्के ने इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ कर विधिवत संन्यास धारण किया। उन्होंने संन्यास धारण करते वक्त भारत जाने की शर्त रखी थी , जो मान ली गई।दरअसल फादर भारत भारतीय संस्कृति से बहुत अधिक प्रभावित थे  इसीलिए उन्होंने पादरी बनते वक्त यह शर्त रखी थी।

फादर बुल्के संन्यास धारण करने के बाद भारत गए। फिर यही के हो कर रह गए। वो भारत को ही अपना देश मानते थे। 

फादर बुल्के अपनी मां को बहुत प्यार करते थे। वह अक्सर उनको याद करते थे। उनकी मां उन्हें पत्र लिखती रहती थी , जिसके बारे में वह अपने दोस्त डॉ . रघुवंश को बताते थे। भारत में आकर उन्होंने जिसेट संघ में दो साल तक पादरियों के बीच रहकर धर्माचार की पढाई की।

और फिर 9 -10 वर्ष दार्जिलिंग में रहकर पढाई की। उसके बाद उन्होंने कोलकाता से बी. और इलाहाबाद से हिंदी में एम. की डिग्री हासिल की ।और इसी के साथ ही उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सन 1950 में रामकथा : उत्पत्ति और विकास विषय में शोध भी किया।फादर बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ब्लू बर्ड का हिंदी में नील पंछी के नाम से अनुवाद किया। 

बाद में उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज , रांची में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया। यही उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेजी -हिंदी शब्दकोश भी तैयार किया और बाइबिल का भी हिंदी में अनुवाद किया। उनका हिंदी के प्रति अथाह प्रेम इसी बात से झलकता है। 

जहरबाद बीमारी के कारण उनका 73 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया। फादर बुल्के भारत में लगभग 47 वर्षों तक रहे।  इस बीच वो सिर्फ तीन या चार बार ही अपनी मातृभूमि बेल्जियम गए। 

संन्यासी धर्म के विपरीत फादर बुल्के का लेखक से बहुत आत्मीय संबंध था। फादर लेखक के पारिवारिक सदस्य के जैसे ही थे। लेखक का परिचय फादर बुल्के से इलाहाबाद में हुआ , जो जीवन पर्यंत रहा। लेखक फादर के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे।

लेखक के अनुसार फादर वात्सल्य प्यार की साक्षात मूर्ति थे। वह हमेशा लोगों को अपने आशीर्वाद से भर देते थे। उनके दिल में हर किसी के लिए प्रेम , अपनापन दया भाव था। वह लोगों के दुख में शामिल होते और उन्हें अपने मधुर वचनों से सांत्वना देते थे। वो जिससे एक बार रिश्ता बनाते थे , उसे जीवन पर्यंत निभाते थे।

फादर की दिली तमन्ना हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। वह अक्सर हिंदी भाषियों की हिंदी के प्रति उपेक्षा देखकर दुखी हो जाते थे। फादर बुल्के की मृत्यु दिल्ली में जहरबाद से पीड़ित होकर हुई। लेखक उस वक्त भी दिल्ली में ही रहते थे। लेकिन उनको फादर की बीमारी का पता समय से चल पाया , जिस कारण वह मृत्यु से पहले फादर बुल्के के दर्शन नहीं कर सके।इस बात का लेखक को गहरा अफ़सोस था  

18 अगस्त 1982 की सुबह 10 बजे कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटी सी नीली गाड़ी में से कुछ पादरियों , रघुवंशीजी के बेटे  , राजेश्वर सिंह द्वारा उतारा गया ।फिर उस ताबूत को पेड़ों की घनी छाँव वाली सड़क से कब्र तक ले जाया गया। उसके बाद फादर बुल्के के मृत शरीर को कब्र में उतार दिया।

रांची के फादर पास्कल तोयना ने मसीही विधि से उनका अंतिम संस्कार किया और  सबने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।उनके अंतिम संस्कार के वक्त वहां हजारों लोग इकट्ठे थे , जिन्होंने नम आंखों से फादर बुल्के को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि दी। इसके अलावा वहाँ जैनेन्द्र कुमार , विजेंद्र स्नातक , अजीत कुमार , डॉ निर्मला जैन , मसीही समुदाय के लोग , पादरीगण , डॉक्टर सत्यप्रकाश और डॉक्टर रघुवंश भी उपस्थित थे। 

लेखक कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने जीवन भर दूसरों को वात्सल्य प्रेम का अमृत पिलाया।और  जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। उसकी मृत्यु जहरबाद से हुई। यह फादर के प्रति ऊपर वाले का घोर अन्याय हैं।

लेखक ने फादर की तुलना एक ऐसे छायादार वृक्ष से की है जिसके फल फूल सभी मीठी मीठी सुगंध से भरे रहते हैं। और जो अपनी शरण में आने वाले सभी लोगों को अपनी छाया से शीतलता प्रदान करता हैं।

ठीक उसी तरह फादर बुल्के भी हम सबके साथ रहते हुए , हम जैसे होकर भी , हम सब से बहुत अलग थे। प्राणी मात्र के लिए उनका प्रेम वात्सल्य उनके व्यक्तित्व को मानवीय करुणा की दिव्य चमक से प्रकाशमान करता था।

 लेखक के लिए उनकी स्मृति किसी यज्ञ की पवित्र अग्नि की आँच की तरह है जिसकी तपन वो हमेशा महसूस करते रहेंगे। 

कठिन शब्दो के अर्थ

  • जहरबाद- गैंग्रीन, एक तरह का जहरीला और कष्टसाध्य फोड़ा
  • देहरीदहलीज
  • निर्लिप्त- आसक्ति रहित, जो लिप्त ना हो
  • आवेश- जोश
  • ठपांतर - किसी वास्तु का बदला हुआ रूप
  • अकाठ्य- जो कट ना सके
  • विरल- काम मिलने वाली
  • करील- झाडी के रुप में उगने वाला एक कँटीला और बिना पत्ते का पौधा
  • गौरीक वसन - साधुओं द्वारा धारण किया जाने वाला गैरुआ वस्त्र
  • शद्धानत - प्रेम और भक्तियुक्त पूज्य भाव
  • टगों- नसों
  • अस्तित्वस्वरूप
  • चोगा- लम्बा ढीला-ढाला आगे से खुला मर्दाना पहनावा
  • साक्षी- गवाह
  • गोष्ठियाँसभाएँ
  • वात्सल्य - ममता का भाव
  • देह- शरीर
  • उपैक्षा- ध्यान देना
  • अपनत्वअपनाना
  • सँकरी- कम चौड़ी, पतली
  • संकल्प- ड़रादा

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जीवन परिचय

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म 1927 में बस्ती जिले ( उत्तर प्रदेश ) में हुआ था। उनकी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। वो अध्यापक , आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर , दिनमान में उपसंपादक और पराग के संपादक रहे। 

सर्वेश्वर की पहचान मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं के लेखक के रूप में की जाती है।  मध्यम वर्गीय जीवन की महत्वाकांक्षाओं , सपने , शोषण , हताशा और कुंठा का चित्रण उनके साहित्य में बखूबी मिलता है। सर्वेश्वर जी स्तंभकार थे। वो चरचे और चरखे  नाम से दिनमान में एक स्तंभ लिखते थे। वो सच कहने का साहस रखते थे। उनकी अभिव्यक्ति सहजता और स्वाभाविक होती थी। 

सर्वेश्वर बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। वह कवि , कहानीकार , उपन्यासकार , निबंधकार और नाटककार थे। सन् 1983 में उनका आकस्मिक निधन हो गया।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की प्रमुख रचनाएँ निम्न हैं। 

काठ की घंटियां  , कुआनो नदी , जंगल का दर्द , पागल कुत्तों का मसीहा , भौं भौं खौं खौं , बतूता का जूता। 

पाठ 13: मानवीय करुणा की दिव्य चमक

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (1927-1983)

लेखक परिचय

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म सन् 1927 में जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनकी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। वे अध्यापक, आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर विनमान में उपसंपादक और पराग के संपादक रहे। सन् 1983 में उनका आकस्मिक निधन हो गया।

सर्वेश्वर बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। वे कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, निबंधकार और नाटककार थे। सर्वेश्वर को प्रमुख कृतियाँ हैं-काठ की घंटियाँ, कुआनो नदी, जंगल का दर्द, खूँटियों पर टँगे लोग (कविता-संग्रह); पागल कुत्तों का मसीहा, सोया हुआ जल (उपन्यास); लड़ाई (कहानी-संग्रह); बकरी (नाटक); भौं भौं खौं खौं, बतूता का जूता, लाख की नाक (बाल साहित्य)। चरचे और चरखे उनके लेखों का संग्रह है। खूँटियों पर टँगे लोग पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला।

पाठ -प्रवेश

संस्मरण स्मृतियों से बनता है और स्मृतियों की विश्वसनीयता उसे महत्त्वपूर्ण बनाती है। फ़ादर कामिल बुल्के पर लिखा सर्वेश्वर का यह संस्मरण इस कसौटी पर खरा उतरता है। अपने को भारतीय कहने वाले फ़ादर बुल्के जन्मे तो बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में जो गिरजॉ, पादरियों, धर्मगुरुओं और संतों की भूमि कही जाती हैं परंतु उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाया भारत को। फ़ादर बुल्के एक संन्यासी थे परंतु पारंपरिक अर्थ में नहीं। सर्वेश्वर का फ़ादर बुल्के से अंतरंग संबंध था जिसकी झलक हमें इस संस्मरण में मिलती है। लेखक का मानना है कि जब तक रामकथा है, इस विदेशी भारतीय साधु को याद किया जाएगा तथा उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों के अगाध प्रेम का उदाहरण माना जाता है।

शब्दार्थ

  • आस्था-विश्वास
  • देहरी-दहलीज
  • आतुर-अधीर
  • निर्लिप्त- आसक्ति रहित
  • आवेश- जोश
  • लबालब- भरा हुआ
  • धर्माचार- धर्म का पालन या आचरण
  • रूपांतर- किसी वस्तु का बदला हुआ रूप
  • अकाट्य- जो कटे ना सके
  • विरल- कम मिलने वाली
  • ताबूत- शव या मुर्दा ले जाने वाला संदूक या बक्सा
  • करील- झाड़ी के रूप में उगने वाला एक कंटीला और बिना पत्ते का पौधा गैरिक वसन- साधनों द्वारा धारण किए जाने वाले गेरुए वस्त्र
  • श्रद्धानत- प्रेम और भक्ति युक्त पूज्य भाव