नेता जी का चश्मा

पाठ-11

नेताजी का चश्मा

नेताजी का चश्मा पाठ का सार

हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन कंपनी के काम से एक छोटे से कस्बे से गुजरना पड़ता था। कस्बा बहुत बड़ा नहीं था। लेकिन कस्बे में एक छोटी सी बाजार ,एक लड़कों का स्कूल , एक लड़कियों का स्कूल , एक सीमेंट का छोटा सा कारखाना , दो ओपन सिनेमा घर और एक नगरपालिका थी।

नगरपालिका कस्बे में हमेशा कुछ कुछ काम करती रहती थी। जैसे कभी सड़कों को पक्का करना , कभी शौचालय बनाना , कभी कबूतरों की छतरी बनाना। और कभी-कभी तो वह कस्बे में कवि सम्मेलन भी करा देती थी।

एक बार इसी नगरपालिका के एक उत्साही प्रशासनिक अधिकारी ने शहर के मुख्य बाजार के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की एक संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। नेताजी का चश्मा ”  कहानी की शुरुआत बस यहीं से होती है।

नगरपालिका के पास इतना बजट नहीं था कि वह किसी अच्छे मूर्तिकार से नेताजी की मूर्ति बनवाते। इसीलिए उन्होंने कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर मोतीलाल जी से मूर्ति बनवाने का निर्णय लिया। जिन्होंने नेताजी की मूर्ति को महीने भर में ही बनाकर नगरपालिका को सौंप दिया। 

मूर्ति थी तो सिर्फ दो फुट ऊंची ,  लेकिन नेताजी फौजी वर्दी में वाकई बहुत सुंदर लग रहे थे। उनको देखते ही दिल्ली चलो या तुम मुझे खून दो , मैं तुम्हें आजादी दूंगा जैसे जोश भरे नारे याद आने लगे। बस मूर्ति में एक ही कमी थी। नेताजी की आँखों में चश्मा नही था शायद मूर्तिकार चश्मा बनाना ही भूल गया था। इसीलिए नेताजी को एक सचमुच का , चौड़े फ्रेम वाला चश्मा पहना दिया गया।

हालदार साहब जब पहली बार इस कस्बे से गुजरे और चौराहे पर पान खाने को रुके , तो उन्होंने पहली बार मूर्ति पर चढ़े सचमुच के चश्मे को देखा और मुस्कुरा कर बोले वह भाई ! यह आइडिया अभी ठीक है। मूर्ति पत्थर की लेकिन चश्मा रियल का 

कुछ दिन बाद जब हालदार साहब दोबारा उधर से गुजरे तो उन्होंने मूर्ति को गौर से देखा। इस बार मूर्ति पर मोटे फ्रेम वाले चौकोर चश्मे की जगह तार का गोल फ्रेम वाला चश्मा था। कुछ दिनों बाद जब हालदार साहब तीसरी बार वहां से गुजरे , तो मूर्ति पर फिर एक नया चश्मा था। अब तो हालदार साहब को आदत पड़ गई थी। हर बार कस्बे से गुजरते समय चौराहे पर रुकना , पान खाना और मूर्ति को ध्यान से देखना।

एक बार उन्होंने उत्सुकता बस पान वाले से पूछ लिया क्यों भाई ! क्या बात है ? तुम्हारे नेताजी का चश्मा हर बार कैसे बदल जाता है पान वाले ने मुंह में पान डाला और बोला यह काम कैप्टन का है , जो हर बार मूर्ति का चश्मा बदल देता है

काफी देर बात करने के बाद हालदार साहब की समझ में बात आने लगी कि एक चश्मे वाला है। जिसका नाम कैप्टन है और उसे नेताजी की मूर्ति बैगर चश्मे के अच्छी नहीं लगती है। इसीलिए वह अपनी छोटी सी दुकान में उपलब्ध गिने-चुने चश्मों में से एक चश्मा नेता जी की मूर्ति पर फिट कर देता है। जैसे ही कोई ग्राहक आता है और वह मूर्ति पर फिट फ्रेम के जैसे चश्मा मांगता है तो वह मूर्ति से चश्मे को निकाल कर ग्राहक को दे देता है और नया चश्मा मूर्ति पर लगा देता है।

जब हालदार साहब ने पानवाले से पूछा कि नेताजी का ओरिजिनल चश्मा कहां है ? पान वाले ने जवाब दिया मास्टर चश्मा बनाना ही भूल गया हालदार साहब मन ही मन चश्मे वाले की देशभक्ति के समक्ष नतमस्तक हो गए। उन्होंने पानवाले से पूछा क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है। या आजाद हिंद फौज का पूर्व सिपाही पान वाले ने उत्तर दिया नहीं साहब , वह लंगड़ा क्या जाएगा फौज में , पागल है पागल। वह देखो वह रहा है

हालदार साहब को पानवाले की यह बात बिल्कुल अच्छी नहीं लगी। लेकिन उन्होंने जब कैप्टन को पहली बार देखा तो वह आश्चर्यचकित हो गए। एक बेहद बूढा मरियल सा , लंगड़ा आदमी , सिर पर गांधी टोपी और आंखों पर काला चश्मा लगाए था। जिसके एक हाथ में एक छोटी सी संदूकची और दूसरे हाथ में एक बांस का डंडा जिसमें बहुत से चश्मे टंगे हुए थे।

उसे देखकर हालदार साहब पूछना चाहते थे कि इसे कैप्टन क्यों कहते हैं लोग।  इसका वास्तविक नाम क्या है लेकिन पानवाले ने इस बारे में बात करने से इनकार कर दिया। इसके बाद लगभग 2 साल तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में उस चौराहे से गुजरते और नेता जी की मूर्ति पर बदलते चश्मों को देखते रहते।  कभी गोल , चौकोर , कभी लाल , कभी काला , कभी धूप चश्मा तो कभी कोई और चश्मा नेताजी की आंखों पर दिखाई देता।

लेकिन एक बार जब हालदार साहब कस्बे से गुजरे तो मूर्ति की आंखों में कोई चश्मा नहीं था। उन्होंने पान वाले से पूछा क्यों भाई ! क्या बात है। आज तुम्हारे नेताजी की आंखों पर चश्मा नहीं है पान वाला बहुत उदास होकर बोला साहब ! कैप्टन मर गया

यह सुनकर उन्हें बहुत दुख हुआ। उसके 15 दिन बाद हालदार साहब फिर उसी कस्बे से गुजरे। वो यही सोच रहे थे कि आज भी मूर्ति पर कोई चश्मा नहीं होगा। इसलिए वो मूर्ति की तरफ नहीं देखेंगे परंतु अपनी आदत के अनुसार उनकी नजर अचानक नेताजी की मूर्ति पर पड़ी।

वो बड़े आश्चर्यचकित हो मूर्ति के आगे जाकर खड़े हो गए। उन्होंने देखा कि मूर्ति की आंखों पर एक सरकंडे का बना छोटा सा चश्मा रखा हुआ था , जैसा अक्सर बच्चे बनाते हैं। यह देख कर हालदार साहब भावुक हो गए और उनकी आंखें भर आई। 

कठिन शब्दों के अर्थ

  • कस्बा- छोटा शहर
  • लागत खर्च
  • उहापोंह - क्या करें, क्या जा करें की स्थिति
  • शासनाविधि - शासन की अविधि
  • कमसिन- कम उम्र का
  • सराहनीय - प्रशंसा के योग्य
  • लक्षित करनादेखना
  • कौतुक आश्चर्य
  • दुर्दमनीय- जिसको दबाना मुश्किल हो
  • गिराकग्राहक
  • किदर- किधर
  • उदर- उधर
  • आहत घायल
  • दरकार आवश्यकता
  • द्रवित - अभिभूत होना
  • अवाक- चुप
  • प्रफुल्लता खुशी
  • हृदयस्थली - विशेष महत्त रखने वाला स्थान

स्वयं प्रकाश का जीवन परिचय

इस पाठ के कवि स्वयं प्रकाश जी हैं। स्वयं प्रकाश जी का जन्म सन 1947 मैं इंदौर (मध्यप्रदेश) में हुआ। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने वाले स्वयं प्रकाश का और नौकरी का बड़ा हिस्सा राजस्थान में बीता। फ़िलहाल स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद वे भोपाल में रहते हैं और वसुधा पत्रिका के संपादन से जुड़े हैं।

आठवें दशक में उभरे स्वयं प्रकाश आज समकालीन कहानी के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनके तेरह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें सूरज कब निकलेगा, आएँगे अच्छे दिन भी, आदमी जात का आदमी और संधान उल्लेखनीय हैं। उनके बीच में विनय और ईंधन उपन्यास चर्चित रहे हैं। उन्हें पहल सम्मान, बनमाली पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि पुरस्कारों से पुरस्कृत किया जा चुका है।

मध्यवर्गीय जीवन के कुशल चितेरे स्वयं प्रकाश की कहानियों में वर्ग-शोषण के विरुद्ध चेतना है तो हमारे सामाजिक जीवन में जाति, संप्रदाय और लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव के खिलाफ़ प्रतिकार का स्वर भी है। रोचक किस्सागोई शैली में लिखी गईं उनकी कहानियाँ हिंदी की वाचिक परंपरा को समृद्ध करती हैं।

नेता जी का चश्मा

पाठ 10: नेताजी का चश्मा

स्वयं प्रकाश

लेखक परिचय

स्वयंप्रकाश का जन्म सन् 1947 में इंदौर (मध्यप्रदेश) स्वयं में हुआ। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने वाले स्वयं प्रकाश का बचपन और नौकरी का बड़ा हिस्सा राजस्थान में बीता। फिलहाल स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद वे भोपाल में रहते हैं और वसुधा पत्रिका के संपादन से जुड़े हैं।

आठवें दशक में उभरे स्वयं प्रकाश आज समकालीन कहानी के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनके तेरह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें सूरज कब निकलेगा, आएँगे अच्छे दिन भी, आदमी जात का आदमी और संधान उल्लेखनीय हैं। उनके बीच में विनय और ईंधन उपन्यास चर्चित रहे हैं। उन्हें पहल सम्मान, बनमाली पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादेमी पुरस्कार आदि पुरस्कारों से जा चुका है। पुरस्कृत किया जा चुका है।

पाठ प्रवेश

चारों ओर सीमाओं से घिरे भूभाग का नाम ही देश नहीं होता। देश बनता है उसमें रहने वाले सभी नागरिकों, नदियों, पहाड़ों, पेड़-पौधों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों से और इन सबसे प्रेम करने तथा इनकी समृद्धि के लिए प्रयास करने का नाम देशभक्ति है। नेताजी का चश्मा कहानी कैप्टन चश्मे वाले के माध्यम से देश के करोड़ों नागरिकों के योगदान को रेखांकित करती है जो इस देश के निर्माण में अपने-अपने तरीके से सहयोग करते हैं। कहानी यह कहती हैं कि बड़े ही नहीं बच्चे भी इसमें शामिल हैं।

सारांश

प्रस्तुत कहानी द्वारा समाज में देश प्रेम की भावना को जागृत किया गया है। पाठ का नायक ‘कैप्टन’ साधारण व्यक्ति होने के बावजूद भी एक देशभक्त नागरिक है। वह कभी नेताजी को बिना चश्मे के नहीं रहने देता है। इस कहानी द्वारा लेखक चाहता है कि देशवासी लोगों की कुर्बानियों को न भूलें और उन्हें उचित सम्मान दें।

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