पाठ 1: सूरदास के पद

सूरदास

कवि परिचय

इनका जन्म सन 1478 में माना जाता है। एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र में हुआ था जबकि दूसरी मान्यता के अनुसार इनका जन्म स्थान दिल्ली के पास ही माना जाता है। महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य सूरदास अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। सुर‘वात्सल्य’और ‘श्रृंगार’ के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। इनकी मृत्यु 1583 में पारसौली में हुई।

प्रमुख कार्य

ग्रन्थ – सूरसागर, साहित्य लहरी और सूर सारावली।

शब्दार्थ

  • बड़भागी-भाग्यवान
  • अपरस-अछूता
  • तगा-धागा
  • पुरइन पात- कमल का पत्ता
  • माहँ-में
  • पाऊँ-पैर
  • बोरयौ-डुबोया
  • परागी-मुग्ध होना
  • अधार-आधार
  • आवन–आगमन
  • बिरहिनि-वियोग में जीने वाली।
  • हुतीं-थीं
  • जीतहिं तैं -जहाँ से
  • उत–उधर
  • मरजादा-मर्यादा
  • न लही-नहीं रही
  • जक री-रटती रहती हैं
  • सु-वह
  • ब्याधि –रोग
  • करी–भोगा
  • तिनहिं–उनको
  • मन चकरी-जिनका मन स्थिर नहीं रहता।
  • मधुकर-भौंरा
  • हुते-थे
  • पठाए–भेजा
  • आगे के-पहले के
  • पर हित-दूसरों के कल्याण के लिए
  • डोलत धाए-घूमते-फिरते थे
  • पाइहैं–पा लेंगी

पद-1

उधौ,तुम हौ अति बड़भागी।

अपरस रहत सनेह तगा तैं,नाहिन मन अनुरागी |

पुरइनि पात रहत जल भीतर,ता रस देह न दागी।

ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि,बूँद न ताकौं लागी ।

प्रीति-नदी में पाँव न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।

‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।

भावार्थ

गोपियां उद्धव के द्वारा उप गए संदेश को सुनकर व्यंग्य करती है और कहती  हैं, हे उद्धव ! तुम बड़े भाग्यशाली हो, जो तुम श्री कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम से वंचित हो। तुम उस कमल के पत्ते के समान हो, जो जल में रहकर भी जल के एक बूंद से अछूता होता है। तुम उस तेल के गागर के समान हो, जिस पर पानी का एक बूंद भी नहीं चिपकता। तुम प्रेम के अथाह सागर के पास रहकर भी उसमें डुबकी नहीं लगा सके। हम गोपियां बहुत ही मूर्ख हैं, जो उनके प्रेम में इस प्रकार चिपक गईं, जैसे गुड में चीटियां चिपक जाती हैं।

पद-2

मन की मन ही माँझ रही।

कहिए जाइ कौन पै ऊधौ,नाहीं परत कही।

अवधि अधार आस आवन की,तन मन बिथा सही।

अब इन जोग सँदेसनि सुनि सुनि,बिरहिनि बिरह दही |

चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।

‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।

भावार्थ

गोपियां उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव अब हमारे मन की बात मन में ही रह गए हमें श्री कृष्ण से ही अपने मन की बात कहनी थी, परंतु वह तुम्हारे हाथों संदेश भिजवा कर हमें और भी दुखी कर दिए। उनसे मिलने की इंतजार में हम हर तरह की विरह वेदना को सह रहे थे परंतु उन्होंने हमारे दुख को और भी बढ़ा दिया।

हे उद्धव, अब हम धीरज क्यों धरे? कैसे धरे? हमारी आशा का एकमात्र तिनका भी डूब गया। प्रेम की मर्यादा है कि प्रेम के बदले प्रेम दिया जाए, परंतु कृष्ण ने हमारे साथ छल किया है। उन्होंने मर्यादा का का उल्लंघन किया है।

पद- 3

हमारैं हरि हारिल की लकरी।

मन क्रम बचन नंद नंदन उर,यह दृढ़ करि पकरी ।

जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि,कान्ह-कान्ह जकरी।।

सुनत जोग लागत है ऐसौ,ज्यौं करुई ककरी।

सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए,देखी सुनी न करी ।

यह तौ‘सूर’तिनहिं लै सौपौं,जिनके मन चकरी ।l

भावार्थ

गोपियां कहती हैं कि कृष्ण हमारे लिए हारिल की लकड़ी के समान है,जिस प्रकार से हारिल चिड़िया एक लकड़ी को अपने जीवन का आधार मानती है, उसी प्रकार कृष्ण हमारे जीवन का आधार है।हमने तो सिर्फ नंद बाबा के पुत्र श्री कृष्ण को ही अपना माना है। उद्धव के द्वारा दिए गए योग का संदेश गोपियों को कड़वी ककड़ी के समान लगता है। गोपियां कहती है कि हे उद्धव,आप ये योग का संदेश उन्हें जा कर दें, जिनका मन चंचल है। हमने तो अपने मन में श्रीकृष्ण को सदा के लिए बसा लिया है।

पद-4

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।

समुझी बात कहत मधुकर के,समाचार सब पाए।

इक अति चतुर हुते पहिलैं हीं,अब गुरु ग्रंथ पढाए।

बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी,जोग-सँदेस पठाए।

ऊधौ भले लोग आगे के,पर हित डोलत धाए।

अब अपने मन फेर पाइहैं,चलत जु हुते चुराए।

ते क्यौं अनीति करैं आपुन,जे और अनीति छुड़ाए।

राज धरम तौ यहै‘ सूर’,जो प्रजा न जाहिं सताए ।।

भावार्थ

गोपियां कहते हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है। वे पहले से ही बहुत चलाक थे ।अब वह बड़े- बड़े ग्रंथ पढ़कर और भी ज्ञानी हो गए हैं, तभी तो उन्होंने हमारे मन की बात जान कर भी उद्धव से योग का संदेश भिजवाया है। इसमें उद्धव कोई दोष नहीं है।गोपियां उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव! आप जाकर श्री कृष्ण से यह कहें कि मथुरा जाते वक्त वे हमारा मन भी अपने साथ ले गए थे, उसे वापस कर दें। वे अत्याचारियों को दंडित करने के लिए मथुरा गए हैं, परंतु वे खुद अत्याचार कर रहे हैं। यह राज धर्म नहीं है।