लेखक परिचय, रचनाएँ, शब्दार्थ, भावार्थ, स्पष्टीकरण
- Books Name
- Hindi ki pathshala HIndi Course B Book
- Publication
- Hindi ki pathshala
- Course
- CBSE Class 9
- Subject
- Hindi
पाठ -1
दुख का अधिकर
यशपाल (1903-1976)
लेखक परिचय
यशपाल का जन्म फिरोज़पुर छावनी में सन् 1903 में हुआ। इन्होंने आरंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूल में और उच्च शिक्षा लाहौर में पाई। यशपाल विद्यार्थी काल से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट ग थे। अमर शहीद भगतसिंह आदि के साथ मिलकर इन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया।
यशपाल की प्रमुख कृतियाँ हैं : देशद्रोही, पार्टी कामरेड, दादा कामरेड, झूठा सच तथा मेरी, लेंगे उसकी बात (सभी उपन्यास), ज्ञानदान, तर्क का तूफ़ान, पिंजड़े की उड़ान, फूलों का कुत उत्तराधिकारी (सभी कहानी संग्रह) और सिंहावलोकन (आत्मकथा) |’मेरी तेरी उसकी बात‘ पर यशपाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
पाठ -प्रवेश
प्रस्तुत कहानी देश में फैले अंधविश्वासों और ऊँच-नीच के भेद-भाव को बेनकाब करते हुए। यह बताती है कि दुःख की अनुभूति सभी को समान रूप से होती है। कहानी धनी लोगों को अमानवीयता और गरीबों की मजबूरी को भी पूरी गहराई से उजागर करती है। यह सही है कि दुख सभी को तोड़ता है, दु:ख में मातम मनाना हर कोई चाहता है, दु:ख के क्षण से सामना होने पर सब अवश हो जाते हैं, पर इस देश में ऐसे भी अभागे लोग हैं जिन्हें न तो दु:ख मनाने का अधिकार है. न अवकाश!
शब्दार्थ
- पोशाक- वस्त्र
- अनुभूति- एहसास
- अड़चन- विघ्न
- व्यथा- पीड़ा
- व्यवधान- रुकावट
- बेहया- बेशर्म, निर्लज्ज
- नीयत- इरादा
- बरकत- वृद्धि
- खसम- पति
- परचून की दुकान- आटा चावल दाल आदि की दुकान
- कछियारी- खेतों में तरकारियां बोना
- तरावट- गीलापन, नमी
- ओझा-झाड़- फूंक करने वाला
- छन्नी-ककना- मामूली गहना
- सहूलियत- सुविधा
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पाठ 2
एवरेस्ट: मेरी शिखर यात्रा
बचेंद्री पाल (1954)
लेखिका परिचय
बछेंद्री पाल (जन्म 24 मई 1954), माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाली प्रथम भारतीय महिला है। सन 1984 में इन्होंने माउंट एवरेस्ट फतह किया था। वे एवरेस्ट की ऊंचाई को छूने वाली दुनिया की पाँचवीं महिला पर्वतारोही हैं। वर्तमान में वे इस्पात कंपनी टाटा स्टील में कार्यरत हैं, जहां वह चुने हुए लोगो को रोमांचक अभियानों का प्रशिक्षण देती हैं।
पाठ प्रवेश
बचेंद्री ने एवरेस्ट विजय की अपनी रोमांचक पर्वतारोहण – यात्रा का संपूर्ण विवरण स्वयं ही कलमबद्ध किया है
प्रस्तुत अंश उसी विवरण में से लिया गया है। यह लोमहर्षक अंश बचेंद्री के उस अंतिम पड़ाव से शिखर तक पहुँचकर तिरंगा लहराने के पल-पल का ब्योरा बयान करता है। इसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है, मानो पाठक भी उनके कदम-से-कदम मिलाता हुआ, सभी खतरों को खुद झेलता हुआ एवरेस्ट के शिखर पर जा रहा हो।
शब्दार्थ
- अभियान- चढ़ाई (आगे बढ़ना), किसी काम के लिए प्रतिबद्धता
- दुर्गम- पहुँचना कठिन हो, कठिन मार्ग
- हिमपात- बर्फ़ का गिरना
- आकर्षित- मुग्ध होना, आकृष्ट होना
- अवसाद- उदासी
- ग्लेशियर- बर्फ़ की नदी
- अनियमित- नियम विरुद्ध, जिसका कोई नियम न हो
- आशाजनक- आशा उत्पन्न करनेवाला
- भौंचक्की- हैरान
- अव्यवस्थित- व्यवस्थाहीन, जिसमें कोई व्यवस्था न हो
- प्रवास- यात्रा में रहना
- हिम-विदर- दरार
- आरोही- ऊपर चढ़नेवाला
- अभियांत्रिकी- तकनीकी
- नौसिखिया- नया सीखनेवाला
- विशालकाय पुंज- बड़े आकार के बर्फ़ के टुकड़े (ढेर)
- पर्वतारोही- पर्वत पर चढ़नेवाला
- आरोहण- चढ़ना,ऊपर की ओर जाना ,
- कर्मठता- काम में कुशलता,कर्म के प्रति निष्ठा
- उपस्कर- आरोही की आवश्यक सामग्री
- शंकु- नोक
- प्राप्ति- उपलब्धि
- जोखिम- खतरा
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पाठ 3
तुम कब जाओगे अतिथि
शरद जोशी (1931-1991)
लेखक परिचय
शरद जोशी का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में 21 मई 1931 को हुआ। इनका बचपन शहरों में बीता। कुछ समय तक यह सरकारी नौकरी में रहे, फिर इन्होंने लेखन को ही आजीविका के रूप में अपना लिया। इन्होंने आरंभ में कुछ कहानियाँ लिखीं, फिर पूरी तरह व्यंग्य लेखन करने लगे। इन्होंने व्यंग्य लेख, व्यंग्य उपन्यास, व्यंग्य कॉलम के अतिरिक्त हास्य-व्यंग्यपूर्ण धारावाहिकों की पटकथाएँ और संवाद भी लिखे। हिंदी व्यंग्य को प्रतिष्ठा दिलाने वाले कैलेंडर व्यंग्यकारों में शरद जोशी भी एक हैं। हैं।
शरद जोशी की प्रमुख व्यंग्य-कृतियाँ हैं : परिक्रमा, किसी बहाने, जीप पर सवार इल्लियां, तिलस्म, रहा किनारे बैठ, दूसरी सतह, प्रतिदिन। दो व्यंग्य नाटक हैं : अंधों का हाथी और एक था गधा। एक उपन्यास है: मैं, मैं, केवल मैं, उर्फ कमलमुख बी.ए.।
पाठ-प्रवेश
प्रस्तुत पाठ ‘तुम कब जाओगे, अतिथि’ में शरद जोशी ने ऐसे व्यक्तियों की खबर ली है, जो अपने किसी परिचित या रिश्तेदार के घर बिना कोई पूर्व सूचना दिए चले आते हैं और फिर जाने का नाम ही नहीं लेते, भले ही उनका टिके रहना मेज़बान पर कितना ही भारी क्यों न पड़े।
अच्छा अतिथि कौन होता है? वह, जो पहले से अपने आने की सूचना देकर आए, एक-दो दिन मेहमानी कराके विदा हो जाए या वह, जिसके आगमन के बाद मेजबान वह सब सोचने को विवश हो जाए, जो इस पाठ के मेज़बान निरंतर सोचते रहे।
शब्दार्थ
- आगमन- आना
- निस्संकोच- संकोच रहित
- नम्रता- नत होने का भाव
- सतत- निरंतर
- आतिथ्य- आवभगत
- अंतरंग- घनिष्ठ, गहरा
- आशंका- खतरा,भय
- मेहमाननवाजी- अतिथि- सत्कार
- छोर- किनारा
- भावभीनी- प्रेम से ओतप्रोत
- आघात- चोट, प्रहार
- अप्रत्याशित- आकस्मिक, अनसोचा
- मार्मिक- मर्मस्पर्शी
- सामिप्य- निकटता, समीपता
- औपचारिक- दिखावटी
- निर्मूल- मूलरहित
- कोनलों- कोनों से
- सौहार्द- मैत्री
- रूपांतरित- जिसका रूप, आकार बदल गया हो
- उष्मा- गर्मी, उग्रता
- संक्रमण- एक स्थिति या अवस्था से दूसरी में प्रवेश
- गुंजायमान- गुंजता हुआ
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पाठ 4
वैज्ञानिक चेतना के वाहक
धीरंजन मालवे (1952)
लेखक परिचय
धीरंजन मालवे का जन्म बिहार के नालंदा जिले के डुमरावाँ गाँव में 9 मार्च 1952 को हुआ। ये एससी. (सांख्यिकी), एम.बी.ए. और एल.एल.बी. हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से जुड़े मालवे आज भी वैज्ञानिक जानकारी को लोगों तक पहुँचाने के काम में जुटे हुए हैं। आकाशवाणी और बी.बी.सी. (लंदन) में कार्य करने के दौरान मालवे रेडियो विज्ञान पत्रिका ‘ज्ञान-विज्ञान’ का संपादन और प्रसारण करते रहे।
मालवे की भाषा सीधी, सरल और वैज्ञानिक शब्दावली लिए हुए है। यथावश्यक अन्य भाषाओ के शब्दों का प्रयोग भी वे करते हैं। मालवे ने कई भारतीय वैज्ञानिकों की संक्षिप्त जीवनियाँ लिखें हैं, जो इनकी पुस्तक ‘विश्व –विख्यात भारतीय वैज्ञानिक’ पुस्तक में समाहित हैं।
पाठ प्रवेश
प्रस्तुत पाठ ‘वैज्ञानिक चेतना के वाहक रामन्’ में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रथम भारतीय वैज्ञानिक के संघर्षमय जीवन का चित्रण किया गया है। वेंकट रामन् कुल ग्यारह साल की उम्र में मैट्रिक, विशेष योग्यता के साथ इंटरमीडिएट, भौतिकी और अंग्रेज़ी में स्वर्ण पदक के साथ बी.ए. और प्रथम श्रेणी में एम.ए. करके मात्र अठारह साल की उम्र में कोलकाता में भारत सरकार के फाइनेंस डिपार्टमेंट में सहायक जनरल एकाउंटेंट नियुक्त कर लिए गए थे। इनकी प्रतिभा से इनके अध्यापक तक अभिभूत थे।
सन् 1930 में नोबेल पुरस्कार पाने के बाद सी.वी. रामन् ने अपने एक मित्र को उस पुरस्कार-समारोह के बारे में लिखा था : जैसे ही मैं पुरस्कार लेकर मुड़ा और देखा कि जिस स्थान पर मैं बैठाया गया था, उसके ऊपर ब्रिटिश राज्य का ‘यूनियन जैक’ लहरा रहा है, तो मुझे अफ़सोस हुआ कि मेरे दीन देश भारत की अपनी पताका तक नहीं है। इस अहसास से मेरा गला भर आया और मैं फूट-फूट कर रो पड़ा।
चंद्रशेखर वेंकट रामन् भारत में विज्ञान की उन्नति के चिर आकांक्षी थे तथा भारत की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। वे महात्मा गांधी को अपना अभिन्न मित्र मानते थे। नोबेल पुरस्कार समारोह के बाद एक भोज के दौरान उन्होंने कहा था : मुझे एक बधाई का तार अपने सर्वाधिक प्रिय मित्र (महात्मा गांधी) से मिला है, जो इस समय जेल में हैं। एक मेधावी छात्र से महान वैज्ञानिक तक की रामन् की संघर्षमय जीवन की यात्रा और उनकी उपलब्धियों की जानकारी यह पाठ बखूबी कराता है।
शब्दार्थ
- नीलवर्णीय - नीले रंग का
- आभा - चमक
- रुझान - झुकाव
- सृजित - रचा हुआ
- परिणति - परिणाम
- संरचना - बनावट
- कट्टर - दृढ़़
- प्रतिमूर्ति - अनुकृति, चित्र
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पाठ 5
धर्म की आड़
गणेशशंकर विद्यार्थी (1890-1931)
लेखक परिचय
गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में सन् 1890 में हुआ। एट्स पास करने के बाद वे कानपुर करेंसी दास्तर में मुलाजिम हो गए। फिर 1921 में ‘प्रताप’ साप्ताहिक अखबार निकालना शुरू किया। विद्यार्थी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को अपना साहित्यिक गुरु मानते थे।उन्हीं की प्रेरणा से आजादी की अलख जगानेवाली रचनाओं का सृजन और अनुवाद उन्होंने किया। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सहायक पत्रकारिता की। विद्यार्थी के जीवन का ज्यादातर समय जेलों में बीता। इन्हें बार-बार जेल में डालकर भी अंग्रेज़ सरकार को संतुष्टि नहीं मिली। वह इनका अखबार भी बंद करवाना चाहती थी। कानपुर में 1931 में मचे सांप्रदायिक दंगों को शांत करवाने के प्रयास में विद्यार्थी को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी। इनकी मृत्यु पर महात्मा गांधी ने कहा था। काश! ऐसी मौत मुझे मिली होती।
पाठ प्रवेश
प्रस्तुत पाठ ‘धर्म की आड़' में विद्यार्थी जी ने उन लोगों के इरादों और कुटिल चालों को बेनकाब किया है, जो धर्म की आड़ लेकर जनसामान्य को आपस में लड़ाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की फ़िराक में रहते हैं। धर्म की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवाले हमारे ही देश में हो, ऐसा नहीं है। विद्यार्थी अपने इस पाठ में दूर देशों में भी धर्म की आड़ में कैसे-कैसे कुकर्म हुए हैं. कैसी-कैसी अनीतियाँ हुई हैं, कौन-कौन लोग, वर्ग और समाज उनके शिकार हुए हैं, इसका खुलासा करते चलते हैं।
शब्दार्थ
- उत्पाद- उपद्रव, खुराफ़ात
- ईमान- नियत,सच्चाई
- जाहिल- मूर्ख
- अट्टालिकाएं- ऊंचे ऊंचे मकान, प्रासाद
- धनाढ्य- धनवान, दौलतमंद
- स्वार्थ-सिद्धि- स्वार्थ पूरा करना
- प्रपंच- छल
- उदार- महान, दयालु
- कसौटी- परख
- ला-मजहब- जिसका कोई धर्म-मजहब ना हो
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पाठ 6
शुक्र तारे के समान
स्वामी आनंद (1887-1976)
लेखक परिचय
संन्यासी स्वामी आनंद का जन्म गुजरात के कठियावाड़ जिले के किमड़ी गाँव में सन् 1887 इनका मूल नाम हिम्मतलाल था। जब ये दस साल के थे तभी कुछ साधु इन्हें अपने साथ हिमालय पाठ में किस के व्यक्तित्व को निखार आ गया हैकी ओर ले गए और इनका नामकरण किया- स्वामी आनंद। 1907 में स्वामी आनंद स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। महाराष्ट्र से कुछ समय तक ‘तरुण हिंद’ अखबार निकाला, फिर बाल गंगाधर तिलक के ‘केसरी’ अखबार से जुड़ गए। 1917 में गांधीजी के संसर्ग में आने के बाद उन्हीं के निदेशन में ‘नवजीवन’ और ‘यंग इंडिया’ की प्रसार व्यवस्था सँभाल ली। इसी बहाने इन्हें, गांधीजी और उनके निजी सहयोगी महादेव भाई देसाई और बाद में प्यारेलाल जी को निकट से जानने का अवसर मिला।
पाठ प्रवेश
मूलत: गुजराती भाषा में लिखे गए प्रस्तुत पाठ ‘शुक्रतारे के समान’ में लेखक ने गांधीजी के निजी सचिव महादेव भाई देसाई की बेजोड़ प्रतिभा और व्यस्ततम दिनचर्या को उकेरा है। लेखक अपने इस रेखाचित्र के नायक के व्यक्तित्व और उसकी ऊर्जा, उनकी लगन और प्रतिभा से अभिभूत है। महादेव भाई की सरलता, सज्जनता, निष्ठा, समर्पण, लगन और निरभिमान को लेखक ने पूरी ईमानदारी से शब्दों में पिरोया है। इनकी लेखनी महादेव के व्यक्तित्व का ऐसा चित्र खींचने में सफल रही है कि पाठक को महादेव भाई पर अभिमान हो आता है।
लेखक के अनुसार कोई भी महान व्यक्ति, महानतम कार्य तभी कर पाता है, जब उसके साथ ऐसे सहयोगी हो जो उसकी तमाम इतर चिंताओं और उलझनों को अपने सिर ले लें। गांधीजी के लिए महादेव भाई और भाई प्यारेलाल जी ऐसी ही शख्सियत थे।
शब्दार्थ
- आभा-प्रभा - चमक, तेज
- नक्षत्र - मंडल-तारा समूह
- पीर - महात्मा, सिद्ध
- रूबरू - आमने-सामने
- धुरंधर – प्रवीण,उत्तम गुणों से युक्त
- कट्टर - दृढ़
- पेशा - व्यवसाय
- गाद - तलछट
- सानी - बराबरी
- सिलसिला - क्रम
कवि परिचय, रचनाएँ, शब्दार्थ, भावार्थ, प्रसंग , स्पष्टीकरण
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पाठ 7
अब कैसे छुटे राम नमः
रैदास (1388-1518)
कवि परिचय
रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म सन् 1388 और देहावसान सन् 1518 में बनारस में ही हुआ, ऐसा माना जाता है। इनकी ख्याति से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा था।
मध्ययुगीन साधकों में रैदास का विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह रैदास भी सत कोटि के कवियों में गिने जाते हैं। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में रैदास का जरा भी विश्वास न था। वह व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे
रैदास ने अपनी काव्य रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी, राजस्थानी खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रैदास को उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं। सीधे-सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी सफ़ाई से प्रकट किए हैं। इनका आत्मनिवेदन, दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठक के हृदय को उद्वेलित करते हैं। रैदास के चालीस पद सिखों के पवित्र धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में भी सम्मिलित हैं।
पाठ प्रवेश
यहाँ रैदास के दो पद लिए गए हैं। पहले पद ‘प्रभु जी तुम चंदन हम पानी में कवि अपने आराध्य को याद करते हुए उनसे अपनी तुलना करता है। उसका प्रभु बाहर कहीं किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं विराजता वरन् उसके अपने अंतस में सदा विद्यमान रहता है। यही नहीं, वह हर हाल में हर काल में उससे श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न है। इसीलिए तो कवि को उन जैसा बनने की प्रेरणा मिलता है।
दूसरे पद में भगवान की अपार उदारता कृपा और उनके समदर्शी स्वभाव का वर्णन है। रैदास कहते हैं कि भगवान ने तथाकथित निम्न कुल के भक्तों को भी सहज भाव से अपनाया है और उन्हें लोक में सम्माननीय स्थान दिया है।
शब्दार्थ
- बास- गंध,वास
- समानी- समाना, बसा हुआ(समाहित होना)
- घन- बादल
- चितवत- देखना,निरखना
- राती- रात्रि
- दासा- दास,सेवक
- कउनु- कौन
- छोति- छुआछूत, अस्पृश्यता
पद
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा ॥
भावार्थ- प्रभु! हमारे मन में जो आपके नाम की रट लग गई है, वह कैसे छूट सकती है? अब मै आपका परम भक्त हो गया हूँ। जिस तरह चंदन के संपर्क में रहने से पानी में उसकी सुगंध फैल जाती है, उसी प्रकार मेरे तन मन में आपके प्रेम की सुगंध व्याप्त हो गई है। आप आकाश में छाए काले बादल के समान हो, मैं जंगल में नाचने वाला मोर हूँ। जैसे बरसात में घुमडते बादलों को देखकर मोर खुशी से नाचता है, उसी भाँति मैं आपके दर्शन् को पा कर खुशी से भावमुग्ध हो जाता हूँ। जैसे चकोर पक्षी सदा अपने चंद्रामा की ओर ताकता रहता है उसी भाँति मैं भी सदा आपका प्रेम पाने के लिए तरसता रहता हूँ।
हे प्रभु ! आप दीपक हो और मैं उस दिए की बाती, जो सदा आपके प्रेम में जलता है। प्रभु आप मोती के समान उज्ज्वल, पवित्र और सुंदर हो और मैं उसमें पिरोया हुआ धागा हूँ। आपका और मेरा मिलन सोने और सुहागे के मिलन के समान पवित्र है। जैसे सुहागे के संपर्क से सोना खरा हो जाता है, उसी तरह मैं आपके संपर्क से शुद्ध हो जाता हूँ। हे प्रभु! आप स्वामी हो मैं आपका दास हूँ।
पद
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब नवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै।।
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुसी ढरै।
नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै ।।
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै ।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै।।
भावार्थ- दूसरे पद में भगवान की अपार उदारता, कृपा और उनके समदर्शी स्वभाव का वर्णन है। रैदास कहते हैं कि भगवान ने नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना और सैनु जैसे निम्न कुल के भक्तों को भी सहज भाव से अपनाया है और उन्हें लोक में सम्माननीय स्थान दिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान् ने कभी किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं किया। दूसरे पद में कवि ने भगवान को गरीबों और दीन-दुःखियों पर दया करने वाला कहा है। रैदास ने अपने स्वामी को गुसईआ (गोसाई) और गरीब निवाजु (गरीबों का उद्धार करने वाला) पुकारा है।
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पाठ 8
रहीम के दोहे
रहीम (1556-1626)
कवि परिचय
रहीम का जन्म लाहौर (अब पाकिस्तान) में सन् 1556 में हुआ। इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। रहीम अरबी, फ़ारसी, संस्कृत और हिंदी के अच्छे जानकार थे। इनकी नीतिपरक उक्तियों में संस्कृत कवियों की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है। रहीम मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। अकबर के दरबार में हिंदी कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। रहीम अकबर नवरत्नों में से एक थे।
रहीम के काव्य का मुख्य विषय शृंगार, नीति और भक्ति है। रहीम बहुत लोकप्रिय कवि थे। इनके दोहे सर्वसाधारण को आसानी से याद हो जाते हैं। इनके नीतिपरक दोहे ज्यादा प्रचलित हैं, जिनमें दैनिक जीवन के दृष्टांत देकर कवि ने उन्हें सहज, सरल और बोधगम्य बना दिया है।
रहीम की प्रमुख कृतियाँ हैं : रहीम सतसई, शृंगार सतसई, मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी, रहीम रत्नावली, बरवै, भाषिक भेदवर्णन। ये सभी कृतियाँ ‘रहीम ग्रंथावली’ में समाहित हैं।
पाठ-प्रवेश
प्रस्तुत पाठ में रहीम के नीतिपरक दोहे दिए गए हैं। ये दोहे जहाँ एक ओर पाठक को औरों के साथ कैसा बरताव करना चाहिए, इसकी शिक्षा देते हैं. वहीं मानव मात्र को करणीय और अकरणीय आचरण की भी नसीहत देते हैं। इन्हें एक बार पढ़ लेने के बाद भूल पाना संभव नहीं है और उन स्थितियों का सामना होते ही इनका याद आना लाजिमी है, जिनका इनमें चित्रण है।
शब्दार्थ
- अठिलैहैं - इठलाना, मजाक उड़ाना
- सींचियो - सिंचाई करना, पौधों में पानी देना
- अघाय - तृप्त
- अरथ (अर्थ) - मायने, आशय
- थोरे - थोड़ा, कम
- पंक - कीचड़
- उदधि - सागर
- नाद - ध्वनि
- रीझि - मोहित होकर
- बिगरी - बिगड़ी हुई
- फाटे दूध - फटा हुआ दूध
- मथे - बिलोना, मथना
- आवे - आना
- निज - अपना
- पिआसो - प्यासा
- चित्रकूट - वनवास के समय श्री रामचंद्र जी सीता और लक्ष्मण के कुछ समय तक चित्रकूट में रहे थे।
दोहे
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय।।
भावार्थ - रहीम कवि कहते हैं कि प्रेम रूपी धागे को तोड़ना नहीं चाहिए, क्योंकि प्रेम उस कमजोर धागे के समान होता है, जो एक ही झटके में टूट जाता है और फिर जोड़ने पर उसमें अविश्वास रुपी गांठ पड़ जाती है।
दोहे
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब,बाँटि न लैहैं कोय।।
भावार्थ - रहीम कबीर कहते हैं मन की व्यथा को मन में ही रखना चाहिए, उसे किसी से बताना नहीं चाहिए। लोग हमारे दर्द को सुनकर बांट तो सकते नहीं बल्कि सभी हमारा मजाक उड़ाते हैं।
दोहे
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सीचियो, फूलै फूले अघाय॥
भावार्थ - रहीम कवि कहते हैं कि हमें एक ही लक्ष्य की साधना करनी चाहिए। एक लक्ष्य की ही साधना करने से सारे लक्ष्य पूर्ण हो जाते हैं, जिस प्रकार से सिर्फ पेड़ की जड़ में पानी डालने से ही पूरा पेड़ हरा -भरा हो जाता है।
दोहे
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस।।
भावार्थ - जब श्री रामचंद्र जी को 14 वर्ष का वनवास पड़ा था, तो वे चित्रकूट में अपना जीवन यापन किए थे। उसी प्रकार जिस पर भी विपदा पड़ती है,वो शांति के अंचल में खींचा चला आता है।
दोहे
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चहि जाहि।।
भावार्थ - रहीम कवि कहते हैं कि उनके दोहों में भले ही कम अक्षर या शब्द हैं, परंतु उनके अर्थ बड़े ही गूढ़ और दीर्घ हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कोई नट अपने करतब के दौरान अपने बड़े शरीर को सिमटा कर कुंडली मार लेने के बाद छोटा लगने लगता है।
दोहे
धनि रहीम जल पंक को लघु जिय अित अषाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय।।
भावार्थ - रहीम कबीर कहते हैं कि कीचड़ का जल ही प्रशंसा का पात्र है, जिसे पीकर छोटे-छोटे जीव अपनी प्यास बुझाते हैं, परंतु समुद्र में अथाह जल है, लेकिन वह किसी की प्यास बुझाने योग्य नहीं है।
दोहे
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेतु समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेडु कछू न देत।।
भावार्थ - कवि कहते हैं कि मुनष्य सबसे विवेकशील प्राणी है फिर भी उस में उदारता नहीं है। दूसरी ओर मृग एक पशु होते हुए भी एक आवाज पर आकर्षित होकर अपना शरीर त्याग देता है।
दोहे
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।
भावार्थ - मनुष्य को सोचसमझ कर व्यवहार करना चाहिए,क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना कठिन होता है, जैसे यदि एकबार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकता।
दोहे
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि ।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि॥
भावार्थ – रहीम कहते हैं कि बड़ी वस्तु को देख कर छोटी वस्तु को फेंक नहीं देना चाहिए, क्योंकि जहां छोटी- सी सुई काम आती है, वहां तलवार काम नहीं आ सकती।
दोहे
रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सके बचाय ॥
भावार्थ - रहीम कवि कहते हैं कि अपनी संपत्ति को बुरे समय के लिए बचा कर जरूर रखना चाहिए । क्योंकि विपत्ति के समय में अपनी संपत्ति ही काम आती है।जिस तरह से कमल को बिना जल का सूर्य भी नहीं बचा सकता।
दोहे
रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून ॥
भावार्थ - रहीम कवि कहते हैं कि मनुष्य को अपनी इज्जत जरूर बचा कर रखना चाहिए क्योंकि इज्जत के बिना मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं होता। जैसे चमक के बिना मोती, पानी के बिना चूना और इज्जत के बिना मनुष्य, इन तीनों का कोई मूल्य नहीं है।
कवि परिचय, रचनाएँ, शब्दार्थ, भावार्थ, प्रसंग , स्पष्टीकरण
- Books Name
- Hindi ki pathshala HIndi Course B Book
- Publication
- Hindi ki pathshala
- Course
- CBSE Class 9
- Subject
- Hindi
पाठ 9
आदमी नामा
नजीर अकबराबादी (1725-1830)
कवि परिचय
नज़ीर अकबराबादी का जन्म दिल्ली शहर में सन् 1735 में हुआ। बाद में इनका परिवार आगरा जाकर बस गया और वहीं इन्होंने आगरा के अरबी-फारसी के मशहूर अदीबों से तालीम हासिल की।
नजीर हिंदू त्योहारों में बहुत दिलचस्पी लेते थे और उनमें शामिल होकर दिलोजान से लुत्फ़ उठाते थे। मियाँ नज़ीर राह चलते नज्में कहने के लिए मशहूर थे। अपने टट्टू पर सवार नजीर को कहीं से कहीं आते-जाते समय राह में कोई भी रोककर फ़रियाद करता था कि उसके हुनर या पेशे से ताल्लुक रखने वाली कोई नज्म कह दीजिए। नजीर आनन-फानन में एक नज्म रच देते थे। यही वजह है कि भिश्ती, ककड़ी बेचनेवाला, बिसाती तक नज़ीर की रची नज्में गा गाकर अपना सौदा बेचते थे, तो वही गीत गाकर गुज़र करनेवालियों के कंठ से भी नजीर की नज्में ही फूटती थीं।
नज़ीर अपनी रचनाओं में मनोविनोद करते हैं। हँसी-ठिठोली करते हैं। ज्ञानी की तरह नहीं. मित्र की तरह सलाह-मशविरा देते हैं, जीवन की समालोचना करते हैं। ‘सब ठाठ पड़ा रह जाएगा. जब लाद चलेगा बंजारा’ जैसी नसीहत देनेवाला यह कवि अपनी रचनाओं में जीवन का उल्लास और जीवन की सच्चाई उजागर करता है।
पाठ प्रवेश
प्रस्तुत नज्म ‘में कवि नज़ीर अकबराबादी ने आदमी के विभन्न रूपों का वर्णन किया है। उनके अनुसार इस संसार में हर तरह के आदमी बसे हुए हैं, फिर चाहे वो अच्छे हों या ख़राब। उनके अनुसार इन्हीं आदमियों में से कोई ऐसा है, जो दूसरों का भला चाहता है, उनकी सहायता करता है, अगर कोई मदद के लिए पुकारे, तो भाग कर जाता है।
इसके ठीक विपरीत कुछ आदमी ऐसे भी हैं, जिनके मन में पाप भरा हुआ है, वे दूसरों से नफरत करते हैं। दूसरों की चीज़ें चुराते हैं। दूसरों की इज़्ज़त से खिलवाड़ करने में उन्हें मज़ा आता है। इस प्रकार ‘आदमी नामा’ में नजीर ने कुदरत के सबसे नायाब बिरादर, आदमी को आईना दिखाते हुए उसकी अच्छाइयों, सीमाओं और संभावनाओं से परिचित कराया है और इस संसार को और भी सुंदर बनाने के संकेत भी दिए हैं।
शब्दार्थ
- बादशाह - राजा
- मुफलिस - गरीब, दीन -दरिद्र
- गदा - भिखारी,फकीर
- जरदार - मालदार, दौलतमंद
- बेनवा - कमजोर
- निअमत - स्वादिष्ट भोजन
- इमाम - नमाज पढ़ने वाले
- शाह - राजा
- वजीर - मंत्री
- मुरीद - भक्त, शिष्य, चाहने वाला
- पीर - धर्मगुरु, संत, भगवान का भक्त
- कारे - कार्य,काम
कविता
दुनिया में बादशाह है सो है वह भी आदमी
और मुफ़लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी
ज़रदार बेनवा है सो है वो भी आदमी
निअमत जो खा रहा है सो है वो भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी
भावार्थ - कवि ने इस संसार में अनेक तरह के व्यवहार वाले आदमी का वर्णन किया है।दुनिया में विभिन्न प्रकार के आदमी होते हैं, जैसे कुछ धनी व्यक्ति होते हैं, तो कुछ गरीब भी होते हैं। कुछ बुद्धिमान व्यक्ति होते हैं, तो कुछ मूर्ख भी होते हैं। यहां कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खाने वाले व्यक्ति हैं, तो जूठे तथा रूखे-सूखे टुकड़ों को खाकर पलने वाले आदमी भी यहीं मौजूद है।
कविता
मसजिद भी आदमी ने बनाई है यां मियाँ
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाख्वाँ
पढ़ते हैं आदमी ही कुरआन और नमाज़ यां
और आदमी ही उनकी चुराते हैं
जूतियाँ जो उनको ताड़ता है सो है वो भी आदमी
भावार्थ - कवि ने इन पंक्तियों में मनुष्य की अच्छी और बुरी प्रवृत्तियों का वर्णन किया है और इन्हीं प्रवृत्तियों के अनुसार मनुष्य का नामाकरण होता है।मस्जिद मस्जिद बनाने वाले आदमी होते हैं और इमाम पढ़ने वाले भी आदमी होते है। कुरान और नमाज अदा करने वाले भी आदमी ही होते हैं । यहां तक कि उनकी जूतियां या चप्पलें चुराने वाले आदमी ही होते हैं और उन पर नजर रखने वाले भी आदमी होते हैं। इस तरह से आदमी अपने व्यवहार के द्वारा जाने जाते हैं।
कविता
यां आदमी पै जान को वारे है
आदमी और आदमी पै तेग को मारे है
आदमी पगड़ी भी आदमी की उतारे है
आदमी चिल्ला के आदमी को पुकारे है
आदमी और सुनके दौड़ता है सो है वो भी आदमी
भावार्थ - इन पंक्तियों में कवि ने आदमी के प्रकृति के बारे में बताया है। कोई आदमी दूसरे आदमी की जान ले लेता है, तो कोई आदमी उसकी जान बचाता है। कोई आदमी किसी को बेइज्जत करता है, तो कोई आदमी उसकी इज्जत बचाने की कोशिश करता है। मदद मांगने के लिए जो पुकार लगाता है, वह भी आदमी है और जो वह पुकार सुनकर मदद करने के लिए दौड़ता है, वह भी आदमी ही है। इस तरह कवि ने हमें यह शिक्षा दी है कि मनुष्य विभिन्न प्रकृति के होते हैं। कोई भला करके खुश होता है, तो कोई बुरा करके।
कविता
अशराफ़ और कमीने से ले शाह ता वज़ीर
ये आदमी ही करते हैं सब कारे दिलपज़ीर
यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर
अच्छा भी आदमी ही कहाता है ए नज़ीर!
और सबमें जो बुरा है सो है वो भी आदमी
भावार्थ - कवि इन पंक्तियों के माध्यम से कहते हैं कि जो अच्छा है वह भी आदमी है और जो बुरा है वह भी आदमी है। जो राजा बनकर गद्दी पर बैठा है वह भी आदमी है और जो उसका मंत्री है वह भी आदमी है। किसी की खुशी के लिए कुछ भी कर देने वाला भी आदमी है और खुश होने वाला भी आदमी ही है। आदमी ही इच्छा रखने वाला है और उनकी इच्छाओं को पूरा करने वाला भी आदमी है। इस तरह से संसार में अच्छा और बुरा करने वाला जो भी है वह आदमी ही है।
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पाठ 10
एक फूल की चाह
सियारामशरण गुप्त (1895-1963)
कवि परिचय
सियारामशरण गुप्त का जन्म झाँसी के निकट चिरगाँव में सन् 1895 में हुआ था। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त इनके बड़े भाई थे। गुप्त जी के पिता भी कविताएँ लिखते थे। इस कारण परिवार में ही इन्हें कविता के संस्कार स्वतः प्राप्त हुए। गुप्त जी महात्मा गांधी और विनोबा भावे के विचारों के अनुयायी थे।
इसका संकेत इनकी रचनाओं में भी मिलता है। गुप्त जी की रचनाओं का प्रमुख गुण है कथात्मकता। इन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर करारी चोट की है। देश की ज्वलंत घटनाओं और समस्याओं का जीवंत चित्र इन्होंने प्रस्तुत किया है। इनके काव्य की पृष्ठभूमि अतीत हो या वर्तमान,उनमें आधुनिक मानवता की करुणा, यातना और द्वंद्व समन्वित रूप में उभरा है। सियारामशरण गुप्त
प्रमुख कृतियाँ हैं : मौर्य विजय, आर्द्रा, पाथेय, मृण्मयी, उन्मुक्त, आत्मोत्सर्ग, दूर्वादल और नकुल।
पाठ प्रवेश
‘एक फूल की चाह’ गुप्त जी की एक लंबी और प्रसिद्ध कविता है। प्रस्तुत पाठ उसी कविता का एक अंश मात्र है। पूरी कविता छुआछूत की समस्या पर केंद्रित है। एक मरणासन्न ‘अछूत’ कन्या के मन में यह चाह उठी कि काश! देवी के चरणों में अर्पित किया हुआ एक फूल लाकर कोई उसे दे देता। कन्या के पिता ने बेटी की मनोकामना पूरी करने का बीड़ा उठाया। वह देवी के मंदिर में जा पहुँचा। देवी की आराधना भी की, पर उसके बाद वह देवी के भक्तों की नज़र में खटकने लगा। मानव-मात्र को एकसमान मानने की नसीहत देनेवाली देवी के सवर्ण भक्तों ने उस विवश, लाचार, आकांक्षी मगर ‘अछूत’ पिता के साथ कैसा सलूक किया, क्या वह अपनी बेटी को फूल लाकर दे सका?
शब्दार्थ
- उद्वेलित - भाव- विह्वल
- महामारी - बड़े स्तर पर फैलने वाली बीमारी
- क्षीण - दबी आवाज
- नितांत - बिल्कुल, अलग, अत्यंत
- कृश - पतला, कमजोर
- रव - शोर
- तनु - शरीर
- ग्रसना - निगलना
- परिधान - वस्त्र
- शुचिता - पवित्रता
- अलस दोपहरी - आलस्य से भरी दोपहरी
कविता
उद्वेलित कर अश्रु- राशियां,
………….
………..
हाहाकार अपार अशांत।
भावार्थ- महामारी प्रचंड रूप धारण कर फैली हुई थी। लोगों के मन में बैठा हुआ डर बाहर आ रहा था। उसमें जिन माताओं ने अपनी संतानों को खो दिया था, उनकी करुण रुदन से हाहाकार मचा हुआ था। जिन माताओं की आवाज रोते-रोते कमजोर पड़ गई थी, उनकी भी रुदन दिल को दहला देने वाली थी और इस तरह से वातावरण में पूरी अशांति फैली थी।
कविता
बहुत रोकता था सुखी आपको,
…....
…….
किसी भांति इस बार उसे।
भावार्थ- कवि के अनुसार वह पिता जिसकी बेटी का नाम सुखिया था। महामारी के डर से वह उसे बाहर खेलने जाने से रोकता है, लेकिन उसकी बेटी अंदर बिल्कुल नहीं ठहरती है। बार-बार खेलने बाहर चली जाती है, जिसे देखकर लेखक का दिल धड़क उठता है। वह सोचता है कि काश! किसी तरह से उसे मना लेता।
कविता
भीतर जो डर रहा छिपाए,
…….
……
एक फूल ही दो लाकर।
भावार्थ- कवि कहते हैं कि सुखिया के पिता जिस बात से डर रहा था, वही बात हुई । एक दिन सुखिया के शरीर को उसने ज्वर से तप्त पायाशशश शशि ए और। आखिर, वह महामारी का शिकार हो ही गयी।सुखिया ने अपने पिता को चिंतित देखा, तो वह बेचैनी की हालत में बोली कि मुझे मां के चरणों का एक पुष्प लाकर दे दो, मैं ठीक हो जाऊंगी।
कविता
क्रमशः कंठ क्षीण हो आया,
…….
…..
कब आई संध्या गहरी।
भावार्थ -बुखार से सुखिया का शरीर कमजोर पड़ गया था। उसके मुंख से आवाज नहीं निकल रही थी ।उसके सारे अंग बेजान पड़ गए थे। पिता उसे जगाने के सारे उपाय करके थक गए थे। इसी चिंता में वह मनमारे हुए बैठे थे कि सुबह से कब दोपहर हुई और कब अंधकार में डूबी शाम हुई ,उन्हें पता ही नही चला।
कविता
सभी और दिखलाई दिल बस,
…….
…..
जग- मग जगते तारों- से।
भावार्थ - कवि कहते हैं कि सुखिया के पिता को चारों तरफ अंधकार ही अंधकार दिखाई दे रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह विशाल अंधकार उसकी बेटी को ग्रसने आया है ।यहां तक कि आकाश में चमकते हुए तारे भी उन्हें अंगारों जैसा प्रतीत हो रहे थे, जैसे वो उनकी आंखों को झुलसा रहे हो।
कविता
देख रहा था- जो सुस्थिर हो,
….
…..
एक फूल ही दो लाकर।
भावार्थ - कवि कहते है कि जो बच्ची एक जगह पर शांति से नहीं बैठती थी, वह आज चुपचाप ना टूटने वाली शांति धारण किए हुए लेटी हुई है। उसका पिता उसे जगा कर बार-बार पूछना चाहता है कि उसे देवी मां का प्रसाद का फूल चाहिए और उसे वह लाकर दें।
कविता
ऊंचे शैल- शिखर के ऊपर,
….
….
मुखरित उत्सव की धारा।
भावार्थ - कवि मंदिर के वातावरण का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पहाड़ के शिखर पर एक विशाल मंदिर था ।उसके आंगन में कमल के फूल ऐसे प्रतीत हो रहे थे, जैसे सूर्य का सुबह का प्रकाश पाकर सोने के कलश जगमगाते हो। मंदिर के अंदर और बाहर धूपबत्ती, दीपक से मंदिर का प्रांगण शोभायान हो रहा था। चारों ओर मंगल गान गाए जा रहे थे, जैसे कोई उत्सव मनाया जा रहा हो।
कविता
भक्त- वृंद मृदु-मधुर कंठ से,
….
…
जाने किस बल से ढिकला।
भावार्थ - कवि कहते हैं कि जब सुखिया का पिता मंदिर गया, तो वहां सारे भक्तवृंद एक ही स्वर में देवी मां की स्तुति कर आराधना कर रहे थे।
कविता
पतित- तारिणी पाप- हारिणी,
माता, तेरी -जय -जय -जय!
माता, तेरी जय- जय- जय –
सुखिया के पिता के मुंह से भी यह स्वर निकले -माता,तेरी जय -जय -जय-
फिर उसे प्रतीत हुआ कि कोई अनजान शक्ति उसे मंदिर के अंदर धकेल रही हो।
भीतर जो डर रहा छिपाएं,
……
…..
एक फूल ही दो लाकर।
भावार्थ - कवि कहते हैं कि जब सुखिया का पिता मंदिर में गया, तो पुजारी उसके हाथ से फूल और प्रसाद लेकर देवी मां की प्रतिमा को अर्पित करने के बाद अंजलि भरकर उसे प्रसाद देने लगा तो ठिठक -सा गया, क्योंकि सुखिया के पिता एक छोटी जाति का था और छोटी जाति वाले को मंदिर में प्रवेश करना निषेध था।अब सुखिया का पिता कल्पना में ही अपनी बेटी को देवी मां का प्रसाद दे रहा था।
कविता
सिंह पौर तक भी आंगन से,
….
…
भले मानुषों के जैसा।
भावार्थ - सुखिया का पिता प्रसाद लेकर अभी मंदिर के द्वार तक भी नहीं पहुंच पाया था कि लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। कहने लगे, “इस पापी को पकड़ो, कहीं या भाग न जाए। यह साफ- सुथरा परिधान पहनकर कैसे धूर्त बनकर मंदिर में घुस आया है।
कविता
पापी ने मंदिर में घुसकर,
…..
….
माता की महिमा की भी?
भावार्थ - सभी सुखिया के पिता को कहते हैं कि पापी ने मंदिर में घुसकर बहुत बड़ा अनर्थ किया है। इसने मंदिर की शुद्धता को नष्ट किया है।सुखिया का पिता रो -रो कर कहता रहा “मंदिर उसके घुसने से अशुद्ध कैसे हो गया! जबकि माता ने ही हम सभी मनुष्यों को बनाया है। फिर उनकी महिमा के आगे मेरी अशुद्ता कैसे बड़ी हो गई?”
कविता
मां के भक्त हुए तुम कैसे,
….
..
धम से नीचे गिरा दिया।
भावार्थ - कवि कहते हैं कि सुखिया का पिता रो रो कर कहता रहा, “आप लोग इस तरह के छोटे विचार रखकर मां के भक्त कैसे हुए? मां के सामने ही आप मां के गौरव को, मां की महिमा को छोटा कर रहे हैं। लेकिन भक्तों ने कुछ नहीं सुना और उसे पकड़ लिया तथा मुक्के-घूंसे से पीट-पीटकर जमीन पर गिरा दिया।
कविता
मेरे हाथों से प्रसाद भी,
….
..
देवी का महान अपमान।
भावार्थ - कवि कहते हैं कि सुखिया के पिता के हाथों से सारा प्रसाद बिखर गया। वह अपने अभागी बेटी तक पहुंच भी नहीं पाया ।फिर उसे लोग न्यायालय ले गये । वहां उसे सात दिनों की दंड की सजा सुनाई गई। उसने भी अपना अपराध स्वीकार कर लिया क्योंकि उससे देवी मां का महान अपमान हुआ था।
कविता
मैंने स्वीकृत किया वह दंड,
….
…
आंखें तनिक नहीं रीतीं।
भावार्थ - सुखिया का पिता सिर झुकाकर चुपचाप अपना दंड स्वीकार कर लिया। वह समझ नहीं पा रहा था कि अपनी सफाई में क्या कहें। उसकी आंखें सात दिनों तक बिना रुके बरसती रहीं फिर भी सुखी नहीं।
कविता
दंड भोग कर जब मैं छूटा,
…
…
अबकी दी ना दिखलाई वह।
भावार्थ - सात दिनों का दंड भोगकर जब सुखिया का पिता जेल से छूटता है, तो किसी अज्ञात आशंका से उसका पैर घर की तरफ नहीं उठ रहा है।जैसे लग रहा हो कि उसके कमजोर शरीर को कोई पीछे से धक्का दे रहा है। घर पहुंचने पर हर बार की तरह उसकी बेटी ना उसे लेने आई, ना ही खेल में उलझी हुई दिखाई दी।
कविता
उसे देखने मरघट को ही,
…..
….
हुई राख की थी ढेरी।
भावार्थ - सुखिया के पिता को घर पहुंचने के बाद उसकी बच्ची कहीं दिखाई नहीं देती है और जब उसकी मौत का पता चलता है, तो वह दौड़ते हुए श्मशान में जाता है; जहां उसके रिश्तेदार पहले ही उसे जला चुके होते हैं ।वह अपनी फूल- सी कोमल बच्ची को राख के ढेर में बदले हुए देखकर सिसक- सिसक रोने लगता है ।उसका कलेजा धधक उठता है।
कविता
अंतिम बार गोद में बेटी,
…..
…..
तुझको दे न सका मैं हा!
भावार्थ - सुखिया के पिता का ह्रदय बेटी के वियोग में तड़प रहा था। अंतिम समय में भी वह अपनी बेटी को गोद में ना ले सका और ना ही मां के प्रसाद का फूल लाकर दे सका।
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पाठ 11
गीत- अगीत
रामधारी सिंह’दिनकर’(1908-1974)
कवि परिचय
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव में 30 सितंबर 1908 को हुआ। वे सन् 1952 में राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किए गए। भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मभूषण’ अलंकरण से भी अलंकृत किया।
दिनकर जी को ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पुस्तक पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। अपनी काव्यकृति ‘उर्वशी’ के लिए इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। से दिनकर की प्रमुख कृतियाँ हैं: हुँकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा, उर्वशी और संस्कृति के चार अध्याय । दिनकर ओज के कवि माने जाते हैं। इनकी भाषा अत्यंत प्रवाहपूर्ण, ओजस्वी और सरल है। दिनकर की सबसे बड़ी विशेषता है, अपने देश और युग के सत्य के प्रति सजगता । दिनकर में विचार और संवेदना का सुंदर समन्वय दिखाई देता है। इनकी कुछ कृतियों में प्रेम और सौंदर्य का भी चित्रण है।
पाठ प्रवेश
प्रस्तुत कविता ‘गीत-अगीत’ में भी प्रकृति के सौंदर्य के अतिरिक्त जीव-जंतुओं के ममत्व, मानवीय राग और प्रेमभाव का भी सजीव चित्रण है। कवि को नदी के बहाव में गीत का सृजन होता जान पड़ता है, तो शुक शुकी के कार्यकलापों में भी गीत सुनाई देता है और आल्हा गाता प्रेमी तो गीत-गान में निमग्न दिखाई देता ही है। कवि का मानना है कि गुलाब, शुकी और प्रेमिका प्रत्यक्ष रूप से गीत-सृजन या गीत-गान भले ही न कर रहे हों, पर दरअसल वहाँ गीत का सृजन और गान भी हो रहा है। कवि की दुविधा महज़ इतनी है कि उनका वह अगीत (जो गाया जा रहा, महज इसलिए अगीत है) सुंदर है या प्रेमी द्वारा सस्वर गाया जा रहा गीत?
शब्दार्थ
- तटिनी - नदी, तटों के बीच बहती हुई
- वेगवती - तेज गति से
- उपलों - किनारों से
- निर्झरी - झरना
- पाटल - गुलाब
- शुक - तोता
- खोंते - घोंसला
- पर्ण - पत्ता,पंख
- शुकी - मादा तोता
- बिधना - भाग्य, विधाता
- गुनती - विचार करती है
- वेग - गति
कविता
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
गाकर गीत विरह के तटिनी
वेगवती बहती जाती है,
दिल हलका कर लेने को
उपलों से कुछ कहती जाती है।
तट पर एक गुलाब सोचता,
“देते स्वर यदि मुझे विधाता,
अपने पतझर के सपनों का
मैं भी जग को गीत सुनाता । “
गा-गाकर बह रही निर्झरी,
मूक खड़ा तट पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
भावार्थ- रामधारी सिंह ‘दिनकर’ने कविता ‘गीत अगीत’ की इन पंक्तियों में कवि ने जंगलों एवं पहाड़ों के बीच बहती हुई एक नदी का वर्णन किया है। उन्होंने कहा है कि विरह अर्थात बिछड़ने का गीत गाती हुई नदी, अपने मार्ग में बड़ी तेजी से बहती जाती है।
नदी अपने वेग में बहती हुई जा रही है। वह अपनी विरह वेदना के गीत को किनारों से, जंगलों से, पहाड़ों से सुनाती हुई चली जा रही है।वहीं किनारे पर एक गुलाब खड़ा सोच रहा है कि अगर मुझे भी ईश्वर ने स्वर दिया होता, तो मैं भी अपनी पतझड़ के दिनों का अर्थात् दुख के दिनों की व्यथा को संसार को सुनाता।
निर्झरी गाती हुई बह रही है और गुलाब चुपचाप खड़ा होकर सोच रहा है।
कविता
बैठा शुक उस घनी डाल पर
जो खोंते पर छाया देती।
पंख फुला नीचे खोंते में
शुकी बैठ अंडे है सेती।
गाता शुक जब किरण वसंती
छूती अंग पर्ण से छनकर।
किंतु, शुकी के गीत उमड़कर
रह जाते सनेह में सनकर।
रहा शुक का स्वर वन में,
फूला मग्न शुकी का पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
भावार्थ- कवि ने यहां शुक और शुकी की क्रियाकलापों को दर्शाकर गीत और अगीत में अंतर बताना चाहा है।
यहां शुक जिस पेड़ की डाल पर बैठकर बसंती हवा के स्पर्श से मदमस्त होकर शुकी के प्रेम का गीत गा रहा है, उसी वृक्ष की छांव में उसका घोंसला है, जिसमें शुकी अपने पंख को फैलाकर अंडे से रही है।वह शुक के गीत को सुनकर खुश होती है और अपने पंखों को फुलाकर अपनी खुशी जाहिर करती है।शुकी के स्वर भी बाहर आना चाहते हैं, परंतु वह निकल नहीं पाते, उसके बच्चे के स्नेह में दबकर रह जाते हैं।
कविता
दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब
बड़े साँझ आल्हा गाता है,
पहला स्वर उसकी राधा को
घर से यहाँ खींच लाता है।
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर सुनती है,
‘हुई न क्यों मैं कड़ी गीत की
बिधना’, यों मन में गुनती है।
वह गाता, पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
भावार्थ- इन पंक्तियों में कवि ने दो प्रेमियों का वर्णन किया है। प्रेमी जब शाम के समय अपनी प्रेमिका को बुलाने के लिए प्रेम भरे गीत गाता है, तो उसके स्वर को सुनकर प्रेमिका खिंची चली आती है। वह नीम के पेड़ के आड़ में छिपकर अपने प्रेमी के गीत को सुनती है और सोचती है काश! वह उसके गीत की कड़ी होती। वह चुपचाप उस पेड़ के आड़ में खड़ी होकर उसके गीत का आनंद लेती है।
इस प्रकार एक और प्रेमी अपने प्रेम का इजहार करने के लिए गीत गाता है और दूसरी ओर प्रेमिका चुप रह कर भी उसके गीत को सुनकर प्रभावशाली ढंग से अपने प्यार को व्यक्त करती है। इसलिए उसका अगीत भी किसी मधुर गीत से कम नहीं है।
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पाठ 12
अग्निपथ
हरिवंश राय बच्चन (1907-2003)
कवि परिचय
हरिवंशराय बच्चन का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में 27 नवंबर 1907 को हुआ। ‘बच्चन’ इनका माता-पिता द्वारा प्यार से लिया जानेवाला नाम था. जिसे इन्होंने अपना उपनाम बना लिया था। बच्चन कुछ समय तक विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहने के बाद भारतीय विदेश सेवा में चले गए थे। इस दौरान इन्होंने कई देशों का भ्रमण किया और मंच पर ओजस्वी वाणी में काव्यपाठ के लिए विख्यात हुए।
बच्चन की कविताएँ सहज और संवेदनशील हैं। इनकी रचनाओं में व्यक्ति-वेदना, राष्ट्र- चेतना और जीवन-दर्शन के स्वर मिलते हैं। इन्होंने आत्मविश्लेषणवाली कविताएँ भी लिखी हैं। राजनैतिक जीवन के ढोंग, सामाजिक असमानता और कुरीतियों पर व्यंग्य किया है। कविता के अलावा बच्चन ने अपनी आत्मकथा भी लिखी, जो हिंदी गद्य की बेजोड़ कृति मानी गई। बच्चन की प्रमुख कृतियाँ हैं : मधुशाला, निशा- निमंत्रण, एकांत संगीत, मिलन यामिनी, आरती और अंगारे, टूटती चट्टानें, रूप तरंगिणी (सभी कविता संग्रह) और आत्मकथा के चार खंड : क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक। बच्चन साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार और सरस्वती सम्मान से सम्मानित हुए।
पाठ-प्रवेश
प्रस्तुत कविता में कवि ने संघर्षमय जीवन को ‘अग्नि पथ’ कहते हुए मनुष्य को यह संदेश दिया है कि राह में सुख रूपी छाँह की चाह न कर अपनी मंजिल की ओर कर्मठतापूर्वक बिना थकान महसूस किए बढ़ते ही जाना चाहिए। कविता में शब्दों की पुनरावृत्ति कैसे मनुष्य को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है, यह देखने योग्य है।
शब्दार्थ
- अग्नि पथ- कठिनाइयों से भरा हुआ मार्ग, आगयुक्त मार्ग
- पत्र- पत्ता
- शपथ- कसम, सौगंध
- अश्रु- आँसू
- स्वेद- पसीना
- रक्त- खून, शोणित
- लथपथ- सना हुआ
कविता
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने, हों बड़े,
एक पत्र – छाँह भी माँग मत, माँग मत!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ! माँग मत!
भावार्थ-कवि हमारे देश के महान युवाओं को संबोधित करते हुए कहते हैं कि यह जीवन धूप और छांव की तरह है अर्थात् हमारे जीवन में सुख- दुख लगे रहते हैं। इसलिए हमें बिना किसी सुख की कामना रखते हुए, जीवन की कठिनाइयों का सामना करते हुए आगे बढ़ने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए और संघर्ष करते करते रहना चाहिए।
कविता
तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी!-कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
भावार्थ- कवि इन पंक्तियों के माध्यम से कहते हैं कि जब तक हम अपने लक्ष्य को प्राप्त ना कर ले, तब तक हमें किसी सुख की कामना नहीं करनी है और ना ही रुकना है। कवि ने ऐसा अपने आप से शपथ लेने की बात कही है और युवाओं को प्रोत्साहित किया है।
कविता
यह महान दृश्य है
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ !
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
भावार्थ-इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने कहा है कि मनुष्य अपने कर्मपथ पर चलता है।उसे बहुत संघर्ष कर-ना पड़ता है। वह काफी थक जाता है और इस वजह से अश्रु, पसीने तथा कभी-कभी वह खून से भी लथपथ हो जाता है। मनुष्य का कर्मपथ पर चलता हुआ वह अनुभव अद्भुत लग रहा है।
इसलिए कवि को वह दृश्य बहुत ही मनोरम लग रहा है। जो बिना रुके, बिना थमे जीवन की कठिनाइयों का सामना करते हुए आगे बढ़ता है, वही जीवन में सफल होता है।
कवि परिचय, रचनाएँ, शब्दार्थ, भावार्थ, प्रसंग , स्पष्टीकरण
- Books Name
- Hindi ki pathshala HIndi Course B Book
- Publication
- Hindi ki pathshala
- Course
- CBSE Class 9
- Subject
- Hindi
पाठ 13
1) खुशबू रचते हैं हाथ। 2) नए इलके में
अरुण कमल (1954)
कवि परिचय
अरुण कमल का जन्म बिहार के रोहतास जिले के नासरीगंज में 15 फरवरी 1954 को हुआ। ये इन दिनों पटना विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। इन्हें अपनी कविताओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। इन्होंने कविता-लेखन के अलावा कई पुस्तकों और रचनाओं का अनुवाद भी किया है।
अरुण कमल की प्रमुख कृतियाँ हैं : अपनी केवल धार, सबूत, नए इलाके में, पुतली में संसार (चारों कविता-संग्रह) तथा कविता और समय (आलोचनात्मक कृति)। इनके अलावा अरुण कमल ने मायकोव्यस्की की आत्मकथा और जंगल बुक का हिंदी में और हिंदी के युवा कवियों की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो ‘वॉयसेज’ नाम से प्रकाशित हुआ।
पाठ -प्रवेश
प्रस्तुत पाठ की पहली कविता ‘नए इलाके में’ में एक ऐसी दुनिया में प्रवेश का आमंत्रण है, जो एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है। यह इस बात का बोध कराती है। कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं होता। इस पल-पल बनती-बिगड़ती दुनिया में स्मृतियों के भरोसे नहीं जिया जा सकता। इस पाठ की दूसरी कविता ‘खुशबू रचते हैं हाथ’ सामाजिक विषमताओं को बेनकाब करती है। यह किसकी और कैसी कारस्तानी है कि जो वर्ग समाज में सौंदर्य की सृष्टि कर रहा है और उसे खुशहाल बना रहा है, वहाँ वर्ग अभाव में, गंदगी में जीवन बसर कर रहा है? लोगों के जीवन में सुगंध बिखेरनेवाले हाथ भयावह स्थितियों में अपना जीवन बिताने पर मजबूर हैं। क्या विडंबना है कि खुशबू रचनेवाले ये हाथ दूरदराज के सबसे गंदे और बदबूदार इलाकों में जीवन बिता रहे हैं। स्वस्थ समाज के निर्माण में योगदान करनेवाले थे लोग इतने उपेक्षित हैं। आखिर कब तक?
शब्दार्थ
- इलाका -क्षेत्र
- अकसर -प्राय:
- ढहा -गिरा हुआ, ध्वस्त
- स्मृति -याद
- जख्म - घाव, चोट
- रातरानी -एक सुगंधित फूल
- मशहूर -प्रसिद्ध
कविता
नए इलाके में
इन नए बसते इलाकों में
जहाँ रोज़ बन रहे हैं नए-नए मकान
मैं अकसर रास्ता भूल जाता हूँ
धोखा दे जाते हैं पुराने निशान
खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढहा हुआ घर
और ज़मीन का खाली टुकड़ा जहाँ से बाएँ
मुड़ना था मुझे फिर दो मकान बाद बिना रंगवाले लोहे के फाटक का
घर था इकमंजिला
और मैं हर बार एक घर पीछे
चल देता हूँ
या दो घर आगे ठकमकाता
भावार्थ-प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि ने शहर में हो रहे अंधा-धुंध निर्माण और बदलाव के बारे में बताया है। रोज कुछ न कुछ बदल ही रहा है। आज अगर कुछ टूटा हुआ है, या कहीं कोई खाली मैदान है, तो कल वहाँ बहुत ही बड़ी -बड़ी इमारतें बन चुकी होंगी। नए-नए मकान बनने के कारण रोज नए-नए इलाके भी बन जा रहे हैं। जहाँ पहले सुनसान रास्ता हुआ करता था। आज वहाँ काफी लोग रहने लगे हैं और चहल-पहल दिखने लगी है। यही कारण है कि लेखक को रास्ते पहचानने में तकलीफ़ होती है और वह अक्सर रास्ता भूल जाता है।
यहां रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहां स्मृति का भरोसा नहीं
एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया
जैसे हो बसंत का गया पतझड़ को लौटा हूं
जैसे बैसाख का गया भादो को लौटा हूं
अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ
और पूछो-क्या यही है वह पर?
समय बहुत कम है तुम्हारे पास
हां चला पानी ढहा आ रहा अकास
शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।
भावार्थ-इन पंक्तियों के माध्यम से कवि अपने रास्ते को भूल जाने का कारण बताते हैं । कवि ने अपने घर को पहचानने का जो स्मृति पटल बनाया था, आज वहां अब ऐसा कुछ भी नहीं है। ना वो खाली जमीन है , ना ही वह पीपल का पेड़ है जहां से उन्हें बाएं मुड़ना था और वहीं पर लोहे के फाटक वाला उनका एक मंजिला घर था। इसलिए कवि कह रहे हैं कि इस बदलती दुनिया में स्मृति का कोई भरोसा नहीं है।
खुशबू रचते हैं हाथ
कई गलियों के बीच
कई नालों के पार
कूड़े-करकट
के ढेरों के बाद
बदबू से फटते जाते इस
टोले के अंदर
खुशबू रचते हैं हाथ खुशबू रचते हैं हाथ।
उभरी नसोंवाले हाथ
घिसे नाखूनोंवाले हाथ
पीपल के पत्ते-से नए-नए हाथ
जूही की डाल-से खुशबूदार हाथ
गंदे कटे-पिटे हाथ
ज़ख्म से फटे हुए हाथ खुशबू रचते हैं हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ।
यहीं इस गली में बनती हैं
मुल्क की मशहूर अगरबत्तियाँ
इन्हीं गंदे मुहल्लों के गंदे लोग
बनाते हैं केवड़ा गुलाब खस और रातरानी अगरबत्तियाँ
दुनिया की सारी गंदगी के बीच
दुनिया की सारी खुशबू
रचते रहते हैं हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ।
भावार्थ- कवि ने इन पंक्तियों के माध्यम इस संसार के यथार्थ को दर्शाया है। यहां शहर की मशहूर अगरबत्तियां, खुशबू देने वाली अगरबत्तियां बनाई जाती हैं। इस गंदगी के बीच जहां से गंदे नाले निकाले जाते हैं, जहां पर कूड़े-करकट का ढेर लगा हुआ है, उसी के पास उनकी बस्ती है। यह कैसी विडंबना है कि खुशबू देने वाली अगरबत्ती बनाने वाले लोग इन गंदी बस्ती में गुजारा करते हैं।
उभरी नसोंवाले हाथ
घिसे नाखूनोंवाले हाथ
पीपल के पत्ते-से नए-नए हाथ
जूही की डाल-से खुशबूदार हाथ
गंदे कटे-पिटे हाथ
ज़ख्म से फटे हुए हाथ खुशबू रचते हैं हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ।
यहीं इस गली में बनती हैं
मुल्क की मशहूर अगरबत्तियाँ
इन्हीं गंदे मुहल्लों के गंदे लोग
बनाते हैं केवड़ा गुलाब खस और रातरानी अगरबत्तियाँ
दुनिया की सारी गंदगी के बीच
दुनिया की सारी खुशबू
रचते रहते हैं हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ
खुशबू रचते हैं हाथ।
भावार्थ-अगरबत्ती बनाने वाले लोगों के हाथों की नसें उभरी हुई दिख रही हैं, तो कहीं सबकी नाखूनें घिसी हुई दिख रही हैं। पीपल के पत्ते जैसे नाजुक हाथ वाले बच्चे हैं यह काम कर रहे हैं। ऐसी लड़कियां जिनके हाथ जूही से डाल से पतले हाथ वह भी इस काम में लगे हुए हैं अर्थात के बच्चे बूढ़े सभी दिन रात लगे हुए हैं