पाठ 12 सुदामा चरित

प्रस्तुत दोहे में यह कहा गया है कि जब सुदामा दीन-हीन अवस्था में कृष्ण के पास पहुँचे तो कृष्ण उन्हें देखकर व्यथित हो उठे। श्रीकृष्ण ने सुदामा के आगमन पर उनके पैरों को धोने के लिए परात में पानी मँगवाया परन्तु सुदामा की दुर्दशा देखकर श्रीकृष्ण को इतना कष्ट हुआ कि वे स्वयं रो पड़े और उनके आँसुओं से ही सुदामा के पैर धुल गए।

पाठ का सार - ‘सुदाम चरित्र’ कृष्ण और सुदाम पर आधारित एक बहुत सुन्दर रचना है। इसके कवि नरोत्तम दास जी हैं, नरोत्तम दास जी ने इस रचना को दोहे के रूप में प्रस्तुत किया है और ऐसा लगता है जैसे दोहा न हो कर श्री कृष्ण और सुदामा की कथा पर आधारित नाटक प्रस्तुत हो रहा है।

‘सुदामा चरित’ के पदों में नरोत्तम दास जी ने श्री कृष्ण और सुदामा के मिलन, सुदामा की दीन अवस्था व कृष्ण की उदारता का वर्णन किया है। सुदामा जी बहुत दिनों के बाद द्वारिका आए। कृष्ण से मिलने के लिए कारण था, उनकी पत्नी के द्वारा उन्हें जबरदस्ती भेजा जाना। उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं थी। बहुत दिनों के बाद दो मित्रों का मिलना और सुदामा की दीन अवस्था और कृष्ण की उदारता का वर्णन भी किया गया है। किस तरह से उन्होंने मित्रता धर्म निभाते हुए सुदामा के लिए उदारता दिखाई, वह सब किया जो एक मित्र को करना चाहिए। साथ ही में उन्होंने श्री कृष्ण और सुदामा की आपस की नोक-झोक का बड़ी ही कुशलता से वर्णन किया है। इसमें उन्होंने यह भी दर्शाया है कि श्री कृष्ण कैसे अपने मित्रता धर्म का पालन बिना सुदामा के कहे हुए उनके मन की बात जानकर कर देते हैं। मित्र का यह सबसे प्रथम कर्तव्य रहता है कि वह अपनी मित्र के बिना कहे उसके मन की बात और उसकी अवस्था को जान ले और उसके लिए कुछ करें और उदारता दिखाऐं यही उसकी महानता है।

सुदामा का परिचय -

सुदामा कृष्ण के परम मित्र तथा भक्त थे। वे समस्त वेद-पुराणों के ज्ञाता और विद्वान् ब्राह्मण थे। श्री कृष्ण से उनकी मित्रता ऋषि संदीपनी के गुरुकुल में हुई। सुदामा जी अपने ग्राम के बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे और अपना जीवन यापन ब्राह्मण रीति के अनुसार वृत्ति मांग कर करते थे।

कठिन शब्द अर्थ -

  • सीस – सिर
  • पगा – पगड़ी
  • झगा – कुरता
  • तन – शरीर
  • द्वार – दरवाजा
  • खड़ो – खड़ा है
  • द्विज दुर्बल – दुर्बल ब्राहमण
  • रह्मो चकिसो – चकित
  • वसुधा – धरती
  • अभिरामा – सुन्दर
  • पूछत – पूछना
  • दीनदायल – प्रभु कृष्ण
  • धाम – स्थान
  • बिवाइन सों – फटी ऐड़ियाँ
  • पग – पाँव
  • कंटक – काँटा
  • पुनि जोए – निकालना
  • महादुख – बहुत दुख
  • सखा – मित्र
  • इतै न कितै – इतने दिन
  • दीन दसा – बुरी दशा
  • करुना करिकै – दया करके
  • करुनानिधि – दया के सागर
  • पानी परात – खुला बर्तन
  • हाथ छुयो नहिं – हाथ न लगाया
  • नैनन के जल – आँखों के आँसुओं
  • पग – पैर
  • पोटरी – पोटली
  • चाबि – चबाना
  • बान – आदत
  • प्रवीन – कुशल
  • पाछिलि बानि – पुरानी आदत
  • तजी – छोड़ी
  • तंदुल – सौगात

सुदामा चरित कविता का सारांश : सुदामा चरित कविता में कवि नरोत्तमदास जी ने श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का वर्णन किया है। उन्होंने कविता में बताया है कि सुदामा जी अपनी गरीबी और बदहाली से तंग आकर अपने परम मित्र श्री कृष्ण से मदद मांगने जाते हैं। वहाँ उनकी हालत देखकर द्वारपाल उन्हें महल में घुसने नहीं देते। फिर जब श्रीकृष्ण को उनके आने का पता चलता है, तो दौड़े चले आते हैं और अपने अश्रुओं से सुदामा जी के पैर धुलाते हैं।

फिर श्रीकृष्ण सुदामा जी की पोटली से चावल खा लेते हैं और उन्हें उलाहना देते हैं कि कैसे एक बार बचपन में सुदामा उनके हिस्से के चने खा गए थे। इस तरह खूब आदर सत्कार करके प्रभु सुदामा जी को विदा कर देते हैं।

लौटते समय सुदामा जी को दुख होता है कि श्रीकृष्ण ने उन्हें बिना कुछ दिए ही विदा कर दिया। मगर, जब वो अपने गाँव पहुँचते हैं, तो उन्हें अपनी झोंपड़ी की जगह आलीशान महल मिलता है। इसे देख कर वो भावविभोर हो जाते हैं और श्रीकृष्ण की महिमा गाते हैं।

सुदामा चरित कविता का भावार्थ

सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।

धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा॥

द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।

पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥

सुदामा चरित भावार्थ: इस पद में कवि ने सुदामा के श्रीकृष्ण के महल के द्वार पर खड़े होकर अंदर जाने की इजाज़त मांगने का वर्णन किया है।

श्रीकृष्ण का द्वारपाल आकर उन्हें बताता है कि द्वार पर बिना पगड़ी, बिना जूतों के, एक कमज़ोर आदमी फटी सी धोती पहने खड़ा है। वो आश्चर्य से द्वारका को देख रहा है और अपना नाम सुदामा बताते हुए आपका पता पूछ रहा है।

ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।

हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥

देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।

पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥

सुदामा चरित भावार्थ: द्वारपाल के मुँह से सुदामा के आने का ज़िक्र सुनते ही श्रीकृष्ण दौड़कर उन्हें लेने जाते हैं। उनके पैरों के छाले, घाव और उनमें चुभे कांटे देखकर श्रीकृष्ण को कष्ट होता है, वो कहते हैं कि मित्र तुमने बड़े दुखों में जीवन व्यतीत किया है। तुम इतने समय मुझसे मिलने क्यों नहीं आए? सुदामा जी की दयनीय दशा देखकर श्रीकृष्ण रो पड़ते हैं और पानी की परात को छुए बिना, अपने आंसुओं से सुदामा जी के पैर धो देते हैं।

कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत।

चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥

आगे चना गुरु-मातु दिये त, लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।

श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥

पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।

पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥

सुदामा चरित भावार्थ: सुदामा जी की अच्छी आवभगत करने के बाद कान्हा उनसे मजाक करने लगते हैं। वो सुदामा जी से कहते हैं कि ज़रूर भाभी ने मेरे लिए कुछ भेजा होगा, तुम उसे मुझे दे क्यों नहीं रहे हो? तुम अभी तक सुधरे नहीं। जैसे, बचपन में जब गुरुमाता ने हमें चने दिए थे, तो तुम तब भी चुपके से मेरे हिस्से के चने खा गए थे। वैसे ही आज तुम मुझे भाभी का दिया उपहार नहीं दे रहे हो।

वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की बात।

यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जात॥

घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।

कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥

हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि।

कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ सकेलि॥

सुदामा चरित भावार्थ: इस पद में सुदामा के वापिस घर की तरफ लौटने का वर्णन है। वो सोचते हैं कि मैं मदद की उम्मीद लेकर श्रीकृष्ण के पास आया, लेकिन श्रीकृष्ण ने तो मेरी कोई मदद ही नहीं की। लौटते समय निराश और खिन्न सुदामा जी के मन में कई विचार घूम रहे थे, वो सोच रहे थे कि कृष्ण को समझना किसी के वश में नहीं है। एक तरफ तो उसने मुझे इतना आदर-सम्मान दिया, वहीं दूसरी तरफ मुझे बिना कुछ दिए लौटा दिया।

मैं तो यहां आना ही नहीं चाहता है, वो तो मेरी धर्मपत्नी ने मुझे जबरदस्ती द्वारका भेज दिया। ये कृष्ण तो खुद बचपन में ज़रा-से मक्खन के लिए पूरे गाँव के घरों में घूमता था, इससे मदद की आस लगाना ही बेकार था।

वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।

वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।

भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।

पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥

सुदामा चरित भावार्थ: जब सुदामा अपने गाँव पहुंचते हैं, तो उन्हें आसपास सबकुछ बदला-बदला दिखता है। सामने बड़े महल, हाथी-घोड़े, गाजे-बाजे आदि देखकर सुदामा जी सोचते हैं कि कहीं मैं रास्ता भटककर फिर से द्वारका नगरी तो नहीं आ पहुंचा हूँ? मगर, थोड़ा ध्यान से देखने पर वो समझ जाते हैं कि ये उनका अपना गाँव ही है। फिर उन्हें अपनी झोंपड़ी की चिंता सताती है, वो बहुत लोगों से पूछते हैं, मगर अपनी झोंपड़ी को ढूँढ नहीं पाते।

कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत।

कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥

भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।

कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥

सुदामा चरित भावार्थ: जब सुदामा जी को श्रीकृष्ण की महिमा समझ आती है, तो वो उनकी महिमा गाने लगते हैं। वो सोचते हैं कि कहाँ तो मेरे सिर पर टूटी झोंपड़ी थी, अब सोने का महल मेरे सामने खड़ा है। कहाँ तो मेरे पास पहनने को जूते नहीं थे, अब मेरे सामने हाथी की सवारी लेकर महावत खड़े हैं। कठोर ज़मीन की जगह मेरे पास नरम बिस्तर हैं। पहले मेरे पास दो वक्त खाने को चावल भी नहीं होते थे, अब मनचाहे पकवान हैं। ये सब प्रभु की कृपा से ही संभव हुआ है, उनकी लीला अपरम्पार है।