पाठ 9 कबीर की साखियाँ

कबीर दास का जीवन परिचय :  संत कबीर दास का जन्म सन् 1400 के आसपास वाराणसी में हुआ। ज्ञानी और संतों के साथ रहकर कबीर ने दीक्षा और ज्ञान प्राप्त किया। वह धार्मिक कर्मकांडों से परे थे। उनका मानना था कि परमात्मा एक है, इसलिए वे हर धर्म की आलोचना और प्रशंसा करते थे। उन्होने अपने अतिंम क्षण मगहर में व्यतीत किएं। कबीर दास की रचनाएँ कबीर ग्रंथावली में संग्रहीत है।

पाठ का सार -

इन दोहों में कबीर मानवीय प्रवर्तियों को प्रस्तुत करते हैं। पहले दोहे में कवि कहते हैं कि मनुष्य की जाति उसके गुणों से बड़ी नहीं होती है। दूसरे में कहते हैं कि अपशब्द के बदले अपशब्द कहना कीचड़ में हाथ डालने जैसा है। तीसरे दोहे में कवि अपने चंचल मन व्यंग कर रहें हैं कि माला और जीभ प्रभु के नाम जपते हैं पर मन अपनी चंचलता का त्याग नहीं करता। चौथे में कहते हैं कि किसी को कमजोर समझकर दबाना नहीं चाहिए क्योंकि कभी-कभी यही हमारे लिए कष्टकारी हो जाता है। जैसे हाथी और चींटी। एक छोटी सी चींटी हाथी को भी बहुत परेशान कर सकती है। पाँचवे दोहे का भाव यह हैं कि मनुष्य अपनी मानसिक कमजोरियों को दूर करके संसार को खुशहाल और दयावान बना सकता है।

पाठ  का अर्थ-

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल  करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।1।।

अर्थ - यह कबीर जी मनुष्य के गुणों को उजागर करते हुए कहते है की जिस प्रकार एक साधू संत का ज्ञान हे काम आता है उसकी जट्टी नहीं उसी प्रकार तलवार की विशेषता उसकी तेज़ धार है न की म्यान इसलिए मनुष्य को बिना किसी भेदभाव के रहना चाहिए और सद्गुणों को अपनाना चाहिए।

आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक।

कह कबीर नहिं उलटिए,वही एक की एक।।2।।

अर्थ - यदि कोई हमे अपशब्द कहता है और बदले में यदि हमने भी उसे अपशब्द कह दिए तो बात बढ़ जाती है और अपशब्दों की भरमार हो जाती है पर यदि उस समय मौन धारण कर पलट कर अपशब्द न बोले जाये  तो लड़ाई व्ही रुक जाती है इसलिए मनुष्य को संतोष से काम लेना चाहिए।

माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि।

मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै,  यह तौ सुमिरन नाहिं।।3।।

अर्थ - यह कबीर प्रभु की आराधना के बारे में कहते है की हाथों में माला फेरना और अपनी जिव्हा से प्रभु का नाम जपना हे प्राथना नहीं होती यदि मन दूसरी दिशा में है तो इस प्राथना का कोई अर्थ नहीं। मनुष्य को एक हे दिशा में ध्यान लगाना चाहिए।

कबीर घास न नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ।

उड़ि पड़ै जब आँखि मैं, खरी दुहेली होइ।।4।।

अर्थ - कबीर जी कहते है की कभी किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए जिस प्रकार पाऊँ से घांस को दबा देते है उसकी निंदा करते है उसी घास का छोटा सा तिनका जब आँख में पड़ता है तो बहुत हे तकलीफ होती है।

जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होय।

या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय।।5।।

अर्थ - यदि मनुष्य का मन शांत होता हो तो जगत में उसका कोई शत्रु नहीं होता और यदि वह काम क्रोधजैसी बुरी भावनाओं को त्याग दे तो वह महान बन सकता है।

कठिन शब्द अर्थ

  • साधु: साधू या सज्जन
  • ज्ञान: जानकारी
  • मेल: खरीदना
  • तरवार: तलवार
  • रहन: रहने
  • म्यान: जिसमे तलवार रखीं जाती है
  • आवत: आते हुए
  • गारी: गाली
  • उलटत: पलटकर
  • होइ: होती
  • अनेक: बहुत सारी
  • माला तो कर: हाथ
  • फिरै: घूमना
  • जीभि: जीभ
  • मुख: मुँह
  • माँहि: में
  • मनुवाँ: मन
  • दहुँ: दसों
  • दिसि: दिशा
  • तौ: तो
  • सुमिरन: स्मरण
  • नींदिए: निंदा करना
  • पाऊँ: पाँव
  • तलि: नीचे
  • आँखि: आँख
  • खरी: कठिन
  • दुहेली: दुःख देने वाली
  • जग: संसार
  • बैरी: शत्रु
  • सीतल: शांति
  • आपा: स्वार्थ