पाठ 14  अकबरी लोटा

पाठ का अर्थ -

अन्नपूर्णानन्द वर्मा जी की कहानी “अकबरी लोटा” एक रोचक मगर हास्य पूर्ण कहानी है । अकबरी लोटा कहानी का ताना-बाना लेखक ने कुछ इस शानदार अंदाज में बुना है कि पाठक की रूचि कहानी के अन्त तक बनी रहती है।

संक्षेप में कहानी बस इतनी सी है कि एक दोस्त ने अपनी “सच्ची मित्रता का धर्म” निभाने का पूरा पूरा प्रयास किया। जिसके लिए उन्होंने थोड़ा झूठ का सहारा भी लिया। उन्होंने एक बेकार व बेढंगे से लोटे को “ऐतिहासिक अकबरी लोटा” बताकर एक अंग्रेज अधिकारी को मूर्ख बनाया और फिर उसे अच्छे खासे दामों में उस अंग्रेज अधिकारी को ही बेच दिया। जिससे उनके दोस्त की आर्थिक समस्या भी हल हो गई और अंग्रेज अधिकारी भी खुश हो गया।

पाठ का सार -

“अकबरी लोटा” कहानी के मुख्य पात्र लाला झाऊलाल का काशी के ठठेरी बाजार में एक मकान था। मकान के नीचे की दुकानों से उन्हें 100/-रुपया मासिक (महीने का) किराया मिलता था जिससे उनका गुजारा अच्छे से हो जाता था। आम तौर पर उनको पैसे की तंगी नही रहती थी।

लेकिन समस्या तब शुरू हुई जब एक दिन अचानक उनकी पत्नी ने ढाई सौ रुपए (250/-) लालाजी से मांग लिए। मगर लालाजी के पास पत्नी को देने के लिए उस समय पैसे नहीं थे। इसलिए उन्होंने थोड़ा सा मुंह बनाकर पत्नी की तरफ देखा।

इस पर पत्नी ने अपने भाई से ढाई सौ रुपए मांग लेने की बात कही जिस पर लालाजी थोड़ा तिलमिला गए। उनकी इज्जत का भी सवाल था। इसीलिए उन्होंने अपनी पत्नी से एक सप्ताह के अंदर रुपए देने का वादा कर दिया।

लालाजी ने अपनी पत्नी को पैसे देने का वादा तो कर दिया लेकिन घटना के चार दिन बीत जाने के बाद भी लालाजी पैसों का प्रबंध न कर सके। पांचवें दिन लालाजी ने अपनी इस परेशानी का ज़िक्र अपने मित्र पंड़ित बिलवासी मिश्रजी से किया । पंड़ित बिलवासी मिश्रजी ने लाला जी को आश्वस्त किया कि वह किसी न किसी प्रकार रुपयों का इंतजाम कर उनकी समस्या अवश्य हल कर देंगें ।

अंग्रेज अधिकारी का गुस्सा होना लाजमी था सो वह गुस्से से लाल पीला होकर , गालियां देता हुआ लालाजी के घर में घुस गया। ठीक उसी समय पंड़ित बिलवासी मिश्र जी भी वहां पर प्रकट हो गए। उन्होंने क्रोधित अंग्रेज अधिकारी को आराम से एक कुर्सी में बैठाया और झूठा गुस्सा दिखा कर लालाजी से नाराज होने का नाटक करने लगे।

अंग्रेज अधिकारी से थोड़ी देर बात करने के बाद , वो उस अंग्रेज अधिकारी के सामने उस बेढंगे से लोटे को खरीदने में दिलचस्पी दिखाने लगे और उस अंग्रेज अधिकारी के सामने उस बेढंगे व बदसूरत लोटे को ऐतिहासिक व बादशाह अकबर का लोटा बता कर उसका गुणगान करने लगे। उसे बेशकीमती व मूल्यवान बताने लगे।

लोटे की इतनी प्रशंसा सुनकर अंग्रेज अधिकारी भी लोटे को खरीदने के लिए लालायित हो उठा। बस इसका ही फायदा पंड़ित बिलवासी मिश्रजी ने उठाया और रुपयों की बाजी लगानी शुरू कर दी। दोनों बाजी लगाते गये और अंत में पंड़ित बिलवासी मिश्र ने 250/- रूपये की बाजी लगा दी लेकिन अंग्रेज भी लोटे को लेने के लिए अत्यधिक लालायित था। इसीलिए उसने 500/- रूपये की बाजी लगा दी।

अब पंड़ितजी ने बड़ी होशियारी से अपनी लाचारी दिखाते हुए अंग्रेज अधिकारी से कहा कि उनके पास तो सिर्फ 250/- रूपये ही हैं। इसीलिए अधिक दाम चुकाने के कारण वो उस लोटे के हकदार हैं । अंग्रेज अधिकारी ने लाला से उस लोटे को खुशी – खुशी खरीद लिया।

अंग्रेज अधिकारी ने पंड़ित बिलवासी मिश्र को बताया कि वह उस अकबरी लोटे को ले जाकर अपने पड़ोसी मेजर डग्लस को दिखाएगा क्योंकि मेजर डग्लस के पास एक “जहाँगीरी अंडा” है जिसकी वह खूब तारीफ करता है।

अंग्रेज के जाने के बाद पंड़ितजी ने लालाजी को पैसे दिए जिससे लालाजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने पंड़ितजी को बहुत – बहुत धन्यवाद दिया। जब पंडित जी अपने घर जाने लगे तो लालाजी ने उनसे ढाई सौ रुपयों के बारे में पूछा लिया। मगर पंडित जी “ईश्वर ही जाने” कह कर अपने घर को चल दिए।

रात में पंड़ितजी ने अपनी पत्नी के संदूक से अपने मित्र की मदद के लिये निकाले ढाई सौ रुपयों को वापस उसी तरह , उसी संदूक में रख दिया और चैन की नींद सो गए।

कठिन शब्द अर्थ

  • रोब – अकड़
  • प्रतिष्ठा – इज्जत
  • गाथाएँ – कहानियाँ
  • दुम – पूंछ
  • विपदा – मुसीबत
  • खुक्ख – खाली हाथ
  • वेग – गति
  • ओझल – गायब
  • ईजाद – खोज