भोर और बरखा

पाठ 16 भोर और बरखा

कविता का सार - भोर और बरखा मीराबाई द्वार रचित पद है जिसमे पहले पद में उन्होंने सुबह के बारे में और दूसरे में वर्षा ऋतू के बारे में बताया है कवित्री ने यशोदा के माध्यम से कृष्ण को जगाने का प्रयास किया है वे कृष्ण को जगती हुए कहती है रात बीत गयी है सुबह हो गयी है दरवाज़े खुल चुके है गोपिया दही को मथकर मक्खन निकाल रही है उनके कंगना की झंकार साफ़ सुनाई  दे रही है उठों मेरे बेटे देवता और मनुष्य सभी दरवाज़े पे खड़े है ग्वाल बाल सब तुम्हारी जय जयकार कर रहे है उनकी बात सुन श्री कृष्ण उठ जाते है और हाथ में मख्खन रोटी ले गाय की रखवाली के लिए चल पड़ते है मीराबाई कहती है श्रीकृष्ण उनकी कृपा दर्ष्टि वालो का उद्धार करते है।

मीराबाई कहती है बदल गरजने लगे है व गरज कर बरसने लगे है सवां का आना श्रीकृष्ण के आगमन का संदेसा है जिससे वह प्रसन्न हो रही है बदल चरों ओर से उमड़ घुमड़ कर बरसने को आये है बीच बीच में बिजली भी चमक रही है वर्षा की छोटी छोटी बूंदे धरती पर पड़ रही है ओर ठंडी सुहावनी हवा चल रही है ऐसे में कवित्री अपने प्रभु के लिए मंगल गीत गाना चाहती है।

कठिन शब्द अर्थ

  • ठाड़े - खड़े रहना
  • चहु दिस - चारों  ओर
  • सुहावन - अच्छा लग्न
  • रजनी - रात
  • भयो - हो गयी
  • सबद - शब्द
  • उमग्यो - प्रसन्न होना
  • भनक - खबर
  • लावण - लाना
  • नागर - चतुर

कविता का अर्थ -

१  जागो बंसीवारे ललना!

जागो मोरे प्यारे!

रजनी बीती, भोर भयो है, घर-घर खुले किंवारे।

गोपी दही मथत, सुनियत हैं कंगना के झनकारे।।

उठो लालजी! भोर भयो है, सुर-नर ठाढ़े द्वारे।

ग्वाल-बाल सब करत कुलाहल, जय-जय सबद उचारै।।

माखन-रोटी हाथ मँह लीनी, गउवन के रखवारे।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सरण आयाँ को तारै।।

भोर और बरखा कविता का भावार्थ: मीरा बाई के इस पद में वो यशोदा माँ द्वारा कान्हा जी को सुबह जगाने के दृश्य का वर्णन कर रही हैं।

यशोदा माता कान्हा जी से कहती हैं कि ‘उठो कान्हा! रात ख़त्म हो गयी है और सभी लोगों के घरों के दरवाजे खुल गए हैं। ज़रा देखो, सभी गोपियाँ दही को मथकर तुम्हारा मनपसंद मक्खन निकाल रही हैं। हमारे दरवाज़े पर देवता और सभी मनुष्य तुम्हारे दर्शन करने के लिए इंतज़ार कर रहे हैं। तुम्हारे सभी ग्वाल-मित्र हाथ में माखन-रोटी लिए द्वार पर खड़े हैं और तुम्हारी जय-जयकार कर रहे हैं। वो सब गाय चराने जाने के लिए तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं। इसलिए उठ जाओ कान्हा!

२ बरसे बदरिया सावन की।

सावन की, मन-भावन की।।

सावन में उमग्यो मेरो मनवा, भनक सुनी हरि आवन की।

उमड़-घुमड़ चहुँदिस से आया, दामिन दमकै झर लावन की।।

नन्हीं-नन्हीं बूँदन मेहा बरसे, शीतल पवन सुहावन की।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर! आनंद-मंगल गावन की।।

भोर और बरखा कविता का भावार्थ: अपने दूसरे पद में मीराबाई सावन का बड़ा ही मनमोहक चित्रण कर रही हैं। पद में उन्होंने बताया है कि सावन के महीने में मनमोहक बरसात हो रही है। उमड़-घुमड़ कर बादल आसमान में चारों तरफ फैल जाते हैं, आसमान में बिजली भी कड़क रही है। आसमान से बरसात की नन्ही-नन्ही बूँदें गिर रही हैं। ठंडी हवाएं बह रही हैं, जो मीराबाई को ऐसा महसूस करवाती हैं, मानो श्रीकृष्ण ख़ुद चलकर उनके पास  आ रहे हैं।

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