पाठ 11 रहीम के दोहे

लेखक का परिचय - रहीम दास जी का पूरा नाम अब्दुल रहीम खान-ए-खाना है। रहीम दास जी एक कवि के साथ-साथ अच्छे सेनापति, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, कलाप्रेमी, साहित्यकार और ज्योतिष भी थे। रहीम दास जी मुगल बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक थे। रहीम दास जी अपने हिंदी दोहों से काफी मशहूर भी थे और इन्होने कई सारी किताबें भी लिखी थी।इनका जन्म 17 दिसम्बर 1556 को लाहोर में हुआ था।रहीम जी को अरबी, तुर्की और फारसी भाषा का ज्ञान थ। रहीम दास श्रीकृष्ण के भक्त थे।रहीम जी एक बात जो उन्हें सबसे अलग थी कि वो एक मुसलमान होते हुए भी भगवान श्री कृष्ण के बहुत भक्त थे। उनकी काव्य रचनाओं में भक्ति–प्रेम, नीति और श्रृंगार रस आदि का अधिक समावेश है। इनकी रचनाएँ पूर्वी अवधी, ब्रज और खड़ी बोली भाषाओं में अधिक है लेकिन ब्रज भाषा को मुख्य रूप से प्रयोग किया गया है। रहीम जी अपनी रचनाओं में तद्भव शब्दों को ज्यादा प्रयोग में लाये है, जिससे भाषा सरल, मधुर और सरस हो सके। इन्होंने बड़ी और गहरी बात को सरल से शब्दों में बताई है।रहीम जी की 11 रचनाएँ बहुत ही प्रसिद्ध है। रहीम जी के दोहे दोहावली नाम से संग्रहित है, जिनमें कुल 300 दोहे है।रहीम जी के दोहे जीवन की हर स्थिति जुड़े होते हैं। रहीम जी के दोहों में हर तरह की सीख होती है जिससे व्यक्ति को जीवन के हर पहलु का ज्ञान होता है। रहीम जी के दोहे जीवन की वास्तविकता का परिचय तो देते ही हैं , उसके साथ ही प्रेम , त्याग और जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में किस तरह सरलता से जीवन जीना चाहिए इसकी प्रेरणा भी देते हैं।रहीम जी भक्ति काल के कवि हैं।रहीम जी की मृत्यु 1 अक्टूबर 1627 (उम्र 70) को चित्रकूट में हुई थी।

कविता का सार -

रहीम दास जी ने अपने दोहों में बताया है की जब धन पास हो तो सभी मित्र बन जाते है पर असली मित्र की पहचान मुसीबत में ही होती है, इसी प्रकार अधिक मोह ममता भी घातक होती है जैसे मछली जब जाल में फसती है तब पानी छानकर बाहर हो जाता है परन्तु उसे पानी से इतना प्रेम होता है की उसके बिना उसके प्राण चले जाते है उसे प्राणो से हाथ धोना पड़ता है ,एक सज्जन पुरुष की भी विशेषता यह है की वह अपने लिए धन कभी संचित नहीं करता बल्कि दूसरो की मदद के लिए वह  इसे संचित करता है बिलकुल उसी प्रकार जैसे पेड़ अपना फल नहीं खाता न ही तालाब अपना पानी पीता है , रहीम जी ने गरीब व्यक्तियों की तुलना अश्विन के गरजते बादलों से की है गरीब लोगों की सुख के दिनों की बाते करना व्यर्थ है जैसे अश्विन के बिना बरसते बादल केवल गरजते बादल आगे कहते है जैसे धरती गर्मी सर्दी तूफ़ान , बरसात सबका सामना बिना किसी परेशानी के करती  है उसी प्रकार मनुष्य को भी सभी परीस्थियों का सामना करना चाहिए।

कठिन शब्द अर्थ

  • बिपति - कसौटी - मुसीबत के समय
  • साचें - सच्चा
  • मीत - मित्र
  • तजि - छोड़ देना
  • नीर -  जल
  • तरुवर - पेड़
  • सरवर - तालाब
  • सँचहि - बचाना
  • थोथे - बेकार
  • देह - शरीर

दोहों  का अर्थ -

दोहा – कहि ‘ रहीम ’ संपति सगे , बनत बहुत बहु रीति।

बिपति – कसौटी जे कसे , सोई सांचे मीत॥

अर्थ - रहीम जी इस दोहे में कहते हैं कि हमारे सगे – संबंधी जो होते है वह सम्पति के हे सेज होते है जो दिखावा करते है सेज सम्बन्धी होने का।   सगे – संबंधी भी बहुत सारे रीति – रिवाजों के बाद बनते हैं। परंतु जो व्यक्ति मुसीबत में आपकी सहायता करता है या आपके काम आता है , वही आपका सच्चा मित्र होता है। सच्चा मित्र वही है जो मुसीबत में आपका साथ न छोड़े।

जाल परे जल जात बहि , तजि मीनन को मोह।

‘रहिमन ’ मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥

अर्थ -सच्चा प्रेम वही है जो किसी भी स्थिति में आपका त्याग न करे और अंत तक आपके लिए ही जिए और आपके बिना प्राण तक त्याग दे।

इस दोहे में रहीम जी यही कहते है की जिस प्रकार एक मछली जाल में फस्ती है तो उसे जल से बहुत प्यार होता है जाल में से पानी छानकर अलग हो जाता है परन्तु वह उससे मोह करना नहीं छोड़ती बल्कि उसके प्रेम में प्राण त्याग देती है।

दोहा – तरुवर फल नहिं खात है , सरवर पियहि न पान।

कहि रहीम पर काज हित , संपति सँचहि सुजान॥

अर्थ -हमें अपनी धन – सम्पति का प्रयोग केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि समाज के कल्याण के लिए भी करना चाहिए। तभी समाज का चहुमुखी विकास संभव है।ठीक उसी प्रकार जैसे पेड़ अपना फल नहीं खता है तालाब अपना पानी नहीं पीता है वह दूसरो को इससे लाभ पहुँचता है उसी प्रकार मनुष्य को भी अपनी सम्पत्ति का प्रयोग दूसरों की भलाई के लिए हे करना चाहिए।

थोथे बादर क्वार के , ज्यों ‘ रहीम ’ घहरात ।

धनी पुरुष निर्धन भये , करैं पाछिली बात ॥

अर्थ -जिस प्रकार सर्दी के महीने में आश्विन मॉस में बदल गरजते है बरसते नहीं उसी प्रकार कंगाल व्यक्ति यदि अमीरी की बात करे तो उसकी बाते खाली हे होती है सही समय पे काम न करना पे बाते मिलाना व्यर्थ है।

धरती की सी रीत है , सीत घाम औ मेह ।

जैसी परे सो सहि रहै , त्‍यों रहीम यह देह॥

अर्थ -जिस प्रकार धरती सर्दी बरसात गर्मी सभी मौसम की परीस्थियों को झेल लेती है मनुष्य को भी इसी प्रकार होना चाहिए जो सभी प्रकार की परिस्थियों को झेलने जैसा होना चाहिए की बिना किसी तकलीफ के सब झेल सके संतोषी उसका व्यहार होना चाहिए।